Sunday, July 8, 2012

Fwd: [New post] हिंदी उपन्यास में देह व्यापारः स्त्री की नजर से



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Date: 2012/7/8
Subject: [New post] हिंदी उपन्यास में देह व्यापारः स्त्री की नजर से
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हिंदी उपन्यास में देह व्यापारः स्त्री की नजर से

by समयांतर डैस्क

हिंदी उपन्यास

salaam-akhiriहिंदी में साहित्य-चर्चा की हालत अनेक तरह के अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। अमूमन चर्चा उन्हीं लोगों और मुद्दों को लेकर होती है जिनका संबंध किसी-न-किसी रूप में सत्ता केंद्रों के साथ होता है। हिंदी समाज के लोग सांसें एक भाषा की लेते हैं, जबकि खुद को व्यक्त दूसरी भाषा में करते हैं। लिखते हैं किसी और भाषा में पढ़ते हैं किसी और भाषा को। शायद इसीलिए हिंदी समाज में दो समानांतर समाज एक साथ जी रहे हैं, जो एक दूसरे के एकदम पलट, मगर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के दुश्मन हैं मगर दोस्त की तरह दिखाई देना जिनकी मजबूरी है।

ये बातें मेरे दिमाग में एकाएक तब कौंधीं, जब पिछले दिनों मैंने प्रकाशन के ठीक दस साल बाद मधु कांकरिया का उपन्यास सलाम आखिरी (2002) नए सिरे से पढ़ा। इसी क्रम में मैं नई सदी के पहले दशक में पढ़ी गई उन किताबों को याद करने लगा था, जिन्होंने मेरे दिमाग में स्थायी असर डाला था। उस दौरान भी सलाम आखिरी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैं अपने ही समाज को एकदम अलग तरीके से महसूस करने लगा था। शर्म तो नहीं कहूंगा, पर खुद को बेगाना महसूस करने लगा। अपने जीवन काल में औरत और मर्दों के मैंने भी अनेक रूप देखे हैं, मगर इस रूप के (जो मेरे देखते-देखते और न चाहते, एक 'समाज' बन चुका था) मेरे लिए मनुष्य जाति से अलग कुछ और ही था, जिसे पशु-पक्षी या कीट-पतंगों के समाज की तरह भी रेखांकित नहीं किया जा सकता।

वेश्याएं हमारे समाज का ऐसा हाशिया हैं, जहां एक-दूसरे के पूरक समझे जाने वाले स्त्री और पुरुष आपस में ही नहीं, अपने से जुड़े समाज के लिए ऐसी गलाजत बनकर उभरते हैं, जिसके बारे में टिप्पणी करना बहुत मुश्किल काम है। इस समस्या को पुरुषों के द्वारा स्त्री को अपने उपभोग की वस्तु समझे जाने की मानसिकता की तरह ठीक ही देखा जाता रहा है, हालांकि आरंभ से ही इससे जुड़े दोनों पक्षों में कुछ ऐसे अंतर्विरोध उजागर होते रहे हैं, जिस कारण इसे किसी एक लिंग के शोषण की समस्या समझना भी इसका सरलीकरण करना होगा। उपन्यास पढऩे के बाद लगता है, वेश्यावृत्ति का 'गलीज' पक्ष मुख्य रूप से पुरुषों के द्वारा कम उम्र लड़कियों की आर्थिक मजबूरियों का फायदा उठाकर सामने आता है। मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि समर्थों की वेश्यावृत्ति को खराब नजरिए से कभी नहीं देखा गया है, कभी-कभी तो इसे खुद को आगे बढ़ाने के हथियार के रूप में अपनाया जाता रहा है। ऐसे में क्या यह सच नहीं है कि हमारे समाज में वेश्या का सामान्य अर्थ 'कोठे वाली' से लिया जाता है! लेकिन नए समाज में, जहां कोठे खत्म हो गए हों, मगर देह का शोषण पहले की तरह ही मौजूद हो, इस प्रवृत्ति को किस रूप में देखा जाए?

क्या इसे दास-प्रथा की तरह की समस्या मानें, जो अंतत: एक दिन हमारे सभ्य होते चले जाने के साथ ही लगभग खत्म हो गई। लेकिन सच यह भी है कि इस समस्या को लेकर जितनी ही हमारी और समाज की चिंताएं उभरने लगती हैं, उसकी शाखा-प्रशाखाओं के रूप में कितने ही दूसरे अंतर्विरोध उजागर होते दिखाई देने लगते हैं। जब कि वास्तव में ऐसा है नहीं। हमारे नए समाज में वेश्यावृत्ति के पक्ष में भी तर्क दिए जाते रहे हैं, जिनका विश्लेषण उपन्यास में ही अनेक अवसरों पर खुद लेखिका ने किया है, मगर उससे समस्या की जटिलता कहीं अधिक बढ़ी है। इसके अलावा इस बात की जरूरत भी है कि स्त्री और पुरुष के आपसी टकराव से अलग हटकर भी, इसे एक अभिशाप के रूप में देखा जाना चाहिए। यह ठीक है कि वेश्यावृत्ति का जन्म भूख, बेरोजगारी और अनियंत्रित आकांक्षा के गर्भ में से हुआ है, क्या इन तीनों विषमताओं के खत्म होते ही वेश्यावृत्ति समाप्त हो जाएगी?

