Sunday, July 8, 2012

Fwd: [New post] आलोचना : उपन्यास यथार्थ और अस्मिता



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/7/8
Subject: [New post] आलोचना : उपन्यास यथार्थ और अस्मिता
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आलोचना : उपन्यास यथार्थ और अस्मिता

by समयांतर डैस्क

वैभव सिंह

आधुनिक हिंदी उपन्यास-दो: संपा.: नामवर सिंह; पृ.: 432; मूल्य: 600 रु.राजकमल प्रकाशन

ISBN : 9788126718658

Adhunik-Hindi-Upanyas-2हर देश में उपन्यास की संस्कृति विकसित होने या न होने की अपनी-अपनी ऐतिहासिक वजहें रही हैं। भारत संसार के उन चंद भाग्यशाली देशों में रहा है जहां उपन्यास लेखन व उपन्यास के पढऩे की बड़ी लोकप्रिय संस्कृति का विकास हुआ। मध्यवर्ग, परिवर्तन, अपराध, परिवार, रिश्ते और क्रांतियां जितने सूक्ष्म ढंग से उपन्यासों के माध्यम से व्यक्त हुए हैं, उतना किसी भी अन्य विधा या लेखन के अन्य रूपों में नहीं। समाज के राजपथ को छोड़कर अनदेखी पगडंडियों पर चलने का हौसला उपन्यासों ने ही दिखाया है। भारत में लेखकों ने विशाल सामाजिक तथा राष्ट्रीय प्रक्रियाओं को समेट कर उपन्यासों के कथानकों में प्रतिबिंबित करने में दुर्लभ सफलताएं प्राप्त की हैं।

वैसे देखा जाए तो भारत में उपन्यासों को लेकर दोहरा दृष्टिकोण रहा है। एक स्तर पर उपन्यासों को पढऩा बुरा माना जाता था क्योंकि उपन्यास बहुत सारे निषिद्ध, अवैध और गोपनीय समझे जाने वाले जीवन के पहलुओं को व्यक्त करते थे। उपन्यास लिखने वालों को ही नहीं बल्कि पढऩे वालों को भी संदिग्ध समझा जाता था। वहीं, दूसरी ओर उपन्यासों को न पढऩे वाले या उनका आनंद न उठा सकने वाले लोगों को मूर्ख-अज्ञानी तक समझ लिया जाता था। ऐसे लोगों की सुरुचि संपन्नता पर संदेह किया जाता था जो टैगोर, बंकिम या शरदचंद आदि के उपन्यासों को नहीं पढ़ते हैं। इसका कारण यह भी था कि उपन्यास केवल भावाभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहा है, बल्कि हर उपन्यास गहरे शोध, जानकारियों के संकलन तथा विशाल जीवनानुभवों के आधार पर लिखे जाते हैं। उसकी कला एक परिष्कृत बौद्धिकता के संयोग से निर्मित होती है, न कि क्षणजीवी भावों या अल्पजीवी दृश्यों के संकलन से। भारत में उपन्यासों का तेजी से विकास होने की एक बड़ी वजह यह भी रही है कि यहां रचनाशीलता और कथा-वाचन की हजारों साल पुरानी परंपरा मौजूद थी। आधुनिक काल में जब समाज में तेजी से लोकतांत्रिक खुलापन विकसित होने लगा तो लोकतंत्र की प्रतिध्वनियों, विचारों और आकांक्षाओं को उपन्यास ने तेजी से आत्मसात कर लिया। उपन्यास का सृजन एक नए समाज की निर्माणशीलता के मिशन या उस मिशन से भयावह मोहभंग की मन:स्थिति का भी हिस्सा बन गया। जाहिर है कि उपन्यास और उसकी गहन सृजनशीलता को वे लोग नहीं समझ सकते जो अंग्रेजी में घटिया मुहावरे को दोहराते हैं कि एक उपन्यास लिखने की श्रमसाध्य प्रक्रिया से गुजरने से अच्छा है कि कुछ डालर देकर उसे खरीद लिया जाए।

