Friday, January 10, 2014

पिता का मिशन कैसे पूरा करूं , भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।

पिता का मिशन कैसे पूरा करूं , भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।

पलाश विश्वास

उत्तराखंड की तराई में उधमसिंह नगर जिला मुख्यालय रुद्रपुर से सोलह किमी दूर दिनेशपुर में पिछले साल की तरह इसबार भी पिताजी किसान और शरणार्थी नेता दिवंगत पुलिनबाबू की स्मृति में आयोजित राज्यस्तरीय फुटबाल प्रतियोगिता संपन्न हो गयी है।कहने को तो यह उत्तराखंड स्तरीय प्रतियोगिता है,लेकिन इसमें उत्तर प्रदेश की टीमें भी शामिल रहीं। घरु टीम दिनेशपुर को हराकर चैंपियन भी बनी उत्तर प्रदेश की टीम। कादराबाद बिजनौर ने यह प्रतियोगिता जीत कर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की दूरी मिटा दी। इसबार पहाड़ से भी टीमें आयीं। उम्मीद है कि अगली दफा उत्तर प्रदेश और पहाड़ से ौर ज्यादा टीमें शामिल होंगी इस प्रतियोगिता में।


मैं यह आलेख इस फुटबाल प्रतियोगिता पर लिख नहीं रहा हूं। प्रिंट और मीडिया ने हर मैच का कवरेज किया और दूर दराज से खेलप्रेमी तमाम मैच देखते रहे।


मैंने पिताजी से जुड़े किसी कार्यक्रम में ,सिवा कोलकाता विश्वविद्यालय में उनके निधन की पहली वर्षी पर हुए कार्यक्रम के, कभी शामिल हुआ नहीं हूं।


लेकिन जिस मिशन के लिए पुलिन बाबू आज भी भारतभर के शरणार्थी उपनिवेशों के अलावा उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बिना सेलिब्रेटी या निर्वाचित जनप्रतिनिधि हुए पुलिन बाबू को आज भी याद करते हैं, मुझे उस मिशन के अंजाम की सबसे ज्यादा परवाह है।उनके जीवनकाल में मैं उनके मिशन में कहीं नहीं था क्योंकि हमारी विचारधारा और थी और उनके राजनीतिक नेताओं के साथ संबंधों पर मुझे सख्त एतराज था। उनके निधन के बाद मुझे शरणार्थी समस्या से दो दो हाथ करना पड़ा क्योंकि भारत सरकार ने विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को देशनिकाला का परमान जारी किया हुआ है।विचारधारा से मदद नहीं मिली तो मैं बामसेफ में चला गया और अब वहां भी नहीं हूं।देशभर में शरणार्थी आंदोलन अब भी जारी है,लेकिन इस राष्ट्रव्यापी शरणार्थी आंदोलन में भी अब अपने को कहीं नहीं पा रहा हूं।


पिताजी अंबेडकरवादी थे। पिताजी कम्युनिस्ट भी थे। मैंने उनके जीवनकाल में अंबेडकर को कभी पढ़ा ही नहीं। हम वर्ग संघर्ष के मार्फत राज्यतंत्र को आमूल चूल बदलकर शोषणविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना का सपना जी रहे थे इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक और तमाम साम्यवादियों की तरह हम भी भारतीय यथार्थ बतौर जाति को कोई समस्या मानते ही न थे। पिताजी ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे।उत्तराखंड पहुंचने से पहले वे बंगाल में तेभागा आंदोलन के भी लड़ाकू थे।चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत के तमाम किसान विद्रोह की तरह ढिमरी ब्लाक से भी किनारा कर लिया तो उनका कम्युनिस्टों से आजीवन विरोध रहा। लेकिन वे इतने लोकतात्रिक जरुर थे कि उन्होंने अपनी विचारधारा और अपना जीवन जीने की हमारी स्वतंत्रता में तीव्र मतभेद के बावजूद कभी हस्तक्षेप नहीं किया।


