Sunday, November 24, 2013

बामसेफ के तीन तीन राष्ट्रीय सम्मेलन एक साथ और कुछ गलतफहमियों के बारे में जरुरी सफाई Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.

बामसेफ के तीन तीन राष्ट्रीय सम्मेलन एक साथ और कुछ गलतफहमियों के बारे में जरुरी सफाई

Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.


पलाश विश्वास

Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.

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अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन के बिखराव का इससे बड़ा सबूत कोई दूसरा हो ही नहीं सकता कि 25 दिसंबर से 29 दिसंबर  के मध्य लखनऊ,नागपुर और पटना में बामसेफ के तीन तीन राष्ट्रीय सम्मलेन हो रहे हैं। राजनीति में भारतीय बहुजन बहुसंख्य बहिस्कृत वंचित समाज कंडित विखंडित तो है ही,सामाजिक व सांसकृतिक मोर्चे पर भी अंबेडकरी आंदोलन बिखराव की हालत में है।आज अंग्रेजी आर्थिक अखबार में बहुजन समाज के इस बिखराव के राजनीतिक नतीजे और जनादेश पर उसके निर्णायक असर पर एक तथ्यात्मक विश्लेषण भी प्रकाशित हुआ है। हम इस आलेख के साथ वह लेख भी पेश कर रहे हैं।भारत में निरंकुश कारपोरेट धर्मोन्मादी जायनवादी वर्ण वर्चस्व और बहुजन बहुसंख्य जन गण की गुलामी,कृषि समाज के चौतरफा सत्यानाश का मूल कारण हमारा यह बिखराव है। निजी महात्वाकांक्षाओं की वजह से ऐसा हुआ और होना जारी है।हम नहीं जानते कि यह सिलसिला कब ख्तम होगा।


अच्छा था कि जैसे सविता कहती थी कि कहानी,कविता,उपन्यास और पत्रकारिता की दुनिया में बने रहते और जमीनी पचड़ों में नहीं पड़ते,लेकिन मेरे पिता यही विरासत छोड़ गये हैं कि अपनों का साथ किसी कीमत पर छोड़ना नहीं है। हम जो हैं,हैं,मुश्किल है कि हमारे बच्चे और घर के बाकी लोग भी पिताजी की नक्शकदम पर हैं।पूरा परिवार तबाही के कगार पर है बिना वजह क्योंकि हमारी व्यथा कथा का जैसे अंत नहीं हैं,वैसे ही हमारी गुलामगिरि खत्म होने वाली नहीं है।


लखनऊ में जो हो रहा है,चुनाव से पहले बहुजनसमाज पार्टी के वोटबैंक की कीमत पर एक और बहुजन राजनीतिक पार्टी का चुनावी शंखनाद है।इस पर हम कुछ कहना नहीं चाहते। जो सत्ता संघर्ष में हैं वे अपना अपना हिसाब बूझ लें। ताराराम मेहना एकीकरण मुहिम के साथ शुरु से रहे हैं और अपनी अध्यक्षता छोड़कर एकीकरण के लिए तैयार है।नागपुर में देश भर के कार्यकर्ताओं की सहमति से और बाद में जारी वितचार विमर्श के जरिये समविचारी संगठनों की सहमति से पटना में एकीकरण राष्ट्रीय सम्मेलने के आयोजन का फैसला हुआ जिसमें नया संविधान और नया संस्थागत लोकतांत्रिक संगठनात्मक ढांचा तैयार  व लागू होना है। राष्ट्रीयजनांदोलन की समयबद्ध कार्ययोजना तैयार होनी है।


बोरकर साहेब मुंबई में एकीकरण सम्मेलन में शामिल हुए थे और हम उनकी बेशकीमती सिफारिशों पर अमल भी कर रहे हैं। उनकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी और आम सभा ने एकीकरण का स्वागत किया है और हम आभारी हैं। हम लोगों की बोरकर साहब और परमार जी से निरंतर बातचीत जारी हैं लेकिन वे एकीकरण की प्रक्रिया से अलग हैं और चाहते हैं कि हम सभी लोग उनके संगठन में शामिल हो जाये।उन्होंने नागपुर में राष्ट्रीय सम्मेलन के सिलसिले में एकीकरण समिति से विचार विनिमय भी नहीं किया। बहरहाल हम पहले से पटना में एकीकरण सम्मेलन का ऐलान कर चुके हैं और चाहकर भी एक साथ दो जगह हाजिर हो नहीं सकते।हमें उम्मीद है कि देर सवेर देश भर के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों के आह्वान पर वे लोग भी एकीकरण की पर्करिया में शामिल होंगे।


