Saturday, August 13, 2016

पेनफुल साइट्स! बंगाल भुखमरी के दौरान अपने गांव में भूखों की कोई मदद किये बिना श्यामाप्रसाद ने भव्य वल्गर बागान बाड़ी कैसे बनाया जिसे देखकर घिन आ रही थी? हिंदू महासभा का भुखमरी रिलीफ वर्क का गिरोहबंद ढकोसला उतना ही फर्जीवाड़ा था,जितना मुनाफावसूली के लिए श्यामाप्रसाध का हाट या आशुतोष मैंसन की डिस्पेंसरी। मशहूर चित्रकार चित्तोप्रसाद की भूखमरी पर रपट में खुलासा



पेनफुल साइट्स!
बंगाल भुखमरी के दौरान अपने गांव में भूखों की कोई मदद किये बिना श्यामाप्रसाद ने भव्य वल्गर बागान बाड़ी कैसे बनाया जिसे देखकर घिन आ रही थी?
हिंदू महासभा  का भुखमरी  रिलीफ वर्क का गिरोहबंद ढकोसला उतना ही फर्जीवाड़ा था,जितना मुनाफावसूली के लिए श्यामाप्रसाध का हाट या आशुतोष मैंसन की डिस्पेंसरी।
मशहूर चित्रकार चित्तोप्रसाद की भूखमरी पर रपट में खुलासा
अनुवादः पलाश विश्वास
(हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल के सवर्ण जमींदारों के हितों के मुताबिक बंगाल विभाजन पर अड़े थे और इस मकसद को उनने भारत विभाजन के जरिये अंजाम तक पहुंचाया। जबकि कविगुरु के शांति निकेतन में चित्रकला विभाग के नंदलाल बसु ने जिन चित्तप्रसाद को वहां दाखिला देने से इंकार कर दिया, वही चित्तप्रसाद  लीनाकोट माध्यम के न सिर्फ भारत के श्रेष्ठ चित्रकारों में हैंं,सोमनाथ होड़ की तरह चित्रकला के माध्यम से उनने बंगाल भुखमरी की जिंदा रिपोर्टिंग की और तेभागा आंदोलन को बेहतर जानने का माध्यम भी चित्तप्रसाद हैं।कला जगत में जनपक्षधर प्रतिबद्धता मेंं वे बेमिसाल हैं।इन दिनों भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी का भयंकर महिमामंडन करके  गांधी हत्या को अंजाम तक पहुंचाने की बजरंगी बिरादरी की मुहिम बहुत तेज है।चित्तप्रसाद ने चित्रकला के अलावा समसामयिक ज्वलंत मुद्दों पर चिट्ठियां भी लिखी हैं।उनकी ये तमाम चिट्ठियां समय के  प्रकाशित दस्तावेज हैं।1943-44 के दौरान चित्तप्रसाद ने बंगाल भुखमरी पर अनेक सचित्र आलेख कम्युनिस्ट पार्टी के समाचार पत्र पीपुल्स वार में लिखे।इनमें से एक आलेख श्यामाप्रसाद मुखर्जी के गांव जिराट को लेकर भी है।उस वक्त गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कर रही हिंदू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी बहुत बड़े नेता थे।इस आलेख के कुछ अंश दि वायर ने फिर प्रकाशित किये हैं।इस आलेख में हिंदू राष्ट्र भारत के बारे में श्यामाप्रसाद मुखर्जी की दृष्टि का खुलासा है।हुगली जिले के श्यामाप्रसाद के गांव जाकर बंगाल की भुखमरी की पृष्ठभूमि में श्यामाप्रसाद के कृतित्व व्यक्तित्व पर लिखा यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।चित्तप्रसाद अगस्त ,1944 में श्यामाप्रसाद के गांव जिराट गये थे तो वहां बलागढ़ इलाके के तमाम आम लोगों के नजरिये से भुखमरी के दौरान श्यामाप्रसाद के बनाये बागान बाड़ी और उनके नये हाट के ब्यौरे पेश करके उनने श्यामाप्रसाद की असल तस्वीर पेश की है।)


महज दो साल में पूरे भारत में किसी बंगाली सज्जन ने राष्ट्रीय ओहदा हासिल करने में कामयाब हुआ हो,तो वे इकलौते डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं।ऐसा क्यों न हो?वे आधुनिक बंगाल के निर्माताओं में से अन्यतम सर आशुतोष मुखर्जी के सुपुत्र हैं जिन सर आशुतोष ने ब्रिटिश सरकार से लड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय को संस्कृति और ज्ञान का अंतरराष्ट्रीय केंद्र बना दिया।1943 में गवर्नर एमरी के कुशासन के खिलाफ पदत्याग करके श्यामा प्रसाद मुखर्जी रातोंरात राष्ट्रीय नेता बन गये।जाहिर है कि बंगाल की भुखमरी के विभीषिकामय दिनों में बंगाल के गवर्नर के खिलाफ वे ही सबसे सशक्त कंठस्वर थे पूरे देश में।इन्हीं डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगाल रिलीफ फंड में देश के चारों हिस्सों से लाखों रुपये की आमद हुई।असल मसला यही है कि बंगाल को बचाने के लिए जो लाखों रुपये देश की जनता ने देश के हर हिस्से से ऐसे राष्ट्रीय नेतृत्व के हवाले कर दिये तो उनने भुखमरी का  अमावस जी रहे अपने खुद के गांव में एक भी दिया इन रुपयों से जलाया क्या उन्होंने।देश के लोगों को शायद इस बारे में जानने में दिलचस्पी होनी चाहिए।


यही जानने और इसी मकसद से बंगाल का एक मामूली कलाकार मैं सर आशुतोष और डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गांव हुगली जिले के जिराट की तीर्थयात्रा पर निकला।बहरहाल जून महीना शुरु होते न होते एकदिन मैं ट्रेन पकड़कर कलकत्ता से चालीस किमी दूर खरनारगाछी पहुंचा और फिर वहां से पैदल कुछ ही किमी दूर जिराट पहुंच गया।रास्ते में मैं  बलागढ़ इलाके के  छह सात गांवों से गुजर गया।इस दरम्यान अपनी आंखों से जो कुछ मैंने देखा वह अत्यंत भयानक था।हुआ यह कि सालभर उस इलाके की भयंकर नदी बेहुला में बाढ़ें आती रहीं।इस नदी से यह इलाका दो हिस्सों में बंटा हुआ था।बाढ़ की वजह से दोनों किनारों पर बसे तमाम गांव उपजाऊ कीचड़ में दब गये।देहाती लोगं की तमाम झोपड़ियां न सिर्फ बाढ़ के पानी में समा गयीं बल्कि तूफां में कुछ उड़ भी गये।बंगाल के गांवों में धान को जमा करने वाले देसी गोदाम तमाम धान गोला खत्म हो गये हर गांव में।बलागढ़ इलाके के सात गांव लगातार बारह दिनों तक पानी के नीचे जलसमाधि में थे और करीब सात हजार देहाती विस्थापित थे।यह हादसा पिछले साल हुआ था।कायदे से नदी की तलहटी की उपजाऊ कीचड़ से खेतों को इस साल सोना उगलाना चाहिए था।उपजाऊ और समृद्ध माटी से उपजे धान से इस इलाके को किसी बगीचे की तरह लहलहाना चाहिए था।ऐसा हुआ क्या? क्या पिछले साल का अभिशाप इस साल किसानों के लिए वरदान बना?ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।दरअसल किसानों को खेत जोतने तक का मौका नहीं मिला।बेहुला की बाढ़ के कहर के तुरंत बाद पूरा बंगाल भुखमरी के शिकंजे में था और चूंकि उनकी धान की फसल बाढ़ से तहस नहस हो चुकी थी तो बलागढ़ इलाके के किसानों को भी दूसरे इलाके के लोगों की तरह बाहर से आने वाले चावल मंहगे दरों पर खरीदना पड़ा और नये सिरे से घर बनाने के लिए जो सरकार की तरफ से दस रुपये का लोन उन्हें मिला,उसे उन्हें इसी मद में खर्च कर देना पड़ा।जब वे दस रुपये भी खर्च हो गये तो खाने के लिए चावल खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे,बीज के लिए वे धान कैसे खरीदते और बीज भी न हो तो वे खेत कैसे जोत लेते।नई फसल की उम्मीद भी नहीं रही।


गरीब देहाती आम खाकर जी रहे थे
इसलिए पूरे इलाके में मैंने मुस्कुराते हुए लहलहाते धान के खेत नहीं देखे।इसके बदले जमीन बंजर पड़ी थी।कड़ी धूप में पकती हुई जमीन ऊपर नीचे फट रही थी।दरारें दीख रही थीं।जिसमें कहीं कहीं घास और खर पतवार उगे हुए थे।बेहतर हालत में जो इ्क्के दुक्के किसान थे,उनने अपने अपने खेत में जूट लगा रखे थे। लेकिन वे भी इतने बदकिस्मत निकले कि  इस साल मानसून इतना लेटलतीफ रहा कि खड़े खड़े खेत में ही जूट सूख गया।किसानों ने मुझे सिलसिलेवार बताया कि कलकत्ता के बाजार के लिए उगाये जाने वाले आलू,प्याज और पूरी रबि की पसल कैसे तबाह हो गयी लेट मानसून की वजह से।गनीमत यह थी कि इलाके में आम के पेड़ सारे के सारे पुराने और लंबे थे।बाढ़ उनका कुछ बिगाड़ न सकी।इसी वजह से एक चौथाई बलागढ़ की किसान आबादी आम और आम की गुठलियां खाकर गुजर बसर कर रही थी।जाहिर है कि आम एक फल है जिसे खाया तो जा सकता है लेकिन खालिस आम खाकर जीना मुश्किल होता है।नतीजतन जैसा हमने देखा कि इलाके में बड़े पैमाने पर हैजा फैला हुआ था।मलेरिया का प्रकोप अलग था।ऊपर से चेचक।महामारियों से भूखे किसान जूझ रहे थे इसीतरह।मसलन राजापुर गांव के  52 परिवारों में से सिर्फ छह परिवार बचे थे और वे भी मलेरिया से बीमार और उनके पास न खाने के लिए अनाज था और न पहनने के कपड़े थे।यह किस्सा हर उस गांव का था ,जहां जहां से होकर मैं गुजरा।मैंने उन देहातियों से पूछा कि उसी इलाके के महान नेता डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनकी मदद के लिए क्या किया।मैंने बांएं दाएं सबसे यही सवाल पूछा लेकिन उस पूरे इलाके में एक भी शख्स ऐसा नहीं मिला ,जिसने उनके बारे में कुछ अच्छा कहा।


