Tuesday, June 12, 2012

Fwd: [New post] प्राकृतिक संसाधनों की लूट की परियोजनाएं–1



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/6/12
Subject: [New post] प्राकृतिक संसाधनों की लूट की परियोजनाएं–1
To: palashbiswaskl@gmail.com


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प्राकृतिक संसाधनों की लूट की परियोजनाएं–1

by चारु तिवारी

[उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं और इनके विपरीत प्रभावों को लेकर विरोधी स्वर काफी समय से उठते रहे हैं,लेकिन हाल ही मे श्री विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने के बाद एक धड़ा इन परियोजनाओं के पक्ष में खड़ा दिखायी देने  लगा है। आश्चर्य की बात यह है कि इस धड़े में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी भी दिखायी दे रहे हैं। इसी मुद्दे पर प्रस्तुत है दो भागों की इस श्रंखला का पहला भाग]

Prime Minister Manmohan Singh with Union Minister of Environment and Forests Jayanthi Natarajan at a meeting of Ganga River Basin Authority, in New Delhi on Tuesday. Union Minister for Water Resources P.K Bansal, Jharkhand Chief Minister Arjun Munda, Uttar Pradesh Chief Minister Akhilesh Yadav and Uttarakhand Chief Minister Vijay Bahuguna are also seen. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने लगता है अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है। उनके साथ उन लोगों की एक बड़ी जमात जुट गई है जो सत्ता के आसपास रहकर अपने हित साधने में लगी रहती है। मुख्यमंत्री ने आते ही राज्य में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं का जिस तरह से पक्ष रखा है, उससे लगता है कि उन्होंने कारपोरेट, परियोजनाओं को बनाने वाली कंपनियों और स्थानीय ठेकेदारों का जबर्दस्त समर्थन किया है। द हिंदू में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 17 अप्रैल को दिल्ली में नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथारिटी की बैठक में विजय बहुगुणा ने कहा पर्यावरण और वन मंत्रालय ने जिन जल परियोजनाओं को तकनीकी मंजूरी दे दी है उन्हें कुछ लोगों की 'मात्र अनुभूत भावनाओं के कारण' बंद नहीं किया जाना चाहिए। आश्चर्यजनक रूप से उनकी इस बात का जबर्दस्त विरोध हुआ। विरोध करनेवालों में राजेन्द्र सिंह सहित कई पर्यावरण विद शामिल थे।

इस घटना के पंद्रह दिन के अंदर ही राज्य में कई जगह बांधों के पक्ष में प्रदर्शन हुए। उसके बाद 4 मई को देहरादून में बुद्धिजीवियों का पद्मश्री लौटाने की धमकी का नाटक हुआ। यह खेल किस तरह से खेला जाएगा इसका अनुमान लोगों को पहले से ही था। जब विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला था तो उनके विरोधियों को शंका थी कि उन्हें प्रदेश का मुखिया बनाने में इन्हीं लोगों का हाथ है। राष्ट्रीय स्तर पर गंगा को लेकर चलनेवाले सरोकारों को काटने के लिए इस बात की सच्चाई तो तभी सामने आयेगी जब कभी इस की कोई निष्पक्ष जांच होगी। लेकिन कुछ बातें जो नजर आ रही हैं वे इस नापाक गठबंधन की ओर तो इशारा करती ही हैं, इस राज्य के भविष्य के लिए भी कोई शुभ संकेत नहीं मानी जा सकतीं। हैरानी की बात यह है कि मुख्यमंत्री ने अपनी कुर्सी को सुरक्षित करने के लिए आधारभूत कदम विधान सभा का सदस्य बनने से पहले ही ऐसे विवादास्पद मुद्दे को आगे बढ़ाना क्यों शुरू किया है जिसको लेकर राज्य में पहले से ही व्यापक विवाद और असंतोष है। इधर भाजपा के तराई के सितारगंज क्षेत्र के विधायक किरण मंडल को तोड़ लिया गया है। जिन अफरातफरी भरी संदेहास्पद स्थितियों में मंडल से इस्तीफा दिलवाया गया है वह बतलाता है कि बहुगुणा वहीं से चुनाव लडऩे जा रहे हैं। अब देखने की बात होगी कि इस चुनाव में कितने धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता है।

