सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुस्लिम तीर्थयात्रियों को हज जाने के लिए दी जानेवाली सब्सिडी को लेकर मई के शुरू में जो फैसला आया, वह महत्त्वपूर्ण है पर वह उतना एक आयामी नहीं है जितना कि नजर आता है। तात्पर्य यह है कि इसे किसी एक धर्म पर लागू न कर के व्यापक रूप से देखा जाना चाहिए।
पर इस फैसले का आधार मूलत: धार्मिक या नैतिक है। इस में सवाल उठाया गया है कि हज जानेवालों को अगर यह पता चले कि उनकी यात्रा को सब्सिडी मिलती है तो वह इससे बेचैनी महसूस करेंगे।
प्रश्न है अगर कोई तीर्थयात्री इस तरह का नैतिक संकट नहीं महसूस करता तो क्या उसे हज पर सब्सिडी दे दी जानी चाहिए? या अगर किसी अन्य धर्म में अपने माननेवालों के लिए उस तरह के स्पष्ट निर्देश न हों जिस तरह के इस्लाम में मिलते हैं तो क्या उन धर्मों को किसी भी तरह का या हर तरह का सरकारी अनुदान पाने का हक है? या इसे उनके निजी विवेक पर छोड़ा जा सकता है? सच यह है कि तीर्थ यात्रा एक निजी काम है जिसका संबंध किन्हीं अमूर्त आदर्शों, विश्वासों और मान्यताओं से होता है। जबकि किसी भी धार्मिक मतावलंबी को सरकारी तौर पर मिलनेवाला अनुदान एक सार्वजनिक मसला है क्योंकि यह जनता के टैक्स से प्राप्त धन से दिया जाता है। यही कारण है कि इस पर निजी नैतिकता से ज्यादा सार्वजनिक मानदंड लागू होंगे और किए जाने चाहिए।
विशेष कर ऐसे समाज में जो अपने को आधुनिक कहता हो, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों को मानता हो, इसका एक संवैधानिक और सार्वजनिक पक्ष भी है जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आखिर कोई धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक सरकार किसी भी तरह की धार्मिक गतिविधि को बढ़ावा दे ही क्यों? विशेषकर भारत जैसे आस्थावान और संवेदनशील देश में जो सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से इतना विविध हो और जहां दुनिया के लगभग हर प्रमुख धर्म के माननेवाले रहते हों किसी भी धार्मिक गतिविधि को राज्य का संरक्षण और बढ़ावा देने के दूरगामी परिणामों से बचा नहीं जा सकता है। पिछले कुछ दशकों के अनुभव बतलाते हैं कि निहित स्वार्थी तत्व धार्मिक चेतना का इस्तेमाल मूलत: सत्ता को हथियाने और एक धर्म विशेष की श्रेष्ठता तथा प्रभुत्व को स्थापित करने में कर रहे हैं। इसने बड़े पैमाने पर समाज का ध्रुवीकरण किया है और उसमें तनाव तथा टकराव पैदा करने का काम किया है। इसलिए अगर, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में उल्लेख किया है कि संवैधानिक रूप से इस तरह के धार्मिक अनुदान जायज हैं, तो भी समय आ गया है कि उसे तत्काल बदला जाए।
