क्षितिज शर्मा
मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ : महुआ माजी; पृष्ठ: 402; मूल्य : रु. 495 ; राजकमल
ISBN 9788126722358
महुआ माजी के पहले उपन्यास 'मैं बोरिशाइल्ला' के बाद दूसरा उपन्यास आया है—'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ'। यह औपन्यासिक कृति अपने आप में आदिवासी जीवन की कई बारीकियों और जंगल जीवन के यथार्थपरक तथ्यों में शोध को ज्यादा महत्त्व देता प्रतीत होता है। हालांकि शोध की प्रवृत्ति के कारण उपन्यास में रोचकता भी है और कहीं-कहीं पर यह विस्तार का शिकार होकर रोचकता को खत्म करता मालूम होता है। यह विस्तार आदिवासी जीवन को सूक्ष्मता से कहने में उसकी जीवनशैली, जंगल से उनकी अंतरंगता और उनके रीति-रिवाज जिसने उनके विश्वासों और जीवन दृष्टि को मजबूती दी है, में कहीं-कहीं जरूरत से ज्यादा विस्तार पा गई है। पढऩे के बाद लगता है यह विस्तार शायद उपन्यास के गठन के लिए जरूरी था। प्राय: हिंदी उपन्यास हासिए की गिनती से छिटक गया लगता है। विचार के नए विषय जो उपन्यास में आ गए हैं—आधुनिक जीवन की विसंगतियों ने उपन्यास की भाषा और शिल्प में इतना परिवर्तन ला दिया है कि भारतीय जीवन का अधिकांश हिस्सा जो उपेक्षा, तंगहाली में व्यतीत हो रहा है वह उपन्यासों के गठन से छूटता जा रहा है। इस उपन्यास पर इस मायने में भी विचार करना जरूरी लग रहा है। आधुनिकता की दौड़ में विचार और शैलियां जीवन को जो अर्थ देने लगी हैं, आदिवासी उसमें ठगे से रह जा रहे हैं और अपनी जमीन से काट दिए जा रहे हैं। तर्क यह है कि विकास की रफ्तार जरूरी है। पर सवाल यह है किसके लिए और किसकी कीमत पर। उपन्यास का मूल विचारणीय सवाल यही है।
उपन्यास का आरंभ जाम्बीरा से होता है। यानी सारंग-अर्थात सात सौ पहाडिय़ों के जंगल में रहने वाले आदिवासियों के प्रतिनिधि जाम्बीरा से। जाम्बीरा की पीढ़ी जंगल और प्रकृति के साथ अपनी अंतरंगता के साथ जिन तथ्यों और सत्यों को पीढ़ी दर पीढ़ी खोज पाई है और जिसने उनके विश्वासों और जीवन यापन की शैली को विकसित किया है, आसन्न आ रहे संकटों से अपरिचित हैं। बाहरी आदमी का आगमन उन्हें कुछ विकसित तो करता है पर आश्चर्य के साथ उम्मीद भी जगाता है। यह उम्मीद अपनी साधनहीनता के कारण कुछ प्राप्ति की आशा है। अपने भोले स्वभाव के कारण वह चालाकियों को भांप नहीं पाता। यही कारण है जाम्बीरा अपने पोते जिसका नाम उसने सगेन रखा है—सगेन माने फुंगनी। फुंगनी जो अपने आप आसानी से नहीं टूटती। जंगल और जंगलवासियों के जीवन में हरियाली लाती है। बाहरी लोगों के प्रभाव में जाम्बीरा चाहता है उसका पोता सगेन पत्थरों का डॉक्टर बने। पत्थरों का डॉक्टर वह प्रतीक है जो आदिगीदन में परिवर्तन और संकट लाने का माध्यम बनते जा रहा है। लेकिन आदिवासी इससे पूर्णत: अपरिचित हैं। साथ ही बाहरी लोगों की सोच से अचंभित हैं और उसे विकास का कोई अदृश्य मानदंड मानकर अपनी आगे वाली पीढ़ी के लिए उन्नति का मार्ग समझ रहे हैं।
असल में यह पत्थरों की डॉक्टरी, जिसे आदिवासी बाहरी लोगों की बुद्धि का कमाल मान रहे हैं कि कैसे वे पत्थरों को खोजकर, परखकर उसमें से उपयोग 'पदार्थ' को जान लेते हैं। वे नहीं जानते कि उनके जिस कौशल को ये अपार बुद्धिमता मान रहे हैं और अपनी अगली पीढ़ी को उसी राह पर चलता देखना चाहते हैं। वह कितना खतरनाक है। उन्हें बहुत बाद में पता चलता है, अब जंगल का इलाका खदानों का इलाका हो गया है। जिसमें लौह खदानों से लेकर यूरेनियम की खदानें शामिल हैं। स्वाभाविक था कि इससे प्रदूषण बढ़ा, विस्थापन बढ़ा और विकिरण के खतरे व्यापक स्तर पर बढ़ गए। जब तक आदिवासी समझ पाते इलाका खदानों की समर भूमि बन चुका था। विकिरण, विस्थापन और प्रदूषण के खतरे मुंह फैला चुके थे।
