Wednesday, June 26, 2013

***ये केदारनाथ की आपबीती....आँखों देखि....***

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By Himanshu Bisht
***ये केदारनाथ की आपबीती....आँखों देखि....***

रविवार 16 जून को मैं केदारनाथ मंदिर में ही था। शाम से पानी बरसना शुरू हो गया था। रात आठ बजे मंदाकिनी का पानी तेजी से बढ़ा तो लोगों ने मंदिर की ओर भागना शुरू किया। मेरा अनुमान है कि सभामंडप में उस रात एक हजार से ज्यादा लोग जमा गए थे। पानी के वेग और बादलों की गरज कानों तक पहुंच रही थी।

बीच में शिव की भी स्तुति गूंजी। कोई दीवार पर बने आलों में बैठा था तो किसी ने देव प्रतिमाओं का सहारा ले रखा था। सुबह करीब साढ़े छह बजे तक पानी का वेग कुछ कम हुआ। उस वक्त हर चेहरे पर रात के सही सलामत गुजरने का सकून था।

उन्होंने बताया कि सोमवार की सुबह ठीक सवा सात बजे शिव का रौद्र रूप सामने आया। मंदाकिनी के स्रोत पर धमाके के साथ करीब ढाई सौ मीटर काला बादल उठा। धूल, गर्द और धुआं भरे इस बादल का आकार शिव की जटाओं जैसा था। तेज हवा ने कई मकानों को ताश के पत्तों की तरह उड़ा दिया।

अगले ही पल पाया कि हम सभी मलबे में बुरी तरह घिर थे। शायद पानी की किसी लहर से मुझे उठाकर मंदिर के अंदर पटक दिया। मलबा तेब वेग से गर्भगृह तक गया, वापस लौटा और पश्चिमी दरवाजे को तोड़कर शहर की ओर बढ़ गया। 

मैने दो-तीन बच्चों को मलबे में समाते देखा। शायद मन में कुछ कौंधा हो पर शरीर जैसे जड़ हो चुका था, मन में कोई कराह तक नहीं बची थी।

इस बीच मूसलाधार बरसात शुरू हो गई। जो जहां था, वहीं पर जड़ होकर रह गया। शाम करीब चार बजे पानी का वेग कुछ कम हुआ, मलबे में बहने से बचे लोग बाहर निकलने लगे। कोई भी किसी की मदद करने स्थिति में नहीं था।

मैं मंदिर के अंदर कमर तक मलबे में दबा था। किसी तरह बाहर निकला तो मुंह से कराह भी नहीं निकल पाई। बाहर चारों ओर तबाही का ही नजारा था।

कुछ और लोग एकत्र हुए तो हमने केदारनाथ से निकलने की कोशिश शुरू की। मंदाकिनी में रस्सा डालकर पार करने की कोशिश कामयाब नहीं हुई। भैरवमंदिर की ओर बीएसएनल टावर के पास गए, टावर की जड़ से इतना पानी निकल रहा था कि पार करना असंभव था। हम करीब 1100 लोग थे।

भूख-प्यास से बेहाल और बुरी तरह से टूटे बदन के साथ ही अपनों को खो देने पीड़ा के बाच रात गुजारने की चुनौती सामने थी। हम मंदिर की ओर लौटे और सोमवार 17 जून की रात वहीं गुजारी। 18 जून मंगलवार सुबह पानी का वेग कम हुआ तो हमने गरुड़ चट्टी की राह पकड़ी।

एक हेलीकॉप्टर दिखाई दिया। लेकिन यह न तो उतरा और न ही खाने का कोई सामन फेंका। जिंदगी की जद्दोजहद के बीच किसी तरह से दोपहर बाद तक गरुड़चट्टी पहुंचे।

18 की शाम एक हेलीकाप्टर से मैं वहां से निकल पाया। इस समय मैं घर में हूं। आप लोग इसे आपदा कह सकते हैं पर मेरे लिए यह एक बार मरकर फिर जिंदा होने जैसा है। जो नहीं बच पाए, मैं उनकी आत्मा की शांति के लिए कामना करता हूं। हां, एक बात और। केदारनाथ मंदिर सुरक्षित है। सिर्फ पूर्वी दरवाजे के एक-दो पत्थर गिरे हैं और वहीं पड़े हैं, बहे नहीं।

यह शब्द नरेश कुकरेती, वेदपाठी, केदारनाथ मंदिर के हैं, जो उस भयंकर आपदा के समय केदारनाथ में मौजूद थे।

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