इसके बदले मुखर्जी के इलाके के  उन देहातियों ने मुझसे सिलसिलेवार कहा कि कैसे गांव में सरकारी लंगरखाना खुला, जहां चार सौ लोगों को खाना देने का इंतजाम था।रोजाना यह लंगर खाना दो महीने तक चालू रहा।उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने उन्हें हर परिवार के हिसाब से पंद्रह आना दिये और गांव के हर व्यक्ति को चुवड़ा खाने के लिए दिये। इसके अलावा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने हर आदमी को चौदह पैसे,हर औरत को दस पैसे और हर बच्चे को पांच पैसे दिये। किसानों ने उसी गांव में स्टुडेंट्स फेडरेशन और मुस्लिम स्टुडेंट लीग की मदद के बारे में भी बताया जिन्होंने बाढ़ के तुरंत बाद गांव वालों को कपड़े बांटे।बारह मन बीज दिये।काफी सब्जियां बांटीं और इसके अलावा हर परिवार को पांच पांच रुपये दिये।उन्होंने बताया कि कम्युनिस्ट पार्टी ने भी हर व्यक्ति के हिसाब से एक पाव चावल और एक पांव आटा दिये।डुमुरदह उत्तम आश्रम ने हर परिवार को दो रुपये का अनुदान दिया और कंट्रोल रेट पर हर परिवार को तीन महीने तक आटा दिया।संक्षेप में हर किसी ने संकट की उस घड़ी में उन बेसहारा किसानों की मदद करने की कोशिश की।लेकिन जिले के सबसे बड़े आदमी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सबसे शक्तिशाली संगठन हिंदू महासभा ने उनकी किसी किस्म की कोई मदद नहीं की।मैंने श्रीकांति गांव में उनके मातबर किस्म के एक व्यक्ति से सीधे पूछा कि उनकी क्या मदद की है बेंगल रिलीफ कमिटी ने।लेकिन उनने न किसी बेंगल रिलीफ कमिटी के बारे में सुना था और न किसी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में।लेकिन सर आशुतोष का नाम बताते ही यह सवाल वे समझ गये।उन्होंने फिर साफ साफ कह दिया कि नहीं,उनसे कुछ भी नहीं मिला।यह जवाब सुनने काे बाद जिराट तक पहुंचने से पहले मैंने किसी से फिर श्यामाप्रसाद की चर्चा नहीं की।


जैसे जैसे मैं जिराट के नजदीक पहुंचता गया,मुझे जिराट के आसपास के गांवों के इन देहातियों पर टूटते मुसीबत के पहाड़ का नजारा देखने को मिला।एक वाक्य में कहें तो मैंने देखा कि नैसर्गिक नेता ने जब इन देहातियों को मंझधार में बेसहारा छोड़दियातो उनकी हालत कितनी दयनीय थी और वे जिंदा रहने के लिए क्या कर रहे थे।श्यामा प्रसाद उनकी कोई मदद नहीं कर रहे थे और पूरे इलाके में किसी का कद इतना बड़ा नहीं था जो उनकी मदद कर पाता।इसपर तुर्रा यह कि तमाम आवारा और चोर आजाद थे कि जो भी कुछ मदद इन मरते हुए लोगों को बाहर से  भोजन,कपड़ा,दवा, और दूसरी छिटपुट शक्ल में मिल रही थी,उसे भी वे ले उड़े।मसलन श्रीकांति गांव में हर कोई एक शख्स का नाम ले रहा था जो सही मायनों में  उनका गला रेंत रहा था और वह डिस्ट्रिक्ट बोर्ट की रिलीफ एक्टिविटी से जुड़ा था।(मैं उस शख्स का नामोल्लेख करना नहीं चाहता।)उसने अपने अमचों चमचों के डेढ़ सेर प्रति सप्ताह की दर से चावल खैरात में बांट दिये।फिर जब कदमडांगा गांव के किसान उसके पास मदद मांगने गये,उसने खुल्ला ऐलान कर दिया कि वह किसी की मदद किसी कीमत पर नहीं कर सकता।कहा,मैं किसी को किसी  कीमत चावल बांट नहीं सकता,तुम सबको मालूम होना चाहिए।फिर उसने साफ साफ उनसे पेशकश की कि किसान उसके खेतमें बेगार खटे तो कंट्रोल रेट में वह चावल भी दे देगा।पूरे गांव ने इसके खिलाफ एकसाथ आवाज उठायी,फिरभी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने उसी शख्स को कपड़े के 15 लट्ठे सौंपे ताकि वह यह कपड़ा किश्त दर किश्त 83 परिवारों को बांट दें।उसने फिर वही पुराना खेल चालू कर दिया और जो भी कपड़ा मांगने आया,उसे बैरंग वापस भेज दिया।फिर अपनों को वह सारा कपड़ा कैरात में बांट दिये।


एक ही परिवार उन सबका बास बना हुआ था
ऐसी तकलीफदेह आवाजें मेरे कानों में लगातार गूंजती रहीं और आखिरकार मै श्यामा प्रसाद के अपने  गांव में दाखिल हो गया और सीधे सर आशुतोष के प्राचीन मैंसन में दाखिल हो गया।आशुतोष के किसी दूर के रिश्तेदार,किसी गोस्वामी ने इस पुराने भवन का नाम आशुतोष मेमोरियल रखा था।लेकिन मेरा सामना एक जराजीर्ण,गमशुदा,टूटता हुआ भग्नप्राय रायल बेंगल टाइगर का स्मारक से हुआ।( सर आशुतोष का यही लोकप्रिय नाम है रायल बेंगल टाइगर)।वे बहुत बड़े कद के इंसान थे और जिन्होंने आधुनिक बंगाल का निर्माण किया।जिन्होंने इस भवन की परिकल्पना तैयार की और उसे साकार करके भी दिखाया।मैंने एक रेखाचित्र तैयार किया है जिसे देखकर आपको अंदाजा होगा कि कितना राजकीय भवन यह रहा होगा।इसके तमाम शानदार क्लासिक मजबूत स्तंभ भरभराकर गिरने लगे थे।टैरेस का आधा हिस्सा ढह चुका था और दीवारों से ईंटें निकल रही थीं। खंडहर में तब्दील हो रही उस इमारत की दीवारों,खिड़कियों पर काईं जमने लगी थीं।दरारों में जंगली पौधे जहां तहां उग आये थे,जिसके नतीजतन ऊपर से नीचे तक  तमाम खंभे तहस नहस हो रहे थे।


सर आशुतोष के बेटों ने इस भवन को उन लोगों के हवाले छोड़ रखा था जो आशुतोष स्मृति मंदिर या आशुतोश चैरिटेबिल डिस्पेन्सरी जैसा कुछ खोलकर उनके पिता की स्मृति की पवित्रता सहेजे हुए थे।उस डिस्पेंसरी के डाक्टर इंचार्ज ने कड़ुवा सा मुंह बनाकर मुझसे कहा कि रोज सुबह वे इस डिस्पेंसरी को तीन घंटे के लिए खुला रखते हैं और तीस चालीस मरीजों का इलाज रोज करते हैं।मैं लगातार दो रोज सुबह वहां गया लेकिन डिस्पेंसरी एक घंटे से ज्यादा खुला नहीं देखा और तीस चालीस मरीज भी मैंने नहीं देखे।दस या बारह से ज्यादा मरीज वहां आ नहीं रहे थे जबकि आस पड़स में सैकडो़ं लोग मलेरिया से बिस्तर पर थे।यह मेरे लिए अकथनीय दुःख सा है और वहां का पूरा माहौल मुझे रहस्यजनक लगा।


पैतृक विरासत काफी नहीं
हुआ यह कि जब बाढ़ से बलागढ़ इलाका में हर मकान ढहने लगा तो सर आशुतोष के बेटों ने एक ब्रांड निउ मैंसन बनाने के बारे में निश्चय कर लिया।जाहिर है कि ओल्ड आशुतोष मैंसन उनके किसी काम का नहीं था।बहरहाल मैं यह समझ नहीं सका कि बंगाल में भुखमरी के इस कहर के बीच श्यामा प्रसाद ने नया भव्य मेंसन बनाने की क्यों सोची जबकि अपने पिता के पुराना भव्य भवन देख रेख के बिना भरभराकर ढहने लगा था।मीलों तक तमाम दूसरे मकान भी ढह रहे थे।फिरभी मैंने उस घृणा करने लायक,वल्गर नया बागान बाड़ी देखने के लिए गया ।पूरे बलागढ़ में भुखमरी के दौर में सालभर में इकलौता वह नया मकान बना था।फिर वह इकलौता मकान था जिसमें दो दो धान गोला (देशी गोदाम) धान से भरे थे।बहरहाल इस नये मकान में भव्य कीमती फर्नीचर से लदे फंदे बैठक घर तो थे ही,मुख्यगेट के दोनों तरफ गेस्टहाउस भी अलग से थे।इस्पात का सिंहद्वार था तो खिड़कियों पर भी सींखचे मजबूत थे ताकि बलागढ़ के उस सबसे समृद्ध धनी बागानबाड़ी की सुरक्षा में कोई कसर बाकी न रह जाये।फिर उस बागान बाड़ी में शानदार तरीके से रचे हुए बगीचे में एक ग्रीन हाउस भी था।
वह पूरी जगह रेगिस्तान के बीच मरुद्यान की तरह लग रहा था।छुट्टियों के दिनों में मुखर्जी परिवार के लोग सबांधव पिकनिक मनाने वहां मोटर गाड़ी से कोलकाता से लैंड करते रहते थे।गंगा में तैराकी का आनंद लेते थे।फिर बिना स्थानीय जनता से मिले जुले मोटरगाड़ी में सवार कलकत्ता चल देते थे। सर आशुतोष के बेटों की बनायी यह वल्गर बागानबाड़ी टुकड़ों में बिखर रहे भव्य राजकीय सर आशुतोश के प्राचीन भवन के लिए अपमान के सिवाय कुछ नहीं लग रही थी।यहीं नहीं ,वहां लबालब उमड़ती समृद्धि आसपास मरते खपते भूखे हजारों इंसानों के हुजूम के लिए भी अपमानजनक थी।भीतर से उमड़ रही घिन की वजह से मैं उस घृण्य बादानबाड़ी से भाग निकला,लेकिन फिर भी इस किस्से का अंत कहीं नहीं था।


उस वक्त बलागढ़ के गांवो में खास चर्चा का मुद्दा भुखमरी के दौरान बागानबाड़ी दो दो बार पधारे श्यामाप्रसादे की एक यात्रा के दौरान जिराट में खोले नये हाट को लेकर था, जिसका बड़े ठाठ बाट के साथ भव्य समारोह के जरिये उनने शुरु किया था। सारे ईमानदार लोग इस हाट के बारे में कसमें खाकर बातें कर रहे थे।क्यों? क्योंकि बलागढ़ इलाके में पहले से एक पुराना हाट जिराट के पास ही सिजे गांव में मौजूद था।भुखमरी के वक्त वही इकलौता हाट काफी था।मुद्दा साफ साफ भुखमरी के मध्य सीधे तौर पर मुनाफावसूली का था।जबकि जरुरत उस वक्त की यह थी कि भूखों मरते खपते लोगों को बिन बिचौलिये सीधे सौदा करने का मौका देने का था।बजाय इसके श्यामाप्रसाद ने  अपना नया हाट खोल दिया सिजे के पुराने हाट को बंद करने के मकसद से।जाहिर है कि लगभर  हर इंसान के नजरिये से यह मामला….


