Tuesday, June 12, 2012

Fwd: [INDIAN JUSTICE PARTY] मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद को...



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Date: 2012/6/12
Subject: [INDIAN JUSTICE PARTY] मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद को...
To: INDIAN JUSTICE PARTY <indianjusticeparty@groups.facebook.com>


मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद...
Nilakshi Singh 11:28am Jun 12
मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद को लेकर उत्तर प्रदेश के बुद्धजीवियों व जनसंगठनों ने अखिलेश सरकार को इसमें तत्काल दखल देने कि मांग की है. इन जन संगठनों ने सरकार से सीमा आजाद पर लगाए गए सभी अपराधिक मामलों को फ़ौरन वापस लेने की मांग की है. तहरीके निसवां की अध्यक्ष ताहिरा हसन ने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि सीमा आजाद और अन्य लोगों पर से अपराधिक मामला वापस लिया जाए. उन्होंने कहा कि सीमा आजाद कोई अपराधी नहीं हैं वह एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता व पत्रकार हैं. राजनैतिक कार्यकर्त्ता अफलातून ने भी सीमा आजाद पर लगाए गए सभी आरोपों को वापस लेने कि मांग की है. इस बीच देश व प्रदेश के सामाजिक और राजनैतिक व बुद्धजीवियों को लेकर सीमा आजाद की रिहाई के लिए एक मंच बनाकर अभियान छेड़ने की तैयारी शुरी हो गई है. इस मुद्दे को अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल से जोड़कर पहल की जा रही है. इस बीच पीयूसीएल नेता और इलाहाबाद हाईकोर्ट के चर्चित वकील रवि किरन जैन ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि सीमा और विश्वविजय के पास से कुछ कागजों के सिवाय अभियोजन पक्ष कुछ भी नहीं दिखा पाया. बावजूद इसके निचली अदालत ने उन्हें उम्र कैद सुना दी. इससे यही साबित होता है कि न्यायालय में अब कार्यपालिका से भी ज्यादा कार्यपालिका वाली मानसिकता पनप रही है, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. कानून व विधि की जानकर नीलाक्षी सिंह ने कहा कि इस पूरे मामले ने देशद्रोह के कानून पर एक बार फिर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. विदित हो यह कानून अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता के प्रतिरोध के नंगे दमन के लिए बनाया गया सबसे कुख्यात कानून है. इस कानून का आजादी मिलने के बाद भी कायम रहना एक विडंबना ही है. गाँधी और तिलक को इसी कानून के तहत दोषी ठहराया गया था. गाँधीजी ने कहा था कि इस कानून ने न्याय को शासकों की रखैल बना दिया है और यह कानूनी अन्याय का प्रतीक है. नेहरू का भी मानना था कि हमें जितनी जल्दी हो सके इस कानून से छुटकारा पा लेना चाहिए. हाल ही में विनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी भी विचारधारा से जुड़ी किताबें किसी के घर में मिलना देशद्रोह नहीं हो सकता. अगर किसी के घर से महात्मा गांधी की जीवनी मिलती है तो वह व्यक्ति गांधीवादी नहीं मान लिया जायेगा. इसी प्रकार नक्सल साहित्य रखने से कोई नक्सली नहीं हो जाता. सर्वोच्च न्यायालय ने तो यहाँ तक कहा है कि नक्सलियों से सहानुभूति रखना भी राष्ट्रद्रोह नहीं हो सकता. दुख की बात है कि इस समय सरकारी दमन का विरोध करने वालों को देशद्रोही कहने का एक माहौल बना दिया गया है. मौजूदा न्यायपालिका भी इसी लुटेरी व्यवस्था का एक अंग बन कर रह गई है. न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए. लेकिन अफसोस कि सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक न्यायपालिका के सभी स्तम्भ इस भ्रष्ट व्यवस्था के रवाँ तरीके से चलने को ही सुनिश्चित करते नजर आते हैं. जनसंघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा - सवाल लोकतांत्रिक अधिकार का है जो किसी को भी किसी विचारधारा का हिमायती होने का अधिकार देता है. इसलिए इस मामले को सिर्फ एक पत्रकार या मानवाधिकार नेता की गिरफ्तारी और सजा के बतौर ही नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इसे राज्य का किसी भी राजनीतिक विचारधारा को मानने की आजादी पर हमला माना जाना चाहिए.

http://ambrish-kumar.blogspot.in/2012/06/blog-post_11.html

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