जर्मनी जाएगा यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा
भोपाल के गैस पीडितों को पर्याप्त न्याय मिला कि नहीं इस पर तो विवाद अभी भी जारी रहेंगे, लेकिन गैस पीडितों को धीमे जहर के समान क्षतिग्रस्त कर रहा रासायनिक कचरा अब संभवता अपने अंतिम मुकाम तक पहुंचकर नष्ट हो सकेगा। भोपाल के गैस पीडितों को दिसंबर १९८४ से आजतक यह स्पष्ट ही नहीं हो पा रहा था कि इस हानिकारक रासायनिक धीमे विष के समान पूरे क्षेत्र में फैले हजारों मेट्रिक टन कचरे से कैसे मुक्ति मिलेगी? अब सर्वोच्च न्यायालय के बाद मंत्री समूह हरकत में आया है और भोपाल का दौरा करने के बाद ऐसी योजना बनाई जा रही है कि एक साल के अंदर यहां मौजूद रासायनिक कचरा नयी तकनीकि से नष्ट करने के लिए जर्मनी भेज दिया जाएगा।
लोकतंत्र की बलिहारी है कि सरकारों को निर्णय लेने में अठ्ठाईस वर्ष लग गए। इस दौरान गैस पीडितों की पूरी एक नस्ल ही शारीरिक रूप से अपरिपक्व पैदा हुई है। अनुवांशिक विसंन्गतियों का एक बड़ा कारण तत्कालीन त्रासदी तो थी ही, लेकिन इस विषैले कचरे ने भी उस हत्यारी फैक्ट्री के आस-पास के विशाल क्षेत्र के लोगों का जीना दूभर कर रखा है। यदि यह कहा जाये कि जीते जी नरक किसे कहते है तो भोपाल में यूनियन कार्बाइड के समीप की बस्तियां जीवंत प्रमाण है।
बरसों तक तो यह तय ही नहीं किया जा सका कि यूनियन कार्बाइड के विशाल परिसर में फैली इस साक्षात् मौत से कौन निपटेगा। सरकारी नुमाइंदों और गैस पीडितों के नाम पर जुबानी जमा खर्च करने वाले कथित नेताओं ने सिर्फ सरकारी मुआवजे और विदेशी और देशी मीडिया में नाम और फोटो छप जाने पर ध्यान दिया| नहीं तो क्या ऐसा संभव है कि स्थानीय क्षेत्र के जन-जीवन और पर्यावरण को लगातार इतनी हानि पहुँचाने वाला यह कचरा लगभग तीन दशक तक गैस पीड़ितों की छाती पर पड़ा रहता। वो तो भला हो अपने देश की न्यायपालिका का कि जिसने इस विषय की गंभीरता को भांपते हुए इस कचरे की चिंता से दुर्बल और दूषित हो रहे गैस पीडितों को चिंता मुक्त कर दिया। जब देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार के कान खींचे तब जाकर कही मंत्रियों का समूह गठित हुआ और बात आगे बढ़ी। मंत्रियों के समूह ने भोपाल का दौरा किया और जल्दी ही दिल्ली में केंद्र और राज्य के नुमाइंदों ने कर इस मुसीबत को जर्मनी भेजने के फैसले पर मुहर लगा दी।
अब यह पूर्णतयः स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पालन में ही कचरे का जर्मनी भेजा जाना सुनिश्चित हुआ ना की किसी सरकार या राजनेता की आवाज पर। उम्मीद की जानी चाहिये कि बरसों से छले जा रहे भोपाल के गरीब गैस पीडितों पर अब तो लोकतंत्र के नाम पर राज कर रही राजनितिक बिरादरी और इनका का सहयोग कर रहे भ्रष्ट अफसरों का गिरोह तरस खायेगा। बेचारे अपनी मांगो के लेकर प्रदर्शन भी नहीं कर सके, पिछली दिसंबर में बरसी पर कुछ असामजिक तत्वों ने पुलिस पर पथराव क्या किया कई निर्दोष जेलों में डाल दिए गए, जिनका पक्ष और सच जाने वाला इस साठ साल पुराने लोकतंत्र में कोई नहीं है। ना जाने यह सच सामने आ भी पायेगा कि नहीं कि प्रशासन पर हुए कथित हमले के पीछे किस का षड़यंत्र था। संभव है कि अपने जीते जी कुछ तो इस आरोप से मुक्त भी ना हो पाए।
पिछले कुछ समय से यह कचरा पीथमपुर मध्यप्रदेश ,गुजरात और महाराष्ट्र के बीच सरकारी फाइलों पर घूम रहा था। जहाँ–जहां इस कचरे की आने की आहट हो वही विरोध शुरू और विरोध स्वाभिक भी था। कौन समझदार अपने घर मुसीबत को आने देगा। साथ ही इसका तकनीक पहलू यह भी है कि देश में कही भी इस रासायनिक कचरे को नष्ट करने की उन्नत तकनीक नहीं है, जिस पर यह भरोसा किया जा सके कि नष्ट करने की इस इस प्रक्रिया में कोई दुर्घटना नहीं होगी एवं यह सब बिना किसी नयी विपदा के आसानी से नष्ट हो सकेगा।
कचरे का निपटारा करने की अभी एक लंबी सरकारी प्रक्रिया बची है, इसमें राज्य सरकार करारनामा बनाकर मंत्री समूह से सहमति के बाद जर्मन कम्पनी से करार करेगी। इस सब में लगभग पच्चीस करोड़ का खर्चा आयेगा व एक वर्ष का समय लगेगा। गैस पीडितों के कल्याण की दिशा में यह एक बहुत छोटा कदम है अभी लगभग पच्चीस हजार टन कचरे खुले में पड़ा है जिसके निपटारे की अभी कोई चर्चा भी नहीं है जबकि यह कचरा पीडितों की पीड़ा को और बढ़ाये हुए है। इस के निपटारे की समुचित व्यवस्थाए प्राथमिकता पर होने की जरुरत है।
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