इस बांध बनाओ मुहिम में मुख्यमंत्री के साथ बांध निर्माण कंपनियां, बड़े कारपोरेट घराने, स्थानीय ठेकेदार और राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदे तो हैं ही अब पहाड़ के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी खासी धूम-धाम से शामिल हो गया है। सरकारी पुरस्कारों से सम्मानित, कभी सरकार में लालबत्ती पाने वाले, मुख्यमंत्रियों के मीडिया सलाहकार बनने की कतार में खड़े रहने वाले इन लोगों ने अब जलविद्युत परियोजनाओं को उत्तराखंड की आर्थिकी का आधार बताना शुरू कर दिया है। चारों तरफ से खतरे में घिरी पहाड़ की जनता जब हिमालय और अपनी प्राकृतिक धरोहरों को बचाने के आंदोलन को आगे बढ़ा रही है तब इन बुद्धिजीवियों को लगता है कि बांध बनेंगे, बिजली उत्पादित होगी तो यहां से पलायन रुकेगा। उन्होंने बांध विरोधी जनता को सीआईए के एजेंट से लेकर विकास विरोधी तमगों से नवाजा है। पिछले दिनों देहरादून में इन बुद्धिजीवियों ने घोषणा की कि यदि जलविद्युत परियोजनाओं पर काम शुरू नहीं हुआ तो वे अपने पद्मश्री पुरस्कार वापस कर देंगे। इनमें एक साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी, एनजीओ चलाने वाले कोई अवधेश कौशल और गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ए एन पुरोहित शामिल हैं, जिन्हें पहाड़ के लोगों ने तब जाना जब इन्हें पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त हुये। इस समूह गान में सबसे ज्यादा ऊंची आवाज में गानेवाले एक पत्रकार महोदय हैं जो फिर से अपना भाग्य आजमाने में लगे हैं। वह हर मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार बनने के लिए लाइन में खड़े रहते हैं पर अब तक उन्हें उनके बड़बोलेपन के कारण किसी ने उपकृत नहीं किया। हो सकता है बेचारे की किस्मत इस बार जाग जाए!

padmsree-return-drama-in-dehradunयह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस पहाड़ी राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण और इसे बिजली प्रदेश बनाने का सपना यहां की जनता की बेहतरी के लिए नहीं है। इस पूरी परिकल्पना के पीछे विकास के नाम पर एक बेहद शातिराना मुहिम चल रही है। सत्तर के दशक में टिहरी बांध के बाद विकास का यह दैत्याकार मॉडल लगातार यहां के लोगों को लील रहा है। प्राकृतिक धरोहरों के बीच रहने वाली जनता को लगातार उससे दूर करने की साजिश और इसे बड़े इजारेदारों को सौंपने की सरकारी नीतियां हिमालय के लिए बड़ा खतरा हैं। इस साजिश में अब नये नाम जुड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों जलविद्युत परियोजनाओं पर जिस तरह से बुद्धिजीवियों, मीडिया घरानों, सामाजिक संगठनों के एक बड़े हिस्से ने अपनी पक्षधरता दिखाई है वह चकित करनेवाली है। अब तक ऐसा नहीं था कि मीडिया और बुद्धिजीवी इस तरह से खुल कर बांधों के पक्ष में काम कर रहे हों। इससे स्पष्ट लगता है कि इस में इन तमाम वर्गों का एक ऐसा गिरोह काम करने लगा है जो इस नव गठित राज्य में चल रही लूट में शामिल हो जाने को लालायित हैं और जिन्होंने भ्रष्ट नेताओं और पूंजीपतियों से अपने स्वार्थ के चलते घनिष्ठ संबंध बना लिए हैं।