सलाम आखिरी विशेष रूप से इसलिए हमारा ध्यान आकर्षित करता है कि इस समस्या को कम से कम हिंदी में पहली बार एक औरत की आंख से देखा गया है। अंतत: वेश्यावृत्ति में दमन तो औरत का ही होता है, और यह दमन पुरुष की लिप्सा में से जन्म लेता है। समलिंगी वेश्यावृत्ति में भी मानसिकता के रूप में पुरुष की लिप्सा ही मौजूद रहती है, हालांकि लेस्बियन (स्त्री समलैंगिक) एकाएक इस तर्क को स्वीकार नहीं करेंगे। शायद इसीलिए इस समस्या के बारे में लिखना हमेशा से ही चुनौती-भरा काम रहा है, और जैसा कि इसके बारे में विस्तार से अध्ययन-मनन करने के बाद खुद लेखिका ने भी स्वीकार किया है, 'कई विदेशी लेखकों तक ने इस विषय पर छद्म नाम से लिखा।' इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मधु कांकरिया के लिए इसे लिखना कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा।

उपन्यास के इसी असहज और प्रत्यक्षदृष्टा की तरह उठाए गए विषय की रचना-प्रक्रिया की चुनौतियों की ओर संकेत करती हुई लेखिका लिखती है, ''इस उपन्यास के दौरान लेखनी जैसे हाथों से छूट-छूट जाती थी। यहां पग-पग पर चुनौतियां थीं। प्रश्नों की नुकीली नोकें थीं। श्लीलता-अश्लीलता की चाबुकें थीं। संस्कार और संस्कृति के कठघरे थे। भाषा की अनावृत्ति का सवाल था।... एक आत्मसंघर्ष निरंतर चलता रहा - क्या रहे लेखिका की लक्ष्मण-रेखा?'' प्रसंगवश, यहां पर यह स्पष्टीकरण देना गलत नहीं होगा कि ऐसा नहीं है कि वेश्याओं पर हिंदी में नहीं लिखा गया है, पुरुष-स्त्रियों दोनों के द्वारा लिखा गया है, मगर वह सारा विवेचन समस्या को दूर से, अकादमिक चिंता की तरह, एक सामाजिक विषय के रूप में देखकर लिखा गया है।

salaam-akhiri-paperbackक्या भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखने पर वेश्या समस्या कुछ अलग और खास दिखाई देती है? क्या यह समस्या अलग-अलग मानव समाजों में अलग-अलग तरीके से देखी जाती है? सलाम आखिरी को पढ़ते हुए वास्तविकता ऐसी ही नजर आती है। उपन्यास की भूमिका के रूप में दिए गए अपने 'आत्मकथ्य' में लेखिका ने इस विचित्र अंतर्विरोध का खुद भी उल्लेख किया है: ''किसी मित्र ने सुझाया कि मैं वेश्याओं के जीवन पर लिखी कुप्रिन की विश्वप्रसिद्ध कृति- गाड़ीवालों का कटरा के हिंदी अनुवाद की भूमिका अवश्य पढ़ लूं। अनुवादक चंद्रभान जौहरी ने अपनी भूमिका में लिखा है कि भारत की स्थितियां भी उतनी ही भयावह और लगभग एक जैसी ही हैं जैसी कि कुप्रिन ने अपने उपन्यास में तत्कालीन रूसी चकलाघरों की चित्रित की है। मैं यह बात जोर देकर कहना चाहूंगी कि भारत में लालबत्ती इलाकों (रेड लाइट एरिया) की स्थितियां कुप्रिन के चित्रण से न केवल भिन्न वरन् कहीं ज्यादा यांत्रिक, भयावह, कुत्सित और कुरूप हैं।'' इस संदर्भ में यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि वेश्याओं को उस क्षेत्र की संस्कृति के साथ जोड़कर देखना भी ठीक नहीं होगा, जहां वे स्थित हैं। वे हमारे ही समाज का अंग होते हुए भी अपना एक स्वायत्त समाज गठित कर लेती हैं, जहां उनकी अपनी भाषा, रहन-सहन और शेष समाज को देखने का स्वतंत्र नजरिया जन्म ले लेता है। कलकत्ता महानगर के विभिन्न क्षेत्रों में फैला यह संसार भौगोलिक दृष्टि से बंगाली समाज का ही हिस्सा है, मगर इसे देखकर साफ पहचाना जा सकता है कि यह उसी के गर्भ में से पैदा हुआ एक अलग समाज है। लेखिका ने खुद भी लिखा है, ''दूसरी समस्या जो मेरे सामने आई वह थी इनकी भाषा को लेकर। कलकत्ता में प्राय: सभी वेश्याएं, कुछेक नेपाली और आगरावालियों को छोड़कर बंगालीभाषी हैं। अब इसे बंगला भाषा की समृद्धि कहा जाए, इस भूमि की तासीर कहा जाए या कि यहां के बंग साहित्य की अंतर्शक्ति का कमाल कि अशिक्षित होते हुए भी यहां के सब्जीवाले, घरों में काम करने वाली बाई, श्रमिक वगैरह भी आम हिंदी भाषा से उच्च स्तर की भाषा बोलते हैं। वेश्याओं के लिए भी यही सत्य था। मुझे उनकी उच्च बंगाली को निम्न हिंदी में रूपांतरित करने की कवायद करनी पड़ी, पर अंतत: मुझसे वह कवायद सधी नहीं। इसी बिंदु पर एक बार राजकमल प्रकाशन के संपादकीय विभाग ने भी ऐतराज जताया कि वेश्याएं इतनी अच्छी भाषा कैसे बोल सकती हैं? पांडुलिपि लौटा दी गई।...'' और यह समस्या ठीक इसी रूप में नवाबों के शहर लखनऊ में वेश्याओं द्वारा बोली जाने वाली परिनिष्ठित-सी दिखाई देने वाली उर्दू की भी है। वहां इसलिए नहीं खटकती कि उर्दू और हिंदी का चरित्र एक है, हालांकि वहां भी सामान्य रूप से बोली जाने वाली हिंदी/उर्दू में और वेश्याओं के द्वारा बोली जाने वाली भाषा में जमीन-आसमान का अंतर था।