हिंदू महासभा के रिलीफ का सच


श्यामाप्रसाद के खोले नये हाट में दिनदहाड़े बेशर्म मुनाफावसूली के दौर में जिराट गांव में हिंदू महासभा के राहत सहायता अभियान से मेरे तनिक भी प्रभावित होने की नौबत बन नहीं रही थी।मैंने ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं की थी।फिरभी मैंने पूरी छानबीन इसलिए की कि मुझे मालूम था कि जिराट की जनता ने भुखमरी के दौरान श्यामाप्रसाद के राहत सहायता कार्यक्रमों के बारे में सुना ही होगा।वहीं इकलौता  गांव था,जहां ऐसा था।बहरहाल मैंने तहकीकात के बाद पाया कि हिंदू महासभा  का भुखमरी  रिलीफ वर्क का गिरोहबंद ढकोसला उतना ही फर्जीवाड़ा था,जितना मुनाफावसूली के लिए श्यामाप्रसाद का हाट या आशुतोष मैंसन की डिस्पेंसरी।चार रिलीफ सेंटर से हिंदू महासभा को 28 सेर चावल और 28 सेर आटा ही भूखी जनता को बांटना था। इसके अलावा श्यामाप्रसाद के दो भाइयों ने अलग दुकान खोल रखी थी,जहां बाजार की आधी कीमत पर चावल बेचा जाना था।इसके बावजूद यह तामझाम  गरीबों के किसी काम का न हुआ क्योंकि बाजार में चालीस रुपया मन चावल बिक रहा था।यही वजह थी कि जिराट गांव के किसानों और मछुआरों की आम शिकायत यह थी कि यह सारी चैरिटी बाबुओं की मदद के लिए थी।दरअसल चंद लोगों को छोड़कर दरअसल हिंदू महासभा की चैरिटी के तहत बीस रुपया मन चावल खरीदने की औकात भूखी जनता में से किसी की नहीं थी।


इसी लिए धनी वर्ग के लोगों से जिराट के लोगों को सख्त नफरत थी और सबसे ज्यादा नफरत थी श्यामाप्रसाद से।उनसे वे डरते भी थे सबसे ज्यादा।


कुल मिलाकर मैंने यही श्यामाप्रसाद के पैतृक गांव जिराट में देखा।मैंने भुखमरी के दौरान बंगाल की तमाम बड़ी हस्तियों के गांवों को देखा लेकिन कहीं भी धनी तबके के लिए इतनी घृणा और कटुता नहीं देखी।खासतौर पर उस गांव के सबसे कद्दावर शख्स के खिलाफ।


वापसी के रास्ते मुझे कुछ और ऐसा मिला जिसके लिए मैं कतई तैयार न था।मुझे तो पहले से ऐसा लगता रहा था कि मध्यवर्ग की पूरी की पूरी नई पीढ़ी श्यामाप्रसाद के महिमामंडन के लिए कोई भी सफेद झूठ कहने से हिचकती नहीं है। पूरे  बलागढ़ इलाके और  जिराट गांव में हर किसी  ने साफ तौर पर बता दिया कि दो साल में श्यामाप्रसाद अपने गांव सिर्फ दो बार गये।भुखमरी के दौरान एकबार और फिर जिराट में नया हाट बसाने के लिए। इसके विपरीत बगल के कसलपुर में एक डाक्टर साहेब मिले जिनने दावा किया कि श्यामाप्रसाद तो कलकता से लगातार गांव आते जाते रहते हैं और मसलन पिछले दो महीने में वे चार बार पधारे।क्या उनके गांव में एक भी शख्स ऐसा नहीं है जिसे श्यामाप्रसाद से मुहब्बत हो? जिराट के रिलीफ सेंटरों में चावल और आटा बांटने का काम देख रहे बीरनलेंदु गोस्वामी ने खुद मुझसे कहा कि वे सिर्फ रविवार को ही रिलीफ बांट रहे थे।जबकि हिंदू महासभा पर गर्व करने वाले हाईस्कूल के एक युवा छात्र ने दावा किया कि वहां रिलीफ केंद्रों पर रोजाना 24 छात्र काम कर रहे थे और रोज सौ डेढ़ सौ मुंहों को भोजन खिला रहे थे।


इसी लिए धनी वर्ग के लोगों से जिराट के लोगों को सख्त नफरत थी और सबसे ज्यादा नफरत थी श्यामाप्रसाद से।उनसे वे डरते भी थे सबसे ज्यादा।फिरभी इस यात्रा के अंत पर मुझे कुछ ऐसा सकारात्मक भी सुनने को मिला कि जिससे पता चला कि श्यामाप्रसाद और उनके तमाम कृत्यों के बावजूद प्राचीन बंगाली सभ्यता के मुताबिक सर आशुतोष की आत्मा प्रेरणा अभी सही सलामत हैं।शाम ढलने लगी थी और स्कूल तालाबंद था,जिसके सामने पेड़ों के नीचे लड़के लड़कियों के शोर मचाते झुंड जमा थे।किसी ने भद्दी भाषा में कोसना शुरु कर दिया तो तत्काल एक बूड़े आदमी ने चीखकर पूछा,`कौन भद्दी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है? क्या तुम सभी जानवरों में तब्दील हो गये हो?’ इसके जबाव में किसी ने कहा कि वे लोग कैसे इंसान हो सकते हैं,जिन्होंने स्कूल तक बंद कर दिये।फिर मेरे गाइड,एक किसान कार्यकर्ता के मुखातिब हुए वे।उन्होंने बिना लाग लपेट के मांग की,`प्लीज,हमारे लिए एक स्कूल टीचर दे दीजिये।हम भूखं रहकर उन्हें खाना खिलायेंगे।केरोसिन का भाव दस आना पिंट(0.473 लीटर) है।लेकिन हम उसके लिए भी पैसे जुगाड़ कर लेंगे।ईश्वर के वास्ते,हमारा स्कूल फिर चालू कर दीजिये।अगर ऐसा नहीं हो सका तो सर आशुतोष के गांव की सभ्यता खत्म हो जायेगी।हमारे बच्चे गुंडे बदमाश निकलेंगे।’ जीने के लिए,श्रम के लिए कितना फौलादी इरादा है यह! यकीनन वे लोग जिंदा रहेंगे और रायल बेंगल टाइगर की तरह लड़ेंगे-श्यामाप्रसाद के बावजूद!
साभार समयांतर

Saturday, July 2, 2016

दो करोड़ बांग्लादेशी शरणार्थी सीमापार घुसने के इंतजार में असम में अल्फा राज और बंगाल में उग्र हिंदुत्व के नजारे बांग्लादेश के हालात और मुॆस्किल बना रहे हैं यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलव्कत वह दिशाहीन है।भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबारही राजनय है,ऐसा कहा जा सकता है।इसलिए भारत से बाहर भारतीयहितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं,पाकिस्तान,नेपाल,श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीयविदेश मंत्रालय,विदेसों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। वे कौन से मुसलमान हैें जो पाक रमाजान माह में नमाज,रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्लाम में मशगुल है।बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं ह।यह इस महादेश तो क्या,पूरी दुनिया का सच है। ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला,मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है,मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना,कोई भी शहर,कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है। जो मारे नहीं गये,अंत में वे मारे जायेंगे।रोज रोज के तजुर्बे के बावजूद हम पल दर पल मौत का सामान बना रहे हैं और हमारा सामाजिक उत्पादन यही आत्मध्वंस है। हमारा बंगाली विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है।इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरक यंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा हम दलितों,पिछड़ो,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय,राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्रा का अवसान है।समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं। पलाश विश्वास

दो करोड़ बांग्लादेशी शरणार्थी सीमापार घुसने के इंतजार में
असम में अल्फा राज और बंगाल में उग्र हिंदुत्व के नजारे बांग्लादेश के हालात और मुॆस्किल बना रहे हैं
यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलव्कत वह दिशाहीन है।भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबारही राजनय है,ऐसा कहा जा सकता है।इसलिए भारत से बाहर भारतीयहितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं,पाकिस्तान,नेपाल,श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीयविदेश मंत्रालय,विदेसों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।
वे कौन से मुसलमान हैें जो पाक रमाजान माह में नमाज,रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्लाम में मशगुल है।बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं ह।यह इस महादेश तो क्या,पूरी दुनिया का सच है।

ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला,मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है,मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना,कोई भी शहर,कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है।

जो मारे नहीं गये,अंत में वे मारे जायेंगे।रोज रोज के तजुर्बे के बावजूद हम पल दर पल मौत का सामान बना रहे हैं और हमारा सामाजिक उत्पादन यही आत्मध्वंस है।

हमारा बंगाली  विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है।इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरक यंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है।

ऐसा हम दलितों,पिछड़ो,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय,राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्रा का अवसान है।समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं।


पलाश विश्वास

रंग बिरंगे आतंकवादी हमले अब इस दुनिया को रोजनामचा लाइव है।न्यूयार्क 9/11 के ट्विन टावर विध्वंस के बाद यह दुनिया अप इंसानियत का मुल्क नहीं है और सभ्यता अविराम युद्ध या फिर गृहयुद्ध है।तेलकुओं की आग से धधक रही है पृथ्वी और सोवियत संघ के विभाजन से लेकर ब्रेक्सिट तक विभाजन नस्ली रंगभेदी अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है तो वही आतंकवाद है और फासिज्म का राजकाज भी वहीं।जम्हूरियत और इंसानियत दोनों जमींदोज है तो फिजां कयामत बहार है।

असम में अल्फा केसरिया राज है और बंगाल में संघ परिवार का कैडर भर्ती अभियान चल रहा है।यह संजोग है कि कोलकाता में बांग्लादेस हाईकमीशन पर हिंदू जागरण मंच और हिंदू संहति मच के प्रदर्शन और सीमा पर नाकेबंदी के साथ ही गुलशन ढाका में आतंकी हमला हो गया है।

भारत में हिंदुत्व का धर्मोन्मादी कार्यक्रम अपनाकर हम बांग्लादेश को तेजी से अपने शिकंजे में ले रहे इस्लामिक बाग्लादेश राष्ट्रवाद और इस्लामिक स्टेट का मुकाबला तो कर ही नहीं सकते बल्कि हमारी ऐसी कोई भी ङरकत बांग्लादेश के दो करोड़ अल्पसंख्कों को कभी भी शरणार्थी बना सकती है।

हमारी हर क्रिया की प्रतिक्रिया बांग्लादेश में कई गुमा ज्यादा आवेग और वेग के साथ होती है और ऐसे हालात में वहां धर्मनरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों के लिए भी भारत की तरह अल्पसंख्यकों  का रक्षाकवच बन पाना निहायत मुश्किल है।

भारत में सत्ता का केंद्रीयकरण हो चुका है और सत्ता यहां निरंकुश है तो इसके मुकाबले बांग्लादेश में सत्ता अस्थिर डांवाडोल है और वहां विपक्ष में मजहबी धर्मोन्माद भारत के सत्ता पक्ष के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से कहीं मजबूत है।

