ग़रीब बस्तियां पूछती हैं यह किसका शहर है!
अफ़सोस की बात है कि हम उस शहर में ग़ैर इनसानी और ग़ैर मुनासिब शर्तों के आगे झुक जाने या कहें कि ग़ुलाम बना लिये जाने की चिरौरी करने की मजबूरी से दोचार हो रहे हैं जो कभी सूती कपड़ों और चमड़ा उद्योग के लिए 'एशिया का मैनचेस्टर' कहलाता था और जहां ट्रेड यूनियनों का झंडा शान से लहराता था......
कानपुर की बस्तियों से लौटकर आदियोग
'दस कोस पर पानी बदले, बीस कोस पर बानी।' लखनऊ से कानपुर तक, पचासी किलोमीटर की दूरी पर तो न जाने क्या-क्या बदल जाता है। यों, समय भी हर कहीं बहुत कुछ बदलता रहता है। इस पर बहस नहीं कि मेहनत के हक़ पर डाका डालकर ही उद्योग पनपते हैं तो भी हम कह सकते हैं कि कानपुर कभी ग़रीब नवाज़ शहर हुआ करता था, लेकिन आज तो मेहनतकशों के लिए केवल कसाईबाड़ा है। लू और उमस भरे मई के तीसरे हफ़्ते में स्वतंत्र नीति विश्लेषक संजय विजयवर्गीय के संग कानपुर के लगाये गये दो दिन के फ़ेरे का यही लब्बोलुआब निकला। हमारे गाइड थे विज्ञान फ़ाउंडेशन के कार्यकर्ता धनंजय और श्रमिक भारती के विनोद दुबे।

इस टीले पर एक बड़ी बस्ती आबाद है- मनोहरनगर। तीखी चढ़ान से थकाऊ पैदल सफ़र तय कर हम इसकी ऊपरी मंज़िल पर पहुंचे। चढ़ान के साथ ही घर भी छोटे होते जाते हैं। टीले के किनारे पर अभी पंद्रह साल पहले तक कोई पचास मीटर का मैदान हुआ करता था। घर उसके बाद थे। लेकिन लगातार हुई कटान ने उसे बमुश्किल तीन मीटर का गलियारा बना दिया और घर ठीक किनारे आ गये या कहें कि हरदम सहमे-सहमे रहने को मजबूर हो गये। पहले का मैदान टीले को तीन ओर से जोड़ता था, आज का गलियारा उसे जगह-जगह से तोड़ देने पर आमादा दिखता है।
पहले यहां एक-दूसरे से सटे घरों की क़तार थी। टीले के कटाव ने उसे बेतरतीब कर दिया। अब कहीं चार तो कहीं पांच घर एक साथ हैं और उनके बीच सीधे खाई बन गयी है। गलियारा है कि लगातार सिमटता जा रहा है, घरों को ठीक खाई के किनारे करता जा रहा है। जो घर खाई के एकदम किनारे आ चुके हैं, वे और भी ज़्यादा ख़तरे में हैं। अभी एक साल पहले की बात है। पड़ोस के घर के खाई में गिरने के पूरे आसार थे। ख़ौफ़ज़दा घरवालों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेटना शुरू किया। शायद अनहोनी को घर के ख़ाली हो जाने का इंतज़ार था। घरवाले अभी निकले ही थे कि पूरा घर भरभरा कर खाई में समा गया। शुक़्र कहिये कि जान और माल को कोई नुक़सान नहीं पहुंचा। उस हादसे की यादें लोगों के ज़ेहन में ताज़ा हैं। इस अंदेशे से धुकधुकी बनी रहती है कि कब किसके घर की ज़मीन सरक जाये।
टेनरियों में तब्दील 'एशिया का मैनचेस्टर'
