Monday, June 11, 2012

तसलिमा की ​​राय से इत्तेफाक रखने के सिवाय दिवाकर ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा!तसलिमा ने शंघाई की चर्चा करते हुए यह नहीं लिखा कि इस फिल्म में अंध हिंदू राष्ट्रवाद की धज्जियां उड़ा दी है।

तसलिमा की ​​राय से इत्तेफाक रखने के सिवाय दिवाकर ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा!तसलिमा ने शंघाई की चर्चा करते हुए यह नहीं लिखा कि इस फिल्म में अंध हिंदू राष्ट्रवाद की धज्जियां उड़ा दी है।

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

हिंदी फिल्म शंघाई भले ही कारोबार में राउडी राठौर के मुकाबले फिसड्डी साबित हो, पर निर्देशक दिवाकर बनर्जी ने निर्देशन पर अपने सधे​ ​ हुए हाथ और फिल्म माध्यम में परिपक्व होती दृष्टि का सबूत दे ही दिया है। हमने कल रात ही इंटरनेट पर यह फिल्म देखी और बहुत दिनों बाद कोई हिंदी फिल्म देखकर अपने को खुशनसीब समझ रहा हूं। प्रसिद्ध लेखिका तसलिमा नसरीन ने ट्वीट कियाहै कि इस फिल्म में इस्लामी ​​कट्टरपंथ की खूब खबर ली गयी है। उनके मुताबिक कम से कम एक बंगाली निर्देशक ऐसा मिला जिसे अपनी बात कहने में डर नहीं लगता और बात कहने की तमीज भी उसमें है। तसलिमा को शिकायत है कि बंगाल के कई निर्देशकों ने वायदा करने के बावजूद उनके लिखे पर फिल्म बनाने से मुकर गये। जाहिर है कि फिल्म में नाच गाना, एक्शन, स्पेशल इफेक्ट के अलावा कहानी और कथ्य तो निर्देशक की समझदारी पर निर्भर है। तसलिमा की ​​राय से इत्तेफाक रखने के सिवाय दिवाकर ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा। जैसे कि तसलिमा की पुरानी आदत है, इस्लामी कट्टरपंथ की वह खूब आलोचना करती हैं, पर हिंदू अंध राष्ट्रवाद और हिंदू सांप्रदायिकता ​​पर खामोश  रह जाती है। नतीजतन सांप्रदायिक ताकतें अपने अपने तरीके से उनके लिखे का इस्तेमाल करती हैं। तसलिमा ने शंघाई की चर्चा करते हुए यह नहीं लिखा कि इस फिल्म में अंध हिंदू राष्ट्रवाद की धज्जियां उड़ा दी है। यह महज संयोग नहीं है कि १९९१ से अर्थ व्यवस्था के​ ​ उदारीकरण के बाद ही संघ परिवार के राजनीतिक एजंडा को अभूतपूर्व कामयाबी मिलने लगी है और बाजार के विस्तार में हिंदू राष्ट्रवाद का भारी योगदान रहा है। ग्लोबल हिंदुत्व और कारपोरेट साम्राज्यवाद के गढजोड़ से ही खुला बाजार संभव हुआ है। इस पर तीखी टिप्पणी है शंगाई और इसके खिलाफ संघ परिवार बजरिए रास्ते पर है।दिल्ली हाइकोर्ट ने  उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें फिल्म 'शंघाई' पर रोक लगाने की मांग की गई थी। कोर्ट ने माना कि फिल्म के गाने 'भारत माता की जय' में कुछ भी अपमानजनक नहीं है, गाना हकीकत को ही बयां कर रहा है। जस्टिस विपिन सांघी और राजीव शाकधर की बेंच ने कहा कि उन्हें फिल्म के इस गाने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला। लोकतंत्र में सभी को अपने विचार रखने का अधिकार है। यह अधिकार कुछ खास परिस्थितियों के अलावा नहीं रोके जा सकते।जजों का कहना था कि लेखक ने देश के मौजूदा हाल को ही गाने में दिखाने का प्रयास किया है। गाने में यदि 'सोने की चिड़िया' शब्द का इस्तेमाल किया गया है तो 'डेंगू' और 'मलेरिया' जैसे शब्द भी गाने में शामिल किए गए हैं। भगत सिंह क्रांति सेना के अध्यक्ष तेजिंदर सिंह पाल बग्गा के वकील की याचिका से कोर्ट सहमत नहीं हुई।


