अलंग की डायरी' (पंकज बिष्ट, मार्च, 2012) ने बहुत-से संवेदनशील मुद्दों को कुरेद दिया। इससे 22 महीनों का मेरा, गुजरात मेरी टाईम बोर्ड (गु.मे.बो)के प्रशिक्षण संस्थान का कार्यकाल जुड़ा है।
सन् 2003 में इस्पात मंत्रालय ने शिप ब्रेकरों की गुहार पर श्रमिक-प्रशिक्षण के लिए हमारे संस्थान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सेकेंड्री स्टील टेक्नोलॉजी, मंडी गोबिंद गढ़ को दायित्व सौंपा। ऐसा इसलिए क्योंकि अलग जहाजों के काटने से प्राप्त स्टील; लोहा मंडी, मंडी गोबिंदगढ़ में बड़ी मात्रा में पहुंचता है जहां इसकी रीरोलिंग के लिए सैकड़ों छोटे-छोटे कारखाने हैं। श्रमिकों के सुरक्षा संबंधी प्रशिक्षण के लिए पहले भी अलग जाकर हमने एक-दो दिवसीय कार्यक्रम किए थे। ऐसा नहीं था कि गुजरात में सुरक्षा परिषद या प्रशिक्षकों का अभाव था, बल्कि यह इसलिए आवश्यक हो गया था कि नब्बे फीसदी श्रमिक बिहार, उत्तरप्रदेश के गांवों से थे जिन्हें उनकी भाषा में बताने वाले उपलब्ध नहीं थे। तत्कालीन पोर्ट ऑफीसर पांडे ने अनुशंसा की थी कि सुरक्षा का दायित्व नेशनल इंस्टीट्यूट को ही पूर्णकालिक रूप में दिया जाए। बातें अधिकारियों और फाइलों तक ही सीमित रह गईं। सन् 2000 में आए भूकंप इस प्रस्तावित योजना पर काफी मलबा ढेर कर गए। परंतु जहाज कटने का काम तो पुन: निर्बाध तेजी से चल निकला था और उसी तेजी में मरने वाले प्रवासियों की संख्या भी बढ़ रही थी। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि यदि विदेशी मीडिया ने इस बाबत हो-हल्ला न मचाया होता तो हमारे भ्रष्ट तंत्र में ये मौतें चीन की दीवार-सदृश दफन हो रही थीं, होती रहतीं।
खैर, सितंबर, 2003 में मुझे सात महीने के डेपुटेशन पर अलंग भेजा गया ताकि प्रशिक्षण-कार्यक्रम तैयार किया जा सके। सुरक्षा-तालीम के लिए जो कन्सैप्चुअल प्लान वर्ष 1999 में मैंने गुजरात मेरी टाईम बोर्ड को सौंपा था वह अपने अर्ध-निर्मित 'तालीम अने कल्याण संकुल' के रूप में अलंग के एक किनारे ऊंची जगह पर खड़ा था जिसका उपयोग तूफानों और समुद्री बाढ़ के दौरान जान-माल की सुरक्षा के लिए किया जा सकता है। तब गु.मे.बो को संकुल को मुझे सौंपना स्वीकार नहीं था। यह कहा गया कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इसका उद्घाटन कर लें तब यहां कक्षाएं ली जा सकती हैं। कार्य खुले में शेड्स में बने दो कमरों से ही शुरू हो गया। व्यवस्था यह थी कि आई.टी.आई., भावनगर से तीन प्रशिक्षक डेपुटेशन पर लिए गए थे जो हर प्लाट पर जाकर गैस-कटिंग में सुरक्षा की सावधानियों पर फिल्म दिखाया करते थे और सवालों का जवाब देते थे। इसमें न तो उन्हें विशेष रुचि थी और न प्लाट के मालिकों को क्योंकि सारे मजदूर तीन घंटे के लिए काम छोडऩे को बाध्य हो जाते थे। प्रशिक्षक एक तरह की सजा काट रहे थे क्योंकि जो पैसा उन्हें भावनगर रहने से मिलता था उतना भी यहां प्राप्त नहीं होता; उलटा बस का किराया जेब से जा रहा था। और जिनके लिए यह कार्यक्रम (दो महीनों में एक बार नंबर आता था) किया जा रहा था न उन्हें कुछ सीखने को मिलता था। कई बार वे यही फिल्म देख चुके थे! सौ के लगभग जहाज तोडऩे वाले प्लाटों में तब भी अलंग से, दुनिया में सबसे ज्यादा स्टील स्क्रैप उत्पादित