Saturday, July 7, 2012

जुल्‍म का चक्‍का और तबाही : छतीसगढ़ के बाद झारखंड!

http://mohallalive.com/2012/07/07/exclusive-voluminous-report-from-jharkhand/

 आमुखरिपोर्ताजसंघर्ष

जुल्‍म का चक्‍का और तबाही : छतीसगढ़ के बाद झारखंड!

7 JULY 2012 NO COMMENT

♦ प्रशांत राही और चंद्रिका


रांची के पास नगड़ी में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ पुलिस और आदिवासियों के बीच दो दिन पहले हुआ संघर्ष।
तस्‍वीर सौजन्‍य : सत्‍य प्रकाश चौधरी

बिहार से अलग होकर झारखंड को राज्य बने एक दशक से ज्यादा बीत चुका है। इस दौरान राज्य ने विस्थापन-विरोधी जनसंघर्ष और राजकीय सैन्य दमन की एक नयी सूरत देखी है। एक ओर जल, जंगल, जमीन के अधिकार को लेकर तेज होते अनेक जन संघर्ष, तो दूसरी ओर 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' के नाम से केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा संयुक्त रूप से संचालित राजकीय दमन की जोरदार मुहिम। 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' देश के अलग-अलग राज्यों के मुख्यतः आदिवासी-बहुल इलाकों में चलाया जाने वाला एक ऐसा अभियान है, जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार ने विभिन्न प्रादेशिक सरकारों के साथ मिलकर पिछले दो-तीन सालों से सीआरपीएफ, कोबरा और विभिन्न क्षेत्रीय नामों से सैन्य बलों को माओवादियों को निशाना बनाने की कार्यवाही के लिए लगाया हुआ है। माओवादियों को निशाना बनाने के लिए चलाये जा रहे इस अभियान के तहत अन्य जन आंदोलनों का दमन भी पहले से ज्यादा तीव्रता के साथ हो रहा है।

यह राज्य द्वारा बढ़ता सैन्यीकरण किसी युद्ध की तैयारी जैसा लगता है। जैसे राज्य "अपने" ही लोगों के खिलाफ 'लो इंटेंसिटी कानफ्लिक्‍ट' (निम्न तीव्रता वाली जंग) में उलझा हो। झारखंड के गांवों में सैन्य बलों के इस अभियान के तहत आगजनी, घरों के उजाड़े जाने और दमन के तमाम रूपों की जो खबरें बड़े महानगरों तक छन-छन कर आती हैं, उनकी तह में जाने की जरूरत लंबे समय से रही है। इन खबरों ने लोकतांत्रिक दायरों में स्वाभाविक तौर से इन चिंताओं को जन्म दिया है कि कहीं कारपोरेट लालच के चलते खनिज संपदाओं से सर्वाधिक समृद्ध इस राज्य के गांवों से लोगों को विस्थापित तो नहीं किया जा रहा है? युवा अब अपनी आजीविका के साथ ही सुरक्षा के खातिर भी अन्य राज्यों की ओर पलायन करने को मजबूर तो नहीं कर दिये जा रहे हैं? छत्तीसगढ़ के सलवा जुडूम की तर्ज पर क्या यहां भी माओवादियों की खोज के नाम पर आदिवासियों का दमन तो नहीं हो रहा?