यहां तक की यात्रा में उपन्यास मूल कथा के साथ-साथ आदिवासी जीवन और उनके विश्वासों और उससे उत्पन्न रीति-रिवाजों को भरता जाता है। रीति-रिवाजों और विश्वासों के वर्णन की अतिरंजना उपन्यास के आकार को तो बढ़ा देती है पर विस्तार से ही सही आदिवासी जीवन को लगभग हर कोण से कह गई है। खदानों, प्रदूषण, विकिरण और विस्थापन और आदिवासियों की समस्याओं का अंतर्संबंध धीरे-धीरे परिवर्तन की बहार का भयंकर रूप सामने ला देता है। इसमें आदिवासियों की छटपटाहट बढऩे लगी है। इस छटपटाहट को उनका अज्ञान उन्हें यह तो महसूस करा देता है कि उनके साथ छल-कपट जैसा कुछ हो रहा है, पर यूरेनियम और उसका कचरा जीवन में लगातार जहर घोलता जा रहा है, इसका अहसास अब भी नहीं हो रहा है। न ही इसके खतरों के बारे में उन्हें सावधान किया जा रहा है। यह तथ्य अपने आप में सूचना देता है कि तथाकथित विकास पुरुषों के लिए वे मनुष्य नहीं हैं, काम के लिए उपयोगी एक वस्तु हैं। साफ था कि उनकी यह छटपटाहट असंतोष में बदलनी थी और अंतत: उसे एक आंदोलन का रूप लेना था।
आदिवासियों की यह सिंहभूमि एक प्रतीक है उनके विगत जीवन का, और चालाकी, छल-कपट से उसके विस्थापन और विकिरण की चपेट में आने का। असल में यह पूरे संसार के आदिवासियों की माया है जिसे तथाकथित सभ्य समाज ने विकास के अपने मापदंडों की पूर्ति के लिए उसे पतन की ओर धकेल दिया है। विगत जीवन को कहने का अभिप्राय यहां यही था कि प्रकृति के निकट के जीवन की अपनी विशेषताएं हैं, अपनी स्वच्छंदता है। जब विकास और सत्ताओं की नजर वहां पड़ी तो उन्हें लगा जीवन तो यहां का बेकार है—किसी योग्य गिनती में लेने योग्य नहीं। लेकिन यहां के जंगलों और जंगलों के नीचे इतनी संपत्ति है कि उसका दोहन हमारी समृद्धि को बहुत बढ़ा सकता है। इस सोच में यह मान लिया गया कि नगण्य जीवन के बारे में क्या सोचना। हमारे सभ्य विकसित समाज में इसके मायने भी क्या हैं। यह सोच दुनिया के हर विकसित देश और समाज में घर कर गई। इसी का परिणाम था कि इस समाज को तुच्छ मानने की प्रवृत्ति ने एक ऐसा आंदोलन शुरू किया कि इस समाज की ओर देखने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई।
उपन्यास की कथा के विकास के लिए लेखिका ने बड़ा शोध किया है। तथ्यों की जानकारी का अंबार उसके पास आ गया है। जैसे आदित्यश्री से लेखिका कहलाती हैं, ''परमाणु संयंत्रों में एक हजार मेगावाट बिजली पैदा करने से करीब 27 किलोग्राम रेडियोधर्मी कचरा उत्पन्न होता है और उसे निष्क्रिय होने में एक लाख साल से ज्यादा लग जाते हैं। ये सूचनाएं कथा को विस्तार और अर्थ देने के लिए हैं। यह अलग बात है कि कई बार यह विस्तार अनावश्यक सा हो जाता है और कथा की रोचकता को कम करने लगता है। पर यह अनावश्यक सा लगने वाला विस्तार ही जो शोधपरक सूचनाएं इकट्ठी कर देता है यह उपन्यास के केंद्रीय बिंदु को व्यापक अर्थ देकर विनाश के उपकरणों के यथार्थ का खुलासा भी कर जाता है।
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