क्या विश्वपुत्र प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनने से रोककर ममता खुले बाजार की राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह कर पायेंगी?
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
क्या विश्वपुत्र प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनने से रोककर ममता खुले बाजार की राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह कर पायेंगी? कल तक तो यही खबर थी किराष्ट्रपति चुनाव के लिए यूपीए प्रत्याशी के तौर पर प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी को बल मिलता नजर आ रहा है और इस संबंध में घोषणा अगले सप्ताह हो सकती है! इस यक्ष प्रश्न का उत्तर पाने के लिए सशरीर स्वर्गारोहण करने वाले युधिष्ठिर को ही शायद बुलाना पड़ जाये। पर बाजार बेचैन है। समान रुप से बेचैन है कारपोरेट इंडिया। वामपंथी आर्थिक सुधारों की सुपरफास्ट एक्सप्रेस को रोक पाने में नाकाम रहे हैं, पर कालीघाट की एक मामूली लड़की बाजार की तमाम शक्तियों के समर्थन के बूते ३४ साल के वामपंथी राज का अवसान करने के बाद मां माटी मानुष की सरकार और प्रबल जन समर्थन के दम पर बाजार के लिए चुनौती बन गयी हैं। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री की जोड़ी सुधार की गाड़ी आगे बढ़ाने में लगातार फेल हो रहे हैं क्योंकि पोपुलिस्ट ममता हर कदम पर अवरोध खड़ा कर रही हैं। बंधुआ खेती कानून पास हो जाने के बावजूद मल्टीब्रांड रीटेल एफडीआई कोलकाता में आकर अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरिया की मध्यस्थता के बावजूद ठंडे बस्ते में है। पेंशन संशोदन बिल और एअरइंडिया का विनिवेश भी रुके हुए हैं।
प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि कोई भी 'अपनी इच्छा' से राष्ट्रपति नहीं बन सकता और इस मुद्दे पर कांग्रेस फैसला करेगी। नए राष्ट्रपति के लिए ज्यादातर संभावनाएं और समीकरण वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नाम पर आकर सिमट जा रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी होने में अब तीन दिन ही बचे हैं, लेकिन संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की बंद मुट्ठी के चलते किसी दूसरे नाम के विकल्प अभी भी खुले माने जा रहे हैं। संकेत हैं कि सोनिया 72 घंटों के भीतर राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी की घोषणा कर सकती हैं। 15 जून के आसपास संप्रग के सभी दलों की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का परचा भरवाया जाएगा।
पर प्रणव का मामला पश्चिम बंगाल के लिए जरूरी पैकेज जुटाने की ममता बनर्जी की निर्मम सौदेबाजी से ज्यादा गंभीर होती जा रही है। क्षत्रपों से निपटने की कला में कांग्रेस और प्रणवदादा , दोनों दक्ष हैं। लगभग सारे क्षत्रप निपटा दिये गये हैं। एक अकेली दीदी सारा खेल गुड़ गोबर कर रही हैं। संभावना जतायी जा रही थी कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चुनाव आयोग की ओर से चुनाव के लिए अधिसूचना जारी किए जाने के कुछ दिनों बाद यानि 15 जून के करीब राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार की घोषणा कर सकती हैं। कांग्रेस कार्य समिति ने राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार चुनने के लिए सोनिया गांधी को अधिकृत किया है। सोनिया के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने मुखर्जी से उनके नार्थ ब्लाक स्थित कार्यालय में मुलाकात की। सूत्रों ने बताया कि कांग्रेस ने सरकार में शामिल महत्वपूर्ण सहयोगी दलों द्रमुक, राकांपा और रालोद के साथ ही बाहर से समर्थन दे रही सपा का समर्थन पहले ही प्राप्त कर लिया है। सरकार को बाहर से समर्थन दे रही बसपा और उम्मीद है कि संप्रग का दूसरे सबसे बड़े घटक दल तृणमूल कांग्रेस संप्रग उम्मीदवार का विरोध नहीं करेगी। सूत्रों ने कहा कि हालांकि ममता बनर्जी ने कुछ दिनों पहले राष्ट्रपति पद के लिए लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार और कुछ अन्य लोगों के नाम पसंदीदा उम्मीदवार के तौर पर लिये थे लेकिन एकबार मुखर्जी के नाम की घोषणा होने के बाद उनकी पार्टी द्वारा संप्रग का समर्थन किए जाने की उम्मीद है। इसके पीछे तर्क यह है कि तृणमूल की ओर से बंगाल से आने वाले किसी उम्मीदवार का विरोध करने किये जाने की संभावना नहीं है।सूत्रों ने यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस कोर समूह की बैठक में किसी भी नाम पर विचार विमर्श नहीं किया गया जिसमें सोनिया, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कुछ अन्य नेताओं ने हिस्सा लिया था। पर एक ही दिन में पांसा पलट गया लगता है।