केंद्र और राज्य सरकार, दोनों के ही सुरक्षा बलों का बीते दिनों कई गुना विस्तार हुआ है। फिर भी क्रमशः कानून और व्यवस्था राज्य के हाथ से केंद्र अपने हाथ में ले रहा है। हमने देखा कि आधुनिक हथियारों से लैस अर्द्धसैनिक बलों के कैंप ज्यादातर स्कूलों और कॉलेजों में ही जगह घेर बैठे हैं। इनके अलावा जगह-जगह अब अलग से बड़े-बड़े स्थायी कैंपों का निर्माण भी होता दिखाई देता है। हमें पता चला कि सीआरपीएफ ने यहां के स्थानीय पुलिस बल के हाथों से उनके अधिकार छीनना शुरू कर दिया है। बदले समीकरणों का अंदाजा तथ्य संकलन के दौरान इस खुलासे से भी हुआ कि ट्रैफिक पुलिस के काम को कुछ जगह सीआरपीएफ ने अपने हाथों में ले लिया है। स्थानीय पुलिस की भूमिका क्रमशः नगण्य होती जाने की संभावना यहां वास्तविक है। हजारों की तादाद में झारखंड सशस्त्र पुलिस (जैप), झारखंड जैग्वार, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), कमांडो बटालियन फार रेजोल्यूट एक्शन (कोबरा) आदि बलों की तैनाती और 'काउंटर इंसर्जेंसी एवं जंगल युद्ध कौशल प्रशिक्षण स्कूल' की स्थापना ने झारखंड को देशव्यापी 'ऑपरशन ग्रीन हंट' के नक्शे पर लक्षित प्रमुख राज्यों की अगली कतार में ला खड़ा किया है। सीडीआरओ के तत्वावधान में गठित हमारा जांच दल जनता के खिलाफ उग्रतर होते इस युद्ध की जमीनी हकीकत से रूबरू होकर जनजीवन की सुरक्षा के पहलुओं के मद्देनजर कोई सामान्य समझदारी विकसित करने निकला था।

ऐसी स्थिति में हमारे दल के सामने अपनी जांच के संदर्भ में फौरी तौर पर यह सवाल था कि देश की आतंरिक सुरक्षा खतरे में होने का दावा कर सुरक्षा के उपाय के तौर पर छेड़े गये इस ऑपरेशन का जमीनी स्तर पर क्या असर पड़ रहा है? कभी सुरक्षा तो कभी विकास के नाम पर क्या आदिवासियों के लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है? आम झारखंडी की सुरक्षा बढ़ने के बजाय क्या उस पर सरकारी बलों के आतंक का साया तो नहीं मंडरा रहा है? जहां-जहां मानवाधिकारों को पैरों तले रौंदा गया है, उस अन्याय और अत्याचार को रोकने और दुरुस्त करने की क्या संभावनाएं दिखाई देती हैं? क्या पिछले जांच दलों के दौरों या किसी भी प्रकार शिकायतें दर्ज किये जाने के बाद कोई भरपाई या कोई भी सकारात्मक कार्यवाही हुई है? क्या पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर जवानों तक के दोष-निवारण के कोई उपाय किये जा रहे हैं? क्या भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद है?

इस पूरे परिदृश्य के गर्भ में लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ में यह सवाल भी पल रहे हैं कि ऑपरेशन ग्रीनहंट के बाद से यहां का जन आंदोलन आज कहां खड़ा है? क्या यह परिस्थिति झारखंड को सचमुच गृह युद्ध की ओर धकेल रही है? अगर हां, तो इस युद्ध के क्या कोई नियम भी होंगे? अगर आज ऐसे नियमों के कोई आसार न दिख रहे हों, तो भी भविष्य में किसी प्रकार के लोकतांत्रिक और लोकपक्षीय समाधान के तौर पर दोष-निवारण का क्या कोई मेकैनिज्म (प्रणाली) इजाद किया जाएगा?