अगर 19वीं सदी अंग्रेजी उपन्यासों के मामले में स्वर्णिम सदी थी तो 20वीं सदी भारतीय उपन्यास लेखन के मामले में स्वर्णिम सदी बनी। पर 20वीं सदी का आरंभ जहां उपन्यासों के राष्ट्रवाद तथा सुधार से संबंध को सूचित करता था, वहीं उसका अंत मुख्य रूप से राष्ट्रवाद की सीमाओं और नए यथार्थ बोध से जाकर जुड़ गया। यह नया यथार्थबोध और राष्ट्रवाद की सीमाओं को उपन्यासों ने कैसे उजागर किया, इसके अध्ययन में आधुनिक हिंदी उपन्यास (संपादक-नामवर सिंह) में संकलित औपन्यासिक विचार विमर्श तथा समीक्षाएं हमें कुछ मदद अवश्य करती हैं।

हमने पिछले 20-30 साल में उपन्यास की समीक्षा तथा सफलता की जो कसौटियां बनाई हैं, उनमें अस्मितावाद और क्षेत्रीयता की अभिव्यक्ति को सबसे अहम माना है। मसलन कि उपन्यास दलित स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि की बातें करता है या नहीं। या उसमें विंध्य, बुंदेलखंड, उत्तराखंड, उत्तर-पूर्व की भाषाई संस्कृति और जीवन का क्या असर तथा प्रभाव है। उपन्यास का समाजशास्त्रीय अध्ययन तो ठीक है पर जब हम उसकी पूरी कला और 'इंटेंसिटी' को समाजशास्त्र के दस्तावेज की तरह प्रस्तुत करने लगते हैं, या हम मान लेते हैं कि वह हमारे वक्त के राजनीतिशास्त्र तथा समाजशास्त्र का ही विस्तार हो तो शायद हम उपन्यास जैसी विधा के साथ अन्याय करने लगते हैं। इस किताब की भूमिका में वीरेंद्र यादव के शब्द उपन्यास के इसी अवमूल्यन को बढ़ावा देते लगते हैं। यकीन नहीं आता कि इस हद तक जाकर समाजशास्त्र और उपन्यास को एक दूसरे का पर्याय मानकर देखा जा सकता है। या साहित्य का समाजशास्त्र विकसित होते-होते अब इस बिंदु पर पहुंच गया है कि साहित्य को ही हम समाजशास्त्र बनते देखने की घोर रचनाविरोधी मानसिकता के शिकार हो चले हैं। पिछले बीस साल के उपन्यासों पर उनका वाक्य देखिए- 'कहा जा सकता है कि इस दौर में उपन्यास महज साहित्यिक संरचना न रहकर सामाजिक संरचना के रूप में भी अधिक पुष्ट और समृद्ध हुआ है।' क्या सुंदर शब्द है जो हिंदी आलोचना में चलता है- संरचना। संरचना में यह अर्थ भी निहित है कि वह वस्तु के ठोस, यथातथ्य रूप को उद्घाटित करती है। पर जो संरचनावाद आया उसने ऐतिहासिकता को नकारा भी। कहीं ऐसा तो नहीं विमर्शवाद वाली सामाजिकता अपनी हड़बड़ी में इतिहास के खास तरह के और चुने हुए नकार पर टिकी हो और इसीलिए ऐसा लगने लगा हो कि अबका साहित्य ही सही मायने में सामाजिक संरचना बन पाया है और उसने ही समाज को ज्यादा प्रमाणिक अभिव्यक्ति बनाया है। पर उपन्यास मूलत: अगर कला है तो यह कहना अनावश्यक माना जाना चाहिए कि वह सामाजिक संरचना बन रहा है क्योंकि हर उपन्यास समाज की ही उपज है। अन्ना-कैरेनिना हो, मादाम बावरी, यूलेसिस, अपराध और दंड या गोदान जैसा सघन सामाजिक चेतना वाला उपन्यास, समाज की संरचनाएं उनमें हमेशा से उपस्थित रही हैं। इसलिए यह आकस्मिक निष्कर्ष निकालना विवेकसंगत नहीं प्रतीत होता कि जो उपन्यास पहले केवल साहित्यिक संरचना था वह अब किसी सामाजिक संरचना के रूप में ढल रहा है।

