Saturday, March 1, 2014

और बहा ले जाए बुरे वक्तों को बुरे वक्तों की कविता

और बहा ले जाए बुरे वक्तों को बुरे वक्तों की कविता


पलाश विश्वास


Ak Pankaj shared Rang Varta's photo.

आज से काउंटडाउन शुरू हो गया है. 20 दिन बाद रांची के दर्शक सहित देश भर से आए लोग शिरकत करेंगे इस द्वितीय आदिवासी-दलित नाट्य समारोह और इस अवसर पर आयोजित दो दिवसीय आदिवासी दर्शन एवं साहित्य विषयक सेमिनार में.


वे सभी जिनकी रुचि उत्पीड़ित समाजों के संघर्ष और सृजन में है, उनका स्वागत रहेगा.प्रिय साथियो, तीन दिवसीय 'द्वितीय आदिवासी-दलित नाट्य समारोह' एवं 'आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन' पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में 21-23 मार्च 2014 को रांची झारखंड में आप सभी सादर आमंत्रित हैं.    @[137643649404:274:Arvind Gaur], @[100002024290062:2048:Shyam Kumar], @[100000870673202:2048:Manish Muni], @[100000155414226:2048:Rajesh Kumar], @[1256843336:2048:Shilpi Marwaha], @[100001783987852:2048:Abhishek Nandan], @[100006531797237:2048:Arun Narayan], @[100001370063747:2048:Parvez Akhtar]

प्रिय साथियो, तीन दिवसीय 'द्वितीय आदिवासी-दलित नाट्य समारोह' एवं 'आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन' पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में 21-23 मार्च 201...See More


दृश्यांतर के ताजा अंक में प्रकाशित हिंदी के शीर्षस्थ कवि कुंवर नारायण की यह कविता हमारी मौजूदा चिंताओं को कहीं बेहतर अभिव्यक्त करती है। आज  संवाद का आरंभ उनकी दो निहायत प्रासंगिक कविताओं से


विश्वबोध की सुबह


इतनी बेचैन क्यों है सुबह?

क्या हुआ रातभर …

हत्याएं...बलात्कार  लूचपाट…



यह कैसा शोर?

क्यों बाग रही बदहवास हवाएं

जंगलों की ओर?


डर लगता किसी से पूछते

क्या हुआ सारी रात?

लोग कुछ कह रहे दबी जुबान से

शायद कभी नहीं बीतेगा बुरा वक्त!



मैं ऊंचा सुनने लगा हूं

बदल गया दूसरों से

मेरी बातचीत का अंदाज


बाहर कुछ होता रहता हर वक्त

मैं छिपकर जीता हूं अपने अंदर के वक्त में भी


एक अजीब तरह की प्रतीक्षा में

कोी आनेवाला है

कुछ होने वाला है जल्दी ही..

ऐसा कुछ जैसा कुछ

कभी नहीं हुआ इससे पहले

मेरी अपेक्षा स्थापित

यह कैसा विकल विश्वबोध!


कैसी हो बुरे वक्तों

की कविता

कैसी हो बुरे वक्तों की कविता?


कवि बदलते

कविताें बदलतीं

पर बदलते नहीं बुरे वक्त!


बहुत-सी मुश्किलें शब्द ढूंढती

बिल्कुल आसान भाषा में बूंद-बूंद

चाहती कि वे उठों भाप की तरह

अथाह गहरे समुद्रों से

पहाड़ों से टकराएं बादलों की तरह

घेर कर बरसें पृथ्वी को

जैसे आंधी,पानी,बिजली..


और बहा ले जाए बुरे वक्तों को

बुरे वक्तों की कविता!


साभारः दृश्यांतर


संपादक अजित राय को धन्यवाद इन कविताों के लिए। वे हमारे पूर्व परिचित हैं।अब संपादक भी हैं और शायद उन्हें मित्र कहने की भी हमारी औकात नहीं है।जब हमारे पुरातन विख्यात मित्र हमारी मित्रता को अवांछित अपमानजनक मानते हों,तो हमारे सहकर्मी संपादक कवि शैलेंद्र शायद सही कहते हैं, तुम स्साले चिरकुट हो।हर किसी को दोस्त मान लेते हो।हर कोई दोस्त होता नहीं है,समझा करो। शैलेंद्र इलाहाबाद से हमारे मित्र हैं और हम लोग खुलकर बोलते हैं।गाली गलौज करने वाले मित्रों का मैं बुरा नहीं मानता इसलिए की पुख्ता दस्ती शायद गाली गलौज की भाषा मांगती है।हमने मित्रों से निवेदन किया है कि खामोशी की वजाय गाली गलौज की सौगात हमारी पहली पसंद है।वे अहमत हों और अपनी असहमति के हक में उनकी कोई दलील न हो तो वे बाशौक गाली गलौज मार्फत अपनी असहमति दर्ज करा सकते हैं जो महान भारतीय संस्कृति और लोकपरंपरा दोनों हैं।


बहरहाल इस कविता का विश्वबोध हैरतअंगेज है और नहीं भी। समकालीन कविता परिदृश्य में वैश्विक वर्चस्व वाद के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें चुनिंदा हैं,इसलिए हैरत अंगेज।खासकर दूरदर्शन ठिकाने से प्रकाशित भव्य पत्रिका में। हैरत्ंगेज इसलिए नहीं क्योंकि आखिरकार कुंवर नारायण बड़े कवि हैं।


आलोचक और अति उदार समीक्षाएं,पुरस्कार और प्रतिष्ठा से कोई बड़ा कवि बनता नहीं है।


वरना वाल्तेयर आज भी प्रासंगिक नहीं होते जिन्हें लिखने के एवज में हमेशा निर्वासन,कैद की सजा और यंत्रणा मिलती रहीं और आग में जलने के बावजूद अग्निपाखी की तरह उनकी कविताएं आज भी जिंदा है।


विश्वबोध ही कविता और कवि को महान और प्रासंगिक बनाता है। इसे यूं समझिये कि अगर शेयर बाजार में आपका दांव है और आपको वैश्विक इशारों को समझने की तहजीब और तमीज न हो तो गयी भैंस पानी में।


इस सिलसिले में यह कहना शायद मुनासिब ही होगा कि शायद यह पहलीबार है कि मैं कुंवर नारायम जी की किसी कविता की चर्चा कर रहा हूंय़ुनकी कविताओं को न समज पाने का डर लगता है। जैसे हमारे तीन अत्यंत प्रिय अग्रजों मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और नीलाभ की दृष्टि में अस्सी के दशक में शमशेर सबसे बड़े कवि थे। मार्कंडेयजी को इससे बड़ी शिकायत थी। कहते थे,मंगलेश बहुत बदमाश है।शमशेर की कुछ पंक्तियों के लिए पांच सौ रुपये देता है और हम जो लिखे,उसके लिए फकत सौ रुपये।

मगर हमें फिल्म ओमकारा की बोली की तरह शमशेर हमेशा दुर्बोध्य लगते रहे।उनके कविता संग्रह और कुंवर नारायण के भी ,हमारे पास हैं,लेकिन हमने कभी इन दो बड़े कवियों को समझने की हिम्मत नहीं कर पाये।


