केंद्रीय हिंदी संस्थान को लेकर इधर जो समाचार आ रहे हैं वे कमोबेश हिंदी के नाम पर चलनेवाले गोरखधंधे का उदाहरण हैं। कभी वह दौर था जब हमारे राजनेता हिंदी के बड़े लेखकों के व्यक्तित्व से ही नहीं बल्कि कृतित्व से भी परिचित हुआ करते थे। आज स्थिति यह है कि किसी भी नेता का हिंदी क्षेत्र के किसी भी गंभीर रचनाकार से कोई संबंध नहीं है। न तो वे उन्हें निजी तौर पर जानते हैं और न ही उनके कृतित्व से परिचित हैं। अर्जुन सिंह संभवत: ऐसे अंतिम नेता थे जिनकी साहित्य में रुचि थी और जो हिंदी लेखकों व कलाकारों के महत्त्व से परिचित थे। उनके मंत्रित्वकाल में कभी भी हास्य कवियों का ऐसा बोल-बाला नहीं रहा जैसा कि मानव संसाधन मंत्रालय में उनके उत्तराधिकारी कपिल सिब्बल के दौरान आज है। कपिल सिब्बल की त्रासदी यह है कि वह कवि-लेखक सब कुछ बनने की भी महत्त्वाकांक्षा रखते हैं और उनकी अंग्रेजी की तथाकथित कविताओं का हिंदी रूपांतरण केंद्रीय हिंदी संस्थान के वर्तमान उपाध्यक्ष हास्य कवि अशोक चक्रधर ने किया है। चक्रधर ने मंत्री महोदय को जो सेवाएं प्रदान कीं उसका भरपूर मेहनताना वह केंद्रीय हिंदी संस्थान से वसूल कर रहे हैं।
यूपीए के शासन की दूसरी पाली में अचानक अशोक चक्रधर महाकवि बन कर उभरे। उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान की गद्दी ही नहीं सौपी गई दिल्ली की सरकार ने प्रदेश की हिंदी अकादमी का भी उपाध्यक्ष बना दिया। इस पर हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने विरोध किया पर तत्काल कुछ नहीं हुआ। लेखकों ने अकादमी का ही बहिष्कार कर दिया। परिणामस्वरूप हिंदी अकादमी दिल्ली बिल्कुल प्रभावहीन हो गई। अब जरूर चक्रधर को हिंदी अकादमी से हटा दिया गया है।
यूपीए के शासन की दूसरी पाली में अचानक अशोक चक्रधर महाकवि बन कर उभरे। उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान की गद्दी ही नहीं सौपी गई दिल्ली की सरकार ने प्रदेश की हिंदी अकादमी का भी उपाध्यक्ष बना दिया। इस पर हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने विरोध किया पर तत्काल कुछ नहीं हुआ। लेखकों ने अकादमी का ही बहिष्कार कर दिया। परिणामस्वरूप हिंदी अकादमी दिल्ली बिल्कुल प्रभावहीन हो गई। अब जरूर चक्रधर को हिंदी अकादमी से हटा दिया गया है।
अशोक चक्रधर किस तरह से केंद्रीय हिंदी संस्थान का बहुआयामी दोहन अपने हित में कर रहे हैं, इसका उदाहरण इस वर्ष के पुरस्कार हैं। संस्थान द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कारों में एक पुरस्कार गंगाशरण सिंह के नाम से दिया जाता है। यह पुरस्कार 'अहिंदी भाषी क्षेत्र में अहिंदी भाषी लोगों द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं हिंदी प्रशिक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य' के लिए दिया जाता है। इस बार यह पुरस्कार वर्ष 2008 के लिए गिरीश कर्नाड और श्याम बेनेगल को तथा वर्ष 2009 के लिए मधुर भंडारकर को दिया गया है। माना कर्नाड कन्नड़ और अंग्रेजी के बड़े नाटककार और अभिनेता हैं या श्याम बेनेगल बड़े फिल्मकार हैं। इसी तरह मधुर भंडारकर का मुंबईया फिल्मों का चर्चित निर्देशक होने में भी शंका नहीं है। ये लोग अहिंदी भाषी तो हैं पर ये किस तरह से अहिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी प्रचार-प्रसार एवं हिंदी प्रशिक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के दायरे में आते हैं? अगर यह सब किसी लाभ की आशा से नहीं किया गया है तो यह निश्चित है कि उपाध्यक्ष बड़े नामों से आक्रांत हैं और इन्हें बुलाकर सिक्का गांठना चाहते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि जो लोग वास्तव में इन पुरस्कारों के हकदार थे उनके हक को मारा गया है। यह संस्थान के मैनडेट की जानबूझ कर अनदेखी करना है, इसलिए वह उपाध्यक्ष के पद के लायक नहीं हैं।
जहां तक मधुर भंडारकर का सवाल है उनका चुनाव तो और भी ज्यादा आपत्तिजनक है। बॉलीवुड में उनके जैसे कई फिल्मकार हैं जो अहिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी में फिल्म बना रहे हैं। गंभीर बात यह है कि उनके खिलाफ बलात्कार जैसे गंभीर आरोप हैं और न्यायालय में अपराधिक मामले चल रहे हैं। अशोक चक्रधर ने उन्हें राष्ट्रपति के हाथों से पुरस्कार दिलवाकर राष्ट्रपति का अपमान किया है।
सवाल है ऐसा क्यों किया गया?
इसलिए कि अशोक चक्रधर स्वयं फिल्मों में लिखने के आकांक्षी हैं और एक मीडिया कंपनी भी चलाते हैं। संभव है उनकी मंशा फिल्म निर्माण की हो। पुरस्कृत लोगों में ये सिर्फ दो उदाहरण हैं। ध्यान से देखा जाए तो शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसे पुरस्कार दिलवाने में चक्रधर का कोई पेंच न हो।
आगे बढऩे से पहले हम बतलाना चाहेंगे कि संस्थान के उपाध्यक्ष का पद कहने को अवैतनिक है। निश्चय ही प्रारंभ में इसके उपाध्यक्ष समर्पित हिंदी सेवी हुआ करते थे जो अपने काम के प्रति ईमानदार थे। पर क्या अब भी वही स्थिति है? कम से कम वर्तमान उपाध्यक्ष के खर्चों को देखा जाए तो वह पूरा छद्म खुल जाता है जो अवैतनिकता की आड़ में चलता है। ![madhur-bhandarkar-got-hindi-promotion-award madhur-bhandarkar-got-hindi-promotion-award]()
बेहतर हो वर्तमान उपाध्यक्ष पर कितना खर्च हो रहा है इसकी जांच की जाए। हमारी सूचना के मुताबिक साल की पहली छमाही का औसत निकाला जाए तो यह लगभग तीन लाख रुपए प्रतिमाह बैठता है। इसमें उनके पास काम करनेवाले पीए, ड्राईवर और चपरासी की तनख्वाह, कार और पेट्रोल का 60 हजार रुपए प्रति माह का खर्च आदि तो शामिल है ही साथ में देश-विदेश की यात्राओं का खर्च भी जोड़ा गया है जो अनुमानत: डेढ़ लाख प्रतिमाह बैठता है।
इस में एक और रहस्यमय बिल भी शामिल है, वह है इनकी चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी का मेडिकल बिल। यह लगभग एक लाख के आसपास का है। निश्चय ही यह चक्रधर का अपने अधीन काम कर रहे कर्मचारियों के प्रति मानवीय व्यवहार का मानदंड है पर यह बात तो देखी ही जानी चाहिए कि आखिर उसे ऐसी कौन-सी बीमारी है जिस पर इतना पैसा लग रहा है? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इस बात की मेडिकल बोर्ड जांच करे? वैसे नियमों की बात की जाए तो उपाध्यक्ष के साथ अस्थायी रूप से जुड़े कर्मचारियों को मेडिकल की सुविधा नहीं है।
इस एक साल में चक्रधर ने संस्थान के साधनों का किस तरह से लाभ उठाया वह अपने आप में बड़ी कहानी है।