इसके अलावा जैसे रंगबिरंगे बजरंगियों पर न संघ परिवार और न भारत सरकार और न कानून व्यवस्था को कोई नियंत्रण है,उसीतरह बांग्लादेश में वहां की प्रधानमंत्री,सरकार और कानून व्यवस्था का कोई नियंत्रण पक्ष विपक्ष के धर्मोन्मादी आतंकी तत्वों पर नहीं  है।

इसके उलट हिंदुओं की बेदखली के अभियान में आवामी लीग के कार्यकर्ता और नेता रजाकर वाहिनी और जिहादियों के मुकाबले किसी मायने में कम नहीं है।हम सिलसिलेवार हस्तक्षेप पर ऐसी रपटें भी लगाते रहे हैं।

यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलवक्त वह दिशाहीन है।

भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबारही राजनय है,ऐसा कहा जा सकता है।

इसलिए भारत से बाहर भारतीयहितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं,पाकिस्तान,नेपाल,श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीयविदेश मंत्रालय,विदेसों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।

हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।

वे कौन से मुसलमान हैें जो पाक रमाजान माह में नमाज,रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्लाम में मशगुल है।बांग्लादेश की प्रधानमत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं ह।यह इस महादेश तो क्या,पूरी दुनिया का सच है।

ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला,मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है,मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना,कोई भी शहर,कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है।

हमले किसी भी वक्त कहीं भी हो सकते हैं तो यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश की नहीं है।

जब कोई सुरक्षित नहीं है ऐसे में हम मुक्तबाजारी कार्निवाल में अपनी छीजती हुई क्रयशक्ति और गहराते रोजगार आजीविका संकट,कृषि संकट,उत्पादन संकट और हक हकूक के सफाये के दौर में कैसे सुरक्षित हो सककते हैं,फुरसत में ठंडे दिमाग सेसोच लीजिये।

बंगाल की आबादी नौ करोड़ हैं और इनमें कमसकम तीस फीसद मुसलमान हैं और बड़ी संख्या में गैरबंगाली हैं जो कोलकाता और आसनसोल दुर्गापुर शिल्पांचल से लेकर सिलिगुडीड़ी से लेकर दार्जिलिंग कलिम्पोंग  तक में गैरबंगाली आबादी बहुसंख्य है।

इस हिसाब से बंगाल में हिंदू तीन करोड़ भी होगे या नहीं,इसमें शक हैइसके विपरीत उत्तर प्रदेश और असम,छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा में दलित हिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थी, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश,आंध्र के शरणार्थी और बाकी देश में बंगाली हिंदू दलित विभाजन पीड़ित शरणार्थी दोगुणा तीन गुणा ज्यादा है,जो बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर विभिन्ऩ राज्यों के सत्तावर्ग और राजनीतिक दलों के गुलाम हैं।हमने लगातार उनसे सपर्क बनाये रखा है और हम उन्हें गोलबंद करने का जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं।

हमारा बंगाली  विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है।इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरकयंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है।

ऐसा हम दलितों,पिछड़ो,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय,राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्रा का अवसान है।समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं।

सच यह है कि 1947 से बंगाली हिंदू शरणार्थियों की  संख्या बिना नागरिकता,बिना नागरिक और मानव अधिकारों के लगातार बढ़ती रही है।राजधानी दिल्ली और मुंबई में कोलकाता से ज्यादा शरणार्थी है और उत्तर भारत के हर छोटे बड़े शहर में उनकी भारी तादाद है तो देश भर में मेहनत मशक्कत के तमाम कामकाज में वे ही लोग हैं

1977 में पराजय झेल चुकी इंदिरा गांधी से पिताजी पुलिनबाबू के बहुत अच्छे ताल्लुकात थे।हम होश संभालते ही पिताजी की अविराम सक्रियता की वजह से किसावन आदिवासी आंदोलन के अलावा शरणार्थी समस्या से भी दो दो हाथ करते रहे हैं और देश भर के शरणार्थियों की समस्या हमें बचपन से सिलसिलेवार मालूम है।

पिताजी से हमेशा हमारी बहस का यही मुद्दा रहा है कि सिर्फ बंगाली शरणार्थी के बारे में ही क्यों,हम बाकी लोगों को लेकर आंदोलन क्यों नहीं कर सकते और क्यों शरणार्थी समस्या का स्थाई हल नहीं निकाल सकते।

अपनी जुनूनी प्रतिबद्धता के बावजूद,सबकुछदांव पर लगाकर सबकछ खो देने के बावजूद  वे कुछ खास करने में नाकाम रहे और शरणार्थी समस्या और आतंक की समस्या अब एकाकार है और यह भारत के अंदर बाहर के सभी शरणार्थियों,सभी दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के जीवन मरण की समस्या है,बाकी नागरिकों के लिए भी।लगता है कि लडाई शुरु करने से पहले ही हम पिता की तरह फेल हैं।

इंदिराजी से पिताजी की हर मुलाकात से पहले उन्हें हमने बार बार आगाह किया कि वे उनपर दबाव डालें कि भारत सरकार की शरणार्थी नीति में पुनर्वास के अलावा भारतीय राजनय और राजनीति की दिशा दशा बदलने के लिए वे पहल करें।

इंदिरा गांधी तब इंदिरा गांधी थीं और तब बंगाली शरणार्थी आज की तरह संगठित भी नहीं थे।हम नहीं जानते कि गदगद भक्तिभाव के अलावा पिताजी अपने संवाद में दबाव डालने की स्थिति में थे या नहीं,क्योंकि उनके पास धन बल बाहुबल जनबल कुछ भी नहीं था।

वे अपने हिसाब से देश भर में जहां तहां दौड़ लगाते लगाते रीढ़ के कैंसर से दिवंगत हो गये 2001 में और तब से हम देख रहे हैं कि हालात लगातार बेकाबू होते जा रहे हैं और हमारे अपने लिए भी जिंदा रहना,सक्रियबने रहना कितना मुश्किल है।

1971 की तरह फिर बांग्लादेश से शरणार्थी सैलाब फूटा तो बंगाल में उनके लिए मरीचझांपी नरसंहार के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

भारत के दूसरे राज्यों में ही वे मरने खपने पहुंचेंगे और उन राज्यों में उनकी जो गत होगी सो होगी,उन राज्यों का क्या होगा,यह हसीना वाजेद की फौरी और स्थाई समस्याओं से भारी दीर्घकालीन समस्या हमारी है।

हम लगातार बताते रहे हैं कि बांग्लादेश में हालात कितने अग्निगर्भ है।पिछले साल आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अल्पसंख्यकों की बेदखली के लिए हत्या, लूटपाट, संघर्ष के अलावा 490 महिलाओं के साथ बलात्कार की वारदातें हुई हैं।

गौरतलब है कि बांग्लादेश में अब भी हिंदू,ईसाई,आदिवासी और बौद्ध समुदायों के करीब दो करोड़ अल्पसंख्यक हैं और वे लगातार निशाने पर हैं।भारत में कही भी कुछ घटित होता है तो उसकी तीखी प्रतिक्रिया यही होती है कि तुरंत बांग्लादेश में साफ्ट टार्गेट अल्पसंख्यकों पर हमले शुरु हो जाते हैं।

ऐसे व्यापक हमले हजरत बल प्रकरण के बाद 1964 के आसपास हुए जबकि 1960 में पूरे असम बांगाल खेदओ आंदोलन हुआ और फिर 1971 में भारत में 90 लाख शरणार्थी आ गये।

बांग्लादेश की आजादी की उपलब्धि के बावजूद उस घटना की छाप हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्ता में गहरी पैठी हुई है और 1971 से हमें निजात मिली नहीं है।जिसकी फसल हम अस्सी के दशक में बार बार काटते रहे हैं और बम धमाकों में हमारी सबसे प्रिय प्रधानमंत्री  इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर 1984 को हत्या हो गयीं और सिखों का नरसंहार हो गया।

उनका बेटा राजीव गांधी संघ परिवार के समर्थन से प्रधानमंत्री तो बने लोकिन श्रीलंका में शांति सेना भेजने की कीमत उन्हें भी बम धमाके में अपनी जान गवांकर अदा करनी पड़ी।अस्सी के दशक में ही असम में उल्फाई तत्वों की अगुवाई में छात्र युवा आंदोलन हुए और असम और त्रिपुरा में खून का समुंदर उमड़ने लगा।

अब वही असम अल्फा के हवाले है।

बाबरी विध्वंस के बाद बने हालात का दस्तावेज तसलिमा नसरीन का उपन्यास लज्जा है,जिनने अपने हालिया स्टेटस में भारत में गोमांस निषेध के संघ परिवार के आत्मगाती आंदोलन की हवाला देकर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर तीखे प्रहार किये और गुलशन में हुए हमले के दौरान जब नई दिल्ली में सभी भारतीयों के सुरक्षित होने के दावे किये जा हे थे,तभी तसलिमा ने ट्विटर पर संदेश दे दिया कि गुलशन में भारतीय किशोरी संकट में है,जिसे भारतीय राजनय आखिर कार बचा नहीं सकी।

आप हस्तक्षेप या हमारे ब्लागों को देख लीजिये,हम लगातार हिंदी,बांग्ला,अंग्रेजी और असमिया में भी सरहदों के आर पार कयामती फिजां के बारे में आपको आगाह करते रहे हैं।तसलिमा नसरीन पिछले तेइस साल से बांग्लादेश के हालात और अल्पसंख्यक उत्पीड़न की वजह से भारत में सबसे मशहूर शरणार्थी हैंं तो सीमा पार से शरणार्थी सैलाब थम ही नहीं रहा है।अब दो करोड़ और इंतजार में हैं

साल भर में कितने ब्लागरों,लेखकों,पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की हत्या बांग्लादेश में होती रहती है और वहां धर्मनिरपेश लोकतांत्रिक ताकतों की गोलबंदी कितनी और कैसी है,हम लगातार बताते रहे हैं।

असम चुनावों के बाद अल्फा का रंग केसरिया हो जाने के बाद असम में केसरिया अल्फाई राजकाज से गुजराचत नरसंहार से वीभत्स नरसंहारी माहौल सीमा के आर पार कैसा है,हम लगातार बता रहे हैं।लगता है कि आपने गौर नहीं किया।

हमारी औकात दो कौड़ी की है।प्रोफाइल है ही नहीं।कभी बड़ी नौकरी के लिए हमने एप्लाई नहीं की सरकारी चाकरी के लिए दस्तखत नहीं किया और बाजर में खुद को नीलमा करने के लिए बोली नहीं लगाई तो हम सीवी भी बना नहीं सके अब तक।बायोडाटा भी नहीं है अपना।1973 से जो लोग मुझे लगातार जानते रहे हैं,वे हमारे कहे लिखे को भाव नहीं देते तो कासे शिकवा करें।