बाबा नागार्जुन बड़े मस्त थे।शलभ को वे लंबी कविताओं का मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़े कवि मानते थे,लेकिन राहुल सांकृत्यायन,त्रिलोचन और नागार्जुन की इस औघड़ तिकड़ी के बाबा त्रिलोचन जी को आधुनिक केशवदास कहने से परहेज नहीं करते थे।


लोक और शास्त्रीय दोनों विधाों में समान दखल और चकित कर देनी वाली विद्वता और उसे सटीक अभिव्यक्ति देने वाले त्रिलोचन हमेशा हमारे आकर्षण के केंद्र रहे तो बाबा का आसन हमेसा हमारे दिल में रहा है।मुक्तिबोध और निराला की तत्सम बहुल कविताओं को हमने अबोध्य नहीं समझा तो इसकी खास वजह उनका विश्वबोध है।


भारतभर में सबसे ज्यादा बाजारु लेखन बंगाल में होता है।सुनील गंगोपध्याय प्रभाव से बंगाल का समूचा साहित्य कला संस्कृति भाषा परिवेश देहमय आदिम घनघोर है। इस जंगल में अब भी माणिक बंदोपाध्याय का सामाजिक यथार्थबोध और उनकी वैश्विक दृष्टि हमें हमेशा राह दिखाती है।मजे की बात है कि पश्चिम बंगाल तो क्या भारत भर में कोई उनके अनुयायी खोजें तो मुश्किल हो जायेगी। लेकिन बांग्लादेश के तमाम आधुनिक बड़े और युवा संस्कृतिकर्मी अख्तराज्जुमान इलियास की दृष्टि मुताबिक मामिक के ही अनुयायी हैं।इसलिए भारत जैसे इतने बड़े गणतांत्रिक देस के पड़ोसी धार्मिक कट्टरपंथ से लहूलुहान बांग्लादेश में प्रतिरोध का हीरावल दस्ता वहीं संस्कृति प्रदेश है।


इसे हालिया एक किस्से के जरिये बताऊं,फरवरी में नागपुर में अंबेडकरी उन चुनिंदा डेलीगेट सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बैठक में शामिल होने का मौका मिला,जिसमें बाबासाहेब और कांशीराम जी के वे साथी भी शामिल थे,जो आंनंद तेलतुंबड़े के मुताबिक हार्डकोर हैं,और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक का प्रतिनिदित्व कर रहे थे।अस्मिता राजनीति के दायरे तोड़कर अंबेडकरी आंदोलन को पुनरुज्जीवित करने के तौर तरीकों पर गर्मागर्म बहसें चल रही थी।पूरा युवा ब्रिगेड था।जिसमें आदिवासी युवाजन भी थे और दक्षिण भारत के लोग भी।


बीच बहस में जब फैसले बहुत विवादित होने लगे तो कश्मीर के हंगामाखेज युवा अधिवक्ता कम सामाजिक कार्यकर्ता ज्यादा,ऐसे अशोक बसोत्तरा ने अचानक बहस में हस्तक्षेप करते हए कहा कि आप सारे लोग बातें बड़ी बड़ी करते हों लेकिन आपकी दृष्टि का दायरा घर.आंगन,गली मोहल्ले में ही कैद है।अगर बदलाव चाहिए तो इंडिया विजन दिमाग में रखकर तब मुंह खोलि्ये।इस वक्तव्य का चामत्कारिक असर हुआ और हम लोगों ने सर्वसहमति से तमाम फैसले किये।


विनम्रता पूर्वक आपको बताऊं कि जब अमेरिका से सावधान लिखा जा रहा था,पूरे एक दशक तक हमारे कथालेखक इसे नजरअंदाज करते रहे,लेकिन लगभग देशभर के दो चार अपवादों को छोड़कर सभी शीर्षस्थ और युवा कवियों तक ने इस इंटरएक्टिव साम्राज्यवादी अभियान में सहयोग जारी रखा लगातार।


शायद कथा के मुकाबले कविता ज्यादा वैश्विक होती है।कथा का चरित्र आंचलिक होता है।आंचलिकता के बिना कथा की बाषा नहीं बनती और उसमें कालजयी तेवर नहीं आ पाते।


इसके उलट कविता में वैश्विक दृष्टि न होने से कविता कविता नहीं होती। इसी निकष पर आज भी भारतभर में गजानन माधव मुक्तिबोध से बड़ा कोई कवि हुआ नहीं है।


यहां तक कि नोबेल विजेता रवींद्र नाथ टैगोर भी,जिनकी नब्वे फीसद कविताएं निहायत सौंदर्यगंधी प्रेमरसीय रोमांस के अलावा कुछ भी नहीं है।बल्कि रवींद्र ने सामाजिक सरोकारों पर जो गद्यलिका है,वह अनमोल है।


आपको शायद इस सिलसिले में हमारे प्रयोगों में कुछ दिलचस्पी हों।


उदारीकऱण का दशक पूरा होते न होते हम तो साहित्य और पत्रकारिता में कबाड़ हो गये। नेट तभी हमारा विकल्प बना। लेकिन नेट पर हिंदी लिखी नहीं जा रही थी और नेट पर हिंदा के पाठक थे। हमें मजबूरन अंग्रेजी को विकल्प चुनना पड़ा।


हमने भारत देश को ईकाई न मानकर इस  समूचे दक्षिण एशिया के जिओ पालिटिकल ईकाई को अपनी अंग्रेजी लेखन की धुरी बनायी। नतीजतन बांग्लादेश और पाकिस्तान की पत्र पत्रिकाओं में मैं खूब छपा। यहां तक कि क्यूबा,चीन और म्यांमार में भी।


दरअसल मुद्दों को समझने और संप्रेषित करने  के लिए राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमम अनिवार्य है। कालिदास और अमीर खुसरों की रचनाएं ऐसा आज भी करती हैं और इसीलिए शेक्सपीअर आज भी समान रुप से प्रासंगिक है।


कविता पर यह बात मौजूदा परिदृश्य को समझने और मुद्दों से कारगर तरीके से निपटने के लिए बेहद जरुरी है।


भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में असली मुद्दे एकदम हाशिये पर है। भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति में आखिरीबार शायद सत्तर के दशक में मुद्दों को बहाल करने की गंभीर चेष्टा हुई थी। तबसे दूर तक चुप्पी है।जो सबसे खतरनाक है,ख्वाबों के मर जाने से ज्यादा खतरनाक।


कविता को इस यथास्थिति को तोड़ने में पहल करनी चाहिए तभी बुरे वक्त की कविताएं बुरे वक्तों को बहा सकती हैं,अन्यथा नहीं।


हमारा सवाल है कि कुंवर नारायण जी जैसे बुजुर्ग कवि अगर समय की नब्ज को कविता में दर्ज करने में समर्थ हैं तो हमारे युवा कवि क्या कर रहे हैं। यह हमारी चिंता का सबब है। सरदर्द का भी।


क्या समकालीन कवियों और रचनाकरों की कलम और उंगलियों में टोपी या टोंट लगी है?


