धरातलीय सच्चाइयों और मानवीय जरूरतों के संतुलन से बनानी होंगी योजनायें
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 01-02 || 15 अगस्त से 14 सितम्बर 2011:: वर्ष :: 35 :September 16, 2011 पर प्रकाशित
उत्तराखण्ड भारतीय हिमालय के लगभग 10 प्रतिशत भाग को समेटे हुए है। योजना आयोग, भारत सरकार ने भारतीय हिमालय में पश्चिम में अफगानिस्तान की सीमा से पूर्व में नामचावरुवा पर्वत तक दस पूर्ण राज्यों तथा पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग तथा असम के उत्तरी कछार हिल्स तथा कार्विआंगलोंग जनपदों को सम्मिलत किया गया है। उत्पत्ति की दृष्टि से हिमालय नवीनतम मोड़दार पर्वतीय भाग है। इसलिए सक्रिय निवर्तानिक क्रियाओं के कारण अनेकों भ्रंशों एवं दरारों का जाल होते हुए भी यहाँ कुछ हिस्सों में सघन आबादी है।
उत्तराखण्ड में हिमालय के सभी पाँच भ्रंश तथा अनेकों छोटे-छोटे स्थानीय दरारें भ्रंश फैले हैं। भाबर को शिवालिक से अलग करने वाला हिमालय अग्र भ्रंश है तो शिवालिक को मध्य /लघु हिमालय से मुख्य सीमान्त भ्रंश, लघु हिमालय को बृहत/उच्च हिमालय से मुख्य केन्द्रीय भ्रंश तथा ट्रान्स हिमालय को बृहत हिमालय से भारत-तिब्बत भ्रंश अलग करती है। इनके आड़े तिरछे अनेकों अनेक अन्य दरारें भी हैं। इन भ्रंशों के सहारे प्राकृतिक कारणों में भूकम्प एवं बाढ़, बादल फटना तथा मानव कृत गतिविधियों- सड़क, पुल निर्माण में विस्फोटकों का प्रयोग, कृत्रिम जलाशय निर्माण, नहरों का निर्माण, सुरंग खोदना, वनों का दोहन, खनिजों का अनियोजित दोहन आदि के कारण भूस्खलन, बाढ़ वनाग्नि, जैसी आपदाओं से प्रति वर्ष सामना करना पड़ता है।
हिमालय का उठना अभी भी जारी है। भारतीय प्लेट का चायनीज प्लेट पर लगातार दबाव बना रहा है, जिससे असीमित मात्रा में ऊर्जा संग्रहीत हो रही है जो इन छोटे-बडे़ सक्रिय भ्रंशों के सहारे बाहर निकलती रहती है। इससे छोटे-छोटे पैमाने पर भूकम्प के झटके महसूस होते रहते हैं। यह संकेत एक बहुत बडे़ प्रकोप को भी कम करने के भी हैं। भूकम्प के समय पुनः ये दरारें चौड़ी होती हैं और बरसात का पानी घुसने के कारण भूस्खलन की आपदा सामने आती है। ये भाग जब नदियाँ-नालों में गिरते हैं तो झीलों का बनना व टूटना होता है, जिससे बाढ़ों का सिलसिला शुरू होता है। दरारों के निकट विस्फोटकों के प्रयोग या अवैज्ञानिक खनन से भी आपदाएँ स्थानीय छोटे-छोटे स्तर पर शुरू होती हैं।
 पिछली लगभग आधी सदी में उत्तराखण्ड ने कई विध्वंसकारी भूस्खलनों का सामना किया है, जिनसे अपार जन धन की हानि हुई। इनमें 1963 में कलियासौड़; 1962 में गनाई एवं नैनीताल; 1935 में कनोडिया, 1964 में पातालगंगा; 1965 में धननाला, कर्णप्रयाग, कालसी-चकराता रोड, टांग्नी; 1967 में बिरछी, 1968 में जोशीमठ; 1969 में थराली, 1971 में उखीमठ, 1972 में देवली, 1973 में टनकपुर-चल्थी, 1974 में डीडीहाट, 1983 में कर्मी, 1977 एवं 1979 में तवाघाट-जौलजीवी, गरमपानी; 1998 में मालपा, 2009 में ला झेकला, 2010 में सुमगढ़, अल्मोड़ा आदि प्रमुख हैं। इन सभी भूस्खलनों में प्राकृतिक कारणों के साथ मानवीय गतिविधियों का योगदान भी रहा है। मगर ये अधिकांश भूस्खलन भ्रंशों/दरारों के सहारे ही हुए। इसी प्रकार 1970 में अलकनंदा एवं काली तथा 1978 में भागीरथी एवं कोसी नदियों में आयी बाढ़ों ने तथा उससे जनित भूस्खलनों ने सैकड़ों जिंदगियाँ लील लीं।