1958 में हुए ढिमरी ब्लाक आंदोलन से वे आमृत्यु तराई में बसे सभी समुदायों के नेता तो थे ही, वे पहाड़ और तराई के बीच सेतु भी बने हुए थे।जाति उन्मूलनकी दिशा में उनकी कारगर पहल यह थी कि उन्होंने सारी किसान जातियों और शरणार्थी समूहों को दलित ही मानने की पेशकश करते रहे। वे अर्थशास्त्र नहीं जानते थे।औपचारिक कोई शिक्षा भी नहीं थी उनकी।लेकिन उनका सूफियाना जीवन दर्शन हम उनके जीवनकाल में कभी समझ ही नहीं सकें। भारत विभाजन की वजह से जिन गांधी के बारे में तमाम शरणार्थी समूहों में विरुप प्रतिक्रिया का सिलसिला आज भी नहीं थमा, कम्युनिस्ट और शरणार्थी होते हुए उसी महात्मा गांधी की तर्ज पर 1956 में उन्हंने शरमार्थियों की सभा में ऐलान कर दिया कि जब तक इस देश में एक भी शरणार्थी या विस्थापित के पुनर्वास का काम अधूरा रहेगा, वे धोती के ऊपर कमीज नहीं पहनेंगे। वे तराई की कड़ाके की सर्दी और पहाड़ों में हिमपात के मध्य चादर या हद से हद कंबल ओढ़कर जीते रहे।देशभर में यहांतक कि अपने छोड़े हुए दस पूर्वी बंगाल से भी जब भी किसीने पुकारा वे बिना पीछे मुड़े दौड़ते हुए चले गये। भाषा आंदोलन के दौरान वे ढाका के राजपथ पर गिरफ्तार हुए तो बंगाल के प्रख्यात पत्रकार और अमृत बाजार पत्रिका के संपादक तुषारकांति घोष उन्हें छुड़ाकर लाये। तुषारकांति से उनके आजीवन संबंध बने रहे। यही नहीं, भारत के तमाम राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों,राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और तमाम राजनीतिक दलों से उनका आजीवन संबंध था। उनका संवाद अविराम था। वे इंदिरा गांधी के कार्यालय में बेहिचक पहुंच जाते थे तो सीमापार जाने के लिए भी उन्हें न पासपोर्ट और न वीसा की जरुरत होती थी।


वे यथार्थ के मुकाबले विचारधारा और राजनीतिक रंग को गैरप्रासंगिक मानते थे। यह हमारे लिए भारी उलझन थी।लेकिन कक्षा दो में दाखिले के बाद से लगातार नैनीताल छोड़ने से पहले मैं उनके तमाम पत्रों,ज्ञापनों और वक्तव्यों को लिखता रहा। इसमें अंतराल मेरे पहाड़ छोड़ने के बाद ही आया।वे शरणार्थी ही नहीं, दलित ही नहीं, किसी भी समुदाय को संबोधित कर सकते थे और तमाम जातियों को वर्ग में बदलने की लड़ाई लड़ रहे थे दरअसल।वे चौधरी चरणसिंह के किसान समाज  की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी थे,जिनसे उनके बहुत तीखे मतभेद थे।बंगालियों में उन्हें लेकर विवाद इसलिए भी था कि वे बंगाली ,पहाड़ी, सिखों, आदिवासियों, मैदानी और अल्पसंख्यक समुदायों में कोई भेदभाव नहीं करते थे और कभी भी वे उनके साथ खड़े हो सकते थे। जैसे बाबरी विध्वंस के बाद वे उत्तरप्रदेश के तमाम दंगा पीड़ित मुसलमानों के इलाकों में गये। वे भारत विभाजन के लिए मुसलमानों या मुस्लिम लीग को जिम्मेवार नहीं मानते थे।वे ज्योति बसु के साथ काम कर चुके थे तो जोगेंद्र नाथ मंडल के भी सहयोगी थे। वे नारायण दत्त तिवारी और कृष्णचंद्र पंत के राजनीतिक जीवन के लिए अनिवार्य वोटबैंक साधते थे,जो हमसे उनके मतभेद की सबसे बड़ी वजह भी थी, लेकिन इसके साथ ही वे अटलबिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर के साथ भी आमने सामने संवाद कर सकते थे। उन्होंने पद या चुनाव के लिए राजनीति नहीं की और न निजी फायदे के लिए कभी राजनीतिक लाभ उठाया।उनके लिए सबसे अहम थीं जनसमस्याएं जो तराई के अलावा असम, महाराष्ट्र, कश्मीर,दंडकारण्य या बंगाल के अलावा देश भर में कहीं की भी स्थानीय या क्षेत्रीय समस्या हो सकती थी। वे साठ के दशक में असम के तमाम दंगा पीड़ित जिलों में न सिर्फ काम करते रहे,बल्कि उन्होंने प्रभावित इलाकों में दंगापीड़ितों की चिकित्सा के लिए सालभर के लिए अपने चिकित्सक भाई डा. सुधीर विश्वास को भी वहीं भेज दिया था उन्होंने। हम बच्चों को कैरियर बनाने की सीख उन्होंने कभी नहीं दी बल्कि हर तरह से वे चाहते थे कि हम आम जनता के हक हकू की लड़ाई में शामिल हो। अपनी जायदाद उन्होंने आंदोलन में लगा दिया और अपनी सेहत की परवाह तक नहीं की। सतत्तर साल की उम्र में अपनी रीढ़ में कैंसर लिये वे देश भर में दिवानगी की हद तक उसीतरह दौड़ते रहे जैसे इकहत्तर में मुक्तियुद्ध के दौरान बांग्लादेश।बांग्लादेश मुक्त हुआ तो दोनों बंगाल के एकीकरण के जरिये शरणार्थी और सीमा समस्या का समाधान की मांग लेकर वे स्वतंत्र बांग्लादेश में भी करीब सालभर तक भारतीय जासूस करार दिये जाने के कारण जेल में रहे।उनमें अजब सांगठनिक क्षमता थी। 1958 में ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृ्त्व करने से पहले वे 1956 में तराई में शरमार्थियों के पुनर्वास संबंधी मांगों के लिए भी कामयाब आंदोलन कर चुके थे,जिस आंदोलन की वह से आज के दिनेशपुर इलाके का वजूद है।फिर 1964 में जब पूर्वी बंगाल में दंगों की वजह से शरणार्थियों का सैलाब भारत में घुस आया और जब सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं,एकदम अजनबी शरणार्थियों को लेकर उन्होंने लखनऊ के चारबाघ स्टेशन पर लगातार तीन दिनट्रेने रोक दी। इसी नजारे के बाद समाजवादी नेता चंद्रशेखर से उनका परिचय हुआ और इसी आंदोलन की वजह से सुचेता जी को मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा।