उपन्यास इसलिए भी उल्लेखनीय है कि यह न तो यथार्थ का कोरा विवरण है और न सामाजिक समस्याओं का प्रतीकीकरण। इसमें चित्रित घटनाओं को एक औरत ने उस सड़ांध के बीच जाकर प्रत्यक्ष देखा है। यह उस रूप में नरक को भोगना भले ही न हो, स्त्री के जीवन में अनचाहे, परिस्थितिवश पैदा हो गए नरक की व्यथा को भोगकर तो व्यक्त किया ही गया है। जिस 'हिंदी समाज' की सड़ांध के बीच इस उपन्यास का केंद्रीय चरित्र रचा गया है, वह 'भारतीय' या 'वृहत्तर' समाज से अलग है; जाहिर है कि इस रूप में उसकी समस्याएं और अंतर्विरोध भी अलग हैं। मानव-संस्कृतियों की हमने जो अलग-अलग स्वायत्त टुकडिय़ां तैयार की हैं, और उसे अपनी पहचान मानकर हम जिस तरह लड़ते रहे हैं, उसी का बहुत साफ आईना है वेश्याओं का संसार, लेकिन भिन्न रूपों में। फर्क यह है कि वेश्याओं के अपने स्वायत्त संसार की भाषा अलग होते हुए भी उनकी व्यथा एक है जब कि हमारे वास्तविक संसार में भाषाएं ही उनकी स्वायत्त 'व्यथाओं' को निर्मित करती हैं और एक-दूसरे को अपना दुश्मन बनाती हैं। लगभग यही स्थिति भारतीय समाज के बड़े छाते में रहने वाले हमारे पुरखों के सामंती समाज की भी है जिसमें कुलीनों के द्वारा देवभाषा संस्कृत और सामान्यों के द्वारा तद्भव भाषाओं का प्रयोग किया जाता था।

वेश्याओं से जुड़े इन बहुआयामी अंतर्विरोधों को लेकर लेखिका की चिंता को कोई भी कैसे अनदेखा कर सकता है: ''इन लालबत्ती इलाकों की संख्या खतरनाक गति से बढ़ रही है। पहले इने-गिने इलाके थे और वेश्याएं भी शाम ढले निकलना शुरू होती थीं। आज इलाके बहुत बढ़ गए हैं, और सुबह से लेकर गहराती रात तक गलियों के मुहाने तक ग्राहकों के इंतजार में प्रतीक्षा करतीं और कमर दुखाती जीवन से थकी-ऊबी, लिपी-पुती किशोरियां मिल जाएंगी। राष्ट्रीय महिला आयोग, 95-96 के अनुसार भारत के महानगरों में दस लाख से भी अधिक वेश्याएं हैं और पिछले साल से इसमें 20 प्रतिशत इजाफा हुआ है। इस समाचार पर गंभीर विचार करना तो दूर, संभ्रांत वर्ग यह मान बैठा है कि वेश्यावृत्ति बंद नहीं हो सकती। एक बौद्धिक से पूछा गया, 'क्या वेश्या उन्मूलन संभव है?' उसने जवाब दिया, 'हां, संभव है, पर वह उसी प्रकार का होगा जिस प्रकार कि 'सोसाइटी विदाउट ए गटर।' इस भावशून्यता एवं भावनात्मक क्षरण के जवाब में यही कहा जा सकता है कि जनाब कभी यही तर्क दास प्रथा के लिए भी दिए जाते थे!...''

सलाम आखिरी की कहानी तीन स्वतंत्र कथाओं में रची गई है, हालांकि तीनों कथाएं एक-दूसरे के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं। एक ओर हाशिए के इन लोगों को लेकर नायिका सुकीर्ति और मेघेन तथा विजय की बौद्धिक बहसें हैं, दूसरी ओर समानांतर चलते दो शेयर मार्केट हैं - एक 'सट्टा बाजार के मुगले आजम' मन्नालाल जी का और दूसरा कोठेवालियों का सड़ता-गंधाता शेयर बाजार, जो कभी चढ़ता नहीं लुढ़कता ही है। उपन्यास में 28 उप-कथाएं हैं जो मिलकर भारतीय समाज में सदियों से पनपते रहे देह-व्यापार की एक समानांतर सृष्टि की पुनर्रचना करती हैं: ''यह दुनिया कलकत्ता महानगर के विभिन्न दरवाजों - सोनागाछी, बहू बाजार, कालीघाट, बैरकपुर, खिदिरपुर आदि में खुलती है। यहां जीवन के कुरूप से कुरूप एवं भयंकर से भयंकर नग्न रूप मिल जाएंगे क्योंकि यहां संस्कृति, मर्यादा और परंपराओं का कोई डर नहीं है। बंधन नहीं है। इस रूप के बाजार का रूपविहीन जीवन अपने चरम रूप में आपके समक्ष खुलते थान की तरह बेशर्मी से खुला हुआ है।''

फिल्मी कमेंट्री की तरह का यह विवरण हिंदी की गंभीर मुखमुद्रा वाले पाठकों को कुछ हद तक हिकारत-भरा लग सकता है, मगर यह मेलोड्रामा उस यथार्थ से कहीं अधिक जटिल और वास्तविक है।

''...देखो, आज से पचास-पचपन वर्ष पीछे की ओर मुड़ो तो तुम पाओगी कि पुरुष इन जगहों पर सिर्फ इसलिए नहीं जाते थे कि वे काम के मारे होते थे। तब की उच्चकोटि की कलावती वेश्याएं जहां वासना का शमन करती थीं वहीं कला का भी उच्च कोटि का आनंद देती थीं। शेरो-शायरी, दोहे, कवित्त, मुहावरों और कहावतों का तो अक्षय कोष ही होता था उनके पास। उनकी संभाषण कला, हाजिरजवाबी, रसिक मिजाजी एवं नृत्य-संगीत आदि का मजा लूटते रईस, शौकीन एवं सुसंस्कृत व्यक्ति तक जाते थे वहां। और वह भी बिना विशेष अपराध-बोध के, खुले आम। और सिर्फ युवक ही नहीं, प्रौढ़ और बौद्धिक कला-मर्मज्ञ तक।... पर शहरी औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण की आंधी के साथ ही कला, कला का हुनर और अदाकारी सिमटती चली गई और सिर्फ देह ही बची रह गई।... कला परिदृश्य से लगभग विलुप्त हो गई और बचा रह गया केवल शरीर... एक स्थूल शरीर... कलाहीन, रूपहीन रूप की हाट में बिकता एक रुग्ण शरीर।... (पृ. 59)

संसार की किस फैक्टरी में ढाली जाती हैं ये वेश्याएं? ये ढाली जाती हैं या समाज की खुशहाली अथवा परिवार की किलेबंदी के बाई-प्रोडक्ट के रूप में खुद-ब-खुद अंकुरित हो जाती हैं?