पहले खाड़ी युद्ध से हम लगातार इस देश के अमेरिकी उपनिवेश बनने की चेतावनी देते रहे हैं और संपूर्ण निजीकरण और संपू्र्ण विनिवेश के विरुद्ध अपनी औकात के मुताबिक देशभर में जनमोर्चे पर सक्रिय रहे हैं। अपना बसेरा तक नहीं बना सके और अब एकदम सड़क पर हूं और हालात ऐसे बने रहे हैं कि राशन पानी के लिए भीख मांगने की नौबत आ सकती है लेकिन मेरा लिखना बोलना न थमा है और न थमेगा।

ताजा हालात ये है कि असम में अल्फा के राजकाज में भारत चीन युद्ध के बाद अरुणाचल की चीन से लगी सीमाओं पर जैसे चटगांव से बेदखल चकमा शरमार्थियों को ढाल के बतौर बसाया गया है,भारत बांग्ला सीमा सील कर देने के ऐलान के बावजूद बीएसएफ की मदद से सीमापार से हिंदू दलितों को असम के मुस्लिम बहुल इलाकों में बसाया जा रहा है ताकि उनका इस्तेमाल भविष्य में मुसलमानों के किलाफ दंगा फसाद में बतौर ढाल और हथियार किया जा सके।

हम हिटलरशाही की बात खूब करते हैं और यह हिटलरशाही क्या है,थोड़ा असम के डीटेंशन कैंपों में घूम लें तो पता चलेगा।यह भाजपा या संघ परिवार का कारनामा मौलिक नहीं है।कापीराइट कांग्रेसी मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का है।जिनने नागरिकता कानून के तहत अस में दशकों से रह रहे,सरकारी सेवा में काम कर रहे लोगों को कट आफ ईअर के लिहाज से संदिग्ध विदेशी होने के जुर्म में डीवोटर करके सपरिवार इन कैंपों में डालना शुरु किया और अब संघ परिवार के निशाने पर हैं असम के तमाम मुसलमान तो अल्फा की नजर में हैं बीस लाक हिंदू शरणार्थी औऱ भारतके दूसरे राज्यों से असम आकर दशकों से आजीविका कमा रहे लोग।


हम इस नये असम के नजारे देखते हुए भी नजरअंदाज करते रहे हैं।

आजकल रात के  दो बजे तक सो जाता हूं।फिर सुबह जल्दी उठकर कहीं कार्यक्रम न हुआ तो तत्काल पीसी पर मोर्चा जमा लेता हूं।

आज करीब सुबह साढ़े सात बजे हमारे आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने फोन किया और यक्ष प्रश्न के मुखातिब खड़ा कर दिया कि क्या जाति और वर्ग की राजनीति एकसाथ चल सकती है।

हमें उन्हें कैफियत देनी पड़ी कि जाति के नाम जिस तरह से राजनीति के शिकंजे में हैं बहुजन ,उसके मद्देनजर इस सामाजिक यथार्थ को नजरअंदाज करके हम कोई सामाजिक आंदोलन बदलाव के लिए खड़ा नहीं कर सकते और हमारा राजनीतिक सरोकार बस इतना है कि लोकतंत्र सही सलामत रहे और हम फासिज्म के राजकाज के खिलाफ तमाम सामाजिक शक्तियों को गोलबंद कर लें।

लंबी बातचीत में वैकल्पिक मीडिया और हस्तक्षेप के बारे में भी बातें हुईं और यह स्पष्ट भी करना पड़ा कि मेरा उत्तराखंड वापसी क्यों असंभव है और कोलकाता में बने रहना क्यों जरुरी है।

लगता है कि गुरुजी को मैंने संतुष्ट कर दिया।फोन रखते ही सविता बाबू ने टोक दिया कि व्यवहारिक बातचीत के बिना सैंद्धांतिक बहस से क्या बनना बिगड़ना है।

उनने कह दिया कि गुरुजी ने सबसे पहले हस्तक्षेप की मदद की पेशकश की थी तो उनने अपने शिष्यों से हस्तक्षेप के लिए कोई अपील जारी क्यों नहीं की या न्यूनतम मदद क्यों नहीं की,इस पर बात हमने क्यों नहीं की।

सही मायने में अमावस की अखंड रात है यह वक्त और काली अंधेरी सुरंग में कैद हूं.न रिहाई की राह निकलती दिख रही है और न जंजीरें टूटने की कोई सूरत है और न रेशांभर रोशनी कही नजर आ रही है।

दिशाबोध सिरे से गड्डमड्ड है।रासन पानी बंद होने का वक्त है यह और समाज में बने रहने के बावजूद अकेले चक्रव्यूह में मारे जाने का भी वक्त है यह।

हम मुकम्मल तेलकुंआ बने महादेश में दावानल के शिकंजे में हैं और बुनियादी जरुरतों से बड़ी प्राथमिकता अब कयामती यह फिजां जितनी जल्दी है ,उसे बदलने की है।आपदाओं से टूटने लगा है हिमालय और सारे के सारे किसानों,मजदूरों,बच्चों,युवाओं और स्तिरियों के हाथ पांव कटे हैं और दसों दिशाओं से खून की नदियां निकलती हुई दीख रही है,जबकि पीने को पानी और सांस लेने को आक्सीजन की भारी किल्लत है।

भारत विभाजन के वक्त हुई मारकाट हमारे पुरखों की स्मृतियों में से हमारे वजूद में पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित है और यह महादेश विभाजन की उस प्रक्रिया से अभीतक उबरा नहीं है।शरणार्थी सैलाब देस की सीमाओं से जितना उमड़ रहा है,उससे कही ज्यादा देश के अंदर है और अब तो गरीब बहुजनों की बेदखली हिमाचल जैसी देवभूमि में चलन हो गया है और उत्तराखंड की एक एक इंच जमीन बेदखल है।

अर्थव्यवस्था सिरे से अंततक शेयर बाजार है और उत्पादन प्रणाली है ही नहीं तो समाज भी फर्जीवाड़ा है और सामाजिक यथार्थ भी मुक्तबाजार का केसरिया जलजला है जो आत्मध्वंस के अलावा क्या है,परिभाषित करना मुश्किल है।

सारा सौंदर्यबोध मुक्त बाजार का सौंदर्यहबोध है।भाषाएं बोलियां,माध्यम,विधाएं सबकुछ इसी मुक्तबाजार में निष्णात।अपने समय,अपने स्वजनों और देश दुनिया को सूचना क्रांति के इस परलय समय में कैसे सच से आगाह करें,जिंदा बचे रहने से बड़ी चुनौती अभिव्यक्ति का यह अभूतपूर्व संकट है।

भारत विभाजन रोक ना पाना हमारी आजादी की लड़ोई को बेमतलब बना गया। आजादी भी फर्जी साबित होने लगी है और हम दरअसल भारत विभाजन से कभी उबरे ही नहीं है।

विभाजित कश्मीर में यह पल दर पल कुरुक्षेत्र का शोकस्तब्ध विलाप और अखंड सैन्यशासन है तो मध्यभारत में सलवा जुड़ुम।

पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को पुनर्वासित करने में कामयाबी मिल गयी लेकिन सिखों को नरसंहार 1984 में इतना भयानक हो गया कि विभाजन की त्रासदी फीकी हो गयी।

इसीतरह गायपट्टी में विभाजन की प्रक्रिया अभी धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण है और बहुजन आंदोलन तेज होते रहने के बावजूद सामाजिक बदलाव हो नहीं रहा है और राजनीति वही संघ परिवार की शक्ल में हिंदू महासभा बनाम अनुपस्थित मुस्लिम लीग है।

भारत पाकिस्तान द्विपाक्षिक संबंध सरहदों पर अविराम युद्ध है और इन्ही पेचीदा राजनीतिक राजनयिक संबंधों की वजह से प्रतिरक्षा खर्च के बहाने लोकतात्रिक लोक गणराज्य और लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पनाएं ध्वस्त है और यही ऩफरत,जंग और जिहाद हमारी आंतरिक सुरक्षा,राष्ट्रीय एकता और अंखडता,बहुलता और विविधिता मध्ये एकात्मकता को सिरे से खत्म कर रही हैं और हम कुछ
भी बचा लेने की हालत में नहीं है।

अपनी जान माल भी नहीं।
मौत सर पर नाच रही है।

कोई भी कहीं भी कभी भी बेमौत मारा जा सकता है।

जो मारे नहीं गये,अंत में वे मारे जायेंगे।रोज रोज के तजुर्बे के बावजूद हम पल दर पल मौत का सामान बना रहे हैं और हमारा सामाजिक उत्पादन यही आत्मध्वंस है।


 

Friday, June 17, 2016

आदिवासी लड़की की पुलिस द्वारा बलात्कार के बाद हत्या के मामले पर साथी संकेत ठाकुर नें आज छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में रिट दायर करी है

आदिवासी लड़की की पुलिस द्वारा बलात्कार के बाद हत्या के मामले पर साथी संकेत ठाकुर नें आज छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में रिट दायर करी है 


Sanket Thakur
1 hr
The First PIL of My Life in High Court
The suspected encounter of Madkam Hidme has brought a serious blow in war against Maoists in decades old troubled Bastar division of Chhattisgarh.
On 13th June a victorious police officer informed the media that one woman Maoist Madkam Hidme killed in encounter between Maoists and District Reserve Guard & STF near Gompad and Gorkha Jungle of PS Konta in Sukma district of Bastar. Another jubilant police officer posted the photo of dead body of Madkam Hidme claiming her the Kistaram Area Platoon Commander.
This photo clearly depicts that Madkam's dress was changed after death and was dressed up with new Maoists uniform. Police claimed she suffered 10 bullets injury, however her dress was not affected at all ! How this miracle would have happened ?
On the otherhand, villagers of Gompad contacted AAP State Campaign Committee incharge Soni Sori, the fearless tribal leader of Bastar. The villagers told Soni Sori that 20 year old Madkam was captured by security forces at 4 pm while she was milling paddy at home. She was taken to nearby jungle where other women heard her screaming due to gang rape being done by forces. Later the forces shot her 10 bullets and next morning police informed the village panchyat secretary to collect Madkam's dead body from Sukama.
Family members of Madkam Hidme and villagers wanted fair probe of the incidence and refused to cremate her body. Soni Sori rushed to Sukama on 15th June with 4 members of party to visit the village and meet the villagers for primary investigation of the incidence. However the local police stopped the team and forced to not to go beyond district HQ. On 16th June AAP State team and Bastar Team members joined Soni Sori and made another attempt to visit Gompad, but again local police officer didn't allow them to go beyond Konta. The team stayed at Konta with determination to visit the village.
I spoke to Soni Sori last night and we decided to file a PIL in high court requesting postmortem of Madkam, medical examination reg rape traces, SIT constitution, Judicial enquiry and compensation of Rs 20 lakh to Madkam's family.
Today I went to Bilaspur for writ petition filing, and I was informed by Soni Sori that around 12 noon a group of sponsored mob attempted to attack the AAP leaders in the presence of police and SDM. The unprecedented behavior and desperate efforts to stop Soni Sori and other AAP leaders at Sukama and Konta indicates something fishy in Gompad. This appears to be acceptance of police forces being involved in unfortunate rape and murder of a young tribal girl of Bastar whose marriage was due in the coming month.
Tribals of Bastar are waiting for fair justice with their entire community. How long they will suffer no body knows because its just a dirty politics and lust for grabbing the natural enriched resources which seems to have become a curse to tribals !
My first PIL, I hope, will provide justice to Madkam and her family whom I never met but feel if I lost my younger sister.
Sorry Madkam ! Only this much I could do for you !! Be in peace where ever you are now Madkam !! and lets pray Bastar to be in peace soon !!