हम लोगों ने मुंबई और नागपुर में बामसेफ के सभी धड़ों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को न्यौता था,जिनमें माननीय वामन मेश्राम भी शामिल थे।लेकिन अब तक एकीकरण की दिशा में उनकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर हमें नहीं मिला है। इन दड़ों के अलावा बाकी अन्य धड़ों से,दूसरे अंबेडकरी संगठनों से,समविचारी संगठनों से, देश बर के कार्यकर्ताओं से हम लोग निरंतर संपर्क बनाये हुए हैं। इस सिलसिले में हमें आंशिक सफलता और थोकभाव से गालियां मिल रही हैं। जाहिर है कि एकीकरण कोई जादू नहीं है,जिसका असर पलक झपकते न झपकते हो जाये।


व्यक्ति वादी अलकतांत्रिक एकतरफा कर्मपद्धति खून में इसतरह गहरी पैठ गयी है कि हममें से बहुतों को इस जटिल प्रक्रिया में अभ्यस्त होने में वक्त लगेगा।आदतन कुछ लोगों की महत्वाकांक्षाएं भी सतह पर आ जायेंगी और इसी आग की दरिया में डूबकर ही हमें राष्ट्रव्यापी जनांदोलन का निर्माण करना होगा जो तपिश और झलसते रहने का सबब भी होगा।

धुआंधार गलतफहमियां होंगी,दुष्प्रचार होगा,आपसी मतभेद होंगे,विवाद होंगे, मनमुटाव होगा क्यंकि एकतरफा कार्यप्रणाली को जब आप सार्वजनिक आचरण की लोकतांत्रिकता में बदलते हैं,तब सबकुछ व्याकरण सम्मत विशुद्ध पंजिका के मुताबिक बिना झझट बिन समस्या बिन विवाद होगा,ऐसा असंभव ही है।


लोकतंत्र के झमेले बहुत है,तानाशाही निर्विवाद होती है।वह सोचने समझने की जिम्मेदारी सर्वोच्च शिखर को है।शिखर जैसा सोचेगा,जैसी उसकी सनक होगी या मर्जी होगी,मिजाज के मापिक वह जारी करेगा हुक्मनामा और बाकी लोगों को कुछ करना नहीं है,सिर्फ अंध भेड़ धंसान में समाहित हो जाना है।


लोकतांत्रिक तरीके से सहमति की प्रक्रिया बेहद जटिल है।इसमें अपनी कही के अलावा दूसरों का मतामत को समझने की तहजीब बेहद जरुरी है।दूसरों की गलतियों और बदतमीजियों को भी सांगठनिक प्रक्रिया में समाहित कर लेने का हाजमा जरुरी है और दुर्भाग्य से अंबेडकरी आंदोलन की ऐसी कोई विरासत फिलहाल नहीं है।


कोई शार्ट कट है नहीं और कामयाबी से हम बहुत दूर हैं,ये बातें दिमाग में रखकर लगातार सक्रियता अखंड प्रतिबद्धता से यकीनन हम यता स्थिति को तोड़ सकते हैं।


अभी प्रक्रिया शुरु हुई हैं,इसके नतीजे अभी अभी मिल जायेंगे रेडीमेड,ऐसा समझकर जो फेंस पर बैठे ताकत तौल रहे हैं कि जितनी ताकत होगी,उसी के मुताबिक साथ देंगे,वे अंततः धारा को बदलने में मददगार हो सकते हैं,ऐसा समझना मुश्किल है।


बल्कि जो बहुत थोड़े लोग आगे हर तरह का जोखिम उठाक,हर किस्म के झटके सहकर बदलाव के लिए आकिरी दम तक लड़ेंगे,हो सकता है कि वे ही बदलाव करने में कामयाब हो जाये।


लेकिन अभी अंबेडकरी आंदोलन का जो हाल है,कामयाबी का सपना देखना भी असंभव है।


सच पूछिये,तो वामन मेश्राम जी से मेरी निजी कोई तकलीफ नहीं है।हमने जब भी उनसे बात की है,उन्होंने ध्यान से सुना।हमेशा उनकी अगुवाई में बामसेफ के मंच पर हमें अपनी बात रखने का मौका दिया।निजी तौर पर भी वे हमेशा मददगार रहे हैं।