खास बात यह है कि इस फिल्म में जहां इमरान हाशमी की इमेज ​​बदलकर पहलीबार दमदार भूमिका में देखने को मिला ,वहीं बालीवूड के दो दो चमकदार सितारे होने के बावजूद राजनेता के रुप में बांग्ला फिल्मों के सबसे बड़े स्टार प्रसेनजीत का जबरदस्त काम है। क्या पता कि इस फिल्म से बालीवूड का अरसे से बंद दरवाजा उनके लिए खुल ही जाये। अभय देओल की बतौर एक तमिल आईएसएस अधिकारी की भूमिका रोल मॉडल के लायक है। राजनीतिज्ञों और अपराधियों के गठबंधन को तोड़ने में यह आईएएस अधिकारी सफल रहा। लेकिन आम जीवन में यह भूमिका टेढ़ी खीर साबित होती है। दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' भारतीय लोकतंत्र के मुश्किल हालात में इंसाफ के लिए लड़ती एक मसालेदार और कुछ भी बुरा ना बर्दाश्त करने वाली फिल्म है। फिल्म की खास बात है इसकी बेहतरीन कास्ट का शानदार अभिनय और इसके निर्देशक की छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देते हुए एक सादगी से भरी कहानी बताना जो राजनीति और जुर्म के बीच के संबंधों को दिखाती है।

प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' के बाद अब दिबाकर बनर्जी ने पॉलिटिक्स का थ्रिलर रूप पेश किया है।यह फिल्म खुले बाजार की अर्थ व्यवस्था में अंधाधुंध शहरीकरण औदोगीकरण और बिल्डर प्रोमोटर माफिया, राजनीतिक भ्रष्टाचार पर ​​अत्यंत प्रासंगिक टिप्पणी है। कारपोरेट साम्राज्यवाद के खिलाफ हालीवूड की फिल्म अवतार में स्पेशल इफेक्ट की बड़ी भूमिका थी। पर ​​भारत के इमरजिंग मार्केट में प्रकृति से जुड़े समुदायों के विस्थापन और देहात के सर्वनाश की कथा हिंदी में इसेस बेहतर ढंग से शायद ही कही गयी हो, जो दिल को छूती है।'शंघाई' कहानी है भारत नगर को एक इंटरनेशनल बिजनेस पार्क (आईबीपी) में तब्दील करने की, जिसके विरोध में आवाज बुलंद की है डॉ. अहमदी (प्रसोनजीत चटर्जी) ने। उनके आने से शहर में तनाव है और भाषण पर पाबंदी भी। ऐसे में उनके कुछ साथी और शालिनी (कल्कि) उनका भाषण मैनेज करवा देते हैं, पर उसी रात उन पर जानलेवा हमला हो जाता है।इस हमले के बाद कहानी एक नया मोड़ लेती है। मामले की जांच के लिए एक कमीशन गठित होता है, जिसकी अगुवाई करता है आईएएस कृष्णन (अभय देओल)। कृष्णन, सीएम (सुप्रिया पाठक) का खास है और उनके सचिव कौल (फारुख शेख) के हाथों की कठपुतली भी।अहमदी की छात्रा शालिनी यानी कल्की और उसकी पत्नी अरुणा यानी तिलोतम्मा शोम इसके खिलाफ जांच की मांग करती हैं। कल्की एक इंडियन आर्मी जनरल की बेटी बनी है जिसका कोर्ट मार्शल हो गया था। कल्र्की आधी ब्रटिश और आधी भारतीय है। चीफ मिनिस्टर के किरदार में सुप्रिया पाठक इसकी जांच करने के लिए आदेश देती है।आईएस अफसर के किरदार में अभय देओल अपने किरदार को बहुत ही खूबी से निभाते हैं।कृष्णन को हर दूसरे कदम पर ब्यूरोक्रेसी के दोमुंहे चाबुक का सामना करना पड़ता है और यही फिल्म का आकर्षण है। लोकल विडियोग्राफर जोगी परमार यानी इमरान हाश्मी के पास कुछ अहम जानकारी है जिससे बड़े-बड़े नेता फंस सकते हैं।जांच में जोगी (इमरान हाशमी) एक अहम भूमिका निभाता है, क्योंकि हादसे वाले दिन की वीडियो फुटेज उसके पास है। जोगी ही शालिनी की मदद से भग्गू (पिताबश) का पता लगाता है, जो हमले का दोषी है, लेकिन ये जांच इतनी आसान नहीं होती। शंघाई मुश्किलों को दर्शाती 'इंडिया शाइनिंग' के पीछे की सच्चाई को दिखाती है।भ्रष्ट पॉलिटिक्स की वजह से अपनी पहचान खोते भारत मे एक बदलाव लाने का सपना दिखाया है निर्देशक दिवाकर ने। यह फिल्म 1960 में एक ग्रीक लेखक वासीलिकोस द्वारा लिखी गई पुस्तक 'z' से प्रेरित है। 'शंघाई'में निर्देशक ने दर्शकों का ध्यान भारत में मौजूद भ्रष्टाचार की तरफ ले जाने का प्रयास किया है।