अभिषेक श्रीवास्तव ने सूचना दी है

हमारे एक हरियाणवी मित्र कहा करते थे कि जब बाढ़ आती है तो सांप और नेवला एक ही पेड़ पर चढ़ जाते हैं। इधर बीच हुए दो डेवलपमेंट से उनकी बात नए संदर्भ में समझ आ रही है।


पहला, नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ लिखने-बोलने वाले पत्रकारों के लिए अचानक कांग्रेस पोषित चैनलों में नौकरी की संभावना बनी है। दूसरा, नरेंद्र मोदी के सत्‍ता में आने से डरे हुए सोशलिस्‍ट, मार्क्सिस्‍ट, ट्रॉट्सकियाइट, इस्‍लामिस्‍ट, गांधियन, आदि सभी किस्‍म के बुद्धिजीवी कांग्रेस पोषित एनजीओबाज़ों के पाले में खिसक आए हैं और लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता पर संयुक्‍त कार्यक्रम करवाने में जुट गए हैं।


(प्रो. पुरुषोत्‍तम अग्रवाल ठीक ही कहते हैं: मैं टीका लगाता हूं, हिंदू हूं लेकिन बीजेपी का वोटर नहीं। अर्थात् इस देश को आज कांग्रेसी हिंदुओं की सख्‍त ज़रूरत है!)

Yashwant Singh

शाबास Payal .. इसे कहते हैं सरोकार वाली पत्रकारिता. दरअसल अब मीडिया को इन कार्पोरेट परस्त, अज्ञानी, पेड न्यूज वाले पत्रकारों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ना चाहिए. हमको आपको सभी को सजग सतर्क जनपक्षधर दृष्टि रखते हुए सही तथ्य को सामने लाना चाहिए, वो भले ही फेसबुक के जरिए सामने आए या ट्विटर, ब्लाग, वेब से... कार्पोरेट परस्त मीडिया को हम सोशल मीडिया वाले ही औकात में रख सकते हैं...

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दैनिक जागरण की असंवेदनशील पत्रकारिता, मूक जानवरों को आतंक का पर्याय बताया... http://bhadas4media.com/print/18110-2014-02-28-13-09-35.html

Palash Biswas I enquired about the journalist who committed suicide jumping before a running train in Mokama.I am surprised to know that the socialist journalist turned JDU MP and the editor of a andolan has blocked all social media website for his working journalists and no one there knows anything about other journalists.Bhadas is blocked in most of the newspaper campus.What an emergency against the scribes who are deprived of information about themselves while supposed to bring forward the truth.I hope ,Yashwant and others would innovate something rather more striking.


Surendra Grover

Kanupriya Goel का कहना है "दोनों राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ एक दुसरे की प्रतिद्वंद्वी कम पूरक ज्यादा है." याने कि कुछ बरस तुम लूटो और कुछ बरस हमें लूटने दो.. हिसाब बराबर.. वाह री दो दलीय व्यवस्था..

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उसकी छलांग से

छलांग से उड़ रही धूल से

अब भी परेशान हैं वे सारे चेहरे

जो 75 साल बाद भी

बस इसी चाहना में

शीलाजीत वियाग्रा खाते हुए

मंडरा रहे हैं

पृथ्वी के हर हिस्से में

कि जो औरत उन्हें

दी जाएगी भोगने के लिए

वह 24 कैरेट कुमारी होगीलोग   उस छलांग से डरे हुए हैं  उस बूढ़ी औरत की छलांग से  जिसे बचपन में समझाया था  घर-परिवार ने  समाज ने   लिंग मंदिरों ने   बड़े-बूढ़ों ने   सीख दी थी सभी ने उसे  दौड़ोगी भागोगी कूदोगी  छलांग लगाओगी तो  तुम्हारा कौमार्य टूट जाएगा  फिर जिंदगी भर  जो बनेगा तुम्हारा स्वामी  वह संदेह करता रहेगा  सेकेंड हैंड वस्तु की तरह ही  व्यवहार करेगा तुमसे    वह बूढ़ी औरत  75 साल की उम्र में भी  लगा रही है छलांग  और उसकी छलांग से   छलांग से उड़ रही धूल से  अब भी परेशान हैं वे सारे चेहरे  जो 75 साल बाद भी  बस इसी चाहना में   शीलाजीत वियाग्रा खाते हुए   मंडरा रहे हैं   पृथ्वी के हर हिस्से में  कि जो औरत उन्हें   दी जाएगी भोगने के लिए  वह 24 कैरेट कुमारी होगी    वे सब डरे हुए हैं  वे सब डर रहे हैं  75 साल की वह पहाड़ी बूढ़ी  जब जब लगाती है छलांग  सदियों पुराना कोई धर्म गं्रथ  आज का व्हाइट हाउस नियंत्रित कोई कानून  दरक दरक जाता है   चटकता है भरभराता है गिरता है  छलांग से डरे हुए हैं  नए पुराने दूल्हों की सुहागराती दुनिया  जहां बिल्लियां अब  मरने से इनकार कर रही हैं    Oinam Rashi Devi, aged over 75 yrs from Manipur, in action during 35th National Masters Athletic Championship 2014 in Coimbatore on February 25. Soon we will be launching our new campaign 'Adding Life to the Years' for senior citizens... Photo source PTI Source : Deccan Herald - grassroots to galaxies



अब इस पर गौर करें।


शरीर का सिर्फ एक अंग विकसित हो तो वह तरक्की नहीं कैंसर है. हमने सपने बदल दिये हैं. इसमें अमीर अपने ख्वाहिश पूरा कर लेता है, लेकिन गरीब-बेरोजगार की फौज बिकने के लिए तैयार है. उनसे बाबरी मस्जिद तुड़वा लीजिए या दंगा करवाइये...

'आप अपने लिए लड़ते हैं, तभी हारते हैं. सही जगह पहुँचने के लिए सही घोड़ा औए ठीक सवार भी चाहिए. जो लोभी होगा वह निडर कैसे हो सकता है? जो लोग संस्कृति की बात करते हैं कभी उन्होंने- नरहरि दास, मीरा, कबीर, सूर व तुलसी का नाम नहीं लिया...' ये बात विप्लवी पुस्तकालय, गोदरगावाँ के 84वाँ वार्षिकोत्सव में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने कही. वे 'आजादी के दीवानों के स्वप्न और वर्तमान भारत' विषय पर आयोजित आमसभा में बोल रहे थे.sahitya-pic-bihar-shashi-shekhar

उन्होंने आगे कहा कि क्या अंबानी को जरूरत है समाजवाद की? शरीर का एक अंग विकसित हो तो वह तरक्की नहीं कैंसर है. हमने सपने बदल दिये हैं. इसमें अमीर अपने ख्वाहिश पूरा कर लेता है लेकिन गरीब बेरोजगार की फौज बिकने के लिए तैयार है. बाबरी मस्जिद तुड़वा लीजिए या दंगा करवाइये.

विषय प्रवेश करते हुए दूरदर्शन के एंकर सुधांशु रंजन ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भारतीय परंपरा के पौराणिक-ऐतिहासिक उदाहरणों को श्रोताओं के समक्ष रखा. उन्होंने कहा कि न्यायोचित समाज का निर्माण करना देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. हमारे यहां नेता सत्ता का मोह नहीं छोड़ते. एक समय प्रतिस्पर्धाथी कि कौन कितना त्याग करता है और आज कौन कितना संचय करता है की होड़ है. यह एक तरह का विश्वासघात है उन शहीदों के साथ.

अलीगढ़ मुस्लिम विवि में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक प्रो. वेदप्रकाश ने कहा कि भगत सिंह क्रांतिकारी के साथ प्रखर बुद्धिजीवी भी थे. पुस्तकालय कैसे क्रांति का केंद्र बन सकता है, यह भी भगत सिंह ने सिखाया. इंकलाव निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है.