क्या फिरभी, ममता का अवरोध तोड़कर प्रणब मुखर्जी देश के अगले राष्ट्रपति होंगें? ये कयास इसलिए हैं क्योंकि कांग्रेस ने अपने सहयोगी दलों से प्रणब की उम्मीदवारी के बारे में चर्चा शुरू कर दी है!प्रणव महज बाजार के उम्मीदवार नहीं हैं क्योंकि उनके तार सीधे अमेरिका से जुड़े हैं और दीदी ने इसीलिए उनहें विश्वपुत्र का खिताब अता फरमाया है।यहीं नहीं, भारत में सत्ता वर्ग का असली नेता, भाग्यविधाता भी प्रणव मुखर्जी ही हुए। भले ही यूपीए की नेता हों सोनिया गांधी और संघी एनडीए के नेता लालकृष्ण आडवाणी! कांग्रेस आलाकमान ने यूपीए के सहयोगी दलों से राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी की चर्चा शुरू कर दी है। और इसके बाद रायसीना हिल्स की रेस में सबसे आगे दिखने लगे हैं प्रणब मुखर्जी!राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी के नाम पर सिर्फ डीएमके की ओर से ही नहीं यूपीए के घटक दलों के अलावा दूसरे कई दलों ने भी समर्थन के संकेत दिए हैं. ऐसे में प्रणब के नाम पर बड़े दलों में कांग्रेस के अलावा एनसीपी, डीएमके, बीएसपी, एसपी और लेफ्ट सहमत दिख रही हैं जबकि तृणमूल की ममता बनर्जी ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले थे।अब इस खबर से हड़कंप मचा हुआ है कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने की राह में ममता बनर्जी रोड़ा अटका रही है। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस प्रणब मुखर्जी के नाम पर मुहर लगाने का पूरा मन बना चुकी थी, लेकिन ममता की नाराजगी की वजह से कांग्रेस ने उनका नाम नहीं लिया।
इस बीच लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता पीए संगमा ने भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी से शुक्रवार को मुलाकात कर राष्ट्रपति चुनाव में अपनी उम्मीदवारी के लिए समर्थन मांगा।लेकिन संगमा को अभी संघ परिवार का आशीर्वाद नहीं मिला है और न मिलने की उम्मीद दीखती है।
प्रणव को वामपंथी भी अपना नेता मानते हैं, अगर प्रणव को राष्ट्रपति बनाना सत्ता हेजेमनी का आखिरी दांव हो, तो सोनिया गांधी वामपंथियों और यहां तक कि संघ परिवार का समर्थन लेकर उन्हें राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा सकती हैं। लेकिन क्या सोनिया को प्रणव पर पूरा भरोसा है? भरोसा होता तो मनममोहन की जगह सीनियर प्रणव को प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया, इस पहेली का जवाब खोजना होगा। अगर २०१४ में त्रिशंकु लोकसभा का जनमत आया, जिसके पूरे आसार है, तब कहीं भाजपा के पक्ष में पलट न जायें प्रणव! अब भी ममता बनर्जी के बारे में भी उम्मीद लगाई जा रही है कि प्रणब मुखर्जी के पश्चिम बंगाल के होने की वजह से ममता बनर्जी प्रणब के नाम पर सहमत हो सकती हैं। हालांकि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के बारे में प्रणब मुखर्जी से जब भी पूछा गया तो उन्होंने इतना ही कहा कि इंतजार कीजिए। प्रणब मुखर्जी भले खुद कुछ न बोलें लेकिन उनके बयानों से ऐसे संकेत कई बार मिले हैं कि प्रणब मुखर्जी भी राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। राष्ट्रपति उम्मीदवारी के मसले पर ही सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल की प्रणब मुखर्जी से मुलाकात भी हुई है।
कहीं यह आशंका तो नहीं है फिर दीदी भी तो कभी भी पाला बदलकर, खासकर वामपंथियों के साथ कांग्रेस का हानीमून फिर चालू हुआ तो ,एनडीए खेमे में जा सकती हैं। राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने से पहले सोनियो को इन सारे समीकरणों पर ध्यान अवश्य देना है।यही वजह है कि कांग्रेस ने फैसला लटकाया हुआ है।
खास बात यह है कि पैंतीस लाख टकिया शौचालय वाले मंटेक सिंह आहलूवालिया तृणमूल सर्वेसर्वा के खासमखास हैं और आहलूवालिया और प्रणव दादा के मधुर रिश्ते तो जगजाहिर है। अर्थ व्यवस्था की तो इन दोनों के बीच रोजमर्रे की खींचतान से ऐसी तैसी हो रही है, अब कहीं राजनीतिक व्यवस्था पर खासकर राष्ट्रपति चुनाव में तो इसका असर नहीं हो रहा है?