बात से लगता है कि इससे पहले की पूरी उपन्यास परंपरा बडी साहित्यिक थी और अब सामाजिक संरचना के आग्रहों ने उसे उबार लिया। अब ऐसा करके हिंदी उपन्यास की समृद्ध परंपरा को अनदेखा किया जा रहा है या उस परंपरा की अवहेलना की जा रही है, इसे ज्यादा ठीक से वीरेंद्र यादव बता सकते हैं या पुस्तक के मुख्य संपादक नामवर सिंह। पर इतना तो तय है कि हमने यथार्थवाद और सामाजिकता के जो प्रतिमान गढ़े थे मूल्यांकन के लिए, उनका 'ओवरयूज' करके हमने उन प्रतिमानों की सेवा नहीं की और न उनका रचनात्मक विकास किया बल्कि उन्हें संदिग्ध बनाने की चेष्टाएं जरूर कीं। हम मानते हैं कि प्रतिमान हमारे होंगे और वे रचनाएं धीरे-धीरे विकास करके उन प्रतिमानों के स्तर को छू लेंगी। पर वस्तुत: प्रतिमानों को भी विकास की आवश्यकता पड़ती है। यानी यथार्थवाद तथा सामाजिकता जैसे प्रतिमान न तो जड़ हैं, न होने चाहिए, बल्कि उनका विकास करना चाहिए ताकि वे विकासशील रचनाशीलता की गति और दिशा को ठीक से भांप सकें। अब वीरेंद्र यादव का एक और वाक्य देखिए- 'हिंदी साहित्य के कुलीन तंत्र द्वारा यथार्थवाद को खारिज करने के प्रयत्नों के चलते लंबे समय तक संशय तथा कुहासे की स्थिति बनी रही।' यह साबित करना मुश्किल ही है कि हिंदी के किस कुलीन तंत्र से कौन सा यथार्थवाद खारिज हो गया। बल्कि हिंदी की सबसे लोकप्रिय कृतियां आश्चर्यजनक रूप से यथार्थवादी हैं और वे कृति तथा राजनीति के संबंधों के तनाव से ही उपजी हैं। गोदान के बाद तमस, झूठा-सच, आधा गांव जैसी कृतियां क्या किसी कुलीन तंत्र द्वारा आच्छादित कर दी गईं? या यह भी कैसे सिद्ध हो सकेगा कि पुराने उपन्यासों की तुलना में नए उपन्यास जो यथार्थवाद लेकर आए हैं, वे उपन्यास की विधागत विशेषता तथा उसके आंतरिक सौंदर्य की कसौटियों पर भी खरा उतरते हैं। भूमिका ध्यान से पढऩे पर लगता है कि वीरेंद्र यादव भी इस खतरे के प्रति सचेत हैं कि औपन्यासिकता और विमर्श के बीच हमेशा सुविधाजनक व रचनात्मकता का रिश्ता नहीं बनता। जैसे कि वह कहते हैं- हिंदी उपन्यासकारों के समक्ष यह चुनौती दरपेश है कि वह औपन्यासिकता को बरकरार रखते हुए कैसे अपने कथ्य को विमर्शकारी बनाएं। एकदम सही बात! यह चुनौती तो है ही। पर उपन्यासों के आगे कथ्य को विमर्शकारी बनाने की पूर्वशर्त सी रखी जा रही है, उससे लगता है कि औपन्यासिकता तो बस एक माध्यम है, बहाना है। कहीं देखना है तो बस किसी विमर्श की तरफ ही देखना है जो पहले से ही समाज तथा आलोचना में तय किए जा चुके हैं। एक समय था जबकि लेखक अपने जीवनानुभवों तथा दृष्टि से कथानक को गढ़ता था, अब लगता है कि बाजार में उपलब्ध रेडीमेड विमर्शों के आधार पर उसे कथानक बनाने हैं और कहानी सुनानी है। यानी उपन्यास, जो कि सबसे पहले एक सफल कहानी होनी चाहिए, वह लोकप्रिय बन चुके सफल विमर्श का पर्याय बनने की नियति का शिकार होने लगती है।