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ आलोचक डॉ खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि सुभाष चंद्र बोस गांधी के विकल्प बन गये थे. प्रेमचंद की एक नारी पात्र कहती है कि जान की जगह गोविन्द को बैठाने से क्या होगा, चेहरा बदलने से क्या होगा..? उन्होंने आगे कहा कि जनतंत्र सिमटता जा रहा है, जिसके पास खाने-पीने का साधन नहीं है उसके लिए कौन सा जनतंत्र है. जनतंत्र पर जनता का नियंत्रण नहीं है.. इस जनतंत्र को मानवीय बनाने की जरुरत है.

प्रलेस के उप्र महासचिव डॉ संजय श्रीवास्तव ने कहा कि देश में सांप्रदायिकता की खेती की जा रही है, चाय की चुस्कियों के साथ! बिहार प्रलेस महासचिव राजेन्द्र राजन ने कहा कि युवा पीढ़ी में आधुनिकता और करोड़पति, अरबपति बनने की होड़ लगी है. एक तरफ इनके ठाट-बाट हैं तो दूसरी ओर भूख, अभाव, शिक्षा आवास व सुरक्षा के लिए तरसते लोग. युवाशक्ति की ऊर्जा क्षीण हो रही है.. हम  किस हिन्दुस्तान को बनाना चाहते हैं? एक नई किस्म की राजनीति चल रही है. कुर्सी की राजनीति.. समाज को मानवीय बनाने के लिए सपने देखने की जरुरत है.

समारोह का यादगार लमहा प्रसिद्ध रंगकर्मी प्रवीर गुहा द्वारा निर्देशित व रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखित नाटक 'विशाद काल' का मंचन एवं दिनकर शर्मा द्वारा प्रेमचंद की कहानी का एकल मंचन भी महत्वपूर्ण रहा.

समारोह के दूसरे दिन 27 फरवरी को चंद्रशेखर आजाद (शहादत दिवस) के सम्मान में आयोजित संगोष्ठी के मुख्य वक्ता दैनिक 'हिन्दुस्तान' के प्रधान संपादक शशिशेखर थे. उन्होंने 'लोक जागरण की भारतीय संस्कृति और कट्टरता के खतरे' पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि विचार की भूमि से ही विचार पैदा होता है. क्या कारण था कि 1947 से पहले स्कूलों में अलख जगा करता था. हम आसानी से एक एक हो जाते थे. आज वैसी सोच नहीं है. हमने उस आइने को छिपा दिया है जिसे कन्फ्युशियस पास रखते थे. यह आईना हमें हमारी जिम्मेवारी का अहसास कराता है. सवालों के हल शब्दों से नहीं कर्म से होता है.

सत्र के प्रथम वक्ता प्रो. वेदप्रकाश ने कहा कि लोक जागरण भारत कि विरासत रही है. आत्म जागरण का मतलब आत्म कल्याण के साथ-साथ जन कल्याण भी होनी चाहिए. डॉ संजय श्रीवास्तव ने संगोष्ठी के वैचारिक विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा कि लोक जागरण का अग्रदूत कबीर से बड़ा कोई नहीं हुआ. मुर्दे को जगाने का काम कबीर कर रहे थे. बुद्धकाल को लोक जागरण नहीं मानना हमारी बड़ी भूल होगी. हम आज भी कबीर के सहारे खड़े हैं.. हमें आज कबीर की जरुरत है. इस सत्र में डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी और सुधांशु रंजन ने भी अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए.

कार्यक्रम की अध्यक्षता जीडी कॅालेज के पुर्व प्राचार्य प्रो. बोढ़न प्र. सिंह ने की. कार्यक्रम में उमेश कुवंर रचित पुस्तक 'भारत में शिक्षा की दशा व दिशा' का लोकार्पण भी किया गया. समारोह में दैनिक 'हिन्दुस्तान' के प्रधान संपादक शशिशेखर ने स्कूली बच्चों को सम्मानित किया. इस अवसर पर 'हिन्दुस्तान' के वरीय स्थानीय संपादक डॉ तीरविजय सिंह, विनोद बंधु सहित अतिथि एवं स्थानीय साहित्यकार मौजूद थे.

हजारों दर्शक व श्रोताओं के साथ भाकपा राज्य सचिव राजेन्द्र सिंह, रमेश प्रसाद सिंह, नरेन्द्र कुमार सिंह, धीरज कुमार, आनंद प्र.सिंह, सर्वेश कुमार, डॉ एस. पंडित, डॉ अशोक कुमार गुप्ता, सीताराम सिंह, चन्द्रप्रकाश शर्मा बादल, दीनानाथ सुमित्र, सीताराम सिंह, अनिल पतंग, दिनकर शर्मा, वंदन कुमार वर्मा, अमित रौशन, परवेज युसूफ, आनंद प्रसाद सिंह, मनोरंजन विप्लवी, अरविन्द श्रीवास्तव आदि की उपस्थिति ने आयोजन को यादगार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

जनज्वार के सौजन्य से

जनज्वार डॉटकॉम

सरकारें विकास नहीं करतीं विकास तो आप लोग (पूंजीपति) करते हैं, जो हॉल के अन्दर बैठे हैं. केजरीवाल ये भूल गये कि विकास मेहनतकश जनता करती है. किसानों-मजदूरों के खून से विकास होता है, जो गर्मी में तपकर, ठंड में ठिठुर कर भी काम करते हैं... http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4816-vishvbank-ka-rajneetik-product-aap-for-janjwar-by-sunil-kumarसरकारें विकास नहीं करतीं विकास तो आप लोग (पूंजीपति) करते हैं, जो हॉल के अन्दर बैठे हैं. केजरीवाल ये भूल गये कि विकास मेहनतकश जनता करती है. किसानों-मजदूरों के खून से विकास होता है, जो गर्मी में तपकर, ठंड में ठिठुर कर भी काम करते हैं... http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4816-vishvbank-ka-rajneetik-product-aap-for-janjwar-by-sunil-kumar


कोयले की धूल से मरते हर साल 70 हजार

पेशेगत बीमारियों की चपेट में मजदूर

भारत में सिलिका धूल प्रभावित मजदूरों की तादाद आईएलओ के अनुसार 2007 में 1 करोड़ थी. यह संख्या आज काफी बढ़ गई है, क्योंकि खनन और औद्योगिक इकाइयों की संख्या बढ़ती जा रही है. अमेरिका स्थित ओके इंटरनेशनल के अनुसार भारत में 30 हजार लोग सिलिकोसिस से मरते हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुसार हर साल हमारे देश में 70 हजार लोगों की मौत कोयला की धूल प्रदूषणजनित बीमारी से होती है...

समित कुमार कार

कल-कारखानों और खदानों में मजदूरों की पेशेगत बीमारी और दुर्घटनाओं से मौत और कार्यस्थल पर महिला मजदूर और कर्मचारियों के यौन शोषण, बलात्कार और हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. इनके मद्देनजर सभी स्तर पर पेशागत सुरक्षा, सेहत और अन्य श्रम अधिकारों के लिए मजदूर और कर्मचारियों को जागरूक करने के लिए ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ एसोसिएशन ऑफ झारखंड (ओशाज) और राइजिंग ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ नेटवर्क ऑफ इंडि़या (रोशनी) ने अभियान शुरू किया है.health-silicosis_graphic-bimariइस अभियान का उद्देश्य मजदूरों को नए सिरे से जागरूक कर सभी हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स) को संवेदनशील बनाकर कार्यस्थल को सुरक्षित बनाए रखने का संस्कार विकसित करने और पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य को मजदूरों के मौलिक अधिकार के रूप में कायम करने की दिशा में अभियान जारी रखना है.