कुटनी मीना की कहानी

''आध्यात्मिक तल्लीनता के साथ ही भात के बड़े-बड़े गोले बना-बना कर खा रही है मीना। बगल के तख्ते पर आराम फरमाती एक लाइनवाली। उसके करीब दीवार से सटकर बैठी कोई दूसरी लड़की हाथों की उंगलियों में नेल-पॉलिश लगाती हुई। एकदम कच्ची उम्र की ताजी, जैसे अभी-अभी अंडे से फूटी हो।... छह लाइनवालियां इस चकले में। अधिया सिस्टम के अंतर्गत मीना की जी-हजूरी में। कच्ची कचनार नूरी। झिलमिल कृष्णा। हल्ला वेश्या रमा। पुराना चावल नलिनी। तेजपत्ता जूली। दरिद्रता की तरह दयनीय चंपा। सिवाय जूली के सभी अलसाए और आराम के मूड में।...

''मलिन चेहरा, सूजी आंखों के पपोटे एवं थके तन के साथ एकदम तमतमाए मूड में है जूली। कल रात चूहे की-सी शक्ल वाले मिनमिनाते एक ग्राहक ने विकल वासना के आवेग में उसे भरपूर साथ न देने के कारण एवं उसे मनमानी करने से रोक दिए जाने के कारण भरपूर चांटा मार दिया था। उसने कमरे से बाहर निकलते ही शिकायत की थी मालकिन से - साले ने मुझे बाप का माल समझकर बॉक्सिंग बैग की तरह पीटा था।...

''पचास प्रतिशत मालकिन और पचास प्रतिशत मौसी के भावयोग से मीना उसे कभी धमकाती और कभी समझाते हुए कह रही थी 'कैसी माथाफिरी तुम। अभी नेई-नेई हो ना... आस्ते-आस्ते सब बूझोगी। कोई भी गिराहक इस कदर ठंडी ठस्स मूरती से प्रेम नहीं करना चाहता... पैसा देता तो मजे के लिए ही ना... खाली गोल-गोल गुलवा से बात नहीं बनती।... थोड़ी बहुत ऐक्टिंग तो इस लाइन में करनी ही पड़ती है... सभी कोई करती हैं। तुम भी कोई सीता-सावित्री तो हो नहीं। ...

''...टीवी पर अब चैनल बदल गया था। ... इस बार ध्यान से देखा सुकीर्ति ने- लगभग नूरी जितनी ही छोटी, मासूम-सी कृष्णा। फर्क इतना ही कि जहां नूरी रूप-रंग में सामान्य थी, कृष्णा खासी खूबसूरत थी। वेश्या की प्रचलित छवि से जब किसी प्रकार तालमेल नहीं बैठा पाई वह तो हठात् मुंह से निकल गया उसके, यह बच्ची, यहां?...

''...मीना, चंपा, रमा सब हंस पड़ीं, 'जिसे आप बच्ची समझ रही हैं, वह खुद एक बच्ची की मां है, हर महीने हजार रुपए भेजती है उसे। यह खुद इक्कीस वर्ष की है।... मीना अपनी ठेठ चकले की मालकिन की मुद्रा में उसे तौलती-परखती उसके अंग-विशेषों पर गौर फरमाती पास बैठी रमा से कहने लगी- पांच वर्ष होए गिएछे एक्खाने ऐछे... एक्खुन तो भालो ही आच्छे। (पांच वर्ष हो गए है आए, अभी तक तो अच्छी ही है।)

''... अब इस तस्वीर के दूसरे पहलू पर!... आज कुटनी बनी मीना की कहानी उन लोगों से भी दयनीय थी, जिन्हें वह आज मौसी बनकर समझा रही थी। ''अतीत के सागर में उठती हुई लहरों, झिलमिलाती कोई अधूरी, कोई पूरी तस्वीरों को याद करती हुई मीना वेश्या बनने की अपनी कहानी बताती है—

''बंगाल के तलहटी गांव में हम चार बहनें और तीन भाई थे। मैं सबसे बड़ी, हाथ को ऊंचा कर बताती है, कितनी बड़ी, तकरीबन साढ़े दस-ग्यारह वर्ष की। खपरैल की छतवाला कच्चा- पक्का हमारा छोटा-सा घर था। अच्छे से याद है जब कभी जोर-जोर से आंधी चलती, मां को पहली चिंता यही सताती कि उसे घर फिर से बनाना पड़ेगा।

''घर में सदैव चिक-चिक मची रहती। हर चीज का टोटा - आए दिन मारपीट। चौबीस घंटे की हाय! हाय! खाने वाले इतने जन और कमाने वाला सिर्फ बाप। एक बार बाबा (पिता) के दोस्त ने मुझे पास के ही गांव में किसी घर में चौका-बर्तन का काम धरा दिया।... एक-एक करके तीनों घरों में चौका बरतन करती, कपड़े धोती, एक घर में एक छोटा बच्चा भी था। मुझे घिन लगती थी उसका गू-मूत उठाने में फिर भी मुझे यह सब करना पड़ता।... एक बार एक प्याली टूट गई तो मालकिन ने झोंटा पकड़ लिया, कान मरोड़ दिया और पैसे काट लिए।... कुछ दिन मैं घर पर ही रही कि तभी एक जनानी आई, उसने कहा कि तुम्हें ऐसा काम दिलवा दूंगी, जिसमें तुम्हें कम-से-कम खटनी पड़ेगी। पगार और खुराकी भी अच्छी मिलेगी, बस तुम्हें पांच-छह बरस की एक बच्ची की देखभाल करनी पड़ेगी। लेकिन इसके लिए तुम्हें कलकत्ता रहना होगा।...