शंघाई फिल्म की शुरुआत जरूर थोड़े हिचकोलों के साथ होती है परंतु जब भूमिका बंध जाती है तो फिल्म उड़ने लगती है।  फिल्म में केंद्रीय भूमिका प्रसेनजित ने निभाई है, जो बंगाली फिल्मों के सुपर स्टार हैं। प्रसेनजित एक जमाने में हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय नायक रहे विश्वजीत के सुपुत्र हैं। इस फिल्म में अभय देओल, इमरान हाशमी और अनुराग की पत्नी कल्कि कोचलिन भी अहम किरदारों में हैं। इसमें ब्रिटेन की मॉडल स्कारलेट मेलिश ने सनसनीखेज आइटम पेश किया है। एक सामाजिक कार्यकर्ता की चुनाव के दिनों में कार दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। एक जागरूक विद्यार्थी पत्रकार को विश्वास है कि वह राजनीतिक हत्या थी। इसमें इमरान हाशमी अश्लील फिल्मों को बनाने का अवैध धंधा करते हैं और पत्रकार को लगता है कि इसी व्यक्ति के पास हत्या का ठोस सबूत है। केंद्र सरकार से अफसर अभय देओल को भेजा जाता है कि वह मामले की तह तक जाए और घटना से उत्पन्न राजनीतिक हलचल को शांत करे।फिल्म में यह भी दिखाने का प्रयास किया गया है कि लोकतांत्रिक प्रणाली से विधिवत चुनी सरकारें भी परदे के पीछे अनेक अनैतिक समझौते करती हैं। व्यवस्था का भ्रम कायम रखने के लिए भांति-भांति के काम किए जाते हैं।इसे देखते हुए भारत भर के शहरों, कस्बों और गांवों के कायाकल्प करने की अर्थव्यवस्था और राजनीति बेनकाब होती है। महानगरों को ​​अमेरिका, लंदन और शंघाई बनाने के दिवास्वप्नों के सौदागर कम नहीं हैं इस देश में।अपने-अपने शहर को शंघाई या पेरिस सरीखा चमकाने की कवायद देश के कई हिस्सों में चल रही है। गांवों या किसी छोटे शहर को उजाड़ कर वहां ऊंची इमारतों में बसने वाले बिजनेस पार्क या आवासीय परियोजनाओं के पीछे के सच हम-आप आये दिन खबरों में पढ़ते रहते हैं।ऐसे मामलों को जब कभी भी भ्रष्टाचार की आंच पकड़ती है तो उसकी पड़ताल के लिए एक जांच आयोग बिठा दिया जाता है। ये जांच आयोग कैसे काम करता है, उसे अपने काम-काज में क्या-क्या दिक्कतें आती हैं और उस जांच की आंच में कोई राजनेता या पार्टी कैसे अपनी रोटियां सेकते हैं, ये इस हफ्ते रिलीज हुई दिबाकर बनर्जी की फिल्म 'शंघाई' में दिखाने की कोशिश की गयी है।अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जनांदोलन की लहरों पर सवार ममता बनर्जी ने अभी हाल में बंगाल में ३४ साल के वाम शासन का अंत किया और पूरे बंगाल को बाजार के हवाले करने की तैयारी ​​में हैं। शंघाई  को देखते हुए कोलकाता को लंदन बनाने की उनकी घोषणा बरबस याद आती है। मुंबई को शंघाई बनाने के प्रयास तो ​​जगजाहिर है। ममता ने हाल में बाजार के राष्ट्रपति पद प्रत्याशी विश्वपुत्र प्रणव मुखर्जी का पुर जोर विरोध किया , पर बाजार के खिलाफ विद्रोह के बनिस्बत यह राजनीति सौदेबाजी का मामला ज्यादा निकला। अब दीदी कांग्रेस के किसी भी प्रत्याशी को समर्थने देने का वायदा करते हुए दादा के रास्ते अवरोध हटाती हुई दीख रही है। राजनीतिक पाखंड और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनाक्रोश के संदर्भ में यह फिल्म इसलिए भी प्रसंगिक है क्योंकि बाजार की शक्तियों से नियंत्रत फिल्म माध्यम को इस चुनौतीपूर्ण कथा के लिए चुनने की हिम्मत दिखायी दिवाकर ने। बजरंग दल ने भारतमाता की तौहीन का जो मामला उठाया और भविष्य में तसलिमा के बयान की प्रतिक्रिया जो होनी है, यकीनन जानिये कि वह बाजार की ही प्रतिक्रिया है। कारपोरेट राजनीति के खिलाफ फिल्म माध्यम बतौर खड़ी है, यह बालीवूड के लिए नई दिशा साबित हो सकती है। हर दौर में ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होंने अपने समय को पर्दे पर उतारा है, मगर दिबाकर उनसे अलग इसलिए हैं कि अब ऐसा कर पाना साहस का काम है। अब राउडी राठौर, दबंग और झंडू गानों का ज़माना है। और ऐसे में अपने आसपास के समाज को पर्दे पर सीधा-सपाट देखने का रिस्क उठाने वाले बहुत कम हैं।