उपरोक्त फौरी सवालों का जवाब ढूंढने और भविष्य के सवालों के संदर्भ में न्यूनतम समझदारी विकसित करने की मंशा से आयोजित इस जांच में सबसे पहले झारखंड के पश्चिमी छोर पर छोटा नागपुर पठार की पीठ पर बसे तीन जिलों का व्यापक दौरा किया गया। जिस दौरान कुछ गांवों में कुछ परिवारों के साथ विस्तृत बातचीत की गयी। इस पहले चरण में पलामू को छूते हुए मुख्यतः लातेहार और गढ़वा जिलों में स्थानीय मानवाधिकार संगठनों की मदद से चिन्हित किये गये मानवाधिकार उल्लंघन के लगभग दर्जन भर मामलों से संबंधित तथ्य जुटाये गये। विभिन्न राज्यों में नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत संगठनों और व्यक्तियों को लेकर गठित की गयी इस अखिल भारतीय टीम का पहला दौरा 25 मार्च 2012 की सुबह प्रदेश की राजधानी रांची से आरंभ हुआ और लौटकर 30 मार्च को उसी शहर में आयोजित पत्रकार वार्ता के साथ समाप्त हुआ। जहां जांच दल ने अपने अंतरिम निष्कर्ष लिखित और मौखिक रूप से पेश किये। इसके अगले चरण में जांच दल ने 20-23 मई 2012 को सारंडा और उससे जुड़े पोड़ाहाट क्षेत्र का दौरा किया। सारंडा पहाड़ों और जंगलों में बसे गावों का वही दूरस्थ क्षेत्र है, जहां सरकारी बलों ने ऑपरेशन ग्रीनहंट के तहत अगस्त 2011 में ऑपरेशन एनाकोंडा के नाम से केंद्रीकृत सघन सैन्य कार्रवाई चलायी थी। आज भी लगातार सैन्य बलों द्वारा गांवों में क्रूर दमन और लूटपाट जारी है। दोनों दौरों की संयुक्त रिपोर्ट भाग एक और दो के रूप में इस पुस्तिका में शामिल है। जिससे अपने को लोकतांत्रिक कहने वाले भारतीय राज्य के तमाम दावों की सच्चाइयां और उसके पीछे निहित आशय उघड़ कर सामने आ सकते हैं।

अपने इन दौरों से देश को झारखंड में जन जीवन की सुरक्षा से संबंधित हालात से वाकिफ कराने के लिए सीडीआरओ के तत्वावधान में निकले दो जांच दलों में से पहले में निम्न संगठनों के निम्न व्यक्ति शामिल रहे:

शशि भूषण पाठक, अलोका कुजूर एवं लिक्स रोज (पीयूसीएल, झारखंड), अफजल अनीस (यूनाइटेड मिल्ली फोरम, झारखंड), इप्सिता पति (संवाददाता, 'द हिंदू', रांची), शाहनवाज आलम एवं राजीव यादव (पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश), गौतम नवलखा एवं मेघा बहल (पीयूडीआर, दिल्ली), नरसिम्हा रेड्डी (ओपीडीआर, आंध्र प्रदेश), अमर नंद्याला (ह्यूमन राइट्स फोरम, आंध्र प्रदेश), मनिश्वर (कमेटी फार पीस एंड डेमोक्रेसी, मणिपुर, दिल्ली) और वर्धा, महाराष्ट्र से चंद्रिका एवं उत्तराखंड से प्रशांत राही (दोनों स्वतंत्र पत्रकार)। विभिन्न स्थानों पर मुख्यतः पीयूसीएल के स्थानीय मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और विभिन्न समाचार पत्रों एवं न्यूज चैनलों के संवाददाता इस दौरे में शामिल होते रहे। उनके प्रति पूरा सम्मान और आभार प्रकट करते हुए हमें यह खेद है कि उनकी अधिक संख्या और स्थानाभाव के चलते सब के नाम दर्ज करना फिलहाल संभव नहीं हो पा रहा है।

जांच के दूसरे, अर्थात सारंडा-पोडैयाहाट क्षेत्र में जाने वाले दल में शशि भूषण पाठक, आलोका कुजूर, मिथिलेश कुमार एवं संतोष यादव (पीयूसीएल, झारखंड), पुनीत मिंज (झारखंड माइंस एरिया को-आर्डिनेशन कमेटी – जमैक), चिलुका चंद्रशेखर, नारायण राव एवं आर। राजनन्दम (एपीसीएलसी, आंध्र प्रदेश), प्रीतिपाल सिंह एवं नरभिंदर सिंह (एपीडीआर, पंजाब), शाहनवाज आलम एवं राजीव यादव (पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश), गौतम नवलखा, मेघा बहल एवं श्रुति जैन (पीयूडीआर, दिल्ली) और वर्धा, महाराष्ट्र से चंद्रिका एवं उत्तराखंड से प्रशांत राही (दोनों स्वतंत्र पत्रकार) शामिल थे। इस चरण में कुछ-एक सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से न्यूनतम स्थानीय मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।