''मैं उस जनानी के साथ कलकत्ता चली आई। आते वक्त पिता ने गांव का पता कई बार बुला-बुला कर मुझे रटवा दिया, वहां तीन गांवों के बीच एक डाकखाना था। बुखार में भी बाबा अढ़ाई कोस चलकर तीन पोस्टकार्ड खरीदकर लाए, और मुझे पकड़ाया कि मैं बीच-बीच में अपनी खबर देती रहूं। मां के पास एक छिपाकर रखी हुई चप्पल थी, मां ने मुझे दे दी। पुतुल के पास एक बढिय़ा फूल कढ़ी फ्रॉक थी, जिसे वह हमेशा मुझसे छिपाकर रखती कि कहीं मैं पहन न लूं, उसने वह मुझे दे दी। सबको रोते-बिलखते छोड़ मैं उस जनानी के साथ कलकत्ता चली आई। अपने वादे के मुताबिक उस जनानी ने मुझे काम दिलवा दिया। यहां मैं सचमुच आराम में थी। बस एक बच्ची के साथ खेलना, उसे नहलाना और खिलाना। लेकिन फिर भी मन खराब रहता, अपना गांव खींचता था हर पल। ...

''...तब तक मैं कुछ नहीं जानती थी। उस आदमी ने मुझे उसके कमरे में आने के लिए कहा। ... मैं नहीं समझी कि यह बुलावा मेरी बर्बादी का था। उसने मुझे एक टॉफी दी, ठीक वैसी ही टॉफी वह अपनी बच्ची के लिए भी लाता था। टॉफी को देखकर मुझे फिर अपने भाई-बहनों की याद सताने लगी, मेरी आंखें भर आईं, मैंने रुंधे गले से कहा, मुझे कुछ दिनों के लिए अपने गांव जाना है। उसने कहा, हां, कल ही तुम्हारे जाने की व्यवस्था करता हूं, बस थोड़ी देर तुम लेट जाओ और साथ में ही उसने मुझे आहिस्ता से बिस्तर पर धकेल दिया। ... मैं मां-दुर्गा, मां-दुर्गा का जाप करती रही और वह मुझे लूटता रहा।... फिर तो प्राय: हर रात उसकी लड़की बगल के कमरे में सोई रहती, तो वह मेरे साथ यही शहरी खेल खेलता, मैं रोती, विरोध करती तो वह धमकाता कि किसी को भी कहा तो चोरी करने के आरोप में पुलिस को पकड़वा दूंगा। ...

''उस रात उसे तेज बुखार था, बस इसी का फायदा उठाकर मैं हिम्मत करके घर से भाग गई। मुझे तब तक यह भी नहीं पता था कि हर जगह के लिए अलग-अलग टिरेन होती है। मैंने सोचा कि टिरेन में बैठने-भर से मैं अपने गांव पहुंच जाऊंगी। बस मुझे स्टेशन का ध्यान रखना है। लेकिन मेरे पास टिकट नहीं था और न पैसे, इस कारण टीटी को देखते ही मेरी हवा निकलने लगी। मैं धार-धार रोने लगी। वहीं पर बैठे एक मुसाफिर ने मुझे बचा लिया और अपने घर ले गया। मैंने उसे सारी आपबीती सुना दी। बाद में मुझे पता चला कि वह रेलवे कर्मचारी था एवं जहां वह मुझे ले गया, वह रेलवे क्वार्टर था। एक रात उस नामर्द ने अपनी जात बता ही दी और मुझ पर किरपा करने की कीमत वसूल ली। उसके बाद उसने मुझसे कहा ... तुम वेश्या हो गई हो। ...छह महीने तक भोग-भाग कर, अघाकर एक रात वह भी मुझे इन्हीं अंधेरी गलियों में बेच गया।...

''मैं चाहती तो भाग भी सकती थी, पर तब तक मैं भागते-भागते बहुत थक गई थी।... पूरी तरह निराशा और अंधकार में डूबा मेरा मन समझ चुका था कि ई हरामखोर दुनिया से मुझे अब कुछ मिलना नहीं है। यहां सभी मर्द हरामी हैं। ... अपने मां-बाप का धियान कर, उनसे मन-ही-मन माफी मांगकर मैंने अपनी नई बनी चकले की मालकिन द्वारा दी गई नई साड़ी पहन ली और वेश्यावृत्ति कबूल कर ली।''... और बोलते-बोलते छाती को चीरकर उसकी रुलाई फूट पड़ी थी।...

मिथक-पात्र बनाम वास्तविक पात्र

इन दिनों जिस स्त्री-विमर्श की खास चर्चा है, मधु कांकरिया का विमर्श उसमें छिपे विभ्रम और अंतर्विरोधों को काफी हद तक दूर करता है। हालांकि सलाम आखिरी में लेखिका ने कहीं ऐसा दावा नहीं किया है, न कहीं पर उनकी ऐसी मंशा व्यक्त हुई है। उपन्यास स्त्री-अस्मिता के प्रश्न को लेकर ही लिखा गया है, कई जगह बेहद भावनाशील प्रसंग आए हैं, संवादों में कहीं-कहीं भावुकता भी दिखाई देती है, लेकिन उपन्यास कहीं पर 'लाउड' या अतार्किक नहीं लगता। उपन्यास की नायिका सुकीर्ति का पक्ष तो लेखिका का अपना ही है, अनेक दूसरी इतिहास-प्रसिद्ध अथवा परिचित स्त्रियों के उल्लेख के माध्यम से उन्होंने स्त्री से जुड़े हर कोण से उनका पक्ष रखा है। जाहिर है कि जब उपन्यास की नैरेटर ही लेखिका है तो अस्पष्टता की गुंजाइश ही कहां बचती है? अब बचता है, स्त्री के बारे में पुरुष पक्ष। चूंकि यह कोई अकादमिक विवेचन से जुड़ी बौद्धिक कसरत नहीं है, इसलिए उपन्यास में इस पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए लेखिका ने दो चरित्रों की 'सृष्टि' की है - मेघेन और विजय की, जो सुकीर्ति के मित्र हैं और उससे प्रेम करते हैं। (बहुत संभव है, ये दोनों भी सुकीर्ति की तरह वास्तविक पात्र हों!) मेघेन सुकीर्ति के कॉलेज जीवन का साथी है जो नाटे कद का होने के कारण एक विचित्र किस्म की असुरक्षा-ग्रंथि का शिकार है। कॉलेज के दिनों में वह सुकीर्ति को चाहता था, मगर अपनी 'बोंसाई ग्रंथि' के कारण वह सुकीर्ति का नहीं हो पाया, हालांकि विवाह के अनेक वर्षों के बाद भी उसके मन में है कि सुकीर्ति उसे चाहती है। यही स्थिति विजय के साथ भी है। विजय इतिहास का विद्यार्थी है, खूब पढ़ा-लिखा है, उसके अपने मजबूत तर्क हैं, मगर अंतत: उसके तर्क भी सुकीर्ति को उतने ही हवाई अनुभव होते हैं, जितने कि दूसरे तमाम पुरुषों के। इसे उपन्यास के शिल्प का करिश्मा कहें या उसकी विश्वसनीयता, इसमें लेखिका ने अपने निजी चरित्र और चिंतन को फिक्शन के चरित्र और उसकी दृष्टि के साथ इस प्रकार एकाकार कर दिया है कि यह पहचान पाना लगभग असंभव हो गया है कि इसमें कहां कथा है और कहां सत्य... हालांकि साहित्य में इसकी जरूरत नहीं पढऩी चाहिए। मुख्य चीज तो यह है कि रचना पाठक को अपने संसार का अंग बना सकी है या नहीं? सलाम आखिरी इस दृष्टि से अपना काम पूरी कलात्मकता के साथ निभा ले जाता है।