36 गांवों में सं कहीं भी वे बस सकते थे लेकिन अपनी बिरादरी से बाहर के लोग,अपने देश से बाहर के जिले के लोग जो तेभागा से लेकर बंगाल और ओड़ीशा के शरणार्थी आंदोलनों के साथियों के साथ गांव बसाया और उनके ही साथियों ने इस गांव का नामकरण मेरी मां के नाम पर कर दिया,जो इस गांव से फिर अपने मायके तक नहीं गयी और न पिता को अपने ससुराल जाने की फुरसत थी।हमने आज तक ननिहाल नहीं देखा हालांकि मेरी ताई और मेरी मां किसी भी गांव के किसी भी घर को अत्यंत दक्षता से अपना मायका बना लेती थीं,इसलिए अपने बचपन में हमें ननिहाल का अभाव कभी महसूस भी नहीं हुआ।   मसलन  ऐसे  ही एक ननिहाल के रिश्ते से आउटलुक के एक बड़े ले आउट आर्टिस्ट मेरे मामा लगते हैं।


वे किसान सभा के नेता थे। ढिमरी ब्लाक आंदोलन की वजह से हमारे घर तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुई, वे जेल गये,पुलिस ने मारकर उनका हाथ तोड़ दिया।उन पर और उनके साथियों पर दस सालतक विभिन्न अदालतों में मुकदमा चला।इसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब मैं दूसरी पासकर तीसरी में दाखिल हुआ तो अपने साथ मेरा नैनीताल में पहाड़ के आंदोलनकारियों से मिलाने नैनीतल ले गये।तब उन्हें सजा हो गयी थी लोकिन हरीश ढोंढियाल जो स्वंय आंदोलनकारी बतौर अभियुक्त थे और  पार्टी की मदद के बगैर वकील बतौर मुकदमा भी लड़ रहे थे,उनकी तत्परता से उन्हें जमानत भी फौरन हो गयी। मुकदामा की सुनवाई के बाद वे मुझे सबसे पहले डीएसबी कालेज परिसर ले गये और बोले तुम्हें यही पढ़ना है। आधीं पानी में भी ,मैराथन पंचायतों में भी मुझे सात लेकर चलते थे पिताजी।इसीतरह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर में आंधी पानी के बीच बाघ का आतंक जीतकर उपराष्ट्रपति डा.जाकिर हुसैन का दर्शन करके आधीरात जंगल का सफर त करके उनकी साईकिल के पीछे बैठकर घर लौटा था मैंने।आखिरी बार 1974 की गर्मियों में देशभर के तमाम शरणार्थी इलाकों का दौरा करके प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रपट देने के लिए मुझे जीआईसी नैनीताल से मुझे दिल्ली बुलाया और तमाम श्मशानघाटों का दर्शन कराया। समाधिस्थलों का भी। इसीतरह 1973 में वे मुझे कोलकाता पैदल घूमा चुके थे। ले गये थे केवड़ातल्ला। वे चांदनी चौक से प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पैदल जाते रहे हैं। इसीतरह हम इंदिराजी के दफ्तर में पहुंचे थे, लेकिन उस रपट का हश्र देखने के बाद फिर मैं उनके साथ किसी राजनेता के यहां नहीं गया।