झारखंड खनिज संपदा से भरपूर है. यहां कोयला, लोहा, तांबा, यूरेनियम, क्योर्टज, क्योर्टजाइट, क्रोमाईट, ग्रेनाइट आदि खनिजों के खनन दलन और प्रसंस्करण इकाइयों और इससे संबंधित सार्वजनिक और निजी छोटे मंझोले और बडे कल कारखानों की संख्या 16 हजार के आसपास होगी.

इसमें ताप विद्युत प्लांट, सीमेंट प्लांट, स्पंज आयरन प्लांट, कोयला, तांबा, यूरेनियम, क्रोमाईट, बॉक्साइट, लौह अयस्क, रैमिंगमास (क्योर्टज यानी सफेद पत्थर का पाउडर) इकाइयां और ग्रेनाइट स्टोन क्रेशर आदि शामिल हैं. ये सबसे ज्यादा धूल पैदा करने और प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयां हैं. इन खनिजों के खनन और प्रसंस्करण के दौरान मजदूर फेफड़े की कई लाइलाज पेशागत बीमारियों से पीडि़़त होते हैं.

फेफड़े की पेशागत बीमारियों के विभिन्न रूप हैं. निउमोकोनिओसिस इसका जेनेरिक नाम है. इन खनिजों के धूलकण हवा के साथ फेफड़े में जाने से ये बीमारियां होती हैं. काम करने के दौरान सांस के साथ धूल खींचने से फेफड़ों में निशान जैसे मांसतंतु पैदा करता है. यह हवा से ऑक्सीजन निकालने की फेफड़ों की क्षमता को कम कर देता है. धूल कण फेफड़ों की गहरी वायुकोशीय थैलियों में खुद को जकड कर रख सकते हैं. इन्हें श्लेष्मा या खांसने से साफ नहीं किया जा सकता हैं.

इन सभी बीमारियों में से सिलिकोसिस और कोल वर्कर निउमोकोनिओसिस से पीडि़तों और मृतकों की संख्या मजदूरों में सबसे ज्यादा है. मार्बल, क्योर्टजाइट, ग्रेनाइट का खनन, सुरंग खुदाई, कटाई और निर्माण, डि़ªलिंग, ब्लास्टिंग, सडक निर्माण स्थल और सैंड ब्लास्टिंग, फाउंड्री, कांच निर्माण, सिलिकायुक्त अब्रेसिव, स्लेट पेंसिल आदि के उत्पादन और सड़क निर्माण स्थल, क्योर्टज यानी सफेद पत्थर के पाउडर के उत्पादन और स्टोन क्रशिंग सहित 77 किस्म की उत्पादन प्रक्रियाओं में सिलिका धूल का उत्सर्जन होता है.

बीमारियों के स्रोत और उनकी किस्में

स्रोत                               पेशागत फेफड़े की बीमारियां

खनिजों का धूलकण      निउमोकोनिओसिस के विभिन्न रूप

सिलिका                      सिलिकोसिस

लौह अयस्क              सिडेरोसिस

कोयला कोल वर्कर    निउमोकोनिओसिस

एसवेस्टॉस              एसवेस्टॉसिस

वेरिलियम               वेरिलिओसिस

स्ट्रॉनसियम             स्ट्रॉनसिओसिस

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार हर साल लगभग 24 लाख लोग अपने पेशे या काम के कारण मरते हैं. इसमें 20.2 लाख लोग पेशागत बीमारी और 3.8 लाख लोग कार्यस्थल पर दुर्घटना के कारण मौत का शिकार होते हैं. आईएलओ द्वारा पेश आंकडे काफी कम दिखते हैं, क्योंकि भारत सहित अन्य विकासशील देशों से सही आंकडे़ मिलते ही नहीं. झारखंड सहित अन्य राज्य भी इसी तरह की रिपोर्ट देते रहते थे कि उनके राज्य में सिलिकोसिस जैसी पेशागत बीमारी नहीं है. कहीं दो या कहीं तीन सिलिकोसिस पीडि़त मजदूरों के आंकडे देकर खानापूर्ति कर दी जाती है.

भारत में सिलिका धूल प्रभावित मजदूरों की तादाद आईएलओ के अनुसार 2007 में 1 करोड़ थी. यह संख्या आज काफी बढ़ गई है, क्योंकि खनन और औद्योगिक इकाइयों की संख्या बढ़ती जा रही है. अमेरिका स्थित ओके इंटरनेशनल के अनुसार भारत में 30 हजार लोग सिलिकोसिस से मरते हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल 70 हजार लोगों की मौत कोयला की धूल प्रदूषणजनित बीमारी से होती हैं.

मुसाबनी में सफेद पत्थर का पाउडर बनाने वाली दो इकाइयों के 40 मजदूरों की मौत पिछले 10 वर्षों में सिलिकोसिस से हो चुकी है. मौत की औसत उम्र 33 साल है. 20 मजदूर सिलिकोसित से प्रभावित हैं जो अभी भी जिंदा हैं और 150 धूल पीडि़त मजदूरों की जांच नहीं हुई है.

सराइकेला-खरसवां जिला स्थित आदित्यपुर गम्हारिया उद्योगिक क्षेत्रों और कांड्रा में हजारों मजदूरों की मौत सिलिकोसिस से हो गई. इसमे ईएसआई निबंधित इकाइयों के मजदूर भी शामिल हैं. उन्हें ईएसआई कार्ड नहीं दिया गया था और मुआवजा भी नहीं दिया गया है. झारखंड में कितने लोगों की इस बीमारी से मौत हो गई है, इसका कोई सही आंकड़ा सरकारी विभागों के पास नहीं है.

झारखंड में विभिन्न किस्म के धातव और अधातव खनिजों का खनन और प्रसंस्करण दो सौ सालों से अधिक समय से जारी है. सोलह हजार के करीब धूल उत्सर्जनकारी और प्रदूषण फैलाने वाली खदानें और औद्योगिक इकाइयां हैं. आंकड़ों के अनुसार झारखंड में सिलिकोसिस सहित अन्य पेशागत बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या आनुमानिक 25-30 लाख है.

कमाऊ पिता/माता की सिलिकोसिस से असमय मौत या फेफड़े की बीमारी के कारण अपाहिज बन जाने से झारखंड के 60 लाख बच्चों की जिंदगियां प्रभावित हुई हैं. 30 लाख अन्य आश्रितों की जिंदगियां भी प्रभावित हुई हैं. इनमें अधिकांश महिलाएं भी प्रभावित हैं, जिनके पति की मौत इस बीमारी से हो गई है या जो इससे पीडि़त हैं. नतीजा हुआ है कि प्रभावित परिवारों के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. उन्हें पढ़ाई-लिखाई छोड़नी पड़ी. इन बच्चों को घरेलू नौकर या बाल श्रमिक के रूप में काम करना पड़ रहा है.