उपन्यास में तीन ऐतिहासिक स्त्री-चरित्र भी हैं, आम्रपाली, मदनिका और कोशी। ये तीनों ही संभ्रांत वेश्याएं हैं, जिनकी भारतीय इतिहास में विशिष्ट भूमिका रही है। ये तीनों ही अपने समय के महान पुरुष चरित्रों - बुद्ध (आम्रपाली), चाणक्य (मदनिका) और महावीर (कोशी) की पुरुष-ग्रंथियों को उजागर करने के लिए रची गई हैं और इस रूप में यह प्रसंग स्त्री-विमर्श के बारे में प्रस्तुत किया गया पुरुष-पक्ष है। इस प्रकार दो कथा-चरित्रों और तीन ऐतिहासिक पुरुष चरित्रों के माध्यम से लेखिका ने स्त्री-विमर्श का एक संतुलित, संपूर्ण एवं प्रभावशाली पक्ष रखा है। इस अर्थ में यह पहली किताब है जिसमें बिना बड़बोलापन और बिना किसी एक का पक्ष लिए लेखिका ने स्त्री का (अपना नहीं) पक्ष रखा है, यह भी इस उपन्यास की अभूतपूर्व पहल है।

ऐतिहासिक पुरुष-पात्रों के माध्यम से लेखिका ने जो बहस खड़ी की है, उससे अधिकांश पाठक परिचित हैं, हालांकि इस संदर्भ में लेखिका का पाठ एकदम नया और मौलिक है। मेघेन और विजय जो एक प्रकार से लेखिका के अपने समय के पात्र हैं, उस पुरुष दृष्टि के सफल प्रस्तोता हैं, जिनके बिना उपन्यास की सम्यक् एवं संतुलित दृष्टि नहीं बन पाती। यद्यपि बोंसाई का प्रतीक लेखिका ने वेश्याओं के लिए प्रयुक्त किया है, जो कम उम्र में ही इतनी प्रौढ़ हो जाती हैं कि जीवन के किसी भी छोर को जी नहीं पातीं: एक जंग लगी बंद खिड़की की तरह जिसका चेतना-पक्ष ही जैसे मर जाता है... मगर यह प्रतीक मुख्य रूप से उस पुरुष दृष्टि के अविकसित चिंतन को रेखांकित करता अधिक लगता है, जो किसी भी समस्या पर अंतिम तर्क सुनने से पहले अपने पक्ष का स्पष्टीकरण खोजने लगता है। इतिहास बताता है कि स्त्री के जो अस्तित्वगत प्रश्न हैं, उन्हें पुरुषों के द्वारा अपने शगल की तरह पेश किया जाता है। मेघेन का बौना कद कहीं-न-कहीं पुरुषों की स्त्रियों को लेकर बौनी सोच को दर्शाता है। मेघेन और विजय की वेश्याओं को लेकर की गई बहस, स्त्रियों के प्रति उनकी हार्दिक सहानुभूति के बावजूद, पुरुष के सहारे के बगैर स्त्री के समाज में न खड़ा हो सकने के सोच से जुड़े तर्क हैं और ऐसे प्रसंग उपन्यास में बार-बार आते हैं।

'ये ही मुझे बताती है कि मैं कौन हूं' शीर्षक एक उप-अध्याय में लेखिका ने कुछ इतिहास-प्रसिद्ध वेश्याओं के माध्यम से भारतीय पुरुषों का स्त्री-पक्ष प्रस्तुत किया है, (विजय के माध्यम से) जाहिर है कि इसी पक्ष ने भारतीय इतिहास की रूपरेखा तय की है। पुरुषों का आज भी वेश्याओं के पास जाने को किसी भी प्रकार की अनहोनी घटना न समझने वाला विजय बड़े गर्व से अपने युवा मित्र के द्वारा अड़तालीस स्त्रियों के साथ शारीरिक संपर्क की बात करता है और जब सुकीर्ति उसे 'पुरुष वेश्या' कहलाना अधिक उपयुक्त समझती है, तब भी विजय के पुरुषों के पक्ष में अपने तर्क हैं:

''जहां तक मैं जानता हूं, वेश्यावृत्ति हमारी संस्कृति के हर कालखंड में किसी-न-किसी रूप में जीवित रही है, चाहे वह महाभारत काल रहा हो, मौर्यकाल या वैदिकी काल। बस यूं समझ लो कि जगन्नाथपुरी के रथ की तरह वेश्यावृत्ति के रथ को खींचने के लिए हर युग में पुरुष आते रहे।...'

