भूमि सुधार और ब्राह्मणवाद दो अलग बातें हैं पलाश जी!
इसी हफ्ते बुद्धिजीवी पत्रकार प्रयाग पांडे ने उत्तराखंड में भूमि सुधार कानूनों (?) के बावजूद बंगला विस्थापितों की दयनीय स्थिति पर एक लेख लिखा था, ज़मीन है किसी और की, उसे जोतता कोई और है ! ...इस के बाद लेखक, चिन्तक और सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे भाई पलाश बिश्वास ने बांग्लादेशियों और बंगला विस्थापितों के बीच के मूल अंतर को परिभाषित करते हुए एक शोध-पत्र भेजा,मसला भूमि सुधार का और सजा विभाजन पीड़ित बंगाली शरणार्थियों को...!...उसी क्रम में उस बहस को आगे बढ़ा रहे हैं प्रयाग पांडे. उम्मीद है कि बहस के स्तर को बनाए रखते हुए और भी विचार आयेंगे. ताकि एक तार्किक परिणाम तक पंहुचा जा सके.- संपादक
1950 से 1980 के बीच कृषि भूमि के पट्टाधारकों को मालिकाना हक़ देने सम्बन्धी फैसले से पहली नजर में हम जैसे अल्प बुद्धियों को लगा कि तराई के इलाके में समग्र रूप से भूमि सुधार कानूनों को लागू किये बिना इस फैसले के कोई मायने नहीं हैं। पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते तराई के भूमि सम्बन्धी मामलों में हमें थोड़ी बहुत आधी अधूरी जानकारी थी, और है। हमारा उद्देश्य था और है कि राज्य सरकार तराई समेत पूरे उत्तराखंड में भूमि सुधार की दिशा में ठोस पहल करे. ताकि तराई और पहाड़ के भीतर रह रहे हरेक जरूरतमंद को उसका वाजिब हक़ मिल सके। हमने अपने आलेख में तराई के भीतर रह रहे गरीब, भूमिहीनों और खासकर बंगाली विस्थापितों की मौजूदा दुर्दशा का सविस्तार जिक्र किया भी है। इस आलेख को लिखने से पहले मैंने बड़े भाई श्री पलाश विश्वास जी से सम्पर्क करने का भरपूर प्रयास भी किये। अनेक कोशिशों के बाद भी जब उनका सम्पर्क नम्बर हासिल नहीं हो सका तो मैंने उन्हें फेसबुक पर संदेश भी भेजा। कोई जबाब नहीं मिलने पर अन्ततरू आलेख लिख दिया।
श्री पलाश विश्वास जी हमारे अग्रज हैं। तराई ही नहीं पूरी देश दुनियां की सियासी और सामाजिक हालातों से बाखबर लेखक, चिंतक और नामचीन बरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्हें विस्थापित या शरणार्थी शब्द पर आपति हो सकती है। यह बात दीगर है कि आमतौर पर रोजमर्रा के बोलचाल में लोग इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं और कर रहे हैं। लेकिन वे इस बात को बखूबी जानते और समझते हैं कि उत्तराखंड सरकार के इस ताजा निर्णय से तराई के भीतर रह रहे विस्थापित बंगाली परिवारों की समस्याओं का समाधान कतई नहीं होना है। कितने बंगाली परिवार इस निर्णय से लाभ उठा पाएंगे. सवाल यह है कि तराई के भीतर इस निर्णय कि जद में आने वाले बंगाली परिवारों की संख्या कितनी है। उन बाकी बंगाली परिवारों का क्या होगा, जिनके पास न पट्टे है और न ही जमीन।
खैर, यह बड़ी बहस का मुद्दा है. इस पर सोचना सरकार का काम है, हमारा नहीं। श्री पलाश विश्वास जी ने अपने आलेख में लिखा है,बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब ब्राह्मणवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के तीन केंद्र रहे हैं। बंगाल के अछूतों, खासकर नमोशूद्र चंडालों ने डा. भीमराव अंबेडकर को महाराष्ट्र में पराजित होने के बाद अपने यहां से जोगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंदबिहारी मल्लिक जैसे नेताओं की खास कोशिश के तहत जिता कर संविधानसभा में भेजा। इसके बाद ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बयान आया कि भारत का विभाजन हो या नहीं, बंगाल का विभाजन अवश्य होगा क्योंकि धर्मांतरित हिंदू समाज के तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल ने विभाजन का प्रस्ताव बहुमत से खारिज कर दिया। लेकिन ब्राह्मणबहुल पश्चिम बंगाल ने इसे बहुमत से पारित कर दिया। अंबेडकर के चुनाव क्षेत्र हिंदूबहुल खुलना, बरीशाल, जैशोर और फरीदपुर को पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। नतीजतन अंबेडकर की संविधानसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी। उन्हें कांग्रेस के समर्थन से महाराष्ट्र विधान परिषद से दोबारा संविधानसभा में लिया गया और संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक बंगाल और पंजाब के विभाजन से भारत में अछूतो, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का मनुस्मृति विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का अवसान तो हो गया, पर अंबेडकर को चुनने की सजा बंगाली शरणार्थियों को अब भी दी जा रही है।