विजय बहुगुणा ने जिस तत्परता से जलविद्युत परियोजनाओं की वकालत शुरू की है तथा उसके बिना विकास को बेमानी कहा है, उससे कई तरह की शंकाओं का पैदा होना लाजमी है। बांधों के पक्ष में प्रायोजित प्रदर्शन किए जाने लगे हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए कि आखिर अचानक इन सब लोगों का जलविद्युत परियोजनाओं से मोह क्यों जाग गया। यह सवाल तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब राज्य के विभिन्न हिस्सों में बांधों के खिलाफ लगातार जनआंदोलन चल रहे हैं। पिछले दिनों पिंडर पर बांध न बनाने को लेकर जबर्दस्त आंदोलन हुआ है और केदार घाटी में जनता ने नारा दिया है सर दे देंगे, लेकिन 'सेरा' (बड़े सिंचित खेत) नहीं देंगे। प्रशासन लगातार आंदोलनकारियों को जेल में डालता रहा है। कई स्थानों पर अभी भी लोग जनसुनवाइयों में बांधों का जमकर विरोध कर रहे हैं। जो मीडिया गौरादेवी के चिपको आंदोलन को बढ़-चढ़ कर छापता रहा है उसे अब गौरा के रैंणी गांव के नीचे की सुरंग नहीं दिखाई दे रही है। जो लोग जनपक्षीय कवितायें लिख रहे थे वे अब बांधों के लिए गीत लिख रहे हैं पर मुख्यमंत्री के सानिध्य में। पत्रकारों को कंस्ट्रक्शन कंपनियां गंगा घाटी की सैर करा रही हैं। कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकायें इतनी बेशर्मी पर उतर आयी हैं कि उन्हें चमोली जनपद में अलकनंदा पर बन रहे बाधों से प्रभावित लोगों की चीत्कार सुनाई नहीं दे रही है। प्रदेश के दैनिक तो सत्ताधारी दल के सुर में सुर मिला ही रहे थे राष्ट्रीय अखबारों ने भी अपना योगदान शुरू कर दिया है। सबसे पहले दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले साप्ताहिक शुक्रवार में पद्मश्री बुद्धिजीवियों के बयानों को लेकर रिपोर्ट छपी है। अगला नंबर इंडिया ट़ुडे हिंदी का आया जिसने 24 मई के अंक में बांधों के पक्ष में अविश्वसनीय संदर्भों पर आधारित रिपोर्ट छापी।

जलविद्युत परियोजनाओं को जिस शातिराना तरीके से मीडिया मात्र आस्था और पर्यावरण का सवाल बना रहा है वह उत्तराखंड की जनता के खिलाफ षडय़ंत्र से कम नहीं है। असल में गंगा को सिर्फ आचमन या शुद्धता के लिए बचाने की बात कहकर बांधों के खिलाफ अभियान को कमजोर किया जा रहा है। मीडिया के शीर्षक अपने आप में एक कहानी हैं। इंडिया टुडे ने 'आस्था पर भारी विकास' से यही कहने की कोशिश की है। शुक्रवार साप्ताहिक का शीर्षक था 'अब बुद्धिजीवी संत समाज से टकराएंगे' असलियत यह है कि गंगा को बचाने के लिए गंगा के पास रहने वाले लोगों का बचना जरूरी है। यह मसला संत समाज और बांध निर्माण की पक्षधर सरकार के बीच का नहीं है। न ही गंगा को शुद्ध रखने का आंदोलन जनता का आंदोलन है। जनता का आंदोलन अपने खेत-खलिहानों को बचाने का है। दूसरा सवाल पर्यावरण का है। उत्तराखंड में इस समय पचास हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। ये सभी हिमालय और गंगा की चिंता में दुबले हो रहे हैं। इन्होंने गंगा, हिमालय और पर्यावरण का ठेका ले लिया है। इनके पूरे अभियान में कहीं जनता के हित नहीं हैं।

गंगा फिर से चर्चा में है। कभी सरकारी महकमे में बांधों को पर्यावरणीय संस्तुति देने वाले वैज्ञानिक अब साधु बन गए हैं। साधुओं का गुजारा बिना गंगा के नहीं होता है। कई पर्यावरणविद् और एनजीओ हैं जिनकी रोटी-रोजी इसी से है। सरकार राष्ट्रीय स्तर पर गंगा बेसिन प्राधिकरण में अपनी चिंता साझा करती है। इन सबके बीच मध्य हिमालय में बांधों का बनना जारी है। लोग अपनी जमीन-खेत बचाने के लिए सड़कों पर हैं। उत्तराखंड सरकार इस बात पर दुखी हो रही है कि जितनी विद्युत उत्पादन क्षमता उत्तराखंड की नदियों की है, उसे दोहन क्यों नहीं किया जा रहा है तो इससे पहले भाजपा सरकार ने गंगा को बाजार बनाकर बेचा है।

विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव के गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकार की शह पर मनमाना रवैया जारी है। जिन स्थानों पर जनसुनवाई होनी है, वहां जनता के खिलाफ बांध कंपनियों और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से भय का वातावरण बनाया गया है। राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग-आधारित परियोजनाओं से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। सरकार ने चमोली जनपद के चाईं गांव और तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग से रिसने वाले पानी से भी सबक नहीं लिया। यहां सुरंग से भारी मात्रा में निकलने वाले पानी से पौराणिक शहर जोशीमठ के अस्तित्व को खतरा है। चमोली जनपद के छह गांव पहले ही जमींदोज हो चुके हैं। तीन दर्जन से अधिक गांव इन सुरंगों के कारण कभी भी धंस सकते हैं। बागेश्वर जनपद में कपकोट में सरयू पर बन रहे बांध की सुरंग से सुमगढ़ में मची भारी तबाही में 18 बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी का जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके आंखें बंद कर राज्य को बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। अब पूरे मामले को छोटे और बड़े बांधों के नाम पर उलझाया जा रहा है। असल में बांधों का सवाल बड़ा या छोटा नहीं है, बल्कि सबसे पहले इससे प्रभावित होने वाली जनता के हितों का है।

उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों से गंगा को अविरल बहने देने और आस्था के नाम पर प्रो. जी.डी. अग्रवाल अनशन पर हैं। सरकार ने उनकी जान बचाने की कीमत पर पहले लोहारी-नागपाला परियोजना को बंद किया अब अलकनंदा पर बन रही पीपलकोटी परियोजना पर रोक लगा दी है। इसमें दो राय नहीं कि इस तरह की सुरंग आधारित सभी परियोजनाओं को बंद किया जाना चाहिए, लेकिन इसमें जिस तरीके से गंगा को सिर्फ आस्था के नाम पर सिर्फ 135 किलोमीटर तक शुद्ध करने की बात है, वह अर्थहीन है। असल में धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली भाजपा और संतों से डरने वाली कांग्रेस के लिए जनता का कोई मूल्य नहीं है। गंगा मात्र आचमन करने के लिए नहीं है। जल विद्युत परियोजनाओं का मतलब है वहां के निवासियों को बेघर करना। आस्था का सवाल तो तब आता है जब वहां लोग बचेंगे। प्रो. जी.डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के हिंदू परिषद के एजेंट के रूप में काम करने का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रही जनता की इन सरकारों ने नहीं सुनी। लंबे समय तक टिहरी बांध विरोधी संघर्ष की आवाज को अगर समय रहते सुन लिया गया होता तो आज पहाड़ों को छेदने वाली इन विनाशकारी जलविद्युत परियोजनाओं की बात आगे नहीं बढ़ी होती। लोहारी-नागपाला ही नहीं, पहाड़ में बन रही तमाम छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनायें यहां के लोगों को नेस्तनाबूत करने वाली हैं।

इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश के विभिन्न हिस्सों में मुनाफाखोर विकास की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के कुछ अच्छे कदम उठाये। ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में खान एवं जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ व्यापक आंदोलन और जनगोलबंदी का परिणाम है कि अब ऐसी परियोजनाओं से पहले सरकारों को दस बार सोचना पड़ेगा। फिलहाल उत्तराखंड में बांध निर्माण कंपनियां और उनके एजेंट के रूप में काम कर रहे राजनीतिक लोगों ने जिस तरह बांधों के समर्थन का झंडा उठाया हुआ है, उसका भंडाफोड़ और उसे नाकाम करना जरूरी है।

अगले भाग  में  जारी

Photo :The Hindu

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