यह इनसान की फ़ितरत है कि वह हालात के मुताबिक़ ढल जाता है। आठ-नौ साल की दो बच्चियां खाई के एकदम सामने खड़ी इक-दूजे की कमर में हाथ डाल कर न जाने क्या बतिया रही हैं, इस डर से बहुत दूर कि पांव तनिक डगमगाये तो सीधे खाई में गिरेंगी। छरहरे बदन का चौबीस साल का वह नौजवान भी उस मौत के मुहाने पर इत्मीनान से खड़ा हमसे मुख़ातिब है। यों, ख़ुशक़िस्मत है कि उसका घर थोड़ा पीछे पड़ता है। वह चमड़े की टेनरी में काम करता है, दो छोटे बच्चों का बाप है। पगार कुल ढाई हज़ार रूपये महीना। कैसी कट रही है? पूछने पर उसका जवाब है- 'बस, जी रहे हैं। आठ घंटे चमड़े की धूल और बदबू में रहता हूं। दम घुटने लगता है, जी मितलाने लगता है। घर लौट कर भी चैन नहीं मिलता।' मास्क और दस्ताने...? पर दर्द घुली हंसी के साथ उसका जवाब है- 'अरे, कहां की बातें करते हैं...।'
मैं नोट करना भूल गया कि वह किस टेनरी में काम करता है। नोट कर भी लेता तो क्या? यह तो सभी टेनरियों के मज़दूरों का क़िस्सा है- शक़्लें बदल सकती हैं, मोहल्ले बदल सकते हैं, सिलसिले बदल सकते हैं लेकिन अफ़साना नहीं। यह अफ़सोस की बात है कि हम उस शहर में ग़ैर इनसानी और ग़ैर मुनासिब शर्तों के आगे झुक जाने या कहें कि ग़ुलाम बना लिये जाने की चिरौरी करने की मजबूरी से दोचार हो रहे हैं जो कभी सूती कपड़ों और चमड़ा उद्योग के लिए 'एशिया का मैनचेस्टर' कहलाता था और जहां ट्रेड यूनियनों का झंडा शान से लहराता था।
यह भी ग़रीबों की बस्ती है, नाम से भले नयी बस्ती है लेकिन हालात उनसे अलग नहीं जो तमाम अम्बेडकर बस्तियों में अमूमन होते हैं। मतलब कि यहां भी दड़बेनुमा घर, तंग गलियां, बजबजाती नालियां, इधर-उधर भिनभिनाती मक्खियां, बूंद-बूंद पानी को तरसते लोग, पीने के पानी को लेकर रोज़ की खिचखिच, ऊपर से पानी की शुद्धता का सवाल दूर की कौड़ी, रोग-बीमारियों का बसर, शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल, किसी तरह ज़िंदा रहने भर की कमाई...।
इस तसवीर से ठीक उलट बस्ती के एक ओर सामने खड़े भव्य मकान हैं और जो टेनरी मालिकों के हैं- टेनरियां जिन्होंने निर्भय होकर गंगा को जम कर मैला किया, अपने मज़दूरों को टीबी-दमा और चमड़ी का रोग दिया, आबोहवा को ज़हरीला किया और अकूत मुनाफ़े का पुण्य कमाया। शहर में पहले कभी दस हज़ार से अधिक टेनरियां थी। इनमें ज़्यादातर कुटीर उद्योग के स्तर की थीं। अब बड़े और मंझोले स्तर की कुल चार सौ टेनरियां हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि मुनाफ़े के समुंदर की राक्षसी मछलियां नन्हीं मछलियों को निगल गयीं।

लंबा क़द, तेज़ चाल, सलीक़ेदार अंदाज़, बेबाक अल्फ़ाज़, नपी-तुली आवाज़, बोलती आंखें, बढ़ती झुर्रियों के बीच भी रोशन चेहरा, और पूरे बदन से टपकती बहुत न कर पाने की छटपटाहट भी- कलमा साहिबा की यही तसवीर है। वह अपनी बस्ती में लोगों को समझदारी का पाठ पढ़ाने के लिए जानी जाती हैं।