पर यह मसला सिर्फ मुस्लिम आस्थावानों का ही नहीं है। संभवत: यह इसलिए बड़ा नजर आता है कि उनका तीर्थ इस देश के बाहर है और वहां जाना एक खर्चीला काम है। मुस्लिम इस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय हैं, इसके बावजूद हमारे देश में उनकी संख्या दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक देश से ज्यादा है। नतीजा यह है कि हर वर्ष देश से बड़ी संख्या में मुस्लिम तीर्थयात्री हज के लिए जाते नजर आते हैं। इसीलिए यह, विशेषकर अन्य मतावलंबियों को, आपत्तिजनक लगता है और इसका फायदा सांप्रदायिक ताकतें उठाती हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि अन्य धर्मवालों को उनकी धार्मिक गतिविधियों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष सब्सिडी नहीं मिलती हो पर देखने की बात यह है कि उस पर न तो राजनीतिक स्तर पर और न ही मीडिया के द्वारा किसी तरह की आपत्ति उठाई जाती है।
उदाहरण के तौर पर हम देश के बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय को ले सकते हैं।
अधिसंख्य और महत्त्वपूर्ण हिंदू तीर्थस्थान चूंकि देश में ही हैं इसलिए उनको यात्रा के लिए किसी तरह की कोई बड़ी मदद की जरूरत नहीं पड़ती पर राज्य और केंद्रीय सरकार भी उन के आने-जाने से लेकर ठहरने, स्वास्थ्य और सुरक्षा आदि पर जो खर्च करती है वह किसी मायने में सब्सिडी या अप्रत्यक्ष मदद से कम नहीं मानी जा सकती। इस संदर्भ में कुंभों और हर वर्ष होनेवाली अमरनाथ व देशभर, विशेष कर उत्तर भारत में, की कांवड़ यात्राओं के लिए की जानेवाली विशाल व्यवस्थाओं को लिया जा सकता है। आखिर क्यों न इन यात्राओं के लिए की जानेवाली यातायात व्यवस्था से लेकर, कानून तथा स्वास्थ्य व साफ-सफाई आदि की व्यवस्था का खर्च श्रद्धालुओं से लिया जाए? क्या इससे वही नैतिक सवाल नहीं जुड़ता है जो हज के लिए दी जाने वाली हवाई यात्रा सब्सिडी के लाभ से जुड़ा है? इसके अलावा धार्मिक स्थलों के निर्माण के लिए सस्ते दामों पर सार्वजनिक जमीन देना, ऐसे स्थानों के लिए यातायात की विशेष व्यवस्था के तहत सड़कें बनवाना, संचार के साधन मुहैया करना तथा उनका रख-रखाव कोई कम खर्चीला काम नहीं है। यही नहीं सरकार सभी धार्मिक ट्रस्टों को आयकर में छूट देती है और मंदिरों के चढ़ावों पर भी कोई टैक्स नहीं लगता। इसी का नतीजा है कि कई धार्मिक स्थल लगभग विशाल संस्थानों में बदल गए हैं। तिरुपति देवस्थानम, वैष्णोदेवी, बद्रीनाथ-केदारनाथ, शिरडी आदि इसके कुछ उदाहरण हैं।
सब्सिडी का एक और तरीका सांसदों और विधायकों द्वारा अपनी निधि से धार्मिक स्थलों को अनुदान देना भी है। यह प्रवृत्ति इधर तेजी से बढ़ रही है। संसद को इस पर रोक लगाने की दिशा में तत्काल कदम उठाना चाहिए।
देखने की बात यह है कि बहुसंख्यक समुदाय को दी जानेवाली यह सब्सिडी इतनी अप्रत्यक्ष भी नहीं है। हज यात्रा को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से एक पखवाड़े पहले ही मध्यप्रदेश सरकार ने घोषणा की थी कि वह प्रदेश के सभी वरिष्ठ नागरिकों के लिए मुफ्त में तीर्थयात्रा का प्रबंध करेगी। यह योजना मई से लागू भी हो गई है। सरकार ने यह व्यवस्था जिन 15 स्थलों के लिए की है वे सभी कमोबेश हिंदू धर्म से जुड़े हैं या उसके निकट हैं। कहने को इन में एक अजमेर शरीफ भी है जिसे किसी हद तक मुस्लिमों का कहा जा सकता है। पर यह तीर्थ सूफी समुदाय का होने के कारण सभी धर्मावलंबियों द्वारा पूजा जाता है। इस सूची में दो और ऐसे स्थान हैं