Sujatha Surepally Suspension on Prof. K.Y Ratnam and Tathagath is revoked!! This is the power of peoples movement and also perhaps another strategy to divert the issue as Apparao and all ministers, supporters are supposed to be arrested by now as Rohith was declares as dalit officially. They always want to test the pulse and they fail..‪#‎justiceforrohith‬

Sujatha Surepally
Suspension on Prof. K.Y Ratnam and Tathagath is revoked!! This is the power of peoples movement and also perhaps another strategy to divert the issue as Apparao and all ministers, supporters are supposed to be arrested by now as Rohith was declares as dalit officially. They always want to test the pulse and they fail..‪#‎justiceforrohith‬
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नाश हो मुक्तबाजार के इस महाविनाश का!धर्मोन्माद का! ढाका के रामकृष्ण मिशन को भी उड़ाने की धमकी। यूरोप और अमेरिका की बेलगाम हिंसा और विकास की अंधी पागल दौड़ और फासीवादी धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह अंजाम हम भारत में भी दोहराने की कगार पर हैं क्योंकि भारत की केसरिया सुनामी के बदले बांग्लादेश में जिहादी सुनामी चल रही है और वहां एक करोड़ हिंदुओं की जान माल दांव पर हैं और हिंदुत्व के सिपाहसालारों को उन हिंदुओं की कोई परवाह नहीं है। बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील तत्वों पर निरंतर हमले की संस्कृति वहां की सत्ता की राजनीति है तो अब यह भारत में हमारी भी राजनीति है। बांगलादेश में अल्पसंख्यकों के साथ वहीं हो रहा है जो भारत में होता रहा है या हो रहा है।वहीं हिंसक असहिष्णुता हमारी राष्ट्रीयता है। बांग्लादेश में धर्मोन्माद की सुनामी उतनी ही ताकतवर है जितनी हमारे यहां और विडंबना है बांग्लादेश के एक करोड़ हिंदी फिर शरणार्थी बनने की तैयारी में हैं और भारत की राजनीति और राजनय को कानोंकान खबर नहीं है। पहले से भारत में आ चुके पांच से लेकर सात करोड़ बंगाली शरणार्तियों के लिए यह बहुत बुरी खबर है क्योंकि बांग्लादेस में तेजी से बिगडते हालात के मद्देनजर अगर फिर शरणार्थी सैलाब आया तो पहले से बसे पुराने शरणार्थियों केलिए कोई रियायत या रहम नहीं मानेंगे भारत के बाकी नागरिक जैसे आदिवासी को भारत को कोई नागरिक नागरिक नहीं मानता वैसा ही सच बंगाली शरणार्थियों के भूत भविष्य और वर्तमान बारे में भी ज्वलंत सामाजिक राजनीतिक आर्थिक यथार्थ का रंगभेद मनुस्मृति दोनों हैं। इस अभूतपूर्व हिंसा और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र से अंततः इस महाभारत में कोई नहीं बचेगा अगर हम अभी से मुक्तबाजार के खिलाफ लामबंद न हों। हमारा इहलोक परलोक हिंसा का बीज गणित और प्रतिहिंसा का रसायन शास्त्र है तो हमारी राष्ट्रीयता अभूतपूर्व अराजक हिंसा की भौतिकी है क्योंकि आतंक के खिलाफ साम्राज्यवादी महायुद्ध के महाबलि बनकर हम टुकड़ा टुकड़ा गृहयुद्ध के असंख्य कुरुक्षेत्र से घिरे हुए हैं।हम सारे लोग चक्रव्यूह में जाने अनजाने घुसे हुए लोग हैं और मारे जाने को नियतिबद्ध हैं।निमित्तमात्र हैं। पलाश विश्वास

नाश हो मुक्तबाजार के इस महाविनाश का!धर्मोन्माद का!

ढाका के रामकृष्ण मिशन को भी उड़ाने की धमकी।
यूरोप और अमेरिका की बेलगाम हिंसा और विकास की अंधी पागल दौड़ और फासीवादी धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह अंजाम हम भारत में भी दोहराने की कगार पर हैं क्योंकि भारत की केसरिया सुनामी के बदले बांग्लादेश में जिहादी सुनामी चल रही है और वहां एक करोड़ हिंदुओं की जान माल दांव पर हैं और हिंदुत्व के सिपाहसालारों को उन हिंदुओं की कोई परवाह नहीं है।

बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील तत्वों पर निरंतर हमले की संस्कृति वहां की सत्ता की राजनीति है तो अब यह भारत में हमारी भी राजनीति है।

बांगलादेश में अल्पसंख्यकों के साथ वहीं हो रहा है जो भारत में होता रहा है या हो रहा है।वहीं हिंसक असहिष्णुता हमारी राष्ट्रीयता है।

बांग्लादेश में धर्मोन्माद की सुनामी उतनी ही ताकतवर है जितनी हमारे यहां और विडंबना है बांग्लादेश के एक करोड़ हिंदी फिर शरणार्थी बनने की तैयारी में हैं और भारत की राजनीति और राजनय को कानोंकान खबर नहीं है।


पहले से भारत में आ चुके पांच से लेकर सात करोड़ बंगाली शरणार्तियों के लिए यह बहुत बुरी खबर है क्योंकि बांग्लादेस में तेजी से बिगडते हालात के मद्देनजर अगर फिर शरणार्थी सैलाब आया तो पहले से बसे पुराने शरणार्थियों केलिए कोई रियायत या रहम नहीं मानेंगे भारत के बाकी  नागरिक जैसे आदिवासी को भारत को कोई नागरिक नागरिक नहीं मानता वैसा ही सच बंगाली शरणार्थियों के भूत भविष्य और वर्तमान  बारे में भी ज्वलंत सामाजिक राजनीतिक आर्थिक यथार्थ का रंगभेद मनुस्मृति दोनों हैं।

इस अभूतपूर्व हिंसा और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र से अंततः इस महाभारत में कोई नहीं बचेगा अगर हम अभी से मुक्तबाजार के खिलाफ लामबंद न हों।

हमारा इहलोक परलोक हिंसा का बीज गणित और प्रतिहिंसा का रसायन शास्त्र है तो हमारी राष्ट्रीयता अभूतपूर्व अराजक हिंसा की भौतिकी है क्योंकि आतंक के खिलाफ साम्राज्यवादी महायुद्ध के महाबलि बनकर हम टुकड़ा टुकड़ा गृहयुद्ध के असंख्य कुरुक्षेत्र से घिरे हुए हैं।हम सारे लोग चक्रव्यूह में जाने अनजाने घुसे हुए लोग हैं और मारे जाने को नियतिबद्ध हैं।निमित्तमात्र हैं।

पलाश विश्वास

आईएस की धमकी : ढाका में रामकृष्ण मिशन की सुरक्षा बढ़ी
आतंकी संगठन इस्‍लामिक स्‍टेट के आतंकियों की फाइल फोटो

ताजा सिलसिला है बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न का जो वैश्विक जिहादी आंतकवाद की मजबूत होती नेटवर्किंग की वजह से थमने के आसार नहीं हैं।

पुरोहितों और मंदिरों पर हमलों की खबरों में बांग्लादेश में धर्मनिरपक्षता और पर्गति का आंदोलन थम सा गया है और भारतबंधु मुजीब की बेटी शेख हसीना की पार्टी के महासचिव शाहजहां हुसैन भी रजाकर तेवर में हिंदुओं को उनकी जमीन और जान माल से बेदखल करने की धमकी दे रहे हैं और शेख हसीना जैसे खामोश हैं वैसे ही खामोश है भारत में हिंदुत्व की राजनीति,राजनय और सैन्य सत्ता।यह बेहद खतरनाक है।

ढाका के रमना कालीबाड़ी पर बार बार हमले होते रहे हैं और इससे बांग्लादेश के हिंदुओं का मनोबल टूटा नहीं है और वे अबतक एकदम प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते आये हैं लेकिन रोज रोज हिंदू होने की वजह से हमले का शिकार होने का रोजनामचा से बाहर निकलने के लिए उनके लिए तसलिमा नसरीन की लज्जा में दर्शाया भारत का रास्ता ही बचा है क्योंकि अब ढाका के रामकृष्ण मिशन को भी उड़ाने की धमकी मिली है।

नई दिल्ली से मीडिया की यह खबर है: बांग्लादेश सरकार ने ढाका स्थित रामकृष्ण मिशन के एक पुजारी को इस्लामिक स्टेट (आईएस) के संदिग्ध आतंकवादियों से मौत की धमकी मिलने के बाद मिशन की सुरक्षा बढ़ा दी है। इसके साथ ही पूरा सहयोग एवं संरक्षण का भरोसा दिया है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने शुक्रवार को एक बयान में कहा कि ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग ने बांग्लादेश पुलिस और विदेश मंत्रालय, दोनों से संपर्क किया और रामकृष्ण मिशन के इस कर्मचारी को पूरा सहयोग व संरक्षण देने का आश्वासन दिया है।

स्वरूप ने कहा, "हम भी ढाका के रामकृष्ण मिशन के साथ सीधा संपर्क बनाए हुए हैं।" उन्होंने कहा कि बांग्लादेश सरकार ने भारतीय आध्यात्मिक आंदोलन के कार्यालय रामकृष्ण मिशन के आसपास पुलिस की तैनाती बढ़ा दी है। एक दिन पहले रामकृष्ण मिशन के एक पुजारी ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि आईएस की बांग्लादेश शाखा ने एक पत्र भेजकर जान से मारने की धमकी दी थी।

उल्‍लेखनीय है कि बांग्लादेश सरकार ने देशभर में अल्पसंख्यक नेताओं को निशाने पर लेकर हत्या किए जाने के बाद से आतंकवादियों के खिलाफ देशव्यापी कार्रवाई शुरू कर दी है। हाल में एक हिंदू मठ के स्वयंसेवी नित्यरंजन पांडेय की हत्या कर दी गई थी। पांडेय बांग्लादेश के राजशाही क्षेत्र में पाबना सदर स्थित श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र सत्संग आश्रम से जुड़े थे।

बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील तत्वों पर निरंतर हमले की संस्कृति वहां की सत्ता की राजनीति है तो अब यह भारत में हमारी भी राजनीति है।

बांगलादेश में अल्पसंख्यकों के साथ वहीं हो रहा है जो भारत में होता रहा है या हो रहा है।वहीं हिंसक असहिष्णुता हमारी राष्ट्रीयता है।