इस वर्ष उनके द्वारा संस्थान के पैसे से तीन विदेश यात्राएं की गईं। पहली जनवरी में लंदन की है; दूसरी मार्च में स्पेन की और तीसरी अप्रैल-मई में आस्ट्रेलिया की थी। ये यात्राएं मूलत: कविता पाठ के लिए की गई हैं जिनसे संस्थान की गतिविधियों का कोई लेना-देना नहीं है। इनमें से आस्ट्रेलिया की यात्रा में, जहां उनके सुपुत्र रहते हैं, उनकी पत्नी भी साथ थीं। जांचने की बात यह है कि जब पति-पत्नी साथ गए तो पत्नी का किराया किसने दिया? अगर पत्नी का पैसा आस्ट्रेलिया के आयोजकों ने दिया तो फिर पति का किराया क्यों नहीं दिया? अगर पत्नी को ही बुलाया गया था तो क्या पति ने वहां का कार्यक्रम साथ देने के लिए जबर्दस्ती बनाया? ये सब जांच के विषय हैं।
इसलिए कि अशोक चक्रधर स्वयं फिल्मों में लिखने के आकांक्षी हैं और एक मीडिया कंपनी भी चलाते हैं। संभव है उनकी मंशा फिल्म निर्माण की हो। पुरस्कृत लोगों में ये सिर्फ दो उदाहरण हैं। ध्यान से देखा जाए तो शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसे पुरस्कार दिलवाने में चक्रधर का कोई पेंच न हो।
'अगर' और भी हैं। अगर उपाध्यक्ष महोदय की यात्राएं सरकारी थीं तो क्या इनकी अनुमति मंत्रालय से ली गई थी? अगर नहीं ली गई थी तो फिर इनके पैसे का भुगतान संस्थान ने क्यों किया और किसकी अनुमति से किया?
वर्तमान उपाध्यक्ष के तौर-तरीकों का एक और उदाहरण देखने लायक है।
जब एक वेबसाइट ने चक्रधर के भ्रष्टाचार के बारे में प्रकाशित करना शुरू किया तो उन्होंने केंद्रीय हिंदी संस्थान की वेबसाइट पर, जो वर्षों से अद्यतन नहीं की गई थी, संस्थान की महत्त्वाकांक्षी योजना 'लघु हिंदी विश्व कोश' के बारे में विस्तार से जानकारी लगाई। साथ ही प्रमाण के तौर पर इस योजना के तहत तैयार की गईं 250 प्रविष्टियां भी 10 जून को अपलोड कर दीं। उन्होंने आलोचकों का मुख बंद करने के लिए साथ में लिखा कि संस्थान क्या कर रहा है यह उसका उदाहरण है।
पर जब एक पाठक ने इस ओर इशारा किया कि ये तो वे प्रविष्टियां हैं जो पहले से ही भारत कोश नामक वेब साइट पर उपलब्ध हैं तो मामले ने एक नया ही मोड़ ले लिया।
इसे समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि समझी जानी आवश्यक है। संक्षेप में मसला कुछ इस तरह है: केंद्रीय हिंदी संस्थान की हिंदी विश्वकोश की योजना पूर्व उपाध्यक्ष रामशरण जोशी के दौरान शुरू की गई थी। इसके तहत 20 हजार प्रविष्टियों के एक 'लघु हिंदी विश्व कोश' को बनाया जाना था। इसका प्रधान संपादक इंद्रनाथ चौधुरी को नियुक्त किया गया, जिन्होंने यह काम बिना किसी मानदेय के करना स्वीकार किया। उस पर काम तत्काल शुरू हो चुका था और अब तक एक चौथाई हो भी चुका है। इस बीच जोशी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और चक्रधर ने उपाध्यक्ष पद संभाल लिया। मजे की बात यह है कि इसके लेखकों को पिछले तीन वर्ष से भुगतान ही नहीं किया गया है। पहले यह इसलिए अटका कि पारिश्रमिक की दर तय नहीं हो पाई थी जो किसी तरह दिसंबर, 2010 में तय हो गई। इसके अनुसार पांच सौ शब्दों तक के लिए पांच सौ रुपए, एक हजार शब्दों तक के लिए एक हजार और उससे ज्यादा शब्दों के लिए 1500 रुपए देना तय हुआ। इस पर भी लेखक अपने पारिश्रमिक का इंतजार कर रहे हैं। भुगतान करने में लगातार देर क्यों हो रही है?