मालूम हो कि विश्व अर्थव्यवस्था, आदिवासी और मुस्लिम , महिला पक्ष के अलावा एक और उम्मीदवार है ओबीसी का। साम पित्रोदा, जिनके नाम पर आहलूवालिया और ममता दोनों को शायद ही कोई आपत्ति हो। वह विश्व व्यवस्था और बाजार दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। नरसिंह राव के उदारवादी विप्लव से पहले राजीव जमाने में सूचना क्रांति के जनक रहे हैं। कहीं साम पित्रोदा ही काला घोड़ा साबित न हो! इससे बाजार और कारपोरेट इंडिया को दही के बदले छांछ तो मिल जायेगा, सत्तावर्ग के लिए विद्रोही हो रहे ओबीसी जनमत को साधन का मौका भी मिल जायेगा। क्या यह खिचड़ी रायटर्स में गुपचुप पक रही है? क्या सत्तावर्ग पर हावी हो जायेगी ममता और आहलूवालिया की जोड़ी और देर सवेर किनारे कर दिये जायेंगे प्रणव चिदंबरम का चुनाव खतरे में पड़ गया है। प्रणव भी किनारे लग गये तो भारतीय अर्थ व्यवस्था की बागडोर निरंकुस तौर पर आहलूवालिया के हाथों में हो जायेगी। लगता नहीं है कि बाजार और कारपोरेट इंडिया को इस पर कोई खास आपत्ति होनी चाहिए।आखिर पैंतीस लाख टकिया बाथरूम का इसतेमाल कौन नहीं करना चाहेगा?
बताया जाता है कि सोनिया गांधी ने प्रणव का नाम फाइनल ही कर दिया था। संघ परिवार और वामपंथ का समर्थन भी सुनिशचित हो गया था। बाजार की बांछें खिलने लगी थीं। उपराष्ट्रपति पद पर संघी उम्मीदवार मान लेने के बाद प्रणवदादा को कोई रोकने वाला नहीं था। इसी वजह से मद्रास से वरिष्ठ द्रमुक नेता को प्रणव के मनोनयन पत्र पर बतौर प्रस्तावक १६ जून को दिल्ली बुला लिया गया था। कि आखिरी क्षणों पर कालीघाट से वीटो हो गया। वाकया तेजी से इतिहास की पुनरावृत्ति करता हुआ लग रहा है। जब पूरा देश ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, तब बंगाल के माकपाइयों ने उनके पांव खींच लिये थे। अब लगता है कि प्रबल माकपाविरोधी ममता दीदी माकपाइयों के चरणचिन्ह का अनुसरण करते हुए एक बार पिर किसी बंगाली को शीर्ष पद तक पहुंचले से रोक ही लेंगी। क्या यह महज प्रणव के प्रति दीदी की एलर्जी है? आर्थिक सौदेबाजी है? या बंगाल में कांग्रेस की सफाये की राजनीति है? या पिर और कुछ?
समझा जा सकता है कि ममता दीदी आहलूवालिया और साम पैत्रोदा के सहारे बाजर और कारपोरेट इंडिया को साध लेंगी। लेकिन पहले से ऐतिहासिक भूल से खफा बंगाली राष्ट्रीयता इस दूसरी ऐतिहासिक भूल पर क्या पतिक्रिया देगी, ममता दीदी अपनी लोकप्रियता के प्रति शायद इतनी आश्वस्त हैं कि उन्हें इसकी खास परवाह होती दीख नहीं रही है।
ममता की शिकायत नंबर एक कि कांग्रेस ने बिना पूछे प्रणब का नाम तय क्यों किया?