हो रहा था। तब भी तीस हजार के आस-पास मजदूर टूटते जहाजों के बीच बिखरी जिंदगी जी रहे थे। तब भी जहाजों के मालिक भावनगर में रहते, सुबह जाकर शाम लौट आते थे। समुद्र किनारे की इस भंगार बस्ती में, बिना बिजली-पानी के समुद्री हा-हाकारके बीच रहने वाले गरीब, अनपढ़, प्रवासी मजदूर और उनके स्वामिभक्त सुपरवाईजर (अलंग की शब्दावली में मुकादम) रह जाते थे। रात के अंधेरे में हालांकि काम कानूनन वर्जित था, पर बाजार के आर्थिक समीकरण कुछ और करवाते हैं। मालिक के लिए सबसे पहला मंत्र होता है—'जल्दी काटो और बेचो!' ज्यादा देर का मतलब है चोरी, निगरानी, धरपकड़, गु.मे.बो. के अधिकारियों की मुट्ठी-गर्माई, अन्य एजेंसियों से माथा खपाई! सरवैय्या जो वहां नाम के वास्ते फायर-ब्रिगेड और रात-बिरात हुई वारदातों के चश्मदीद गवाह थे, तंत्र को गालियां देते नहीं थकते थे। कुछ ऐसे माहौल में शुरू किया था अभियान शिक्षा का। इसलिए मैंने लौटकर अपने कविता-संग्रह बस में बिकती किताब का समर्पण इन्हीं प्रवासी मजदूर भाइयों की जिजीविषा और साहस को किया है।
वे अपने गांव-देहातों में, जाहिर है, बेरोजगारी-भुखमरी और सामाजिक शोषण से त्रस्त थे तभी जानते-बूझते इस घटिया और जान जोखिम में डालने वाले काम को अपनाने के लिए बाध्य थे। प्रत्येक शिप ब्रेकर के लिए चाहे जिस प्लाट पर काम करते, वे मात्र भेड़ थे जिससे श्रम का ऊन उतार कर उसे दुत्कारा जा सकता है। वे अस्थायी ठेका मजूर, पीने और नहाने के पानी को तरसते, एक-एक खोली में पच्चीसों-तीसों रहते, जीने की न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित कई प्रकार के शोषण का शिकार थे जिनमें सूदखोरी, नशाखोरी, ब्लू फिल्मों के थियेटर और अन्य अनैतिक-असामाजिक गिरोहों की लूट-खसोट तो थी ही पुलिस का आतंक भी था जो उन्हें आइडेंटिटी कार्ड (पहचान-पत्र) न होने की सजा कई रूपों में देता था।
इधर उनके प्रशिक्षण पर कोई खर्च करने को तैयार न था। गुजरात मेरी टाईम बोर्ड का कथन था कि फैक्ट्रीज एक्ट के अनुसार यह दायित्व मालिकों का है। मालिक यह दलील देते न थकते कि हमारा काम सीजनल है—यह कोई स्थायी धंधा नहीं है; आज जहाज है कल मिलेगा कि नहीं इसकी क्या गारंटी? दूसरा मजदूर जब तक जहाज है, तभी तक मेरा है; कल किस प्लॉट पर होगा, क्या मालूम? फिर हम लाखों रुपए गु.मे.बो. को किराया तथा अन्य शुल्क में देते हैं, उनका कोई फर्ज नहीं बनता? शिप ब्रेकर्स ऐसोसियेशन के कर्ता-धर्ताओं से बैठकें कर इस बात के लिए राजी करवाया कि ठीक है तीन दिन के प्रशिक्षण हेतु एक प्लाट अपने पांच-पांच मजदूर भेजेगा। एक बैच में तीस मजदूर ही ट्रेनिंग पाएंगे। शुरू में दानी शिप ब्रेकरों का साथ मिला जो तालियों और जय-जयकार करवा मजदूरों के खाने और चाय-पानी तथा पहचान-पत्र का खर्चा (तीन दिन का सौ रुपया प्रति मजदूर) दान करते थे। गु.मे.बो. को एक नया पैसा खर्च नहीं पड़ता था। इस तरह तरकीब काम कर गई और शिप ब्रेकर मालिकों को यह जम गया कि इस तरह प्रशिक्षित मजदूर उनके लिए अधिक उपयोगी हैं। मैं आज भी तहे दिल से आभारी हूं कुलदीप शर्मा का जो योग के शिक्षक (भावनगर विश्वविद्यालय) होने के साथ-साथ एक उत्तम इंसान थे और नि:स्वार्थ सेवा-भाव से मजदूरों को अपने जीवन में संयमी-साहसी होने की तकनीक सिखाते रहे। इसी उपक्रम में सहयोग मिला गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद का जिन्होंने गुजराती भाषा सिखाने वाला कायदा और कापी-पेंसिल मुफ्त मुहैया करवाए। साथ मिला भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर के हिंदी विभाग तथा एन.