उसका कारण क्या इस बात से जुड़ा है? पहले जो चार खंड तैयार होने के निकट हैं उनका बजट लगभग 65 लाख रुपए के करीब है। अंतत: इस पूरी योजना पर लगभग ढाई करोड़ खर्च होना है और यह बड़ी राशि ही इसके मूल में है। इसके खर्च पर संस्थान के उपाध्यक्ष का कोई सीधा नियंत्रण नहीं है।
अब मसला है भारत कोश क्या है? यह मथुरा की संस्था ब्रजभूमि विकास चैरिटेबिल ट्रस्ट द्वारा तैयार विश्वकोश है जो इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसकी स्थापना 1994 में पूर्व सांसद स्व. चौधरी दिगंबर सिंह ने की थी। अब उनके बेटे आदित्य चौधरी इसके अध्यक्ष हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने यह काम सरकारी सहयोग और अनुदान से ही किया होगा। लगता है इस विश्वकोश को तैयार करने और वेबसाइट पर डालने का काम अशोक चक्रधर की संस्था ने किया है। चक्रधर का बेटा कंप्यूटर और इंटरनेट का काम करता है और पिछले दो हिंदी विश्व सम्मेलनों की कार्यवाही के डिजिटलाइजेशन का काम उन्हीं के पास था। चूंकि उन्होंने यह काम किया था उनके पास भारत कोश की सारी सामग्री तैयार थी ही। उनकी मंशा यह है कि वह पहले से ही तैयार उस विश्वकोश की सामग्री को, जो बहुत ही सतही किस्म की है, केंद्रीय हिंदी संस्थान के लघु हिंदी विश्वकोश में डाल दें और लाखों रुपए के पारिश्रमिक को स्वयं ही हड़प जाएं। पर यहां एक अड़चन थी। अड़चन यह कि लघु हिंदी विश्वकोश के संपादक इंद्रनाथ चौधुरी थे। इसके लिए उन्हें हटाना जरूरी था। नतीजा यह है कि संस्थान की ओर से ऐसी स्थिति बनाने की कोशिश की जा रही थी कि इंद्रनाथ चौधुरी स्वयं ही हताश होकर इस काम से अलग हो जाएं। उन लेखकों का जिन्होंने अपनी प्रविष्टियां वर्षों पहले लिख कर दे दी हैं पारिश्रमिक रोक के रखना भी इन कारणों में से एक था।
असल में ज्यादा चालू लोगों के साथ दिक्कत यह होती है कि अंतत: वे स्वयं ही अपने बनाए जाल में फंस जाते हैं। चक्रधर भी उसी मकड़ी की तरह हैं। अपनी आलोचनाओं और भंडाफोड़ों से बचने के साथ ही साथ भारत कोश की उस सामग्री को जिसे वह अपने पास अवैध रूप से रखे हुए हैं, संस्थान की वेबसाइट पर डालने के पीछे उनकी मंशा एक तीर से दो शिकार करने की थी। एक ओर अपने आलोचकों को जवाब देना और दूसरी ओर अवैध सामग्री को वैध सामग्री बना देना। जब वह रंगे हाथों पकड़े गए तो उन्होंने घबराकर चार दिन बाद 14 जून को भारत कोश की सारी सामग्री को केंद्रीय हिंदी संस्थान की वेब साइट से हटा लिया। पर अब तक यह सामग्री कई लोगों के पास पहुंच गई है और चक्रधर के खिलाफ प्रमाण के तौर पर मानव संसाधन मंत्री और संबंधित विभागों को भेज दी गई है।
यह दो तरह की अपराधिकता है। पहली यह कि उन्होंने भारत कोश की सामग्री को चुराया दूसरा इस अनधिकृत सामग्री को अवैध रूप से सरकारी वेबसाइट पर अपलोड किया। मान लो कल को इस कोश की मालिक ब्रज भूमि विकास चैरिटेबल ट्रस्ट हिंदी संस्थान पर दावा कर दे कि सरकार ने यह काम अवैध रूप से किया है और उसे इसका हर्जाना देना होगा तो उस स्थिति में क्या होगा? या इस सामग्री में कोई ऐसी अविश्वसनीय अथवा तथ्यात्मक रूप से गलत सामग्री हो उसके लिए कभी भी सरकार को दोषी ठहराया जा सकता है, उस स्थिति में जवाबदेह कौंन होगा?