गनीमत है कि किताब में भूमिका ही नहीं है बल्कि और भी बहुत कुछ उपयोगी है। इसमें सबसे ज्यादा उपयोगी है रचनाकारों के मुंह से जानना कि उन्हें उपन्यास लिखने की प्रेरणा, संसाधन या अनुभव कहां से प्राप्त हुआ। समीक्षा और उपन्यास के बारे में लेखक का आत्मकथन, यह एक सुंदर संयोग है, जो उपन्यास के बारे में विचार करते समय हमारे सामने ज्यादा व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करता है। पटरंगपुराण, मुझे चांद चाहिए, सात आसमान, कसप, प्रथम शैलपुत्री, नौकर की कमीज, झीनी-झीनी बीनी चदरिया, आवां, इन्हीं हथियारों से, बारामासी, सूत्रधार, ऐलान गली जिंदा है, सूरज सबका है, बेघर, सूखा बरगद, काला पहाड़, इदन्नमम, कठगुलाब, अनारो, आखिरी कलाम, काला पादरी, छिन्नमस्ता, डूब, कालकथा, उस चिडिय़ा का नाम, परछाईं नाच, अन्वेषण और कलिकथा- वाया बाइपास, यानी कुल मिलाकर 28 उपन्यासों को लेकर करीब 20 साल के कालखंड की औपन्यासिक रचनाशीलता का खाका निर्मित करने का प्रयास किया गया है। इसके पहले खंड में भी, जो भीष्म साहनी के संपादन में 1980 में छपा था, इसी प्रकार ढेरों उपन्यासों पर विचार किया गया था।

उपन्यासों ने अपनी रचना प्रक्रिया को व्यक्त करते समय कम से कम एक बात तो सिद्ध ही कर दी है कि उपन्यास केवल मन:स्थिति या मनोदशा की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उसके पीछे रिसर्च और छानबीन की पूरी पृष्ठभूमि उपस्थित रहती है। 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' में बनारस के बुनकरों के बारे में जानकारियां संकलित करते, उनके उठने-बैठने और दूसरे कार्यकलापों पर नजर गड़ाए अब्दुल बिस्मिल्लाह हों या फिर 'इन्हीं हथियारों के लिए' को लिखने से पहले 42 की राष्ट्रीय क्रांति के बारे में अपने अनुभवों तथा स्मृतियों को सहेजते अमरकांत। सभी जगह उपन्यास अतीत और वर्तमान के बहुस्तरीय आयामों में दिलचस्पी लेने की प्रक्रिया से ही संभव होते हैं। इसके अतिरिक्त उपन्यास ज्यादा गहरी शिक्षा व बौद्धिकता की मांग करता है और उपन्यास अपने पात्रों से जुड़ाव से पहले समाज से गहरे जुड़ाव का भी दबाव उत्पन्न करता है। व्यापक घटित क्रियाकलापों को वह कथा में एकसूत्रता प्रदान करने की कशमकश से हर हाल में गुजरता है। हर उपन्यास अपने सार्थक रूपों में कमोवेश बगावत या असहमति की अभिव्यक्ति भी होता है क्योंकि वह रोजमर्रा के जीवन या ऐतिहासिक उथलपुथल की अवस्था में मनुष्यता के विकल अंतर्नाद को न केवल सुनता है बल्कि स्वयं रचनाकार का रूदन भी उसी में शामिल हो जाता है। पूरी आधुनिकता और बीसवीं सदी में असहमति एक सबसे गौरवपूर्ण और सार्थक शब्द रहा है क्योंकि 18वीं सदी से शुरू हुए वैज्ञानिक विकासों से लेकर नई लोकतांत्रिक दुनिया के निर्माण तक का स्वप्न इसी असहमति के मूल्य से संचालित रहा है। जैसे कि मंजूर एहतेशाम सूखा बरगद के बारे में अपनी रचना मन:स्थिति के बारे में लिखते हैं- 'बगावत जरा भारी-भरकम शब्द है, जो मेरे स्वभाव के अनुरूप नहीं है। मैं अपने व्यवहार को असहमति ही कहूं तो ज्यादा उपयुक्त होगा। सूखा बरगद ही नहीं, मेरा आज तक का समूचा लेखन इस असहमति की ही अभिव्यक्ति है।'