एस.एस. प्रभारी वाघेला का जिन्होंने हिंदी सीख रहे एम.ए. के गुजराती विद्यार्थियों का दल चार-चार की संख्या में अलंग भेजना स्वीकार किया, जो मजदूरों के बीच तीन दिन गुजराती भाषा का ज्ञान करवाते। लक्ष्य था कोई भी मजदूर अंगूठा न लगाए बल्कि गुजराती में सही, अपना नाम लिखकर पगार ले। हर बैच में मैं यह नोट करता था कितने हैं जिन्होंने विद्यालय का मुंह तक नहीं देखा? आंखें फटी रहतीं कि नब्बे फीसदी चौथी से कम पढ़े थे; तीस फीसदी बिल्कुल निरक्षर थे। हैरानी होती है कि इस यज्ञ में लोग स्वयं जुड़ते चले आ रहे थे। प्रजापति ब्रह्मकुमारी, भावनगर से बहनें आकर एक दिन धूम्रपान, तंबाकू-गुटखा, शराब आदि की बुराइयों को समझातीं। उनका जादुई असर मजदूरों से दुर्व्यसनों को दूर करने लगा। रेड क्रास सोसायटी, अलंग के डॉ. हितेश भाई जुड़े जो मजदूरों में प्राथमिक उपचार की शिक्षा तो देते ही; साथ ही दुर्घटना होने पर पीडि़त की किस तरह मदद करनी है; असावधानियों को किस तरह दूर करना है इत्यादि की गहन शिक्षा देते। कालांतर में तो सभी प्रशिक्षुकों का मेडिकल-चेकअप भी अनिवार्य हो गया।
सबसे बड़ी राहत मजदूरों को पहचान-पत्र पाकर मिलती क्योंकि इसमें उसकी फोटो पहचान के साथ प्लाट नंबर और शिप ब्रेकिंग कंपनी का पता भी होता जो पुलिस के दमन से बचाता। इसमें मेरी मदद महुआ के फोटोग्राफर भोला भाई ने बहुत कम पैसों में पहचान पत्र बनाकर की। जिस लगन से पहले दिन वे तीस मजदूरों का फोटो और पूरा विवरण रिकार्ड करते और तीसरे दिन समापन-सत्र में सारे प्रतिभागियों में वितरित करते, वैसी लगन बिना मानवीय जज्बे के नहीं मिलती। देखते-देखते यह प्रशिक्षण अभियान रंग जमाने लगा। तालीम अने कल्याण संकुल की चाबियां मुझे सौंप दी गईं। ओपन एयर थियेटर में मजदूरों के मनोरंजन के लिए उनके द्वारा बनाए कार्यक्रम हुए। अपनी तरफ से मैंने कवि-सम्मेलन आयोजित करवाया जिसमें भावनगर, तलाजा और महुआ के गुजराती कवि-साहित्यकारों को आमंत्रित किया। मेरा कहना था—'राजनीतिज्ञों, पार्टियों, सरकारी अफसरों को हो सकता है इस गरीब जनता से कोई सरोकार न हो पर साहित्यकारों! तुम क्यों खामोश हो? यहां लगातार इतनी जानलेवा दुर्घटनाएं हो रही हैं तो गुजराती साहित्य में बेचैनी और खलबली क्यों नहीं मच रही? क्या सिर्फ इसलिए कि यह तबका प्रवासी मजदूरों का है? इनकी जान इंसानी जान नहीं? क्यों आज तक, इतने सालों के बाद भी कोई कहानी, कोई उपन्यास, कोई कविता इस शोषण पर नहीं...?' आवाज में आवाज मिलाई बल्लभ नगर के सरदार बल्लभ भाई पटेल विश्वविद्यालय से नवनीत चौहान और उनके रंगकर्मी साथियों ने। नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन तीन दिन हुए जिसने मजदूरों की चेतना में उद्यम और साहस भर दिया। यूनियन बनने की आधारभूमि तैयार हो गई।