इस घनी बस्ती में कोई सवा पांच सौ घर हैं। चार हैडपंप हैं और बस दिखाने भर को हैं। कहने को लगभग दो सौ घरों में शौचालय है और जो सीधे नाली में खुलते हैं। मतलब कि खुले में शौच जाने की मजबूरी से मुक्ति, लेकिन खुली नालियों में बहते मानव मल से होने वाले भारी नुक़सान से नहीं. निजता के अधिकार की रक्षा तो हो गयी लेकिन सेहतमंद माहौल के अधिकार की नहीं।
'बमपुलिस' माने सार्वजानिक शौचालय
पता नहीं यह नाम कैसे पड़ा, लेकिन ग़रीब बस्तियों के लिए बने सरकारी सार्वजनिक शौचालयों को आम ज़ुबान में बमपुलिस कहा जाता है। तो यहां भी थोड़ी दूर पर एक बमपुलिस है और जो गंदगी से अटा पड़ा रहता है। इतने लोगों का बोझ भला एक अदद बमपुलिस कैसे उठा सकता है? इसलिए कई लोग रात के अंधेरे में ही इधर-उधर निपट लेते हैं। बहरहाल, अच्छी ख़बर है कि कोई एक साल बाद बस्ती के बीच भी बमपुलिस होगा। इसके लिए दो विशाल सीवर टैंक तैयार हो रहे हैं। कलमा साहिबा के घर के बगल में चौकोर तालाब था। बस्ती भर का पानी यहीं गिरता था और सड़ता रहता था- आसपास के घरों के लिए तो जीना हराम था। अब इससे निजात मिलेगी, इसलिए कि बमपुलिस यहीं बन रहा है।
बमपुलिस के बनने का सेहरा कलमा साहिबा को भी जाता है। उन्होंने इसके लिए बहुत भागदौड़ की। कुछ लोगों की नानुकुर को हां में बदलवाया और अब उसके निर्माण की स्वैच्छिक केयर टेकर की भूमिका में हैं। वह निर्माण सामग्री की देखरेख करती हैं और संबंधित औज़ार अपने घर में रखती हैं। गली संकरी है इसलिए सामान टट्टू पर लद कर आता है। रहमदिल कलमा साहिबा उन टट्टुओं की प्यास बुझाने का भी इंतज़ाम करती हैं, बाल्टियों पानी ख़ुद भर कर लाती हैं। उन्हीं के घर पर मज़दूर लंच के समय थोड़ा सुस्ताते हैं और ज़िम्मेदार लोग भी वहीं दम लेते हैं। और तब उनकी ख़िदमत में लगना, कलमा साहिबा का मज़हब होता है। वह जानती हैं कि पेट भरने के लिए ग़रीब लोग किस तरह चकरघिन्नी हो जाते हैं, उन्हें इतनी फ़ुरसत कहां और जिनके पास फ़ुरसत है तो उनकी ऐसी फ़ितरत कहां। वह इस पर झुंझलाती हैं लेकिन रोती नहीं, सिपाही की तरह अपने काम पर डटी रहती हैं। उनकी बूढ़ी आंखों में सुनहरे कल के जवान सपनों की गौरय्या पलती है।
बेटे ने बहुत कोशिश की कि अम्मी साथ रहें, लेकिन कलमा साहिबा अपना बनाया घर छोड़कर जाने को तैयार नहीं। नहीं चाहतीं कि कभी ऐसी नौबत आये कि उन्हें लेकर बेटा-बहू में कोई बिगाड़ हो। कहती हैं- 'मेरा बस चलता तो मरते दम तक काम करती। क्या करूं, अब शरीर इसकी इजाज़त नहीं देता। बेटा ख़र्चा-पानी भेज देता है। उतना बहुत है अकेली जान के लिए।' यह एक ख़ुद्दार औरत और इस दौर में रिश्तों के बदलते मौसम की बारीक़ समझ रखनेवाली मां का बयान है।
कलमा साहिबा को मेरा बार-बार सलाम! काश कि हर ग़रीब बस्ती में एक नहीं, कई-कई कलमा साहिबाएं सामने आयें और अपनी बस्ती की तक़दीर बदले जाने का दिया जलाएं!