बांग्लादेश में धर्मोन्माद की सुनामी उतनी ही ताकतवर है जितनी हमारे यहां और विडंबना है बांग्लादेश के एक करोड़ हिंदी फिर शरणार्थी बनने की तैयारी में हैं और भारत की राजनीति और राजनय को कानोंकान खबर नहीं है।


पहले से भारत में आ चुके पांच से लेकर सात करोड़ बंगाली शरणार्तियों के लिए यह बहुत बुरी खबर है क्योंकि बांग्लादेस में तेजी से बिगडते हालात के मद्देनजर अगर फिर शरणार्थी सैलाब आया तो पहले से बसे पुराने शरणार्थियों केलिए कोई रियायत या रहम नहीं मानेंगे भारत के बाकी  नागरिक जैसे आदिवासी को भारत को कोई नागरिक नागरिक नहीं मानता वैसा ही सच बंगाली शरणार्थियों के भूत भविष्य और वर्तमान  बारे में भी ज्वलंत सामाजिक राजनीतिक आर्थिक यथार्थ का रंगभेद मनुस्मृति दोनों हैं।

1971 मे भारत में युद्धभूमि पूर्वी बंगाल से एक करोड़ शरणार्थी आये थे और उस अभूतपूर्व संकट को हम हमेशा बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारत के सैन्य हस्तक्षेप की गौरवशाली उपलब्धि मानते रहे हैं।

1971 क उस युद्धोन्माद की वजह से भारत में कृषि संकट गहरा गया और मंहगाई मियादी बुखार बन गया है जो उतरता ही नहीं है।

1971 के उस युद्धोन्माद की वजह से आत्मरक्षा के नाम हमारा रक्षा खर्च इतना भढ़ता चला गया है कि हम परमाणु बम बना लेने के बाद भी राष्ट्र का लगातार सैन्यीकरण कर रहे हैं आंतरिक सुरक्षा की आड़ में अबाध पूंजी के हित में प्राकृतिक संसाधनों के साथ साथ लोकंत्र,संविधान,कानून का राज,अखंडता और एकता,विविधता और बहुलता,स्वतंत्रता और संप्रभुता ,नागरिकता,नागरिक और मानवाधिकार की नीलामी ही राजकाज है मुक्तबाजार का। बाकी धर्मोन्माद।नरसंहारी अश्वमेध। नतीजा महाविनाश।

1971 से लेकर 2016 की विकास यात्रा के मद्देनजर कल्पना करें कि बांग्लादेश में बाकी बचे एक करोड़ हिंदू और उनके साथ राजनीतिक उत्पीड़ने के शिकार करीब एक करोड़ मुसलमान भी भारत में बतौर शरणार्थी सैलाब उमड़ पड़े तो क्या होगा।हमने ही ये हालात बनाये हैं,समझ लें।

अभी फ्रांस शरणार्थियों के कब्जे में है जहां यूरो कप फुटबाल प्रतियोगिता चल रही है और आइफल टावर असुरक्षा के मद्देनजर बंद है तो देश भर में मेहनतकशों की हड़ताल से ट्रेन सेवा,परिवाहन से लेकर सफाई और बुनियादी सेवाएं बंद हैं।

फुटबाल मैचों का ब्यौरा छाप रहे मीडिया इन समाचारों से कन्नी काट रहा है कि फ्रांस के शहरों में पेरिस समेत सर्वत्र लाखों का हुजूम सत्ता के खिलाफ बदलाव के लिए मुक्तबाजारी सत्ता के प्रतिरोध में रोज सड़कों पर हैं।मेहनतकश हर अनाज का हिसाब मांग रहे हैं और मेहनतकश,युवा छात्र कटेहुए हाथ पांव वापस मांग रहे हैं तो स्त्रियां भी सड़कों पर हैं लेकिन भारत के मीडिया के लिए यह कोई खबर नहीं है।फ्रांस के इस अभूतपूर्व संकटमें उनका पोकस मुक्ता बाजार और विज्ञापन की चकाचौंध पर है तो समझ लें भारत में यथार्थ के प्रतिउकी प्रतिबद्धता कैसी और कितनी है।

संपूर्ण विनिवेश और संपूर्ण निजीकरण और सेवा क्षेत्र के जरिये बाजार के हवाले उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था के साथ साथ पृथ्वी,प्रकृति और मनुष्यता को अबाध पूंजी की नरसंहारी संस्कृति के हवाले करने की परिणति यूनान है जिसका इतिहास भारत, चीन,मिस्र,रोम और मेसोपोटामिया से कम गौरवशाली नहीं है।

हम अच्छे दिनों की उम्मीद में यूनान,यूरोप और अमेरिका बनकर दुनियाभर की मौजमस्ती लूटने के फिराक में मौत को दावत दे रहे हैं।

मुक्तबाजार के तंत्र मंत्र तिलिस्म में यूरोप और अमेरिका बेतरह फंसा हआ है और दुनियाभर में हिंसा,मुनाफा,नशा,युद्ध और गृहयुद्ध का विनाश रचनेवाले तमाम देशों में उन्ही के रचे युद्ध और गृहयुद्ध के शरणार्थियों ने न सिर्फ धावा बोला है बल्कि चमचमाते उनके मुक्तबाजार में कीड़े मकोड़ों की तरह ये शरणार्थी ऐसे फैल गये हैं कि उनका सामान्य जनजीवन और बुनियादी जरुरतें संकट में हैं।
भारत का राजधर्म कुलमिलाकर हूबहू वही है और यह पूरे महादेश,पृथ्वी मनुष्यता और सभ्यता के लिए खतरा है।

यूरोप और अमेरिका की बेलगाम हिंसा और विकास की अंधी पागल दौड़ और फासीवादी धर्मोन्मादी मुक्तबाजार का यह अंजाम हम भारत में भी दोहराने की कगार पर हैं क्योंकि भारत की केसरिया सुनामी के बदले बांग्लादेश में जिहादी सुनामी चल रही है और वहां एक करोड़ हिंदुओं की जान माल दांव पर हैं और हिंदुत्व के सिपाहसालारों को उन हिंदुओं की कोई परवाह नहीं है।

मुक्तबाजार में अर्थव्यवस्था को गिरवी रखकर राष्ट्र  को सैन्य राष्ट्र बनाकर निरंकुश फासीवादी राजकाज और धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद अगर आपके लिए विकास है,अगर आदिवासी भूगोल का सफाया विकास है,अगर स्त्री आखेट विकास है,अगर मेहनतखसों के कटे हुए हाथ पांव विकास हैं,युवाओं की बेरोजगारी और भविष्य की अंधी सुरंग में उनके कटे हुए दिलदिमाग विकास है तो तनिक समझ लें कि रोम,मेसोपोटामिया,यूनान ,मिस्र का गौरवशाली इतिहास से न भविष्य बचा है और न वर्तमान।चीन में विकास का तिलिस्म तेजी सेढह रहा है।

अब सनातन इतिहास के मिथकों से कितना हमारा इहलोक परलोक बचेगा तो यूरोप अमेरिका का धर्म कर्म और चीन के मुक्त बाजार के साथ साथ मध्यपूर्व के तेलयुद्ध में स्वाहा मिस्र और मेसोपोटामिया की महान सभ्यताओं का हालचाल से समझ लें।लातिन अमेरिका का हश्र देख लें।

चाहे हम गली गली में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मंदिर बना लें या चाहे हम समूचे भारत को एक झटके से बौद्धमय बना दें,मुक्तबाजार के शिकंजे से हमारी मुक्ति नहीं है।यूनान ही नहीं,समूचा यूरोप और अमेरिका का हाल दिवालिया है और मुट्ठीभर सत्तावर्ग के मजबूत शिकंडे में दुनियाभर की संपत्ति.दुनियाभर की सरकारें,दुनियाभर की सियासतें,दुनियाभर की मजहबें और कायनात की तमाम बरकतें,नियामतें और रहमतें कैद हैं।

यही कयामत का असल मंजर है जिसे हम देख रहे हैं,लेकिन उसके मुकाबले के लिए शुतुरमुर्ग की तरह रेत की आंधी गुजर  जाने का इंतजार कर रहे हैं।

 हम ठीक ठीक जानते भी नहीं हैं मुक्त बाजार की जन्नत अमेरिका के हालचाल क्योंकि असल खबरें भारत में जैसे छपती या दिखती नहीं है वैसा ही यूरोप और अमेरिका का सच भी छपा हुआ  है और इस आत्मघाती सूचना बाजार का आयात हमने वहीं से किया है।

बांग्लादेश में अब भी एक करोड़ हिंदू बचे हैं और भारत विभाजन के बाद इस महादेश में बांग्लादेश के उत्पीड़ित हिंदुत्व का सच भारत में लोकतंत्र के अवसान के साथ मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी सुनामी से कितना भयंकर कितना आत्मघाती हो रहा है,उसका अंदाजा हो तो हम समझ सकते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनाने से किस तेजी से पूरी दुनिया के गुजरात में तब्दील होने की आशंका है और आतंक के खिलाफ युद्ध में शामिल होने की वजह से किस तेजी से हमने इस महादेश को अखंड तेलयुद्ध में झुलसता आखेटगाह में तब्दील कर दिया है।हमें झुलसने का अहसास भी नहीं है।

भारत में होने वाली हर हलचल बांग्लादेश में सबसे पहले सुनामी बनती है और बंगाल की खाड़ी में बन रही यह सुनामी दुनियाभर में हिंदुओं के जान माल के लिए सबसे बड़ी आपदा बन जाती है।चूंकि बांग्लादेश बनने से पहले पूर्वी बंगाल की हिंदू आबादी को हिंदू मानने से लगातार भारत और पश्चिम बंगाल की सत्ता ने इंकार किया है और राजनीति ने हमेशा सीमापार से आने वाले शरणार्थी सैलाब को बंधुआ वोट बैंक बनाया है तो बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न भारत या इसके किसी राज्य के लिए या पश्चिम बंगाल के लिए कभी सरदर्द का सबब रहा है।

विडंबना है कि महात्मा गौतम बुद्ध के सत्य और अहिंसा की भावभूमि में रवींद्र और गांधी का भारत तीर्थ हिंसा और प्रतिहिंसा का अखंड महाभारत है और भरतीयता के गौरवशाली इतिहास भूगोल का निर्णायक नरसंहारी निष्कर्ष ग्लोबल मुक्तबाजार है।

धर्म और नैतिकता का हमसे कोई दूर दूर का वास्ता नहीं है।अर्थशास्त्र की भाषा में कहे तो हमारी नागरिकता अखंड उपभोक्तावाद है और हम सीमेंट के जंगल में आबाद द्वीपों के इकलौते वाशिंदे हैं तो हमारा स्वजन भी कोई नहीं है।

उत्पीदन प्रणाली है ही नहीं है।जो है बाजार है और बाजार लबालब बेहतरीन ब्रांड का स्वादिष्ट जायका है और हमारी सारी लड़ाई इस बाजार में बने रहने के लिए अखंड नकदी का है और इस खातिर अबाध पूंजी की सैन्य सत्ता से हमारा नाभि नाल जुड़ा है।इसी वजह से चूंकि हमारे कोई उत्पादक संबंध है ही नहीं और न हमारा अब कोई कोई समाज है और न कोई संस्कृति है।सनातन और सत्य तो कुछ है ही नहीं।