दो चरणों में जमीनी जांच करने वाले उपरोक्त दल के सामूहिक निर्णय के अनुसार नियुक्त की गयी लेखकों की टीम ने 26 जून, 2012 को इस रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया। जांच दल के इन सर्वसम्मति से चुने हुए लेखकों की समझ से यह रिपोर्ट झारखंड के जमीनी यथार्थ को बिना किसी लाग-लपेट के, तथ्यपरक रूप से प्रस्तुत करती है। परंतु सीडीआरओ नामक जिस संस्था के तत्वावधान में यह जांच आयोजित हुई, उसके नेतृत्व की ओर से इसे हूबहू प्रकाशित करने या न करने को लेकर पूरे एक सप्ताह तक ऊहापोह की स्थिति बनी रही। यह स्थिति स्वतंत्र मानवाधिकार संगठनों के इस साझे मंच के भीतर की नीतिगत बहसों से उपज रही थी। चूंकि सीडीआरओ नीतिगत कारणों से इस रिपोर्ट की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हो पा रहा था, अतः इसे तैयार करने वाले लेखकों में भारी असंतोष का पनपना स्वाभाविक था। नीतिगत बहस का मुख्य मुद्दा इस रिपोर्ट में शामिल माओवादी नेताओं का साक्षात्कार बताया जा रहा था। चूंकि मानवाधिकार कार्यकर्ता इस सवाल पर बंटे रहे कि जांच के दौरान अप्रत्याशित रूप से हमारे सामने पड़े माओवादियों से पूछे गये अपने सवालों के जवाब अपने इस साझे मंच के तत्वावधान में सार्वजनिक कैसे किये जाएं, अतः हम कुछ लेखकों ने इसे सार्वजनिक करने का साहस करने का व्यक्तिगत फैसला कर लिया। पहले से ही काफी विलंबित इस रिपोर्ट को और अधिक लटकाये जाने की संभावना देख, हम अंततः आज इसे सार्वजनिक करने जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के बीजापुर क्षेत्र में हुई ताजा घटना के मद्देनजर झारखंड में डेढ़ से लेकर साढ़े तीन माह पहले तक हुई इस जांच की रिपोर्ट पर पर्दा उठा देना हमें अब निहायत जरूरी मालूम हो रहा है। किसी संगठन विशेष के अपने फैसलों और देश के पैमाने पर आम जन के हित के बीच किसको वरीयता दी जाए? इसी बात को लेकर दुविधा के लंबे दौर से गुजरने के बाद इस तथ्यपरक रिपोर्ट को आखिरकार शोषित-उत्पीड़ित आदिवासी जनता के नाम समर्पित किया जा रहा है।

पूरी रिपोर्ट पढ़ें……..आतंक के साये में आम झारखंडी

(प्रशांत राही। वरिष्‍ठ पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता। बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री। द स्‍टेट्समेन के संवाददाता के तौर पर पत्रकारीय करियर की शुरुआत। पिछले कई वर्षों से उत्तराखंड में एक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय। पुलिस ने फर्जी मामले में माओवादी बता कर इन्‍हें गिरफ्तार किया और लंबी कानूनी लड़ाई के बाद प्रशांत जेल से छूट पाये। उनसे r.prashant59@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

chandrika(चंद्रिका। पत्रकार, छात्र। फ़ैज़ाबाद (यूपी) के निवासी। बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय के बाद फिलहाल महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में अध्‍ययन। आंदोलन। मशहूर ब्‍लॉग दखल की दुनिया के सदस्‍य। उनसे chandrika.media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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