इस बस्ती को बर्माशेल कच्ची मड़ैय्या कहते हैं। एक लंबान में बसे इस छोटे इलाक़े के अगल-बगल सुर्ख़ लाल रंग की ईंटोंवाली ऊंची दीवारें हैं और उसके अंदर खड़ी चिमनियां बताती हैं कि यहां कभी रोज़ तीन पालियों में साइरन बजते रहे होंगे। ख़ैर, यह गुज़रे ज़माने की बात है।
बस्ती में घुसते ही बेतरह गंदगी और बदबू से हमारी सीधी मुलाक़ात होती है। गली के इर्द-गिर्द ख़ाली पड़ी ज़मीन कचराख़ाना और खुला पाख़ाना भी है जहां कुत्ते और सुअर मटरगश्ती करते हैं, और बच्चे भी भागमभाग मचाते हैं। उसके बाद बमपुलिस और तब घर। बमपुलिस में सुबहो-शाम लाइन लगती है, यहां पांच सौ परिवार जो रहते हैं और बमपुलिस में कुल दस सीट हैं- चार महिलाओं के लिए और छह पुरूषों के लिए। इस सेवा की फ़ीस है पचास रूपये महीना प्रति घर। इसी तरह पानी के लिए भी लोगों को हर दिन जंग लड़नी होती है- बस्ती में प्लास्टिक की कुल पांच टंकियां है और जो इतनी बड़ी आबादी के लिए नाकाफ़ी है। यह व्यवस्था वर्ल्ड विज़न नाम की संस्था की कृपा से है। बस्ती के किसी घर में बिजली का कनेक्शन नहीं। घरों को डिब्बा बंद कोठरिया कहिये- पीछे मिल की दीवार, सटे हुए घर और हवा की आवाजाही के लिए बस एक दरवाज़ा। कुछेक लोग अपने घर के सामने सीवर टैंक के लिए गली में गहरे गड्ढे खुदवा रहे हैं। यह समझदारी का लक्षण है।

सिंगारी देवी के घर से जुड़े छप्पर के नीचे तख़त पड़ा है जिसके पाये ऊंचाई बढ़ाते हुए दो जोड़ी ईंटों पर टिके हैं। यह जुगाड़ है कि नीचे से गुज़रती नाली की गंदगी जब भी बहक कर गली में डोले तो कम से कम तख़त से दूर रहे। बरसात में तो यह डोलना इतना होता है कि कचरे-पानी का घोल घरों के अंदर दाख़िल हो जाता है। बहरहाल, गली में 'अतिक्रमण' कर रखा गया यह छप्परदार तख़त बस्ती की महिलाओं के लिए जैसे घने पेड़ की छांव है जहां जब जी करे, बैठ-बतिया कर जी हल्का किया जा सकता है। तख़त पर बैठने के लिए सर नीचा कर छप्पर में घुसना होता है। तो हम भी यहीं आसन जमाते हैं।
बताते चलें कि यह घर सिंगारी का अपना नहीं है। वह अपने जैसे किसी ग़रीब मनई की किरायेदार हैं जो अब कहीं और रहता है। बस्ती के एक चौथाई घर क़िराये पर हैं। यहां कोई पूर्वांचल से तो कोई भोजपुर से आया है, बरसों पहले अपना घर-दुआर छोड़ कर। ज़िंदा रहने की मजबूरियां किस तरह ग़रीब-गुरबों को परदेसी बनाती हैं और शहर किस बेदर्दी से उन्हें यहां से वहां दर-ब-दर करता है, इसकी कहानियां यहां भी हैं। पिछली सरकार के दौरान ग़रीबों के लिए मकान बने। बेपता लोगों को अपना स्थाई पता मिलने का सपना बंधा। बस्ती के लोगों ने भी फ़ार्म भरे, जांच-पड़ताल हुई लेकिन मकान किसी के हाथ न आया- सपना कांच की तरह चूर हो गया।