''हां-हां, इतिहासकारों के अनुसार वैदिक काल में गणिकावृत्ति अस्तित्व में थी। वेदों में प्रयुक्त पुनश्चली, महानग्नी और रांभा जैसे शब्द निम्नकोटि की गणिकावृत्ति के ही सूचक हैं। जैन और बौद्ध धर्म की जातक कथाएं गणिकाओं के उल्लेख से भरी पड़ी हैं।

''हां, एक फर्क अवश्य पड़ा है, पहले जहां वे काम के अलावा रिझाने की भी दुकान लगाती थीं, वहां अब सिर्फ काम की ही दुकान लगती है। देव वेश्या, तीर्थंगा (तीर्थ वेश्या) जैसे शब्द क्या सूचित नहीं करते कि तीर्थस्थानों में भी वेश्यावृत्ति का निकट का संबंध था। उसी प्रकार विषकन्या और विषांगना जैसे शब्दों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि शत्रु विनाश के लिए भी इनका प्रयोग होता था। यात्रा-प्रस्थान के समय उनका सामने आना शुभ संकेत समझा जाता था। प्रात:काल उनका मुख देखना शुभ समझा जाता था क्योंकि उन्हें सदा सुहागन माना जाता था।... अरे, जानती हो, वात्स्यायन ने तो महापुरुषों की वासना-तृप्ति करने को भी गणिकाओं का धर्म माना है। मौर्यकाल में तो गणिकाओं की देखरेख के लिए सरकारी विभाग तक भी बना दिए गए थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सरकारी गणिकाध्यक्ष को यह आदेश था कि वह रूपवती, जवान और कला-निपुण युवतियों को एक हजार पणम के वार्षिक वेतन पर गणिका की हैसियत से नियुक्त करे।...

''सोचने की बात यह है कि यहां सैद्धांतिक तौर पर नारी पूजा की वस्तु रही है पर व्यवहार में सदैव ही काम की वस्तु रही। कुछ आस्थावान नारी पात्रों को छोड़कर यहां सारी मूर्तियां प्राय: नग्न ही रहीं।... प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने और बाद में एक अन्य यात्री हेमिल्टन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि देवदासी यदि रूपवती होती तो कोई-न-कोई धार्मिक सेठ उसे मंदिर से अपने भोग के लिए ले जाता- लेकिन वृद्ध देवदासियों को बिना सुरक्षा के ही मंदिरों से निकाल दिया जाता था। इन देवदासियों के प्रथम संभोग का अधिकार कई जगह उस व्यक्ति को भी मिलता था जो मंदिर को सर्वाधिक धनराशि दान देता था- और कई जगह यह सौभाग्य केवल ब्राह्मणों को मिलता था।''

बोंसाई और वेश्या

इतिहास में अंकित कुलीन वेश्याओं को इसलिए याद किया जाता है कि इनका समर्पण महान नायकों के लिए था। लेकिन आज की इन बोंसाई वेश्याओं का क्या किया जाए, जिनका नाम लेना भी अपने अंदर गलीज पैदा करना है। यह प्रसंग स्त्री-विमर्श के उन स्व-घोषित नायिकाओं के लिए एक सीख भी है जो सीता, द्रोपदी-जैसे मिथकीय चरित्रों तक तो ठीक, आज के चरित्रों के रूप में भी इन 'गलीजों' के बदले धनिया, झुनिया या 'उसने कहा था' की सूबेदारनी, 'आकाशदीप' की चंपा आदि काल्पनिक चरित्रों की शरण में जाते दिखाई देते हैं।

''इन वेश्याओं के अवरुद्ध मानसिक विकास को देखकर सुकीर्ति को उसी बोंसाई पद्धति की याद आ गई थी। इन वेश्याओं में से करीब नब्बे प्रतिशत बारह-तेरह वर्ष की उम्र में ही इस माहौल में आकर बंद हो जाती हैं। किसी बाड़े में बंद भेड़ों का-सा जीवन उनका। चकले की मालकिन एवं दलाल उन्हें किसी से मिलने-जुलने तक नहीं देते कि कहीं चिडिय़ा उड़ न जाए। मुश्किल से इनकी भाषा में सत्तर-अस्सी शब्द होते हैं- अंगिया, खटिया, अंगना, जोवना, तकिया, बतिया, कंगना, चूमा, चिपटा, लिपटा जैसी सिर्फ देह की भाषा तक ही सीमित। अधिकांश का मस्तिष्क एक बच्चे के मस्तिष्क से अधिक विकसित अवस्था में नहीं रहता है।...''

अपने इस उपन्यास में मधु कांकरिया ने इस बात का बहुत साफ संकेत किया है कि इस मानवाधिकार के युग में वंचितों को मुख्यधारा में लाने के लिए केवल सैद्धांतिक सहानुभूति से काम नहीं चलेगा और समाज-सेवा जैसे मानवीय मुद्दों को अपने कैरियर की सीढ़ी बनाने की कुटिलता से भी बचना होगा। एक छोटी-सी बंद दुनिया में कैद और वहीं अपनी चेतना की पहली से लेकर आखिरी सांस तक का सफर करने वाली ये लाइनवालियों को उस तरह की सहानुभूति की भी दरकार नहीं है, जिससे कि उन्हें अपनी इसी दुनिया में पहचान अथवा सुविधाएं मिलें। जिसकी कोई पहचान ही नहीं है, उसे सुरक्षा कैसे दी जा सकती है और देगा भी कौन? दी भी क्यों जानी चाहिए? उपन्यास की नायिका इस 'चेतनाहीन चेतना' के बारे में बताती है, ''तुमने देखा है, ये कितनी मूर्ख और कूप-मंडूक होती हैं। एक बच्चे की तरह भोला मन होता है इनका। सहज ही किसी की बात का विश्वास कर लेती हैं ये। पहले की वेश्याएं तो फिर भी रिझाने, जलाने और तड़पाने के गुर जानती थी पर आज की लाइनवालियां तो खुद ही इतनी जली-भुनी, चिड़चिड़ी और तपी रहती हैं कि ये यह भी नहीं समझ पातीं कि ग्राहक इनसे सिर्फ देह ही नहीं, इनके नारीत्व की गरिमा को भी भोगने आता है। परिस्थितियों ने कोड़े मार-मार कर इनकी शर्म, इनका स्व और इनकी अंतर्निहित गरिमा, सभी कुछ छीन लिया है। तुम अब इन सूखी ठठरियों से कैसे आत्मसम्मान की मदद करते हो?...

