Monday, June 11, 2012

Fwd: [New post] कार्टून विवाद : शिक्षा की राजनीति के खिलाफ



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Date: 2012/6/11
Subject: [New post] कार्टून विवाद : शिक्षा की राजनीति के खिलाफ
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कार्टून विवाद : शिक्षा की राजनीति के खिलाफ

by समयांतर डैस्क

लेखक : सुहास पालशिकर

cartoon-on-vartoon-by-satish-acharyaजब भी सार्वजनिक क्षेत्र में कोई भावनात्मक मुद्दा भड़कता है तब फैसला करने से तर्क करना कठिन और कम महत्त्व का हो जाता है। डॉ. बी. आर. अंबेडकर के कार्टून को 11वीं की पाठ्यपुस्तक में शामिल करने को लेकर हुए विवाद में यही हुआ। अंबेडकर के एक स्वयंभू वारिस और उनकी धरोहर के व्याख्याकार ने उनकी पैगंबर से तुलना कर यह सुनिश्चित किया कि यह बहस तर्क के दायरे में ही न आये। ऐसे लोगों ने डॉ. अंबेडकर की आलोचना की परंपरा को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है- याद करिये कि उन्होंने न केवल हिंदू धर्म की मान्यताओं या गांधी के विचारों की आलोचना कर उन्हें ध्वस्त कर दिया था बल्कि उन्होने बुद्ध को अपनाने से पहले बौद्ध धर्म की आलोचना और उसको नये सिरे से रचने का भी प्रयास किया। लेकिन अब इस विवाद का दायरा व्यापक हो गया है। जब देश की संसद लगभग एक स्वर में इस कार्टून के राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में शामिल किए जाने पर फटकार लगाती है तो ऐसी स्थिति में तर्क के लिए कोई गुंजाइश रह जाती है? इस तरह दोनों ही स्थितियों में तर्क शिकार होता है।

कहा जा सकता है कि इसकी जांच के लिए नियमानुसार एक समिति गठित की गई है और यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि जो मित्र इस समिति का हिस्सा हैं वे इस मुद्दे पर पूरे विवेक के साथ विमर्श नहीं करेंगे। लेकिन अब भी वह मूल मुद्दा बरकरार है: तमाम राजनीतिक दलों के सांसदों ने एकमत से इस कार्टून के शामिल किए जाने पर अपना असंतोष व्यक्त किया और अपने शैक्षणिक झुकाव को अभिव्यक्त करते हुए 'बालक मन को दूषित' करने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की है।

जब यह विवाद सामने आया तब शुरुआत में इस बात की चिंता जताई गई कि इस मुद्दे का अभिव्यक्ति की आजादी से भी कुछ लेना देना है। लेकिन कई नेताओं ने कहा कि वे उन कार्टूनों के खिलाफ नहीं हैं जो मीडिया में प्रकाशित होते हैं। इसने विवाद को अधिक केंद्रित कर दिया है। डॉ अंबेडकर की कथित अवमानना के अलावा पांच और मुद्दे सामने आए हैं और जिन पर बहस, चर्चा और अकादमिक एवं, मुख्य तौर पर, सार्वजनिक स्तर पर सुलझाना जरूरी हो गया है।

पहला मुद्दा 'आसानी से प्रभावित होने वाले मन' का है। इस चर्चा में भाग लेने वाले कुछ प्रतिभागियों ने बड़ी सदाशयता से विश्वास जताया है कि कार्टून शोधकर्ताओं एवं स्नातकोत्तर विधार्थियों के लिए तो ठीक है लेकिन बाल मन के लिए नहीं। यह ठीक उस सुझाव की तरह है जिसमें निर्धारित आयु से पहले सेक्स को अमान्य करने वाले कानून बनाने की मांग की गई थी। 'हम 18 वर्ष से कम आयु के हैं इसलिए पाठ्यपुस्तक में कार्टून नहीं देख सकते और सेक्स पर बात नहीं कर सकते!' इस तरह यह एक बड़ा मुद्दा बन जाता है जो अपनी युवा पीढ़ी के प्रति और सामुदायिक जीवन में हमारे ठेठ अधिकारवादी अभिभावकीय रवैये को दर्शाता है। सूचना और मीडिया के विस्फोट के इस दौर में मुद्दे आयु की सीमा को लांघ चुके हैं। और हमें ज्ञान व विचार के प्रसार पर रक्षात्मक रवैया अख्तियार करते हुए इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। लेकिन हमें यह पाठ्यपुस्तकों के जरिए ही क्यों करना चाहिए?

