सारंडा के जंगल में जयराम का कोहराम
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इन दिनों मीडिया में काफी सुखियां बटोर रहे हैं। झारखंड में तो ऐसा लगता है मानो वे राजनीति के नये अवतार हैं। राज्य के उन तमाम नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जहां राज्य गठन से लेकर अब तक यहां के नेता जाने की हिम्मत नहीं जुटाते हैं, वहां भी वे मोटरबाइक में बैठकर आराम से पहुंच जाते हैं। और जो लोग उनसे मिलना चाहते हैं, वे उनसे बेहिचक बातचीत करते हैं, उनकी समस्याओं को सुनते हैं और उन्हें समस्याओं से निजात दिलाने का वादा करने के बाद आगे बढ़ जाते हैं। यह अलग बात हैं कि उनसे बार-बार मिलने के बाद भी लोगों की समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती ही जाती हैं।
जयराम रमेश के पास आम जनता, नौकरशाह, जनप्रतिनिधि, बुद्धिजीवी  और मीडिया सभी को मोह लेने की गजब की कला है और वे इसे बखूबी अंजाम दे कर  चाटुकारिता शासन व्यवस्था का एक चमकता चेहरा बना गये हैं। झारखंड में  अक्टूबर 2011 से उनका एक ड्रीम प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसका नाम उन्होंने  'सारंडा एक्शन प्लान' दिया था। सारंडा जंगल लौह-अयस्क, आदिवासी और  माओवादियों का गढ़ माना जाता है, इसलिए वहां के लोगों को 'एक्शन' शब्द से  कुछ और ही बू आ रही थी, इसलिए उन्होंने इसका विरोध शुरू किया था। खैर जो भी  हो झारखंड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने ड्रीम  प्रोजेक्ट का नाम सारंडा डेवलपमेंट प्लान (एसडीपी) रखा, जिसको हम सारंडा  विकास योजना कह सकते हैं। यह परियोजना झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले  स्थित सारंडा वन क्षेत्र की 6 पंचायतों के 56 गांवों के विकास के लिए तैयार  किया गया है, जिसमें 248.48 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है। इस योजना  को विश्व बैंक के तीन अधिकारी, केंद्र सरकार के छह नौकरशाह और राज्य सरकार  के दो नौकरशाहों ने अपने मनमुताबिक तैयार किया है।
सारंडा क्षेत्र  संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है, जहां पेसा कानून, छोटानागपुर  काश्तकारी अधिनियम एवं विल्किंशन रूल्स लागू हैं। इसका मतलब यह हुआ कि इस  क्षेत्र की विकास योजनाओं को तैयार करने, लागू करने एवं देखरेख में  आदिवासियों के पारंपरिक प्रतिनिधि, जनप्रतिनिधि एवं आदिवासी सलाहकार परिषद  की भूमिका अहम होनी चाहिए। लेकिन आजादी से लेकर अब तक पहली बार आदिवासियों  के लिए तैयार योजना में भी उनकी कोई भूमिका नहीं है। उन्हें सिर्फ लाभूक  बनाकर छोड़ दिया गया है। ऐसा लगता है कि सरकार की दृष्टि में आदिवासी लोग  सिर्फ भिखमंगे हैं। इस योजना को देखने के बाद ही मैंने जयराम रमेश से कहा  था कि उनकी योजना तब तक कारगार नहीं होगी, जब तक वे आदिवासियों को इसमें  शामिल नहीं करेंगे। सारंडा विकास योजना को लागू हुए नौ महीने बीत चुके हैं  और इतने दिनों में तो एक बच्चा दुनिया में कदम रख लेता है लेकिन जयराम रमेश  के ड्रीम प्रोजेक्ट की स्थिति देखकर ऐसा लगता है कि इस योजना की भ्रूण  हत्या करवायी जा रही है।
सारंडा के आदिवासियों के बीच वितरित की  जाने वाली सात हजार साइकिलें पिछले छह महीने से मनोहरपुर प्रखंड कार्यालय  परिसर में पड़ी हुई हैं। अब तक सिर्फ 22 आदिवासियों को ही साइकिल मिल सकी  है। पश्चिम सिंहभूम के उपायुक्त के श्रीनिवासन के अनुसार साइकिल बांटने के  लिए उनके पास संसाधन की कमी है। हकीकत यह है कि आदिवासियों को मनोहरपुर  प्रखंड कार्यालय में बुलाने से वे स्वयं ही आकर साइकिल ले जाएंगे, लेकिन  यह समझ में नहीं आता है कि के श्रीनिवासन को साइकिल वितरण करने के लिए किस  तरह का संसाधन चाहिए। सारंडा में इंदिरा आवास योजना के तहत 3500 आवास बनाना  है, जिसके लिए 2500 आदिवासी परिवारों को पहला किस्त दिया गया लेकिन आवास  की दीवार खड़ी हो जाने के बाद उनकी दूसरी किस्त कागजी कारण बताकर रोक दी  गयी। फलस्वरूप कई घर इस बरसात की पहली बारिश में ही गिर गये। अब तक सिर्फ  260 कच्चे मकान ही बन पाये हैं, जो इंदिरा आवास योजना के मापदंड के  बिल्कुल खिलाफ हैं। इंदिरा आवास योजना के तहत पक्का मकान बनाया जाना चाहिए।  सवाल यह है कि इंदिरा गांधी के नाम पर गरीब आदिवासियों के लिए बनाये जा  रहे आवास में क्या इंदिरा गांधी एक रात भी गुजारा करती?