उपन्यासकारों के आत्मकथन के जरिए रचना प्रक्रिया की और भी कई पर्तें खुलती हैं और रचना प्रक्रिया अचानक से 'डिमिस्टीफाइ' होते हुए दिखती है। सुनते हैं कि एक बार मंटो से पूछा गया था कि आप कैसे लिखते हैं। हमेशा खिलंदड़ मन:स्थिति में रहने वाले मंटो ने इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले एक सिगरेट सुलगाई और कहा- 'बच्चे उधम मचाते रहते हैं, किचन से बर्तनों की खटर-पटर का शोर आता रहता है और मैं कहानी पूरी कर डालता हूं।' कुछ वैसा ही अनुभव दूसरे रचनाकार भी सुनाते हैं। जैसे कि मंजुला भगत अपने उपन्यास 'अनारो' के बारे में लिखते हुए बताती हैं- 'मेरे उपन्यास अनारो की रचना अति व्यस्त और अति गुंजान माहौल में हुई थी, जिसमें परिवार की छोटी से छोटी और निरर्थक मांगें भी शामिल थीं। उसे लिखने में अनवरत तीन माह लगे थे। और तीन माह पूरा खाना बना होने पर भी , पतिदेव हर खाने के आधा घंटा पूर्व ही पूछना शुरू कर देते थे कि घर में मूली और हरी धनिया है कि नहीं। न जाने उन्हें क्या वहम हो गया था कि अब शायद उन्हें अधूरा भोजन ही प्राप्त हो।' रचना प्रक्रिया को और सरल बनाने वालों ने नहाना कम करने, दाढ़ी बढ़ाने और एक ही कपड़े बहुत दिनों तक पहने रहने पर भी बल दिया है, जैसा कि प्रियंवद ने भारत में दास विक्रय पर लिखे उपन्यास 'परछाईं नाच' के बारे में लिखते हुए बताया है।

उपन्यास किस प्रकार से आत्मकथा की विधा के करीब हैं, यह भी उपन्यासकारों के आत्मकथनों से उभरने वाली सच्चाई है। पंकज बिष्ट 'उस चिडिय़ा का नाम' के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि हर उपन्यास आत्मकथा लिखने की हिम्मत न रखने वालों के लिए एक खूबसूरत आड़ जैसा होता है। पर आत्मकथा व उपन्यास के बीच उस तरह की निकटता नहीं है कि लेखक केवल अपनी जिंदगी के अनुभवों तक ही सीमित रह जाए, बल्कि इस निकटता का यथार्थ यह है कि लेखक दूसरों के सच को भी अपने अनुभवों की आंच में ढालकर प्रस्तुत करने में सफलता हासिल करे। यानी सच भले दूसरों का हो, पर उसे महसूस अपनी चेतना के स्तर पर किया गया हो। ठीक उसी तरह जैसे प्यास से तड़पते किसी प्राणी को देखकर अपना गला सूखता सा लगे। शायद इसी रचना अनुभव के कारण ही प्रभा खेतान छिन्नमस्ता के बारे में लिखती हुए बताती हैं कि रचनाकार का काम केवल स्मृति को ही नहीं बल्कि विस्मृति और उसके कारणों को भी व्यक्त करना होता है। यानी जो चीजें भुला दी गई हैं, दबा दी गई हैं, उन्हें सबसे विश्वसनीय ढंग से उपन्यासों को व्यक्त करना होगा। खामोशी को तोडऩा और इस तरह से तोडऩा कि लोग उपन्यास की कहानी से जो अनुभव हासिल करें, उसके बल पर वे खुद भी अत्याचारों का बदला लेने के लिए प्रेरित हो सकें।

उपन्यास की असली सार्थकता कभी भी केवल कहानी सुनाने तक नहीं सीमित रहती बल्कि सार्थकता यह होती है कि हम उपन्यास पढऩे के बाद अपने जीवन के आसपास, परस्पर टूटी कडिय़ों से बिखरी कहानियों से भी खुद को जोड़ सकें। शायद हर महान कला यही करती है कि वह दुनिया को ही किसी कलाकृति के रूप में देखने की दृष्टि हमारे अंदर पैदा करती है। उपन्यास हमें समय का आलोचक बनाता है और व्यवहारिकता के जिन बाहरी या आंतरिक दबावों के कारण हम यथार्थ से दूर चले गए हैं, उसके नजदीक ले जाता है। उपन्यासों की वस्तुगत पड़ताल पर आधारित यह संपादित कृति भी यकीनन हिंदी उपन्यासों और लेखकों के सरोकारों को समझने में हमें गहराई से मदद प्रदान करती है।

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