'खोसला का घोंसला' और 'लव सेक्स और धोखा' जैसी फिल्मों का निर्देशन करने के बाद दिबाकर बनर्जी ने 'शंघाई' नामक फिल्म बनाई है,जबकि विश्व प्रसिद्ध शहरों के नाम पर फिल्में बनाना वालीवूड की पुरानी और लंबी परंपरा है। कबीर खान ने अपनी जॉन अब्राहम और कैटरीना कैफ अभिनीत फिल्म का नाम 'न्यूयॉर्क' रखा था। 'चाइना टाउन' नामक फिल्म भी बन चुकी है। एक जमाने में 'लव इन टोक्यो' बनी थी। विपुल शाह 'लंदन ड्रीम्स' नामक हादसा रच चुके हैं। 'लव इन सिंगापुर' नामक फिल्म भी बन चुकी है। 'चांदनी चौक टू चाइना' नामक फूहड़ता भी रची जा चुकी है। कबीर खान 'काबुल एक्सप्रेस' बना चुके हैं। शक्ति सामंत ने शम्मी कपूर और शर्मिला टैगोर के साथ 'एन इवनिंग इन पेरिस' नामक फिल्म बनाई थी। हाल ही में 'लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क' नामक फिल्म सृष्टि बहल बना चुकी हैं।लेकिन विषय और फिल्मांकन के लिहाज में ये फिल्में शंघाई के मुकाबले कहीं नहीं हैं। दिबाकर बनर्जी की यह फिल्म ऑलिवर स्टोन की शैली का राजनीतिक थ्रिलर है। थ्रिलर फिल्मों की यह श्रेणी फ्रांस में विकसित हुई, जब दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात हिटलर के लौहपाश में जकड़े फ्रांस में देशप्रेमी छुपकर नाजी फौजों पर आक्रमण करते थे और इनसे प्रेरित कहानियों पर फिल्में बनीं।इस विधा के असली पुरोधा ऑलिवर स्टोन ही है।उनकी 'जेएफके' से ज्यादा साहसी फिल्म आज तक नहीं बनी। इस समय भारत में सभी राजनीतिक दलों के भीतर भी उठापटक चल रही है। अनेक छायायुद्ध भी लड़े जा रहे हैं। दिवाकर ने कहा है कि पॉलिटिकल थ्रीलर होने के बावजूद इस फिल्म में किसी भी पॉलिटिशियन को नहीं दिखाया गया है और जहां तक नाम का सवाल है तो शंघाई सिर्फ एक सपना है इसलिए इस फिल्म में शंघाई शहर की झलक तक नहीं है।फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे।