सिंगारी के पति जूट मिल में मज़दूर रहे, मिल बंद हुई तो दिहाड़ी मज़दूर हो गये। कहती हैं- तब इतनी महंगाई नहीं थी, आज बहुत मंहगाई है और मज़दूरी उतनी ही कम। वह ख़ुद अनपढ़ हैं लेकिन पढ़ाई की अहमियत समझती हैं। उनका इकलौता बेटा इंटर में है।
थोड़ी देर में छप्पर के नीचे महिलाओं का झुंड जमा हो जाता है। इनमें ज़्यादातर घरेलू कामगार हैं। शुरू हो जाता है शिक़ायतों का सिलसिला। जैसे कि सभासदी के चुनाव में ही नेता बस्ती में आते हैं, कि विधायक जी का वायदा था कि जीते तो एक महीने के भीतर गली की सूरत सुधर जायेगी लेकिन बाद में यह कह कर मुकर गये कि यह तो रेलवे की ज़मीन है, कि नगर निगम कहता है कि यह बस्ती अवैध है और इसे ख़ाली करना होगा, कि बरसात में तो यहां का और भी बुरा हाल हो जाता है, कि हैजा-दस्त-मलेरिया होता रहता है, कि सर्वे करनेवाले आते रहते हैं और होता-हवाता कुछ भी नहीं...।
गरीब बस्तियों से बेखबर योजनाकार
कुछ यही हाल काकादेव के एम ब्लाक स्थित जयप्रकाश नगर कच्ची बस्ती का भी है। इस विशाल बस्ती में पच्चीस हज़ार से अधिक घर हैं- कुछ पक्के, कुछ अधपक्के और बाक़ी कच्चे। औसतन दो हज़ार घरों के बीच एक नल पड़ता है, ज़ाहिर है कि पानी के लिए धक्कामुक्की और तक़रार रोज़ का क़िस्सा होता है। सुबह चार बजे से पानी के ख़ाली बरतनों की लाइन लग जाती है जबकि पानी छह बजे के बाद आता है। नालियां मलबे से लबालब रहती हैं और बरसात में उसका गंदा पानी घरों का रूख़ करने लगता है। बस्ती के किसी घर में शौचालय नहीं। गन फ़ैक्ट्री के पीछे का मैदान बस्ती का सबसे बड़ा खुला शौचालय है।
इस ग़रीब बस्ती के एक चौथाई से अधिक परिवार बिना राशन कार्ड के हैं। कोई दस फ़ीसदी परिवारों के पास लाल कार्ड है और बाक़ी के पास पीला। शहर की दूसरी ग़रीब बस्तियों की तरह यहां भी राशन कार्ड बनवाने के नाम पर ठग आये और कइयों की जेब ढीली कर रफ़ूचक्कर हो गये।
मन्ना मड़ैय्या कभी गंवई इलाके में थी। आज शहर में है और नयी बनी कालोनियों के बीच है लेकिन उसका गंवईपन अभी भी बरक़रार है। कभी यह जगह मन्ना नाम के बड़े किसान ने अपने खेतों पर काम करनेवाले मज़दूरों को रहने के लिए दी थी। आगे चल कर इसका नाम ही मन्ना मड़ैय्या हो गया और उसमें दूसरे ग़रीब भी अपना डेरा डालते गये। मन्ना साहब के खेत का एक टुकड़ा अभी बचा है और जो मन्ना मड़ैय्या से सटा हुआ है। फ़र्क़ बस इतना कि यह ज़मीन अब चारदीवारी से घिरी हुई है और उसका एक गेट भी है- शायद उसे ज़मीन के संवैधानिक डकैतों से बचाने के लिए उनकी तीसरी पीढ़ी को यही तरक़ीब जंची हो।