योजना के  तहत सारंडा के आदिवासियों को पांच हजार सोलर लैंप देना है, जिसका वितरण  जारी है लेकिन स्थिति यह है कि सोलर लैंप खराब निकलने के कारण ये सिर्फ  आदिवासियों के घरों का शोभा बढ़ा रहे हैं। वहीं 60 करोड़ की लागत से 10  समुचित विकास केंद्र बनाना था। जयराम रमेश ने स्वयं ही 30 जनवरी 2012 को  दीघा गांव में एक समुचित विकास केंद्र का पथलगाड़ी किया था लेकिन हद यह है  कि इन केंद्रों के लिए नींव तक नहीं खोदी गयी है। इसी तरह 36 करोड़ की लागत  से 6 वाटरशेड बनाना है, लेकिन यह कार्य भी प्रारंभ ही नहीं हो पाया है,  लेकिन ईएपी योजना के तहत बनाये जा रहे दो चेक डैम का उद्घाटन कर जयराम रमेश  ने अपने नाम पर ताली बजवा ली। इसी तरह 200 चापाकल 1.2 करोड़ रुपये की लागत  से बनने थे, जिसमें कुछ चापाकल का निर्माण किया गया, लेकिन कुछ में पानी  तक नहीं निकला। इसी तरह दो करोड़ की लागत से 10 पाइप पेयजल का निर्माण करना  था, जो अब तक नहीं हुआ। सारंडा के आदिवासी बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार  सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 25 करोड़ रुपये की लागत से पांच आवासीय  विद्यालय का निर्माण करना था, लेकिन अब तक उसका नींव भी नहीं खोदी गयी है।
इसी  तरह सारंडा जंगल के अंदर सरकार द्वारा पहली बार 104 करोड़ रुपये की लागत  से 130 किलोमीटर सड़क निर्माण करना था, जिसमें प्रति किलोमीटर 80 लाख रुपये  खर्च करने हैं। इसमें सबसे पहली बात तो यह है कि साइकिल चलाने के लिए इतनी  खर्चीली सड़क बनायी ही क्यों जा रही है? दूसरी बात यह है कि सड़क निर्माण  कार्य उसी क्षेत्र में प्रारंभ किया गया है, जिस क्षेत्र में माइनिंग कंपनी  टाटा स्टील, जिंदल स्टील, रूंगटा, एलेक्ट्रो स्टील, मित्तल स्टील को लौह  अयस्क उत्खनन के लिए लीज दिया गया है, लेकिन माओवादियों का गढ़ माने जाने  वाले थोलकोबाद, बालीबा, तिरिलपोषी जैसे गांवों तक सड़क का कोई नामोनिशान  नहीं है, इसका क्या मतलब है? इसी तरह 50 लाख रुपये की लागत से 5 मिनी बस  चलानी थी, लेकिन सड़क के अभाव में यह काम शुरू ही नहीं हुआ है। आदिवासी  बच्चों के मनोरंजन के लिए 56 गांवों में 28 लाख रुपये की लागत से खेल मैदान  का निर्माण करना है, लेकिन यह कार्य भी नहीं हो सका है।
इसके अलावा  योजना में बीपीएल का सर्वे करना, वन अधिकार कानून के तहत आदिवासियों को  वनभूमि का पट्टा देना एवं 75 स्थानीय लोगों को पांच हजार रुपये प्रतिमाह  मानदेय पर योजना को लागू करने हेतु रोजगार सेवक के रूप में काम पर लगाना,  जिसमें 56 लोगों को लगाया गया, लेकिन बीपीएल का सर्वे अभी तक प्रारंभ ही  नहीं हुआ और आदिवासियों को वन अधिकार कानून के तहत अधिकार देने में  पूर्णरूप से कोताही बरती जा रही है। पिछले वर्ष ऑपरेशन अनाकोंडा के समय  थोलकोबाद, बिटकिलसोय एवं तिरिलपोषी गांवों में अर्द्धसैनिक बलों ने  आदिवासियों के सरकारी कागजात और जमीन का पट्टा चला दिया था, जिससे स्पष्ट  है कि माइनिंग कंपनियों को जमीन और जंगल मुहैया कराने के लिए ही  आदिवासियों के साथ शासनतंत्र लगातार अन्याय कर रहा है।