ये मामले सामान्य नहीं हैं और आरोप प्रथमद्रष्टया तार्किक नजर आ रहे हैं ऐसे में जरूरी है कि इन सबकी तत्काल जांच विजिलेंस के द्वारा करवाई जाए और उपाध्यक्ष के खिलाफ कार्यवाही की जाए।
अंततः गए
अंतत: दिल्ली की हिंदी अकादमी से अशोक चक्रधर को हटा दिया गया है। लगता है दिल्ली के लेखकों द्वारा किए गए विरोध का असर तीन साल बाद हुआ है। अगर अखबारों की मानें तो दिल्ली की मुख्यमंत्री को भी पता चल गया कि इस दौरान कुछ नहीं हुआ। पर चक्रधर का कार्यकाल कई माह पहले समाप्त हो गया था। पर उनकी जगह जिस आदमी को लाया गया है उनकी साहित्यिक हलकों में कोई पहचान नहीं है। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे और उनका मुख्य काम विदेशों में हिंदी को लेकर है। इस बार की अकादमी की कार्यकारिणी में एक भी लेखक नहीं है। कहने को यह अकादमी हिंदी की है पर यह भाषा से ज्यादा अब तक साहित्य का काम करती रही है। वैसे भी उसके अधिसंख्य पुरस्कार साहित्यकारों और उनकी कृतियों को ही दिए जाते हैं। ऐसे में अकादमी पर ऐसे आदमी को बैठा देना जिसकी कोई साहित्यिक पहचान न हो, शासकों के मानसिक दिवालिएपन या कहा जाए मनमानी की निशानी है। वैसे यह सिलसिला दिल्ली में कांग्रेस के आने से लगातार चल रहा है। पहले इस पद पर कांग्रेस के वर्तमान प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी को बैठाया गया जो उन दिनों बेरोजगार थे। हिंदी साहित्य की उनकी योग्यता कभी हिंदी के प्राध्यापक होना थी। वह गए तो अगले उपाध्यक्ष भी द्विवेदी (मुकुंद) ही बने। उनकी भी योग्यता हिंदी प्राध्यापक होना ही थी। फिर अशोक चक्रधर की बारी आई, वह भी हिंदी के अध्यापक थे(हां हास्य कविता उनकी अतिरिक्त योग्यता थी) और अब विमलेश कांति वर्मा लाए गए हैं। वह भी हिंदी के प्राध्यापक ही रहे हैं। साफ है कि इन सभी नियुक्तियों में और जो हो साहित्य मानदंड नहीं होता। इस बात की रही-सही पुष्टि 21 व्यक्तियों की संचालन समिति है जिसमें शायद ही कोई जाना-माना साहित्यकार हो। हां, प्राध्यापकों की अवश्य भरमार है। इनके चुनाव का क्या आधार है? इन्हें कौन चुनता है? यह सब रहस्य है। इसका नतीजा वही होगा जो पिछली बार हुआ था। चक्रधर और परिचय दास के कार्यकाल के दौरान यह अकादमी हिंदी और हिंदी साहित्य की कम, नौटंकी और गाने-बजाने की ज्यादा हो गई थी।
वैसे उपाध्यक्ष के साथ ही अकादमी का सचिव भी बदल गया है। दिल्ली सरकार ने नई कार्यकारिणी की घोषणा मई के अंत में की थी। इसकी संचालन समिति में तब सतपाल अकेले विशेष आमंत्रित सदस्य थे। बाद में इसमें एक और नाम जोड़ दिया गया। वह है अशोक चक्रधर का। यह नाम क्यों जोड़ा या जुड़वाया गया? इसलिए कि ऐसा न लगे कि चक्रधर को हटाया गया है, वह अभी भी अकादमी से जुड़े हुए हैं?
- दरबारी लाल
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