यहां हम दूसरे मुद्दे पर आते हैं: जैसा कि एक माननीय सांसद ने एक टीवी चर्चा के दौरान कहा: 'यह सरकारी किताब है'। राज्य की स्वायत्त संस्थाओं को सरकार से मिलाने का खतरा है। इस चीज से हमें बचना चाहिए। भारत में हमने एक पेचीदा ढांचा चुना है जहां औपचारिक तौर पर पाठ्यपुस्तकें सरकार के क्षेत्र में हैं लेकिन इस बात का बराबर ख्याल रखा जाता है कि स्वयं सरकार ये किताबें नहीं लिखेगी या यह तय नहीं करेगी कि इन पुस्तकों में क्या जाना चाहिए। सरकार का काम केवल इस बात को सुनिश्चित करना है कि तय प्रक्रिया पूरी हो- ऐसे संगठन का गठन जो इस काम के लिए उत्तरदायी हो। (इस संदर्भ में एनसीईआरटी) शीर्ष पर सही लोगों का चयन हो (निदेशक का चयन सरकार करती है) : और फिर बाकी उन लोगों और संस्थाओं पर छोड़ देती है। यह कहना कि किताबें सरकारी हैं उन लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है जिनके तहत संस्थाओं को स्वायत्त जिम्मेदारी सौपी जाती हैं और उसमें आंतरिक देखरेख की व्यवस्था है। यह किताब सरकारी है की मान्यता ऐन उसके विपरीत है जिसे राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना (एनसीएफ) मिटाने का प्रयास करती है। एनसीएफ की इस उपलब्धि पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। कहीं हम यह कहने का प्रयास तो नहीं कर रहे कि संस्थाएं तब तक स्वायत्त हैं जब तक वे वास्तव में स्वायत्त होने का प्रयास नहीं करतीं।

तीसरा मुद्दा जो सामने आया है वह है कार्टून की सामान्य भूमिका के संबंध में। यह सही है कि कार्टून चाहे पाठ्यपुस्तकों में प्रकाशित हों या समाचारपत्रों में—हमें हंसाते हैं, गुदगुदाते हैं और थोड़ा आनंदित करते हैं। लेकिन निश्चय ही कार्टूनों का यही एकमात्र लक्ष्य नहीं होता। यह एक गलत समझ होगी यदि हम कहें कि कार्टून मजाक उड़ाते हैं और इसलिए इनका उद्देश्य सस्ती आलोचना अर्थात मजाक उड़ाना होता है। इससे कहीं अधिक कार्टून एक कला का शक्तिशाली रूप है जिसका उद्देश्य मजाक उड़ाते हुए हमारे सामुदायिक जीवन के अंतरविरोधों को सामने लाना होता है। इस विवाद में इस कला माध्यम के इस आधारभूत मूल्य की अवहेलना की गई है।

वापस पाठ्यपुस्तक के मुद्दे पर आते हुए इस चौथे बिंदु पर चर्चा करना जरूरी है जो पाठ्यपुस्तक लेखन के शिक्षा शास्त्र से जुड़ा है। अब न इन विवादित पाठ्यपुस्तकों के लेखक और सलाहकार इस पर विशेषज्ञता का दावा नहीं करते। लेकिन उनके पास शिक्षा और अध्ययन के क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा उपलब्ध जानकारियां थीं। इसके अलावा यह बताना जरूरी है कि इन पाठ्यपुस्तकों को बनाने वालों के लिए एनएफसी और उसकी शिक्षा शास्त्रीय दृष्टि व निर्देश का काम किया है। पाठ्यपुस्तक का उद्देश्य जानकारी देना नहीं बल्कि छात्रों के अंदर उत्सुकता पैदा करने की आदत डालना रहा है। यह उनके कौतूहल को शांत नहीं करते बल्कि और अधिक कौतूहल पैदा करती हैं। ये पुस्तकें विचारों को 'शासकीय ज्ञान' के रूप में प्रस्तुत नहीं करतीं अपितु छात्रों में ज्ञान और समझदारी के रास्ते में स्वयं ही रोशनी बनने का काम करती हैं।