लेकिन हमने निजी संबंधों के बजाय उन तमाम ईमानदार कार्यकर्ताओं का साथ देना उचित समझा जो वास्तव में भारत में जनांदोलन के पक्ष में हैं।निजी तौर पर बिना किसी विवाद के हमने स्वेच्छा से एक शक्तिशाली मित्र खोया।तो मकसद मुक्त बाजार में भारतीय जनता के चौतरफा सर्वनाश से बचाने के लिए बामसेफ के सभी धड़ों के एकीकरण हमारे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है,निजी संबंध नहीं।


वामन मेश्राम ने तब बामसेफ को नेतृत्व दिया,जब मान्यवर कांशीराम ने राजनीतिक दल बनाने की घोषमा की और खापर्डे साहब के नेतृत्व में मेश्राम और बोरकर जी जैसे चुनिंदा कार्यकर्ताओं ने बामसेफ को जीवित रखने का फैसला किया।लेकिन वह टीम भी जल्दी बिखर गयी।


वामन मेश्राम के करिश्माई नेतृत्व और बोरकर की संगठनात्मक दक्षता का विखंडन सबसे पहले हुआ।


इसी विखंडन के बाद मैं 2005 में वामन मेश्राम से तब मिला जब नागपुर में नागरिकता संसोधन कानून के लिए सम्मेलन आयोजित किया गया।इससे पहले मैं किसी भी स्तर से अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ा नहीं था। न अंबेडकर को पढ़ा था।


पिता के निधन के बाद आजीवन जिन शरणार्थियों की लड़ाई लड़ते रहे वे,उनकी नागरिकता संकट में थी,शरणार्थी नेताओं के कहने पर मैं नागपुर गया था।


वहां बांग्ला भाषा पर वामन मेश्राम के प्रतिकूल मंतव्य से ज्यादातर बंगाली साथी नाराज हो गये।


लेकिन भारतभर में कोई शरणार्थी मुद्दे पर बोल ही नहीं रहा था और मेश्राम के नेतृत्व में बामसेफ यह मामला ईमानदारी से उठा रहा था,फिर हमारे परम मित्र लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्थ बर्वे लगातार हमसे संपर्क साधे रहे,जसकी वजह से 2007 में मैं पहली बार बामसेफ के राष्ट्रीय अधिवेशन में गया।


यह नोट करने वाली बात है कि तबसे लगातार मैं जहां भी गया, बामसेफ के लिए मैंने कभी कोई चंदा नहीं किया।मैं डेलीगेट फीस देने लायक न था और न किराया बरने काबिल,बामसेफ ने यह सारा खर्च उठाया।


गुलबर्गा सम्मेलन के बाद मुझे काम करने के लिए लैपटाप देने के लिए मुंबई में बामसेफ के साथियों ने पैसे भी इकट्ठा कर लिये थे,लेकिन तब तक मतभेद इतने बढ़ते गये कि मैं ने लैपटाप लिया नहीं।


कृपया कोई यह नहीं समझें कि संगठन ,नेतृत्व या कार्यपद्धति की आलोचना करने की वजह से हमारे पुराने सारे मित्र रातोंरात हमारे दुश्मन हो गये हैं।


इसके उलट हमें उम्मीद है कि देशभर में हमारे तमाम लोग बहुजनसमाज के हित में अपने निहित हितों से ऊपर उठकर साथ आयेंगे।वैमनस्य को जड़ से उखाड़ फेंकना हमारा मकसद है।


अगर मुझे राजनीति करनी होती तो मैं नैनीताल से लोकसभा चुनाव लड़ने का प्रस्ताव निरंतर न ठुकरा रहा होता,जहां बंगाल वोटबैंक निर्णायक हैं।बहुजन समाज पार्टी में मैं शामिल हो सकता था।


नंदीग्राम प्रकरण से पहले माकपा के सर्वोच्च स्तर तक मेरे संबंध थे और मैं माकपा में भी शामिल हो सकता था। फिर सिंगुर नंदीग्राम आंदोलन का पूरा समर्थन करने के बाद ममता बनर्जी के परिवर्तन ब्रिगेड में शामिल होने का विकल्प हमारे सामने खुला हुआ था।