मन्ना मड़ैय्या की ज़मीन बहुत नीची है जबकि उससे सटी कालोनियों की ज़मीन ऊंची। आप समझ सकते हैं कि बरसात के दिनों में इसका क्या हाल होता होगा। चारों तरफ़ से बरसाती पानी बस्ती में भरता है और उसे तालाब बना देता है। आधे से अधिक लोग यह आफ़त आने से पहले ही घर छोड़ कर चले जाते हैं। जो बचे रहते हैं, वे भारी मुसीबतें झेलते हैं और दोमंज़िले या खुली छत पर पनाह लेते हैं।

लगभग पांच सौ की आबादी वाली इस बस्ती में छह हैंडपंप हैं जिनमें चार का पानी पीने के लिए ठीक नहीं। यहां भी किसी के घर शौचालय नहीं। सीवर लाइन ही नहीं। कुछेक घरों में ज़रूर सेफ़्टी टैंक के भरोसे शौचालय बन गये हैं। दूसरे घरों के लोग भी समझ रहे हैं कि खुले में शौच जाना अच्छा नहीं, ख़ाली ज़मीनों पर तेज़ी से बनते मकानों को देखते हुए ज़्यादा समय तक यह मुमकिन भी नहीं।
दो दिवसीय कानपुर दर्शन का बखान जाजमऊ से शुरू हुआ था। इतिहास से गुज़रें तो यहीं कहीं कान्हा नाम का छोटा सा गुमनाम गांव हुआ करता था। अठ्ठारहवीं सदी के मध्य में गांव के आसपास विलायती फ़ौज़ के साथ हुई फ़ैसलाकुन भिड़ंत में अवध को तगड़ी शिकस्त मिली। इस विजय ने गोरी हुक़ूमत को इलाक़े के सामरिक महत्व से परिचित कराया। बाद में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में हुए समझौते के तहत यह गांव पूरी तरह अवध के हाथ से निकल कर अंग्रेज़ों के हवाले हो गया और इसी के साथ उसे फ़ौज़ी केंद्र के बतौर विकसित किये जाने की शुरूआत हुई। पहले फ़ौज़ी साज़ो-सामान बनाने के कारख़ाने लगे और फ़ौज़ी छावनी बनी। धीरे-धीरे कान्हा आसपास के गांवों को निगलता गया और आख़िरकार कानपुर नाम के औद्योगिक शहर में बदल गया। लेकिन कोई तीस साल पहले उसकी इस पहचान ने भी दम तोड़ना शुरू कर दिया और आज कानपुर शहर का क़द सूचना तकनालोजी के आला झंडा अलंबरदार का है।
बावजूद इसके लगता है कि शहर के हाक़िमों और योजनाकारों को ग़रीब बस्तियों की ख़बर नहीं रहती और अगर रहती है तो फ़िज़ूल की सर खपाऊ लगती है। उनकी नज़रे-इनायत तभी होती है जब कहीं कोई बड़ा हादसा गुज़रता है या कि महामारी फैलती है। जादुई सपनोंवाले ग्लोबल विलेज में घुसने का शायद यही दस्तूर हो, और ज़ाहिर है कि जहां भोले शंकर की बारात के लिए नो इंट्री का बोर्ड टंगा है।
पछहत्तर साल के शायर कमल किशोर 'श्रमिक' कानपुर में ही पैदा हुए, यहीं पले-बढ़े और यहीं से कानपुर के बाहर दूर-दूर तक जाने गये। वामपंथी आंदोलनों में सक्रिय रहे श्रमिक जी किदवई नगर स्थित श्रमिक बस्ती में रहते हैं- गोया बिन कहे कहते हैं कि मैं जिनके बीच रहता हूं और जिनकी तरह जीता हूं, मैं उन्हीं की बात रखता हूं। चलते-चलते उनका यह शेर हाज़िर है-
'इस दर्द के एहसास को हम बांट रहे हैं
हम मिल के उम्र क़ैद यहां काट रहे हैं।'
आदियोग संस्कृतिकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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