कार्टून शिक्षा शास्त्र की इस अवधारणा पर फिट बैठते हैं या नहीं इस पर चर्चा की जा सकती है और यह भी तर्क हो सकता है कि इस उद्देश्य को हासिल करने का यही एकमात्र साधन नहीं है। तो भी जानकारी की आयुसीमा पर तर्क और हर चीज का सरकारी पक्ष प्रस्तुत करना सिर्फ कार्टूनों को ही निकाल बाहर करने पर नहीं रुकने वाला है। सूखे के बारे में बताने पर भी आपत्ति की जा सकती है, घरेलू हिंसा और सांप्रदायिक हिंसा के चित्रों पर भी आपत्ति की जा सकती है। युद्ध में हुए विनाश को दिखाने वाले चित्रों पर भी आपत्ति हो सकती है। ये सब जाहिर तौर पर देखने वालों पर प्रभावशाली असर डालते हैं फिर चाहे वे युवा हों या न हों। सवाल यह है कि क्या हमें अपने बच्चों को ज्ञान और जानकारी के इन माध्यमों के लाभ से वंचित रखना है? पाठ्यपुस्तकों की वर्तमान एनसीएफ के बाद बाकी शृंखला की किताबें जरूरी माध्यम हैं अगर उद्देश्य सृजनात्मक सोच, कल्पना का विकास, सर्वोपरि खोज और आलोचना की भावना को बढ़ावा देना है।

अंत में, इस विवाद में जो एक ओर तर्क दिया जा रहा है वह यह लगता है : ये किताबें अलोकतांत्रिक हैं क्योंकि इनमें राजनीतिकों को गलत ढंग से पेश किया गया है। प्रसंगवश क्या यह अजीब और अलोकतांत्रिक नहीं है कि एक लोकतांत्रिक समाज में एक अलग 'राजनीतिक वर्ग' हो न कि एक क्रियाशील और सक्रिय नागरिक समाज? लेकिन हम इसे यहीं छोड़ देते हैं। राजनीति विज्ञान की औपचारिक संस्थाओं, कानून और प्रक्रिया की जानकारी जैसे 'राष्ट्रपति के क्या अधिकार हैं?' और 'राज्य सभा में कितने सदस्य होते हैं' के रूप में पढ़ाया जा सकता है और पढ़ाया भी जाता रहा है। जानकारी मूलक होने के अलावा यह पद्धति जागरुक नागरिक पैदा करने में कतई मददगार नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक (जिसे अब लगभग हटा दिया गया है) का उद्देश्य न केवल राजनीति विज्ञान को 'दिलचस्प' बनाना था बल्कि इसकी कोशिश थी कि राजनीति विज्ञान राजनीति के साथ गंभीरता से जुड़ सके। (और इसलिए ही इन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी है)

राजनीति का अर्थ संस्थाओं का निर्माण करना और उन्हें चलाना है; राजनीति का संबंध सत्ता और उस सत्ता को विभिन्न सामुदायिक कार्यों के लिए प्रयोग करना है; राजनीति लोकतंत्र का निश्कलंक राष्ट्रगान नहीं है बल्कि यह तीखा किंतु विभिन्न स्वरों का ज्यादा मीठा पेय भी नहीं है। यह राजनीति शासन पैदा करती है और कई मरतबा वह ऐसा कर पाने में विफल भी रहती है। राजनीति 'अच्छी' और 'बुरी' दोनों हैं—रोमांटिक फिल्मों के विपरीत इसमें आदमी और औरत होते हैं न कि पवित्र नायक और नायिकाएं, खलनायक और सह खलनायक। क्या यह राजनीति का लोकतांत्रिक और स्वस्थ चित्रण नहीं है?

यह कहने का अधिकार किसी को नहीं है कि राजनीति पढ़ाने की यह पद्धति ही एकमात्र सही पद्धति है या पाठ्यपुस्तकों में इस तरीके का सही ढंग से अनुसरण किया है। अब यह काम व्यापक अकादमिक समुदाय का है कि वह मुद्दे की भावनात्मक प्रकृति से आगे जाकर उन सवालों पर विचार करें जिन्हें इस विवाद ने जन्म दिया है। हालांकि जिस संदर्भ में जांच समिति का गठन हुआ है वह दुखद है, तो भी यह स्वागत योग्य स्थिति है कि जांच समिति के जरिए अकादमिक जगत के लोग शिक्षक और छात्र समुदाय इन विषयों पर बात कर सकेंगे।

(सुहास पालशिकर हाल तक एनसीईआरटी -राजनीति विज्ञान - के मुख्य सलाहकार थे। वह पुणे विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं।)

अनुवाद: विष्णु शर्मा; साभार : द हिंदू, Cartoon : Satish Acharya

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