जिनमें एक बौद्ध तथा दूसरा सिक्खों का है पर इन दोनों तीर्थों की हिंदुओं से निकटता छिपी नहीं है। गया में अगर बोध गया भी शामिल है तो भी वह एक बड़ा हिंदू तीर्थ ही है। मात्र एक स्थल ऐसा है जो गैर हिंदू है और वह है सम्मेद शिखर। जैन और हिंदू धर्म की निकटता भी किसी से छिपी नहीं है। साफ है कि यह प्रदेश की भाजपा सरकार के सांप्रदायिक एजेंडे का ही हिस्सा है पर आश्चर्य की बात यह है कि इस ओर न तो किसी का ध्यान गया है और न ही किसी ने आपत्ति की है।
तीर्थयात्रियों को अनुदान देने का यह सिलसिला सिर्फ मध्य प्रदेश तक सीमित नहीं है। अपने सांप्रदायिक झुकाव के लिए बदनाम नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली गुजरात की भाजपा सरकार ही एक तरह से इसकी प्रेरणा स्रोत है। वहां पहले से ही मानसरोवर की तीर्थयात्रा पर जानेवाले राज्य के हर तीर्थयात्री को 20 हजार रुपये का अनुदान दिया जाता है। यह अनुदान हर तीसरे वर्ष फिर से लिया जा सकता है।
अभी सर्वोच्च न्यायालय के 8 मई के फैसले की स्याही सूखी भी नहीं थी कि तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने अपने राज्य के तीर्थयात्रियों के लिए अनुदानों की घोषणा कर दी। इसके अनुसार हर वर्ष तमिलनाडु के मानसरोवर (तिब्बत) और मुक्तिनाथ (नेपाल) जानेवाले यात्रियों को कुल यात्रा का चालीस प्रतिशत राज्य सरकार के द्वारा अनुदान के रूप में दिया जाएगा। इस तरह मानसरोवर जानेवालों को 40 हजार और मुक्तिनाथ जानेवालों को 10 हजार रुपया दिया जाएगा। दोनों ही जगहों के लिए वर्ष में अधिकतम 250-250 यात्रियों को ही यह अनुदान मिल पायेगा। इसी तरह का अनुदान जयललिता सरकार ने येरुसलम जानेवाले ईसाई तीर्थ यात्रियों को देने की भी घोषणा की है।
धर्म के नाम पर दिए जानेवाले ये अनुदान किसी भी रूप में उचित नहीं हैं। न ही इनका जनता की भलाई से कोई संबंध है। ये शुद्ध धार्मिक कारणों से हों ऐसा भी नहीं है। यह किसी से छिपा नहीं है कि इनका सीधा संबंध वोट की संकीर्ण, स्वार्थी और अदूरदर्शी राजनीति से है जो देश की विभिन्न सरकारों के बीच धार्मिक अनुदानों की अवांछित होड़ पैदा कर रही है।
इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने हज जाने के लिए दी जानेवाली सब्सिडी को खत्म करने का जो फैसला और इस पैसे को जिस तरह से खर्च करने का जो सुझाव दिया है उसकी ओर केंद्र और राज्य सरकारों को तत्काल ध्यान देना चाहिए। न्यायालय ने कहा है , '' इस पैसे (अनुदान) को समुदाय के शिक्षा तथा अन्य सामाजिक मानकों को ऊंचा उठाने में प्रयोग किया जाना चाहिए''। यह किसी से छिपा नहीं है कि एक के बाद एक राज्य सरकारें सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य सामाजिक कल्याण के कार्यों पर किए जानेवाले खर्च को लगातार घटा रही हैं पर वोट बैंक की राजनीति के चलते धर्म के नाम पर जितना हो सकता है सार्वजनिक धन लुटा रही हैं।
क्या आशा की जा सकती है कि सरकारें सर्वोच्च न्यायालय के सुझावों की ओर अब भी ध्यान देने की कोशिश करेंगी?
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