लेकिन क्या वाकई ममता की नाराजगी की वजह बस इतनी सी है, क्या ममता केवल इसी बात से नाराज हैं कि जिस तरह से कांग्रेस ने अपने दूसरे सहयोगियों से राय विचार किया है उस तरह से तृणमूल से सलाह मशविरा नहीं किया। ममता के सूत्रों की मानें तो बात बस इतनी सी नहीं हैं।
ममता की शिकायत नंबर दो यह है कि आर्थिक पैकेज का पेंच अब तक क्यों फंसा हुआ है।
ममता बनर्जी जब से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनीं हैं तब से वो केंद्र सरकार से 22 हजार करोड़ से ज्यादा के आर्थिक पैकेज की मांग कर रही हैं।
उनकी ये भी मांग है कि केंद्र से मिले पुराने कर्ज पर उनको ब्याज में राहत दी जाए, लेकिन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने साफ कर दिया था कि ममता बनर्जी की हर मांग को पूरा कर पाना मुमकिन नहीं हैं।
प्रणब ने ममता की मांग पर संसद में कहा था, "मुझे इस बात का ख्याल है कि मैं पश्चिम बंगाल का हूं। वहीं से सांसद भी हूं। स्वाभाविक रुप से राज्य के प्रति मेरा खास दायित्व है, लेकिन देश के वित्तमंत्री होने के नाते मैं सभी 28 राज्यों के प्रति बराबर जवाबदेह हूं।"
सूत्रों का दावा है कि ममता बनर्जी वित्तमंत्री के इस अंदाज को अबतक नहीं भुला पाई हैं।
ममता की तीसरी शिकायत प्रणब मुखर्जी के समर्थन में लेफ्ट का होना है।
सूत्रों का ये भी दावा है कि ममता की नाराजगी की एक बड़ी वजह लेफ्ट भी है। दरअसल लेफ्ट प्रणब मुखर्जी के नाम पर राजी है, लेकिन ममता की समस्या है कि वो पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ आरपार की लड़ाई लड़ रही है। ऐसे में वो राष्ट्रपति चुनाव में लेफ्ट के साथ नहीं दिखना चाहती है। दूसरी तरफ कांग्रेस फिलहाल ममता को नाराज करने का रिस्क नहीं लेना चाह रही है।
कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी भी कह चुके हैं कि सहयोगी दलों से बातचीत के बाद ही बात आगे बढ़ाई जाएगी।
कांग्रेस भले ही सभी सहयोगी दलों से राय विचार की बात करे, लेकिन सूत्रों का यही दावा है कि ममता को छोड़कर उसके बाकी सहयोगी प्रणब मुखर्जी के नाम पर तैयार हैं।
जाहिर है अभीतक जो तस्वीर सामने आ रही है उसको देखकर यही लग रहा है कि ममता बनर्जी प्रणब मुखर्जी के राह में रोड़े अटका रही है।
इन संकेतों के बीच कि केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का नाम राष्ट्रपति पद के सम्भावित कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में सबसे ऊपर है, पार्टी ने शनिवार को अटकलों को हवा न देने की अपील करते हुए कहा कि अभी कोई नाम तय नहीं हुआ है। पार्टी के मीडिया विभाग के अध्यक्ष जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि सहयोगी दलों के साथ विचार-विमर्श जारी है और अभी कोई नाम तय नहीं हुआ है।
द्विवेदी ने कहा कि इस समय मैं केवल यह कह सकता हूं कि हमारे घटक दलों और बाहर से समर्थन देने वाले दलों के साथ बातचीत की प्रक्रिया चल रही है, अभी तक कोई नाम तय नहीं हुआ है।
द्विवेदी ने यह टिप्पणी तब की जब मुखर्जी ने संकेत दिया कि राष्ट्रपति पद के प्रति उनकी अभिरुचि है लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि अंतिम निर्णय तो पार्टी को लेना है।
मुखर्जी ने कोलकाता में अपने आवास के बाहर मीडियाकर्मियों से कहा कि यह पार्टी (कांग्रेस) तय करेगी. नाम पार्टी तय करती है. आप सिर्फ चाहने भर से राष्ट्रपति नहीं बन सकते।