हमारा इहलोक परलोक हिंसा का बीजगणित और प्रतिहिंसा का रसायनशास्त्र है तो हमारी राष्ट्रीयता अभूतपूर्व अराजक हिंसा की भौतिकी है क्योंकि आतंक के खिलाफ साम्राज्यवादी महायुद्ध के महाबलि बनकर हम टुकड़ा टुकड़ा गृहयुद्ध के असंख्य कुरुक्षेत्र से घिरेर हुए हैं।हम सारे लोग चक्रव्यूह में जाने अनजाने घुसे हुए लोग हैं और मारे जाने को नियतिबद्ध हैं।निमित्तमात्र हैं।

इस अभूतपूर्व हिंसा और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र से अंततः इस महाभारत में कोई नहीं बचेगा अगर हम अभी से मुक्तबाजार के खिलाफ लामबंद न हो।

राजनीति और राजकाज लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुताबिक हम जब चाहे तब बदल सकते हैं,लेकिन दसों दिशाओं में घृणा और हिंसा का जो मनुष्यविरोधी प्रकृति विरोधी पर्यावरण है,उसे बदलना असंभव है।

मैं किन्हीं अमूर्त अवधारणाओं की बात नहीं कर रहा हूं और न दर्शन और जीवन दर्शन का ज्ञान बघारने जा रहा हू।हमने विकास के बहाने जो रौरव नौरक का कुंभीपाक चुना है,उसका ब्यौरा पेश करके आने वाले संकट की तरफ आपका ध्यान खींच रहा हूं।

बांग्लादेश के मुख्य दैनिक जुगांतर ने रामकृष्ण मिशन पर हमले की धमकी पर भारत के प्रधानमंत्री और पश्चिम बंगाली की मुख्यमंत्री की फिक्र पर खबर बनाया है जो इस प्रकार हैः

ঢাকার রামকৃষ্ণ মিশনে আইএস হুমকিতে মোদী-মমতার উদ্বেগ
ঢাকার রামকৃঞ্চ মিশনের সহ-সম্পাদক স্বামী সেবান্দকে চিঠি পাঠিয়ে হত্যার হুমকি দিয়েছে সন্দেহভাজন জঙ্গি সংগঠন আইএস। এতে গভীর উদ্বেগ প্রকাশ করেছেন ভারতের প্রধানমন্ত্রী নরেন্দ্র মোদী ও পশ্চিমবঙ্গের মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়।

কলকাতার বাংলা দৈনিক আনন্দবাজার পত্রিকার এক প্রতিবেদনে তাদের এ উদ্বেগের কথা তুলে ধরা হয়েছে।

প্রতিবেদনে বলা হয়েছে, চিঠি পাঠিয়ে ঢাকার রামকৃষ্ণ মিশনের সহ-সম্পাদক স্বামী সেবানন্দকে খুনের হুমকি দিল সন্দেহভাজন আইএস জঙ্গিরা।

এ ঘটনায় বাংলাদেশে যেমন আতংক ছড়িয়েছে, প্রধানমন্ত্রী নরেন্দ্র মোদী ও মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়ও উদ্বিগ্ন। প্রধানমন্ত্রীর দফতর থেকে ভারতীয় হাই কমিশনের মাধ্যমে ঢাকার রামকৃষ্ণ মিশনের সঙ্গে যোগাযোগ করে আশ্বস্ত করা হয়েছে।

বাংলাদেশের স্বরাষ্ট্রমন্ত্রী আসাদুজ্জামান খান কামাল বিষয়টিকে রাজনৈতিক চক্রান্ত বলে উল্লেখ করেন। বলেন, সংখ্যালঘুদের নিশানা করে সরকার ও দেশের ভাবমূর্তি কলঙ্কিত করার চক্রান্ত হচ্ছে। বাংলাদেশ শুধু মুসলমানদের দেশ নয়। হিন্দু-বৌদ্ধ-খ্রিস্টানরাও এ দেশের সম্মাননীয় নাগরিক। সরকার তাদের পাশে রয়েছে।

বৃহস্পতিবার আইএস (ইসলামিক স্টেটস)-এর নামে এ বি সিদ্দিকের লেখা একটি চিঠি ঢাকার রামকৃষ্ণ মিশনে আসে। তাতে মিশনের সহ সম্পাদককে অবিলম্বে ভারতে চলে যেতে বলা হয়। না হলে ২০ থেকে ৩০ জুনের মধ্যে কুপিয়ে হত্যা করার হুমকি দেয়া হয় তাকে। মিশনের তরফে ঢাকার ওয়ারি থানায় ডায়েরি করে চিঠির একটি অনুলিপি তুলে দেয়া হয়। এর পরে পুলিশ মিশনের নিরাপত্তার জন্য বাহিনী মোতায়েন করেছে। ঢাকেশ্বরী মন্দিরের নিরাপত্তাও জোরদার করা হয়েছে।

ঢাকায় হুমকির পরিপ্রেক্ষিতে এ দিন বেলুড় রামকৃষ্ণ মিশনের সাধারণ সম্পাদক স্বামী সুহিতানন্দ প্রধানমন্ত্রী ও মুখ্যমন্ত্রীকে চিঠি দিয়ে উদ্বেগ প্রকাশ করেন। চিঠিতে বলা হয়, ‘বাংলাদেশে মিশনের ১৪টি কেন্দ্র রয়েছে। এগুলো সে দেশে বিভিন্ন সেবামূলক কাজ করে। কিন্তু গত কয়েক মাস ধরে সেই কাজে বার বার বিঘ্ন ঘটছে।’

চিঠিচিঠিতে বলা হয়েছে, গত কয়েক মাস ধরেই মিশনের সন্ন্যাসীদের ফোন করে বা চিঠি পাঠিয়ে ‘কোতল করার’ হুমকি দেয়া হচ্ছে। মানিকগঞ্জে মিশনের সাটুরিয়া বালিয়াটি মিশনে এর আগে গত ডিসেম্বরের ১৫ তারিখে চিঠি দিয়ে মহারাজকে খুনের হুমকি দেয়া হয়েছিল। বিষয়টি অবিলম্বে কেন্দ্রের গোচরে আনার নির্দেশ দিয়েছেন মুখ্যমন্ত্রী।

প্রধানমন্ত্রী মোদীর সঙ্গে রামকৃষ্ণ মিশনের সম্পর্ক দীর্ঘদিনের। কিছু দিন আগেও মোদী কলকাতায় এসে বেলুড় মঠে ঘুরে গেছেন। তার দফতরে চিঠি পৌঁছানোর পরে প্রধানমন্ত্রী নিজে বিষয়টি নিয়ে তৎপর হন। দফতরের সহকারী সচিব ভাস্কর খুলবেকে বিষয়টি সমন্বয়ের দায়িত্ব দেয়া হয়। অবহিত করা হয় বিদেশমন্ত্রী সুষমা স্বরাজকেও। ঢাকায় ভারতীয় হাই কমিশনের তরফে সেখানকার মিশনের প্রধান স্বামী ধ্রুবেশানন্দের সঙ্গে যোগাযোগ করা হয়। বাংলাদেশের পরিস্থিতি নিয়ে ঢাকার হাই কমিশনার হর্ষবর্ধন স্রিংলা বিদেশ মন্ত্রককে একটি রিপোর্ট দেন, যা প্রধানমন্ত্রীর দফতরে পাঠানো হয়েছে।

বিদেশ মন্ত্রক সূত্রে খবর, তাদের রিপোর্টে বলা হয়েছে— জঙ্গি দমনে শেখ হাসিনা সরকার সম্প্রতি সর্বাত্মক অভিযান শুরু করেছে। এর ফলে মৌলবাদী ও জঙ্গিদের মনোবলে যথেষ্ট চিড় ধরেছে। এই কারণে সংখ্যালঘুদের ওপর চোরাগোপ্তা হামলা ও হুমকি দিয়ে আতংক ছড়ানোর কৌশল নিয়েছে জঙ্গিরা। গত দেড় মাসে হিন্দু, খ্রিস্টান, বৌদ্ধ ধর্মস্থানে বেশ কয়েকটি হামলা হয়েছে। কয়েক জন পুরোহিত ও ধর্মগুরুকে চোরাগোপ্তা হামলায় হত্যাও করা হয়েছে। বুধবারও মাদারিপুরে এক সংখ্যালঘু কলেজ শিক্ষকের বাড়িতে ঢুকে তার ওপর হামলা করা হয়েছে। কিন্তু বাংলাদেশ সরকার বিষয়টি যথেষ্ট গুরুত্ব দিয়েই দেখছে। জঙ্গিদের বিরুদ্ধে অভিযান শুরু করেছে। রিপোর্টে বলা হয়েছে, আইএস-এর নাম করে নাশকতা চালানো জেএমবি ও আনসারুল্লা জঙ্গিদের বহু নেতাকর্মীকে পুলিশ গ্রেফতার করেছে। পড়শি দেশে জঙ্গিবিরোধী এই অভিযান ভারতের নিরাপত্তার পক্ষেও বিশেষ গুরুত্বপূর্ণ।

বাংলাদেশের স্বরাষ্ট্রমন্ত্রী অবশ্য সংখ্যালঘুদের আশ্বস্ত করছেন। তিনি জানান, সংখ্যালঘুদের নিরাপত্তার দায়িত্ব সরকারের। তার ভাষায়, বাংলাদেশকে জঙ্গি অধ্যুষিত দেশ বলে তুলে ধরার জন্যই এই চোরাগোপ্তা হামলা চলছে, যার পেছনের রাজনৈতিক মাথাদের চিহ্নিত করা গেছে। এ বার ধরার পালা।

মাস দুয়েক পরে বাংলাদেশে আর এমন ঘটনা ঘটবে না, দাবি কামালের।
http://www.jugantor.com/online/national/2016/06/17/16551/%E0%A6%A2%E0%A6%BE%E0%A6%95%E0%A6%BE%E0%A6%B0-%E0%A6%B0%E0%A6%BE%E0%A6%AE%E0%A6%95%E0%A7%83%E0%A6%B7%E0%A7%8D%E0%A6%A3-%E0%A6%AE%E0%A6%BF%E0%A6%B6%E0%A6%A8%E0%A7%87-%E0%A6%86%E0%A6%87%E0%A6%8F%E0%A6%B8-%E0%A6%B9%E0%A7%81%E0%A6%AE%E0%A6%95%E0%A6%BF%E0%A6%A4%E0%A7%87-%E0%A6%AE%E0%A7%8B%E0%A6%A6%E0%A7%80-%E0%A6%AE%E0%A6%AE%E0%A6%A4%E0%A6%BE%E0%A6%B0-%E0%A6%89%E0%A6%A6%E0%A7%8D%E0%A6%AC%E0%A7%87%E0%A6%97

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