इतना ही  नहीं, जयराम रमेश ने झारखंड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट से भी कई वादा किया था,  जिसमें सारंडा विजिलेंस कमेटी का गठन, वन अधिकार कानून के तहत आदिवासियों  को पट्टा देना एवं सारंडा जंगल में निजी माइनिंग कंपनियों को खनन पट्टा  नहीं देना शामिल था। लेकिन उन्होंने इस कार्य को अब तक नहीं किया। इसमें  सबसे अहम मसला यह है कि सारंडा जंगल के अंदर सरकार को पुलिस और अर्द्धसैनिक  बलों का कैंप बनाने में कोई समस्या नहीं आयी। 17 में से 8 सीआरपीएफ कैंप  ऐसे क्षेत्र में बना लिये गये हैं, जहां पिछले छह दशक से एक भी सरकारी  अधिकारी नहीं गये हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर आदिवासियों के लिए एक इंदिरा  आवास बनाना भी सरकार को भारी पड़ रहा है। क्यों? सारंडा विकास योजना अधर  में लटक गया है। साथ ही साथ माइनिंग कंपनियों की जनसुनवाई और सर्वे इत्यादि  का काम जोरों से चल रहा है, जिससे स्पष्ट है कि सारंडा के आदिवासियों को  विकास का झुनझुना दिखा कर सारंडा में माइनिंग कंपनियों के लिए रोडमैप  बनाया जा रहा है।
दो जुलाई 2012 को जयराम रमेश ने झारखंड ह्यूमन  राइट्स मूवमेंट के प्रतिनिधियों के साथ हुई तीसरी मुलाकात में कहा कि वे  अगले दो महीने के अंदर विकास योजना को पूरा करेंगे और ऐसा नहीं करने पर  उनका पुतला दहन किया जाए। जब उनसे यह पूछा गया कि वे बार-बार यह कहते हैं  कि सारंडा में निजी कंपनियों को माइनिंग लीज नहीं दी जाएगी, लेकिन कई निजी  कंपनी अपना काम शुरू कर चुके हैं, तो इस पर उन्होंने यह कह कर बचने की  कोशिश की कि वे सारंडा में निजी कंपनियों को माइनिंग लीज नहीं देना चाहते  हैं लेकिन दूसरे मंत्रियों का विचार ऐसा नहीं हैं इसलिए निजी कंपनियां  सारंडा में घुस रही हैं। लेकिन अगर निजी कंपनी माइनिंग करेंगे तो वे सारंडा  विकास योजना को वापस ले लेंगे। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सारंडा  विकास योजना असफल है और वे इसके जिम्मेवार हैं। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों  को अनदेखा करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार दोनों को जिम्मेवार ठहराया।  ये सारे तथ्य चाटुकारिता शासन व्यवस्था की रणनीति का हिस्सा हैं। निश्चित  तौर पर जयराम रमेश चाटुकारिता शासन व्यवस्था का एक बड़ा चेहरा हैं, जो  झारखंडी मीडिया को भी अपने पक्ष में खड़ा करने में सफल हैं। वे सारंडा  विकास योजना की प्रगति से खुश नहीं है और इसे असफल मान रहे हैं लेकिन  झारखंडी मीडिया उनकी सफलता की कहानी गढ़ने में व्यस्त है और उन्हें आज का  मसीहा बनाने में लगा है। अंत में सब कुछ खाएगा तो आदिवासी ही, दूसरों को  इससे क्या फर्क पड़ता है।
   	

              	
 		 		
 		 		
                  
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