बामसेफ को बहुजन मुक्ति पार्टी में समाहित करने से सही मायने में यह सवाल उठ गया कि आखिर क्यों कांशीराम जी के पैसले के विरुद्ध बामसेफ को अलग बनाये रखा गया।


फिर जब राजनीति ही करनी है तो बहुजन एकता के लिए क्यों नहीं कांसीराम जी की बनायी पार्टी बहुजन समाज पार्टी के साथ बामसेफ का समायोजन नहीं किया गया।


हम लोग फिरभी पार्टी कीघोषमा से पहले वामन मेश्राम के साथ संवाद का इंतजार कर रहे थे। तभी मुंबई यूनिट ने चंदे का हिसाब मांग लिया।जैसे भी हो सही गलत हिसाब देकर इस मामले को निपटाया जा सकता था।बात हो सकती थी।नहीं हुई।


मुंबई यूनिट भंग कर दी गयी।दूसरी बनी यूनिट भी हिसाब मांगने पर भंग कर दी गयी।लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्थ बर्वे साहेब को निकाल बाहर किया गया।


इससे पहले भी देश भर में बिना सुनवाई ईमानदार कार्यकर्ताओं को निकाला जाता रहा।


मुंबई में एकीकरण की मुहिम चली तो हमने उनका साथ देना तय हुआ।


बामसेफ में मेरी यात्रा महज छह साल पुरानी है।लेकिन जनमजात जनांदोलनों से मेरा निरंतर वास्ता रहा है,जिसकी वजह से उत्तराखंड के लोग जानते हैं कि हमने अपने पिता तक का विरोध करने से कभी नहीं हिचकिचाया।


कुछ लोग मुझपर कारपोरेट का खेलने का आरोप लगा रहे हैं तो वे यह क्यों नहीं समझते कि जनांदोलन यासंगठन का नेतृत्व जो लोग कर रहे हैं,वे किसी भी कार्यकर्ता से कहीं ज्यादा जवाबदेह हैं।हमारे कथित कारपोरेट खेल से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन नेतृत्व और संगठन के कारपोरेट खेल से बहुजन भारतीयों के सर्वनाश के भागीदार भी हम हो जाते हैं।


मेरा निजी जीवन यथेष्ट पारदर्शी है और मैं इस संदर्भ में आगे कोई सफाई दूंगा नहीं।


हम देशभर के कार्यकर्ताओं ने बामसेफ को संस्थागत संस्था बनाने पर सहमत हुए और इस फैसले में हम सब लोग शामिल हैं और इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भी साझा है।हमारे पुराने मित्र आरोप लगाते हैं कि कर्नल बर्वे की मित्रता की वजह से हम मेश्राम जी से अलग हो गये।वे भूल जाते हैं कि कर्नल बर्वे से जितनी मित्रता है,उतनी ही मित्रता हमारी मेश्राम जी,मातंग जी और विलास खरात से रही है।


किन्हीं भी परिस्थितियों में हमने हमेशा संवाद जारी रखने की कोशिश की।समस्या यह हुई कि एकतरफा फैसलों से संवाद का वह सिलसिला टूट गया।


सही मयने में गड़बड़ीकिसी व्यक्ति में नहीं होती।गड़बड़ी विचारधारा,उद्देश्य और संगठनात्मक ढांचे में होती है।संस्थागत लोकतांत्रिक ढांचा न होने के कारण अंबेडकरी आंदोलन लगातार बिखरता गया।हमने लगातार आंदोलन के बजाय मसीहा और राजनीतिक दलों का निर्माण किया।जनांदोलन हुआ ही नहीं है।


यह सब लिखने का आशय यही है कि अब देशभर के कार्यकर्ता व्यक्तिनिर्भर संगय़न और एकतरफा फैसले को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे।


राजनीति हमारा मकसद नहीं है,इसलिए जिन्हें राजनीति करनी हैं,वे करते रहें।हमें कोई तकलीफ नहीं।लेकिन हमारे यहां उनके लिए कोई स्पेस नहीं है।


लेकिन अब भी जो अराजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक आंदोलन के जरिये बहुजनों का हाल बदलने का ख्वाब देखते हैं,ऐसे सभी लोगों के साथ हम लोग काम करने को तैयार हैं।लेकिन संगठनात्मक ढांचा के तहत ही काम करना है,इसमें कोई दो राय नहीं है।