कारखाना और खदान मजदूरों की पेशागत सुरक्षा और सेहत से संबंधित कानून हैं द फैक्ट्रीज एक्ट 1948 और द माइनिंग एक्ट 1952. मजदूरों की पेशागत और शारीरिक तकलीफ के इतिहास का आकलन और छाती के एक्स-रे से बीमारियों की जांच संभव है. एक्स-रे प्लेटों का आई.एल.ओ. वर्गीकरण कर धूल के संपर्क मे रहने की पुष्टि की जाती है और लगातार फैलने वाली बीमारियों के विस्तार की जानकारी दी जाती है.

इसी प्रक्रिया से सिलिकोसिस के साथ फेफड़े की अन्य पेशागत बीमारियों की जांच की जाती है. फैक्ट्रीज एक्ट 1948 की तीसरी सूची में अनुबंधित बीमारियों के लक्षण मजदूरों में पाए जाने पर चिकित्सक को मुख्य कारखाना निरीक्षक को सूचित करना कानूनी बाध्यता है. अनुबंधित बीमारियों से पीडि़तों और मृतकों के परिजनों कीे सामाजिक सुरक्षा के लिए नियोजक द्वारा कानूनन वर्कमैन कंपेंनसेशन एक्ट 1923 और ईएसआई एक्ट 1948 के तहत मुआवजा देने का प्रावधान है. लेकिन भ्रष्टाचार के कारण कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश लागू नहीं हो रहा है और मजदूर न्यायोचित अधिकार से वंचित हैं.

सिलिकोसिस सहित अन्य पेशागत बीमारियों की पहचान टीबी के रूप में की जाती है. अस्पतालों में सिलिकोसिस पीडि़तों को पर्ची नहीं दी जाती. भर्ती होने पर छल से उन्हें निकाल दिया जाता है. उनकी जांच सही पद्धति से नहीं की जाती है और डॉक्टरों द्वारा टीबी से पीडि़त बता दिया जाता है. टीबी के लिए मुआवजे का प्रावधान नहीं है. इस तरह मजदूरों को अपने अधिकार से वंचित कर दिया जाता है. इन इकाइयों के मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी सहित श्रम अधिकारों और कानून के तहत मिलने वाली अन्य सुविधाएं भी नहीं दी जातीं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में हस्तक्षेप याचिका दायर की गई. इस पर न्यायालय ने सिलिकोसिस से हुई मौतों में मृतकों को मुआवजा देने और पीडि़तों को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने का आदेश 5 मार्च 2009 को दिया. इन आदेशों को लागू करने के लिए आयोग को अधिकृत किया है, जो मानवाधिकार कानून 1993 के धारा 18 के तहत जीवन के अधिकार की अवहेलना से हुई मौत पर आधारित है. लेकिन झारखंड सरकार उस पर अमल नहीं कर रही है. विभिन्न कारण बताकर मुआवजा देने के आदेश को ठुकरा रही है. सिलिकोसिस और सिलिका धूल पीडि़तों की जांच और चिकित्सा भी नहीं करा रही है. इसके कारण आयोग अपनी कार्यवाही नियमानुसार चला रही है.

झारखंड सरकार ने ओशाज की पहल पर झारखंड ऑक्यूपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ सेल का गठन किया और सिलिकोसिस निवारण और रोकथाम के लिए राज्य स्तरों पर कार्य योजना तैयार की है. लेकिन इसमें मृतकों के पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट को आधार बना दिया गया है. इसका कोई कानूनी औचित्य नहीं है.

पोस्टमॉर्टम को मुद्दा बनाकर मृतकों के परिवारों को मुआवजा नहीं दिया जा रहा है, न ही कार्य योजना लागू की जा रही है. पश्चिम बंगाल सरकार ने भी सिलिकोसिस नियंत्रण कार्यक्रम की घोषणा की है. इन दो राज्यों की सरकारों द्वारा किए गए फैसलों को मजदूरों के हित में लागू कराना मजदूरों की सक्रिय सहभागिता के बिना संभव नहीं है. आदिवासी, दलित और गरीब मजदूरों के लिए मुआवजे की मांग हो या एयर होस्टेज मौसमी चैधरी का मामला, सभी मामलों में न्याय पाने में देर हो रही है.

क्वार्क साइंस सेंटर झारग्राम और नागरिक मंच कोलकाता की पहल पर इंटक, ऐटक, एचएमएस, एआईसीसीटीयू, यूटीयूसी, और यूटीयूसी (एल-एस) ट्रेड यूनियनों द्वारा पश्चिम बंगाल के झारग्राम में सिलिकोसिस से मरे श्रमिकों के मुआवजे के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक हस्तक्षेप याचिका दायर की गई थी. इस पर अदालत ने 26 नवंबर 1996 को द वर्कमैन कंपनसेशन एक्ट 1923 के तहत सिलिकोसिस पीडि़तों और मृतकों के आश्रितों को मुआवजा देने की राय दी थी.

इसके मुताबिक संबंधित कंपनी को मुआवजा देना पड़ा, जबकि वह इकाई डायरेक्टोरेट ऑफ फैक्ट्रीज में निबंधित ही नहीं थी. उनके मजदूरों को कोई भी नियुक्ति पत्र, गेट पास और कंपनी के मजदूर होने का प्रमाणपत्र नहीं दिया गया था. यह दिखाता है कि कंपनी और श्रमिकों के सरकारी विभागों में निबंधित होने या नहीं होने या मजदूरों की यूनियन होने या नहीं होने से कोई इकाई संगठित से असंगठित नहीं हो जाती.

तथाकथित असंगठित इकाई की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है. लिहाजा इन पर श्रम अधिकारों से संबंधित कानून लागू नहीं होते. फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के तहत उपायुक्त, जिला मजिस्ट्रेट, जिला कलक्टर को कारखाना निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है. लेकिन यह निरीक्षण होता ही नहीं. इसी वजह से कार्यक्षेत्र असुरक्षित रहता है और मजदूर पीडि़त होते हैं. इकाई अगर निबंधित नहीं है या मजदूरों को पहचान पत्र नहीं दिया जाता है तो उक्त इकाई के मालिक, प्रबंधक, संबंधित सरकारी नियामक विभाग, कारखाना निरीक्षक, श्रम विभाग और सर्वोपरि जिला प्रशासन जिम्मेदार है.

सिलिकोसिस या अन्य पेशेगत बीमारियां छुआछूत वाली नहीं है. इसे असंगठित इकाई या दोषी इकाई को बंद हो गया बताकर मुआवजा देने की जिम्मेदारी से मुकरा नहीं जा सकता. उसके कार्यक्षेत्र में मजदूरों के सिलिकोसिस या अन्य पेशागत बीमारियों से पीडि़त होने और उसकी मौत के लिए जिम्मेदार भी उपरोक्त सभी सरकारी प्रशासनिक पदाधिकारी हैं. इसीलिए सर्वोच्य न्यायालय ने अपने आदेश में मुआवजा देने की राय दी सरकार को मुआवजा देना ही है.

फिर भी हजारों मजदूरों के मरने के बावजूद राजनीतिक दलों और ट्रेड यूनियनों के नेता और कार्यकर्ता, एनजीओ, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता उदासीन बने हुए हैं. वे पेशागत बीमारी से मौत को अहम मुद्दा नहीं समझते और उसे मुद्दा नहीं बनाते हैं.