दिवाकर का कहना है " आप कभी अभय देओल और इमरान हाशमी को एक साथ नहीं देखेंगे और ना ही काल्की के साथ इमरान को। मैं एक बिल्कुल अलग जोड़ियों को एक दूसरे के साथ काम करते देखना चाहता था ताकि वो एक कभी न भूल सकने वाला अनुभव कर सकें। "

दिबाकर बनर्जी हमारे दौर के सबसे अच्छे फिल्म निर्देशकों में इसीलिए हैं क्योंकि वो फॉर्मूले की पैकेजिंग हमारे समय को समझते हुए कर पाते हैं। उनकी कहानियों में हमारे समय की राजनीति है, उसका ओछापन है, साज़िशें हैं, बुझा हुआ शाइनिंग इंडिया है और चकाचक शहरों के नाम पर होनेवाली हत्याएं और अरबों का दोगलापन भी है। उनकी नई फिल्म ''शांघाई'' में भी वही सब है।इमरान हाशमी, अभय देओल और कल्कि जैसे सितारों के साथ 'शंघाई' की कल्पना दिबाकर बनर्जी ही कर सकते हैं। उन्होंने एक जटिल विषय को अपने सिनेमाक्राफ्ट से इस तरह निखार दिया है कि फिल्म में रोचकता सीन दर सीन बढ़ती जाती है। खासतौर से इंटरवल के बाद, जब अभय देओल का रोल अपने फुल कलर में आता है। उन्होंने एक आईएएस अफसर को बॉलीवुड के उस मसाला हीरो की तरह पेश कर डाला है, जो एक गोली के दो टुकड़े कर दो तरफा निशाना लगा सकता है, लेकिन ये सब उन्होंने काफी कूल अंदाज में दिखाया है। वास्तविकता के करीब रह कर रीयल लाइफ को कैमरे में कैद करना उन्हें 'खोसला का घोंसला' से आता है। इसके अलावा भी उनकी जो फिल्में आयीं हैं, वो लीक से हट कर ही रहीं। राउडी राठौड़ के बाद अगर आप एक अर्थपूर्ण सिनेमा की तलाश में हैं तो 'शंघाई' पर आपकी तलाश खत्म हो सकती है।

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcom

Website counter

Census 2010

Followers

Blog Archive

Contributors