श्री पलाश विश्वास जी आगे लिखते हैं . भाजपा विधायक किरण मंडल को तोड़कर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को विधानसभा पहुंचाने के लिए शक्तिफार्म के बंगाली शरणार्थियों को भूमिधारी हक आनन फानन में दे देने के कांग्रेस सरकार की कार्रवाई के बाद राजनीतिक भूचाल आया हुआ है। इसके साथ ही संघ परिवार की ओर से सुनियोजित तरीके से अछूत बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ घृणा अभियान शुरू करके उन्हें उत्तराखंड की मुख्यधारा से काटने का आपरेशन चालू हो गया। इस राजनीतिक सौदे की जानकारी गांव से भाई पद्मलोचन ने हालांकि फोन पर मुझे मुंबई रवाना होने से पहले दे दी थी और राजनीतिक प्रतिक्रिया का मुझे अंदेशा था, लेकिन लिखने की स्थिति में नहीं था। मीडिया में तमाम तरह की चीजें आने लगींए जो स्वाभाविक ही है। तिलमिलाये संघ परिवार कांग्रेस का कुछ बिगाड़ न सकें तो क्याए शरणार्थियों के वध से उन्हें कौन रोक सकता है। जबकि उत्तराखंड बनने के तुरंत बाद भाजपा की पहली सरकार ने राज्य में बसे तमाम शरणार्थियों को बांग्लादेशी घुसपैठिया करार देकर उन्हें नागरिकता छीन कर देश निकाले की सजा सुना दी थी। तब तराई और पहाड़ के सम्मिलित प्रतिरोध से शरणार्थियों की जान बच गयी। अबकी दफा ज्यादा मारक तरीके से गुजरात पैटर्न पर भाजपाई अभियान शुरू हुआ है अछूत शरणार्थियों के खिलाफ। जैसे मुसलमानों को विदेशी बताकर उन्हें हिंदू राष्ट्र का दुश्मन बताकर अनुसूचित जातियों और आदिवासियों तक को पिछड़ों के साथ हिंदुत्व के पैदल सिपाही में तब्दील करके गुजरात नरसंहार को अंजाम दिया गया, उसीतरह शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताकर उनके सफाये की नयी तैयारियां कर रहा है संघ परिवार, जो उनके एजंडे में भारत विभाजन से पहले से सर्वोच्च प्राथमिकता थी। नोट करेंए यह बेहद खास बात हैए जिसे आम लोग तो क्या बुद्धिजीवी भी नहीं जानते हैं। इसे शरणार्थियों की पृष्ठभूमि और भारत विभाजन के असली इतिहास जाने बगैर समझा नहीं जा सकता।
श्री पलाश विश्वास जी के लिखते हैं कि प. बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।
वे आगे लिखते हैं कि प. बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या 22.45 लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज 2.8 प्रतिशत है। पर विधानसभा में 64 ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या 30.46 लाख हैए जो कुल जनसंख्या का महज 3.4 प्रतिशत हैं। इनके 61 विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 189 लाख है, जो कुल जनसंख्या का 23.6 प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक 58 है। 2.8 प्रतिशत ब्राह्मणों के 64 विधायक और 23.6 फीसद अनुसूचितों के 58 विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित 44.90 लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या, कुल जनसंख्या का 5.6 प्रतिशतए के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में 189.20 लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का 15.56 प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं, तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 328.73 लाख है, जो कुल जनसंख्या का 41 प्रतिशत है। पर इनके महज 54 विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। 41 प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।
श्री पलाश विश्वास जी, जैसा कि में पहले लिख चुका हूँ, आप हमारे अग्रज हैं, बरिष्ठ है. लेकिन तराई में माकूल भूमि सुधार पर मेरे आलेख में आप जैसे बरिष्ठ पत्रकार की इस प्रकार की टिप्पणी निश्चित ही तकलीफदेह है. पत्रकारिता का विधार्थी के एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और विश्लेष्णात्मक आलेख को राजनीतिक प्रतिक्रिया करार देना भी शायद अनुचित होगा. मैं यह बात साफ कर देना अपना दायित्व समझता हूँ कि बंगाली विस्थापितों को लेकर संघ और भाजपा के नजरिये और सोच से हमारा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है और अतीत में भी कभी नहीं रहा है. मैं श्री पलाश विश्वास जी से आदर पूर्वक निवेदन करना चाहता हूँ कि जिस भूमि सुधार के मामले को आप ब्राह्मण वाद की अनंत गहराइयों तक ले गए हैं, शायद आप जानते ही होंगे कि मालिकाना हक़ का निर्णय लेने वाले उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री भी ब्राह्मण ही है. लिहाजा सभी मुद्दों को जातिगत नजरिये के बजाय वस्तुनिष्ट तरीके से परखना समीचीन होगा.
Last Updated (Saturday, 09 June 2012 21:10)
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