धर्म और व्यभिचार

किसी रचना में, खासकर एक उपन्यास में तो निश्चय ही, लेखक के लिए सबसे चुनौती-भरा काम होता है, अपना स्वायत्त संसार रचने के बाद कैसे उसके चरित्रों को उस संसार का नागरिक बना पाता है, जहां वे चैन की सांस ले सकें, या, कहा जाए कि लेखक की समानांतर दुनिया का अस्तित्व बचा रह सके। सलाम आखिरी के 20वें अध्याय 'जहां हर घर कालाहांडी है' में लेखिका ने अपनी दुनिया का यह सिंहावलोकन प्रस्तुत किया है। समाज में अराजकता और अनाचार फैलाने वाली ताकतों को चिह्नित करने के बाद भी कैसे वह व्यवस्था लाई जा सके जिससे कि कीड़े-मकोड़ों की तरह, जीते-जी नरक की जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त असंख्य लोगों का यह सिलसिला फिर से सिर न उठा सके।

धनबाद के पारसनाथ मंदिर में जो दृश्य दिखाई दिया था, उसी ने उसके मन में भारतीय समाज में बोंसाई पौधों की फसल के समान तैयार किए जा रहे वेश्याओं के संसार की ओर आकर्षण पैदा किया था।... हालांकि वे वेश्याएं नहीं थीं, मगर उतना ही गलीज और घिनौना जीवन जीने के लिए अभिशप्त! कौन थे वे लोग, जो नए भारत की जातीय पहचान बनकर उभर चुके थे और आजाद भारत के दावों के समानांतर वास्तविक भारत के रूप में दोमुंहे केंचुओं की तरह इस महादेश की सड़ांध में कुकुरमुत्तों की भांति फैलते चले जा रहे थे।... उनकी धार्मिक आत्माओं को इतनी पीडि़त मानवता छू नहीं पाती।...''

वह परिदृश्य यहीं पर ठहर नहीं जाता है, आगे जंगल की ओर मुड़ती है सुकीर्ति तो वहां भी भूख, बेकारी और हाहाकार का तांडव! कुछ औरतें महुवे के पेड़ के नीचे उसके पत्ते बीन रही थीं। कुछ औरतों ने उन पत्तों को जलाया और पूछने पर बताया कि जले हुए पत्तों के चूरे से घर में रोटियां बनाई जाएंगी। महुए के जो बीज औरतें बीनेंगी, उसका आधा हिस्सा उन्हें आंख बंद करके पुजारियों और ठेकेदारों को अपना हिस्सा देना होगा, वरना पूरा परिवार भुखमरी और बेकारी की आग में झुलस जाएगा। मंदिर के पास करोड़ों का फंड है, इतना कि उससे भिखारियों के इस विशाल जुलूस को खुशहाल बनाया जा सकता है, मगर वे लोग ऐसा नहीं करेंगे।

मंदिर के पंडों, पुरोहितों, ठेकेदारों, एजेंटों की देह की तरह फूलते चले जा रहे और भिखमंगों, लाइनवालियों तथा आदिवासियों की तरह सिकुड़ते चले जा रहे हमारे राष्ट्रीय चरित्र को लेकर इतनी गहरी चिंता व्यक्त करने के बावजूद कैसे इनको ठिकाना लगाया जाएगा, इसका उत्तर उपन्यास में नहीं है, शायद हम में से किसी के पास नहीं है। लेखिका की ओर से जो निदान प्रस्तुत किए गए हैं, माया देवनार, रेशमी, पिंकी, उसकी बेटी मलका... और इसी तरह के उनके उत्तराधिकारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो पहले की अपेक्षा कहीं भयावह यौनरोगों और कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होते जा रहे हैं!... सुकीर्ति ने उपन्यास का अंतिम अध्याय 'इवेन गांधी एंड ईसा वर नॉट एक्सेप्टेड हंड्रेड परसेंट' लिखते हुए सुना: ''रेशमी को उसके चकले की मालकिन ने अपने चकले से निकाल दिया था और उसकी जगह उसने पिंकी की लड़की मलका को ले लिया था।...

''जीवन-संध्या में मिले इस निष्कासन से रेशमी का रहा-सहा संतुलन भी गड़बड़ा गया था।

''साढ़े तेरह वर्षीया मलका अब फुल टाइम वेश्यावृत्ति में आ गई थी। उसी का ग्यारह वर्षीय भाई मुहल्ले के गंदे बच्चों के साथ रह-रहकर कई कुटेवों का शिकार हो गया था। विजय से एक बार सुकीर्ति ने चर्चा की थी। पिंकी के लड़के राजा की कि किसी भी प्रकार उसका किसी स्कूल में दाखिला हो जाए तो उसका खर्चा मलका उठाने को तैयार थी। उसकी मां ने मरते वक्त कहा था, वह अपने छोटे भाई का ख्याल रखे। यूं भी भाई के प्रति ममता का पार नहीं था।...''

मगर यह कोई औपन्यासिक अंत नहीं है। इसीलिए सलाम आखिरी को लेकर कई लोगों ने यह सवाल उठाया था कि इसे उपन्यास माना जाय या किसी और साहित्यिक विधा का नाम दिया जाए! असल में जिन लोगों को इस महागाथा में चरित्रों के रूप में समेटा गया है, वे भी बेनाम लोग ही तो हैं, बिना निजी पहचान के जन्म लेते हैं, एक पल के लिए किसी की पहचान बनकर अंकुरित होते हैं, मगर दूसरे ही पल उसी बदबूदार गटर के लिसलिसे बहाव में गायब हो जाते हैं। अगर संसार की महाशक्ति की दहलीज पर पहुंच चुके इस महादेश के सवा अरब लोगों के पास इसका उत्तर नहीं है तो हिंदी की लेखिका मधु कांकरिया के पास भला कैसे होगा?

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