हम किसीके साथ शामल नहीं हो रहे हैं और न हमसे जुड़े तमाम संगठनों का किसी गुट या धड़े में विलय हो रहा है। मेश्रामजी के बामसेफ,बोरकर साहेब के बामसेफ या झल्ली साहेब के बामसेफ या ताराराम साहेब के बामसेफ के अलावा रिपब्लिकन पार्टी के विभिन्न धड़ों और बहुजनसमाजपार्टी से लेकर तमाम दूसरे संगठनों और पार्टियों में जो बहुजनसमाज के कार्कर्ता सक्रिय हैं,उनसे हमारा कोई

विवाद नहीं हैं।उनका हमारे साथ आने का हमेशा स्वागत किया जायेगा।


किसी धड़े विशेष की शक्ति बढ़ाने के बजाय अंबेडकरी आंदोलन और बहुजनसमाज का सशक्तीकरण हमारा मकसद है।कोई राष्ट्रीय सम्मेलन या राजनीतिक पार्टी नहीं।


पटना में हो रहा बामसेफ राष्ट्रीय सम्मेलन ताराराम मेहना का सम्मलेन नहीं है।यह अंबेडकरी आंदोलन के एकीकरण का सम्मेलन है।


चूंकि संगठनात्मक ढांचा अभी हम बना नहीं पाये हैं,इसलिए सम्मेलन संबंधी हैंड बिल वगैरह में इस मुद्दे का खुलासा कायदे से नहीं हो पाया कि ताराराम मेहना सिर्फ उद्घाटन सत्र का नेतृत्व करेंगे।उनसे हम लोगों की बात हुई है।वे पहले भी अध्यक्षता छोड़ने की बात कर चुके हैं।नये संविधान के मुताबिक ।पटना सम्मेलन में ही एकीकृत बामसेफ के नये अध्यक्ष चुन लिये जायेंगे।


बेहतर होता कि पटना सम्मेलन के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता एकीकृत बामसेफ के कार्यकारी अध्यक्ष एनबी गायकवाड़ ही करते।ऐसा नहीं हो पाया कम से कम हैंडवबिल में। लेकिन यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस सम्मेलन का आयोजन ताराराम मेहना और सुवचन राम जी के तत्वावधान में हो रहा है और यह एकीकरण की प्रक्रिया के तहत ही है।


ताराराम मेहना को एन बी गायकवाड़ की अध्यक्षता में काम करने से कोई कष्ट नहीं है और न ही वे अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए अड़े हुए हैं।


हैंडबिल में तकनीकी गड़बड़ी से जो गलतफहमी देश के कार्यकर्ताओं को हो सकती है,उसके खुलासे के लिए यह स्पष्टीकरण है।


मुद्दे की बात तो यह है कि अगर हम वामन मेश्राम के एकाधिकारवादी नेतृत्व के खिलाफ खड़े हो सकते हैं तो बाकी जो भी हमारे साथ काम करते हैं,उन्हें यह ख्याल रखना होगा कि एकीकरण की प्रक्रिया में लगे ईमानदार कार्यकर्ताओं को ब्रांडेड बनाने की कोई कोशिश सही नहीं जायेगी।


सभी कार्यकर्ताओं और सभी समविचारी संगठनों के मतामत और लोकतांत्रिक पद्धति से ही फैसले होंगे और यह अनिवार्य है।


पटना में सबकी भागेदारी से लोकतांत्रिक तरीके से नयी शुरुआत हो,इसकी जिम्मेदारी किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष पर नहीं है।यह हम सबकी जिम्मेदारी है।अगर  चूक हो रही है कहीं तो उसकी जिम्मेदारी भी साझा है। अपने ऐतिहासिक कार्यभार को समझकर आगे आने और सहभागी बनने की चुनौती हम सबके सामने है।बाकी लोकतंत्र है।


अब लीजिये,इकानामिक टाइम्स का वह लेख और अंदाजा लगाइये कि हम कितनी गहराई में हैं या सतह पर ही तूफान रच रहे हैं।

Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.


As elections approach, with a series of state polls already underway and a general election next year, appeals by various parties for votes of the Dalit, tribal and other backward classes will only intensify.


Ever since the Janata Party government set up the Mandal Commission in the late '70s to identify the  ..


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