मुझे यह पहेली उनकी मौत तक उलझाती रही कि  अंबेडकरवादी और जोगेंद्र नाथ मंडल के साथी  होने के बावजूद वे कम्युनिस्ट कैसे हो सकते थे या उनका तौर तरीका विशुद्ध गांधी वादी कैसे था।हम इसे उनकी अशिक्षा ही मानते रहे। हम यह भी नहीं समझ सके कि जाति को वर्ग में बदलने के लिए वे आजीवन क्यों लड़ते रहे। पहेली  यह रही कि क्यों उन्होंने तराई के बाकी बंगालियों की तरह सिख शरणार्थियों का दुश्मन न मानकर हर वक्त उनका साथ देते रहे। क्यों वे हमारे साथ चिपको आंदोलन और पर्यावरण के तमाम आंदलनों और उत्तराखंड आंदोलन में मजबूती से खड़ा रहे पाये जबकि उनके आंदोलनों में वैचारिक विचलन की वजह से हम कभी शामिल ही नहीं हो सके।यह भी कम बड़ी पहेली नहीं रही कि भारत विभाजन पीड़ितों को हक हकूक के लिए आखिरी सांस तक लड़ने के बावजूद भारत के अल्पसंख्यकों को भी वे बारत विभाजन का ही शिकार मानते थे और उनके खिलाप सांप्रदायिकता के विरुद्ध हमेशा मुकर हो पाते थे।


यह भी कम बड़ी पहेली नहीं कि वे हमेशा मार्क्स,लेनिन और माओ के विचारों के मुकाबले हमें हमेशा अंबेडकर पढ़ने की नसीहत देते रहे लेकिन खुद वे अंबेडकरी राजनीति में कहीं नहीं थे। हर बार वे बंगाल में फिर जोगेंद्र नाथ मंडल के हार जाने और बाबासाहेब अंबेडकर के असमय महाप्रयाण का ही शोक मनाते रहे।अबेडकरी दुकानदारों से उनका कोई वास्ता था ही नहीं, लेकिन बाकी सभी दलों के तमाम रथी महारथी से उनका आजीवन संवाद रहा है।


भूमि सुधार आजीवन जिनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा रहा है और कृषि समाज में जाति उन्मूलन की जिनकी सर्वोच्च प्रथमिकता थी, वे आखिर बिना किसी लाभ के इतने सारे राजनेताओं से फौरी समस्याओं के समाधान के लिए कैसे जुड़े रह सकते थे,यह भी हमारे लिए अबूझ पहेली है। भारतीय राज्यतंत्र में जीवन के हरक्षेत्र में प्रतिनिधित्व से वंचित कृषि समाज की यही विडंबना है कि फौरी समस्याओं के समाधान के लिए वे राजनीतक समीकरण से जूझते रहते हैं और रंग बिरंगा जनादेश का निर्माण करते हैं लेकिन राज्यतंत्र को ही बदलकर बुनियादी मुद्दों के लिए कोई राष्ट्रव्यापी ांदोलन कर नहीं सकते।


पेशेवर जिंदगी हम जी चुके हैं।साम्यवादी और अंबेडकरी दोनों विपरीतधर्मी आंदोलन भी हमने जी लिया लेकिन हमारे सामने बुनियादी चुलौती यही है कि पिता का मिशन कैसे पूरा करूं ,भूमिसुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी राजनीति के चंगुल में है किसानों की तरह जबकि विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का।


अब तराई के इतिहास पर भास्कर उप्रेती, सुबीर गोस्वामी,शंकर चक्रवर्ती, विपुल मंडल,मेरे भाई पद्दोलोचन जैसे तमाम युवाजनों और कुछ इतिहासकारों की टीम भी काम कर रही है।हम उम्मीद करते हैं कि तराई समेत उत्तराखंड की अबूझ भूमि संबंधों के अलावा जातियों को वर्ग में समाहित करने का कोई रास्ता वे बतायेंगे। ऐसी उम्मीद साम्यवादी,समाजवादी, अंबेडकरी और यहां तक कि गांधीवादी देशभर के सक्रिय ईमानदार कार्यकर्ताओं से हम करते है ं कि वे अवश्य चिंतन मंथन करके कोई ऐसा रास्ता निकालें जिसमें वोटबैंक की आत्मघाती विरासत से निकलकर हम राज्यतंत्र में बदलाव करके समता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल कर सकें। वर्गविहीन समाज की स्थापन करके पूरा देश जोड़ते हुए देशद्रोहियों के शिकंजे में फंसे देश और देशद्रोहियों को बचा सकें। पिता के अधूरे मिशन को मुकम्मल बनाने में आप हमारी इसीतरह मदद कर सकते हैं।


दिनेशपुर,तराई,उत्तराखंड और बाकी देश में जो अब भी पुलिनबाबू को याद करते होंगे, वे उनकी मूर्ति पूजा छोड़कर इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रयत्नकर सकें तो मुझे लगेगा कि किसी औपचारिक आयोजन के बिना पिता को यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


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