डीजल की कीमत बढ़ाने के बारे में अब कोई भी फैसला राष्ट्रपति चुनाव के बाद ही होगा। गठबंधन राजनीति में फंसी यूपीए सरकार अपने उम्मीदवार के लिए समर्थन जुटाने के चक्कर में फिलहाल अपने सहयोगी दलों को नाराज नहीं करना चाहती। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी भी इस हकीकत को समझ चुके हैं।यही वजह है कि कुछ दिन पहले तक वित्त मंत्री से इस बारे में जल्दी फैसला करने का दबाव बनाने वाले रेड्डी अब यह कह रहे हैं कि, डीजल कीमत बढ़ाने का कोई प्रस्ताव सरकार के पास नहीं है। शुक्रवार को एक कार्यक्रम के दौरान रेड्डी से जब यह पूछा गया कि डीजल कीमत निर्धारित करने पर प्रस्तावित प्राधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह [ईजीओएम] की बैठक कब होगी, तो उनका जबाव था कि, अभी न तो हम इस बारे में विचार कर रहे हैं और न ही बैठक की तिथि ही तय की गई है।एक पखवाड़े पहले रेड्डी ने कहा था कि उन्होंने डीजल कीमत पर विचार करने के लिए वित्त मंत्री से जल्द से जल्द समय मांगा है। वैसे इस ईजीओएम की अंतिम बैठक एक वर्ष पहले हुई थी। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सरकार न सिर्फ तृणमूल कांग्रेस, बल्कि समाजवादी पार्टी को भी मना रही है।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के कामकाज से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुश नहीं है। एक अंग्रेजी दैनिक के अनुसार, प्रणब मुखर्जी की आर्थिक संकट से निपटने में नाकामी के बाद प्रधानमंत्री वित्त मंत्रालय की कमान अपने हाथ में लेना चाहते हैं।
अखबार के मुताबिक, मनमोहन सिंह जल्द से जल्द प्रणब से वित्त मंत्रालय छूटने का इंतजार कर रहे हैं। प्रणब की आर्थिक संकट से निपटने में नाकामी के बाद प्रधानमंत्री वित्त मंत्रालय की कमान अपने हाथ में लेना चाहते हैं। उनको बस इस इंतजार इस बात का है कि सोनिया गांधी राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब के नाम को हरी झंडी दें एवं वह वित्त मंत्रालय का कामकाज खुद देखें।
अखबार के मुताबिक, प्रधानमंत्री कार्यलय [पीएमओ] के अंदर यह चर्चा जोरों पर है कि प्रणब मुखर्जी के इस्तीफे के बाद मनमोहन वित्त मंत्रालय का कामकाज अपने हाथ में लेना चाहते हैं।
प्रधानमंत्री चाहते हैं कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर व अब इकनॉमिक अडवाइजरी काउंसिल के अध्यक्ष सी रंगराजन वित्त मंत्रालय में सक्रिय भूमिका निभाएं। मनमोहन की इच्छा तो रंगराजन को वित्त मंत्री की कुर्सी पर बैठे देखने की भी बताई जाती है, लेकिन यह फिलहाल कहीं से भी मुमकिन होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस के कई सीनियर लीडर इसे हजम नहीं कर पाएंगे।
मालूम हो कि संप्रग-1 के कार्यकाल में भी मनमोहन सिंह अपने खासमखास योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे। उन्होंने कई बार इसके लिए पूरा जोर भी लगाया, लेकिन पार्टी को वह इसके लिए रजामंद नहीं कर पाए।
यही नहीं, पीएमओ एवं वित्त मंत्रालय के बीच पिछले कुछ अरसे से दूरियां बढ़ी हैं। प्रधानमंत्री, प्रणब के परफॉमर्मेंस से खुश नहीं हैं और उनके कुछ कदम उन्हें बदलते दौर के हिसाब से मुफीद नहीं लगते हैं। हालांकि आर्थिक संकट से निपटने में नाकामी के बाद भी प्रणव के बड़े कद को देखते हुए मनमोहन ने कभी भी सार्वजनिक मंच पर अपनी नाराजगी जाहिर नहीं की।
आर्थिक मंदी के खिलाफ जंग में मनमोहन खासमखास रंगराजन को अपना जनरल बनना चाहते हैं। सिंह को पता है कि 2014 में अगर यूपीए सत्ता में वापस भी आती है तो वह पीएम नहीं बन पाएंगे। ऐसे में वह इन आखिरी 24 महीनों में अपने करियर से आर्थिक खस्ताहाली का यह दाग धो देना चाहते हैं।
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