भूगर्भीय हलचलों से जुड़ा होने के कारण उत्तराखण्ड ने अनेक भूकम्पजनित त्रासदियों को भोगा है। रिक्टर पैमाने पर 6 तथा 6 से अधिक शक्ति के भूकम्प 1816, 1902, 1945, 1958, 1991 तथा 1999 में दर्ज किये गए। इनमें भी सैकड़ों लोगों की जानें गयीं, हजारों लोग बेघर हो गये, लहलहाते खेत बंजर पड़ गये। मवेशियों की हालत बद से बदतर हो गयी। भूकंप, बाढ़ तथा भूस्खलन के अतिरिक्त वनों में आग लगने, खानों में उत्पन्न आपदाओं का भी प्रकोप बढ़ता रहा है।
आपदा आ जाने के बाद जो अव्यवस्थता दिखाई देती है, वह दूरदर्शी, क्षमतावान, प्रशासनिक तंत्र का लक्षण नही है। इन आपदाओं के कारणों का अध्ययन भी होता रहा है। लेकिन नीतियाँ बनाते समय उन पर ध्यान नहीं दिया जाता। नीति निर्धारण एवं विकास योजनाओं को बनाने तथा कार्यान्वित करते समय हिमालय के स्वरूप, स्वभाव एवं संवेदनशीलता पर शायद विचार ही नहीं किया जाता। जबकि वास्तविक लागत-लाभ का अध्ययन अवश्य होना चाहिए। विकास योजनाओं से पर्यावरण को नुकसान तो होगा ही, परंतु उसकी मात्रा को कम से कम कैसे किया जाये, इसके लिये न तो नीति बनाई जाती है और न काम करने वाली एजेन्सी को कार्य देते समय शर्तें रखी जाती हैं। सड़कें या पुल बनेंगे, लेकिन यह तो देखना ही चाहिये कि वे भ्रंश के पास न हों, विस्फोटकों के प्रयोग से न बने। पहाड़ों में अपेक्षाकृत स्थिर क्षेत्रों का चिन्हीकरण हो। पहाड़ काटने-तोड़ने के लिये कटिंग मशीनों का प्रयोग हो। मलबे का प्रबंधन उचित समय पर, उचित ढंग से हो। पानी के स्रोतों की रक्षा हो, वृक्षों का कटान कम से कम हो, पहाड़ की प्रकृति के अनुसार सर्पीले पतले-पतले मार्ग छोटे-छोटे वाहनों की दृष्टि से बनें। अनुत्पादक निर्माण कार्य अनुपजाऊ-पथरीली भूमि पर हों, ऊर्वर सिंचिंत भूमि में नहीं। बडे़ बाँध न बनाकर छोटी-छोटी नदियों के बहते पानी से विद्युत उत्पादन हो। पहले स्थानीय आबादी की आवश्यकतायें पूरी की जायें, फिर पानी का व्यावसायिक उपयोग हो।
उत्तराखंड में आपदाओं से निपटना हो या विकास योजनायें बनानी हों, स्थानीय भूगोल अर्थात् धरातलीय स्वरूप एवं मानवीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तथा स्थानीय लोगों के साथ मिल कर ये काम किये जाने चाहिये। स्थानीय लोगों की समितियाँ यदि निर्माण-रखरखाव जीर्णोद्धार का कार्य करेंगे तो वे अपने गाँव-कस्बे-शहर के लिये उत्तरदायी भी होंगे। आज तो बनाने वाली कम्पनी-ठेकेदार नदारद हो जाते हैं। सामान्य व्यक्ति हाथ मलता रह जाता है कि शिकायत करे भी तो किससे ?
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