मुंबई पोर्ट ट्रस्ट और मेटलवर्कर्स फेडरेशन की ओर से दारूखाना, मुंबई स्थित शिप ब्रेकर्स कंपनियों के कुछ मजदूर यही त्रिदिवसीय प्रशिक्षण प्राप्त करने अलंग में आए क्योंकि पुराना होने के बावजूद वहां इस प्रकार की सुविधा नहीं थी। इसी मॉडल पर वहां की यूनियन ने श्रमिकों का प्रशिक्षण शुरू किया और अपनी यूनियन की एक शाखा अलंग में स्थापित की। अब तक अलंग की शिप तोडऩे वाली गतिविधि बाकायदा इंडस्ट्री बनकर रजिस्टर हुई—अलंग शिप रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री के नाम से। मैं भूल नहीं पाता सरदार सुखबीर सिंह को जिन्होंने अपनी जिंदगी नि:स्वार्थ भाव से मजदूरों की चेतना जगाने में खपा दी। उनका संपादन—अलंग उजाला नामक पत्रिका के तीन अंक आज भी उस ऐतिहासिक समय-खंड के दस्तावेज हैं जब मजदूरों में मेधावी गीतकार और जन-गायक बन रहे थे। अतिरिक्त जोश दिखाने वाले समाजसेवी सुखबीर को प्लाट के मालिक ने अपने गाजियाबाद स्थित कारखाने में भेज दिया। परंतु, यूनियन जम गई। मुझे भी मेरा दंड मिला; तुरंत वापस बुला लिया गया। परंतु, संतोष नहीं होता फोन सुनकर, जब अलंग से कोई पुरानी आवाज मिल जाती है—''धोखा हो रहा है! मजदूरों को जेब से, प्रशिक्षण के नाम पर सिर्फ प्रमाण-पत्र, के लिए खर्च करना पड़ता है, ताकि किसी प्लाट पर काम मिल सके। जहाजों की गिनती तीन गुना बढ़ गई है; बिजनेस और मुनाफा दस गुना बढ़ गया है... पगार डेढ़ गुना ही हुई है। महंगाई तो आप ही बताएं 2003 की तुलना में!''
आपकी आंखों देखी रिपोर्ट ने आज की स्थिति को उजागर कर दिया है, जो यही थी दस साल पहले भी—''हो सकता है यह एक सभ्य समाज की जरूरत हो पर यह आंख बंद कर विकास की वृद्धि की दर को बढ़ाने के लिए बेताब समाज की जरूरत नहीं लगती,'' अर्ध-सत्य है। पूरा सच यह है कि अलंग की रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री पुराने जहाज तोड़कर जितना कचरा देश में इकट्ठा फेंक रही है उसे विकास की कोई दर संभाल नहीं पाएगी। अगर इस पूरे उपक्रम का प्रबंधन समुचित ढंग से न किया गया तो गरीब मजदूरों की प्रवंचना पूरे देश को नाकों चने चबवाएगी। श्री विद्याधर राणे तथा विदेशी श्रमिक यूनियनों द्वारा मुहैया कराए जाने वाले वार्षिक मेडिकल कैंप ऊंट के मुंह में जीरा ही सिद्ध हो पाए हैं। हजारों करोड़ रुपए जो प्रोवीडेंट फंड के रूप में इन अस्थायी अनजान मजदूरों द्वारा जमा पड़े हैं; सरकारी खातों से जिन्हें कोई प्राप्त करने वाला नहीं बचा, क्या इन्हीं पर खर्च नहीं किए जा सकते? आर्गनाइज्ड सेक्टर के मजदूरों की बराबरी तो सपना है; पहले तो अलंग के जहाज-भंजक मजदूरों को इंसान समझा जाए। पार्टी, राजनीति, जाति, राज्य, भाषा, रंग आदि से ऊपर उठकर सभी सहानुभूतिपूर्वक तत्काल इनके सम्मानजनक जीवन के लिए आवश्यक व्यवस्थाओं पर ध्यान दें।
अलंग में जितना बिजनेस छुपा हुआ है, उसका एक-तिहाई भी देश ने नहीं दुहा। कारण कि सबको खजाने की लूट ने अंधा कर दिया है। सारा ध्यान तत्काल लाभ पर लगा हुआ है। पुराने जहाजों में असंख्य संभावनाएं विद्यमान हैं। हैरानी होती है कि हमारे सागर-तट पर उन्नत युद्ध-पोत आकर कटते टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और हम स्वयं एक उन्नत युद्ध-पोत तक नहीं बना पाते; उसके लिए लाखों डॉलर देकर, किराए पर हमारी तट-रक्षा के लिए विदेशी जहाज आते हैं!
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