सभी धूल उत्सर्जनकारी खनन प्रसंस्करण और औद्योगिक इकाइयां संगठित क्षेत्र के दायरे में आती हैं. भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने संगठित क्षेत्र में आने वाली सिलिका धूल उत्सर्जनकारी इकाइयों रैमिंगमास (क्योर्टज-सफेद पत्थर का पाउडर), स्टोन क्रेशर और स्लेट पेंसिल को असंगठित क्षेत्र की संज्ञा दे दी. इन इकाइयों में पीडि़त मजदूरों को असंगठित क्षेत्रों का बता उनके लिए सामाजिक सुरक्षा के मुआवजे का कानूनी प्रावधान नहीं होने का जिक्र कर मुआवजे की सिफारिश नहीं करने का निर्णय लिया है.

इसमें सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और एनजीओ ने समर्थन दिया है. असंगठित क्षेत्र की कोई कानूनी परिभाषा नहीं है. लिहाजा इन पर श्रम अधिकारों से संबंधित कानून भी लागू नहीं होते हैं. लेकिन देश के विभिन्न राजनीतिक दलों और ट्रेड यूनियनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं, एनजीओ, सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने जाने-अनजाने ऐसा प्रचार किया है, जिससे मजदूरों का अधिकार छीना जा रहा है.

मजदूरों को इन विषयों पर जागरूक और एकजुट होने की जरूरत है. अपने अधिकारों को लेकर कंपनी प्रबंधन से संवाद बनाना जरूरी पहल है. बिना संघर्ष और संवाद किए कोई भी अधिकार हासिल करना संभव नहीं है. उन्हें यह बात समझाने की जरूरत है कि पेशागत बीमारी और दुर्घटनाओं से दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसद नुकसान हो जाता है.

खराब पेशागत सुरक्षा और सेहत की वजह से दुनिया के विभिन्न देशों में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 2- 14 फीसद बर्बाद हो रहा है. प्रबंधकों द्वारा किए जा रहे उत्पादन और विकास के दावों का असली चेहरा इन तथ्यों से उजागर हो गया है. आज के आर्थिक प्रतिस्पर्धा के युग में उतनी भारी रकम गंवाने से हुए नुकसान का बोझ मजूदरों के अधिकारों का हनन कर उन पर लादना चाहते हैं.

मजदूरों की न्यायोचित मांगों को स्वीकृति देकर कार्यस्थल में पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य बनाए रखने की व्यवस्था की शुरूआत कर मजदूरों के जीवन के अधिकार तथा मानवाधिकार के अन्य सवाल और पर्यावरण संरक्षण को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए ताकि उत्पादन प्रणाली को टिकाऊ और लाभकारी बनाया जा सके. अन्यथा मजदूर अपने अधिकारों की रक्षा में जो भी कानूनी कदम उठाएंगे, वह सही और प्रासंगिक होंगे.

इस सिलसिले में मांग की जा रही है कि सिलिकोसिस से मरने वाले और पीडि़त हर कामगार को 10 से 13 लाख रुपए तक मुआवजे के साथ साथ पीएफ, ग्रेच्युटी, बीमारी के इलाज में खर्च हुआ पैसे और मुआवजा मिलने में हुई देरी पर ब्याज का भुगतान किया जाए. सिलिकोसिस से श्रमिकों के प्रभावित होने के लिए कई सरकारी विभाग जिम्मेदार हैं, इसलिए मृतकों के आश्रितों को पुनर्वास के रूप में सरकारी नौकरी दी जाए. सिलिकोसिस और सिलिका धूल पीडि़तों को बीपीएल का दर्जा देकर सरकारी योजनाओं में दी गई सुविधाओं का लाभ दिया जाए.

सरकारी अस्पतालों में सभी नागरिकों और सिलिकोसिस पीडि़तों के लिए निशुल्क दवा, स्वास्थ्य जांच और इलाज का खर्च सरकार वहन करे. प्रखंड और जिला स्तरीय सरकारी अस्पतालों में ऑक्यूपेशनल डि़जीज डि़टेक्शन सेंटर खोला जाएं, जहां एक्स-रे और फेफड़े के जांच की सुविधा हो.

सिलिकोसिस की रोकथाम और शमन के लिए राज्य कार्य योजना से पोस्टमार्टम के प्रावधान को हटाकर उक्त कार्य योजना को लागू किया जाए. झारखंड सरकार की 10 जुलाई 2012 की अधिसूचना के अनुसार पत्थर और खनिज क्रशिंग और प्रसंस्करण जैसा सिलिका और अन्य खनिज धूल पैदा करने वाली खतरनाक प्रक्रियाओं पर फैक्ट्रीज एक्ट 1948 से संबंधित नियम को लागू किया जाए.

पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य राज्य सरकार के लिए विधिक उत्तरदायित्व और जिम्मेवारी का विषय होना चाहिए. यह राज्य सरकार को औद्योगिक समूहों में प्रदूषण रोकने और श्रमिकों की सेहत और पर्यावरण के प्रति जवाबदेह बनाएगा. छोटी और मंझोली इकाइयों (जिनमें स्थाई और ठेका मजदूरों को मिलाकर 200 से कम ही मजदूर काम करते हैं) को मिलाकर एक सहायता संघ (कनसोर्टियम) बनाकर उद्योग क्षेत्र में ऑक्यूपेशनल हेल्थ सेंटर/ऑक्यूपेशनल डि़जीज डि़टेक्शन सेंटर खोला जाए.

उद्योग क्षेत्र में चल रही इकाइयों या नए उद्यमियों को कम कीमत वाले धूल नियंत्रण तंत्र और प्रदूषण नियंत्रक उपकरण बनाने के लिए शोध और प्रयोग करने और इससे संबंधित नए उपकरणों को विकसित करने के लिए सरकार की ओर से प्रोत्साहित किया जाए. बचाव के लिए सक्षम उपकरण यानी पत्थर या किसी तरह के क्रशर के लिए उपयुक्त और खास किस्म के मास्क या धूलरोधी यंत्र के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग दिया जाए.

श्रम से जुडे अधिनियमों और कानूनों को लागू करने के लिए कडे कानून बनाए जाएं तथा कानून तोड़ने वालों को कठोर सजा देने का प्रावधान हो. राष्ट्रीय पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य आयोग का गठन किया जाए.

(समित कुमार कार ऑक्युपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ एसोसिएशन ऑफ झारखंड के महासचिव हैं.)

http://www.janjwar.com/janjwar-special/27-janjwar-special/4819-koyle-kee-dhool-se-marte-har-saal-70-hazar-for-janjwar-by-samit-kumar-kaar

मीणा को काल्पनिक जातियों में बाँटने का कुचक्र

मीना और मीणा दोनों शब्दों के लिये तकनीकी रूप से Mina/Meena दोनों ही सही शब्दानुवाद हैं, क्योंकि 'ण' के लिये सम्पूर्ण अंग्रेजी में कोई पृथक अक्षर नहीं है. चूँकि 1956 में आदिवासियों का नेतृत्व न तो इतना सक्षम था और न ही इतना जागरूक कि वह इसे जारी करते समय सभी पर्यायवाची शब्दों के साथ उसी तरह से जारी करवा पाता, जैसा कि गूजर जाति के नेतृत्व ने गूजर, गुर्जर, गुज्जर, के रूप में जारी करवाया...

पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

'मीणा'जनजाति के बारे में तथ्यात्मक जानकारी रखने वाले और जनजातियों के बारे में बिना पूर्वाग्रह के अध्ययन और लेखन करने वाले इस बात को बखूबी जानते हैं कि 'मीणा' अबोरिजनल भारतीय (Aboriginal Indian) जनजातियों में से प्रमुख जनजाति है. फिर भी कुछ पूर्वाग्रही और दुराग्रही लोगों की ओर से 'मीणा' जनजाति को 'मीणा' एवं 'मीना' दो काल्पनिक जातियों में बांटने का कुचक्र चलाया जा रहा है.meena-community-of-rajsthan

इन लोगों को ये ज्ञात ही नहीं है कि राजस्थान में हर दो कोस पर बोलियां बदल जाति है, इस कारण एक ही शब्द को अलग-अलग क्षे़त्रों में भिन्न-भिन्न मिलती जुलती ध्वनियों में बोलने की आदिकाल से परम्परा रही है. जैसे-गुड़/गुर, कोली/कोरी, बनिया/बणिया, बामन/बामण, गौड़/गौर, बलाई/बड़ाई, पाणी/पानी, पड़ाई/पढाई, गड़ाई/गढाई, रन/रण, बण/बन, वन/वण, कन/कण, मन/मण, बनावट/बणावट, बुनाई/बुणाई आदि ऐसे असंख्य शब्द हैं, जिनमें स्वाभाविक रूप से जातियों के नाम भी शामिल हैं. जिन्हें भिन्न-भिन्न क्षे़त्रों और अंचलों में भिन्न-भिन्न तरीके से बोला और लिखा जाता है.

इसी कारण से राजस्थान में 'मीणा' जन जाति को भी केवल मीना/मीणा ही नहीं बोला जाता है, बल्कि मैना, मैणा, मेंना, मैंणा आदि अनेक ध्वनियों में बोला/पुकारा जाता रहा है. जिसके पीछे के स्थानीय कारकों को समझाने की मुझे जरूरत नहीं हैं. फिर भी जिन दुराग्रही लोगों की ओर से 'मीना' और 'मीणा' को अलग करके जो दुश्प्रचारित किया जा रहा है, उसके लिए सही और वास्तविक स्थिति को समाज, सरकार और मीडिया के समक्ष उजागर करने के लिये इसके पीछे के मौलिक कारणों को स्पष्ट करना जरूरी है.

यहाँ विशेष रूप से यह बात ध्यान देने की है कि वर्ष 1956 में जब 'मीणा' जाति को जनजातियों की सूची में शामिल किया गया था और लगातार राजभाषा हिन्दी में काम करने पर जोर दिये जाने के बाद भी आज तक प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला है. इसके चलते छोटे बाबू से लेकर विभाग के मुखिया तक सभी पत्रावलि पर टिप्पणियॉं अंग्रेजी में लिखते हैं, जिसके चलते आदेश और निर्णय भी अंग्रेजी में ही लिये जाते हैं.

हाँ, राजभाषा हिन्दी को कागजी सम्मान देने के लिये ऐसे आदेशों के साथ में उनका हिन्दी अनुवाद भी परिपत्रित किया जाता है, जिसे निस्पादित करने के लिये केन्द्र सरकार के तकरीबन सभी विभागों में राजभाषा विभाग भी कार्य करता है. राजभाषा विभाग की कार्यप्रणाली अनुवाद या भावानुवाद करने के बजाय शब्दानुवाद करने पर ही आधारित रहती है, जिसके कैसे परिणाम होते हैं, इसे एक उदाहरण से समझाना चाहता हूँ.

मैंने रेलवे में करीब 21 वर्ष सेवा की है. रेलसेवा के दौरान मैंने एक अधिकारी के अंग्रेजी आदेश को हिन्दी अनुवाद करवाने के लिये राजभाषा विभाग में भिजवाया, वाक्य इस प्रकार था-'10 minute, Loco lost on graph' इस वाक्य का रेलवे की कार्यप्रणली में आशय होता है कि 'रेलवे इंजिन के कारण रेलगाड़ी को दस मिनिट का विलम्ब हुआ. ' लेकिन राजभाषा विभाग ने इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद किया ''10 मिनट, लोको ग्राफ पर खो गया. '' इसे शब्दानुवाद का परिणाम या दुष्परिणाम कहते हैं.

इसी प्रकार से एक बार एक अंग्रेजी पत्र में भरतपुर स्थित Keoladeo (केवलादेव) अभ्यारण (इसे भी अभ्यारन भी लिखा/बोला जाता है) शब्द का उल्लेख था, जिसका राजभाषा विभाग ने हिन्दी अनुवाद किया ''केओलादेओ'. मुझे अनुवाद प्रणाली पर इसलिये चर्चा करनी पड़ी, क्योंकि जब पहली बार जिस किसी ने भी 'मीणा' जाति को जनजातियों की सूची में शामिल करने के लिए किसी बाबू या किसी पीए या पीएस को आदेश दिये, तो उसने 'मीणा' शब्द को अंग्रेजी में Meena के बजाय Mina लिखा और इसी Mina नाम से विधिक प्रक्रिया के बाद 'मीणा' जाति का जनजाति के रूप में प्रशासनिक अनुमोदन हो गया. लेकिन संवैधानिक रूप से परिपत्रित करने से पूर्व इसे हिन्दी अनुवाद हेतु राजभाषा विभाग को भेजा गया तो वहाँ पर Mina शब्द का शब्दानुवाद 'मीना' किया गया, जो अन्तत: जनजातियों की सूची में शामिल होकर जारी हो गया.

यह भी विचारणीय है कि मीना और मीणा दोनों शब्दों के लिये तकनीकी रूप से Mina/Meena दोनों ही सही शब्दानुवाद हैं, क्योंकि 'ण' अक्षर के लिये सम्पूर्ण अंग्रेजी वर्णमाला में कोई पृथक अक्षर नहीं है. चूँकि उस समय (1956 में) आदिवासियों का नेतृत्व न तो इतना सक्षम था और न ही इतना जागरूक कि वह इसे जारी करते समय सभी पर्यायवाची शब्दों के साथ उसी तरह से जारी करवा पाता, जैसा कि गूजर जाति के नेतृत्व ने गूजर, गुर्जर, गुज्जर, के रूप में जारी करवाया है.

यही नहीं, आज तक जो भी आदिवासी राजनेता रहे हैं, उन्होंने भी इस पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और 'मीणा' एवं 'मीना' दोनों शब्द चलते रहे, क्योंकि व्यक्तिगत रूप से हर कोई इस बात से वाकिफ रहा कि इन दोनों शब्दों का वास्तविक मतलब एक ही है, और वो है-''मीणा जनजाति'', जिसे अंग्रेजी में Meena लिखा जाता है. अब जबकि कुछ असन्तोषियों या प्रचारप्रेमियों को 'मीणा' जन जाति की सांकेतिक प्रगति से पीड़ा हो रही है, तो उनकी ओर से ये गैर-जरूरी मुद्दा उठाया गया है, जिसका सही समाधान प्रारम्भ में हुई त्रुटि को ठीक करके ही किया जा सकता है.purushottam-meena-nirankushपुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' राजस्थान में आदिवासी अधिकारों के लिए सक्रिय हैं.

http://www.janjwar.com/society/1-society/4815-meena-mina-ko-kalpnik-jatiyon-men-bantne-ka-kuchakr-for-janjwar-by-purushottam-meena-nirnkush


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