Tuesday, 28 February 2012 10:41 |
कुमार सुंदरम क्या हमें भारतीय के बतौर परमाणु कार्यक्रम पर ईरान की सार्वभौमिकता के तर्क का समर्थन करना चाहिए? इस मसले पर भारत में दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ तक लगभग आम सहमति है। लेकिन क्या हमें 'शांतिपूर्ण' परमाणु कार्यक्रम की इस दिशा का विरोध नहीं करना चाहिए जिसका अंत बम बनाने में ही होता है? लेकिन हम ऐसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि भारत ने भी परमाणु बम बनाने के लिए उसी रास्ते का प्रयोग किया है। परमाणु बिजली न सिर्फ महंगी, असुरक्षित और प्रदूषक है, बल्कि यह परमाणु बम बनाने का रास्ता भी खोलती है। लेकिन विकास की केंद्रीकृत अवधारणा भी परमाणु ऊर्जा के मिथक को बनाने में मदद करती है। साथ ही, अणुबिजली पर रोक इसलिए नहीं लग पा रही है कि इसमें करोड़ों डॉलर का मुनाफा लगा है। परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जहां एक तरफ परमाणु बम के प्रसार पर रोक और निरस्त्रीकरण की बात करती है वहीं इसके अनुच्छेद-चार में 'शांतिप्रिय' परमाणु उपयोग को सार्वभौम अधिकार मान लिया गया है। ईरान एनपीटी आधारित वैश्विक परमाणु तंत्र के लिए गले की हड््डी साबित हो रहा है, क्योंकि यह पूरी मौजूदा व्यवस्था को उसी के अंदर से ध्वस्त करता दिख रहा है। ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार का इस्तेमाल ईरान खुद को तकनीकी कुशलता के उस स्तर तक पहुंचाने में करता दिख रहा है जहां से बम बनाने की दूरी मात्र राजनीतिक निर्णय भर की रह जाती है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम का चरित्र और मंशा मासूम नहीं है, यह पिछले दशक की कई बातों से जाहिर हुआ है। दुनिया भर के निष्पक्ष विशेषज्ञों और परमाणु विरोधी आंदोलनों का मानना है कि तकनीकी रूप से ईरान का परमाणु कार्यक्रम सैन्य दिशा में बढ़ रहा है। ईरान की घरेलू राजनीति में राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने परमाणु हथियारों पर केंद्रित युद्धप्रिय राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख हथियार बना रखा है, ठीक वैसे ही जैसे भाजपा ने अपने शासनकाल में भारत में किया था। संवर्धित यूरेनियम की परखनली हाथ में लेकर मंच से लोगों को संबोधित करने जैसे हथकंडे असल में घिनौने दक्षिणपंथी शिगूफे हैं, जिन्होंने ऐसा माहौल तैयार किया है कि प्रमुख विपक्षी दल भी किसी तरह परमाणु-गौरव को लपकने की कोशिश में ही लगे हैं। अहमदीनेजाद की यह चाल सफल रही है। जबकि वैसे यह सरकार दुनिया की सबसे भ्रष्ट, क्रूर, पोंगापंथी और जनविरोधी सरकारों में है। ईरान अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था के इस पेच का फायदा उठाने वाला इकलौता देश नहीं है। चीन, फ्रांस, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया जैसे कई देशों ने अपने परमाणु प्रकल्प शांतिपूर्ण ढंग से बिजली बनाने के नाम पर शुरू किए थे और बाहरी देशों से इस नाम पर मिली मदद का इस्तेमाल भी अंतत: बम बनाने के लिए किया। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएइए) के अपने अनुमानों के मुताबिक परमाणु-बिजली प्रकल्पों के 'शांतिपूर्ण' रास्ते से अगले कुछ सालों में बीस और देश परमाणु बम बनाने की क्षमता और कच्चा माल हासिल कर लेंगे। एनपीटी आधारित परमाणु व्यवस्था में निहित इस विरोधाभास की अनदेखी से ही आज कई सारे देश बम बनाने में समर्थ तकनीक से लैस हैं। और अब जब इस व्यवस्था के ध्वजाधारक इस विरोधाभास से आंख नहीं चुरा पा रहे, उन्होंने इसका हल एक बहुत खतरनाक शॉर्टकट के रूप में निकाला है। उनकी योजना यह है कि परमाणु तकनीक के प्रसार और इसके प्रोत्साहन को न रोका जाए, बस 'अच्छे' देशों और 'बुरे' देशों के साथ अलग-अलग बर्ताव किया जाए। लेकिन यह बहुत विनाशकारी रवैया है, क्योंकि जब हम परमाणु बमों की बात कर रहे हैं तो उनमें न कोई बम अच्छा होता है न बुरा- सारे बम त्रासदी लेकर आते हैं। परमाणु बम बनाने के इस 'शांतिपिय' रास्ते को रोका जाना चाहिए। फुकुशिमा के बाद दुनिया भर में अणुबिजली के खिलाफ मुहिम तेज हुई है और जर्मनी, स्वीडन, इटली जैसे देशों ने इससे तौबा कर अक्षय ऊर्जा-स्रोतों की तरफ रुख किया है। हमारे देश में भी जैतापुर (महाराष्ट्र), कुडनकुलम (तमिलनाडु), फतेहाबाद (हरियाणा), मीठीविर्डी (गुजरात), चुटका (मध्यप्रदेश), कैगा (कर्नाटक) में नए रिएक्टरों के खिलाफ आंदोलन तेज हुए हैं। ये आंदोलन पूरी तरह अहिंसक हैं और इन्होंने विकास की नई परिभाषा की जरूरत को रेखांकित किया है। हमें परमाणु बिजली के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। हमें ईरान की घेराबंदी का प्रतिकार करते हुए भी उसके परमाणु कार्यक्रम को जायज नहीं ठहराना चाहिए। जब परमाणु बिजली का ही विरोध होगा तो अमेरिका को इस दादागीरी का मौका भी नहीं मिलेगा कि वह तय करे कि किसका परमाणु बम अच्छा है और किसका बुरा, जैसा वह ईरान और इजराइल के परमाणु कार्यक्रमों के सिलसिले में कर रहा है। शांति सिर्फ राजनयिक स्थिरता या गोलबंदी से नहीं आती। आज जरूरत है कि भारत के लोग ईरान के मसले को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखें। |
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ईरान पर दुनिया क्यों है हैरान
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