Sunday, May 11, 2014

वैदिकी कर्मकांड की यजमानी से पहले सोच लें कि कल्कि अवतार के राज्याभिषेक के बाद हिंदुओं के बेड़ा गर्क करने की क्या तैयारी है

वैदिकी कर्मकांड की यजमानी  से पहले सोच लें कि कल्कि अवतार के राज्याभिषेक के बाद हिंदुओं के बेड़ा गर्क करने की क्या तैयारी है

पलाश विश्वास

Bureaucrats outline contours of new govt's to-do list

Bureaucrats outline contours of new govt's to-do list

The first 100 days of any government is the honeymoon period. The new government must take the most unpopular decisions in the first 100 days.

Govt should be tough, ruthless & brutal in first 100 days: Amitabh Kant


Amitabh Kant, secretary, department of industrial policy & promotion, government of India


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Revive animal spirits of bureaucracy first: Aman Kumar Singh


Aman Kumar Singh, principal secretary, government of Chhattisgarh


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कल्कि अवतार के राज्याभिषेक पर धर्मनिरपेक्ष बनाम धर्मोन्मादी बहस में इस खतरे को सिरे से नजरअंदाज कर दिया जा रहा है कि कैसे छह हजार जातियों और रंग बिरंगी अस्मिताओं में बंटे हिंदुओं का बेड़ा गर्क करने की तैयारी कर रहा है केसरिया कारपोरेट राज हिंदू राष्ट्र का तिलिस्म खड़ा करके।नरेंद्र मोदी दावा कर चुके हैं कि राजीव गांधी की सरकार के बाद इस बार सबसे मजबूत सरकार बनेगी, लेकिन सट्टेबाज इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। उनका मानना है कि बीजेपी को साफ बहुमत नहीं मिलेगा। ऐसे में जब मोदी पीएम पद के लिए पूरे देश के पसंदीदा बने हुए हैं, सट्टेबाज नहीं मानते हैं कि बीजेपी को 272 सीटें मिल पाएंगी।सट्टेबाजों का कहना है कि बीजेपी को ऐसी सरकार बनाने का मौका नहीं मिलेगा, जिसमें सहयोगियों का कम हस्तक्षेप हो। मालूम हो कि आखिरी बार 1984 में राजीव गांधी के वक्त कांग्रेस को पूरी मेजॉरिटी मिली थी। भारत में सट्टा बाजार में काम करने वाले लोगों के अनुसार बीजेपी ज्यादा से ज्यादा 244 सीटें हासिल कर पाएगी। इस नंबर की बदौलत पार्टी एनडीए के सहयोगियों के साथ आराम से सरकार बना लेगी। मार्केट में बाजी लगाने वाले ज्यादातर लोग बीजेपी पर 242 से 244 सीटों पर दांव खेल रहे हैं।


नई सरकार का एजंडा को समझने के लिए इस बेदखली भूगोल को भी समझें तभी मोदी के मुसलिम विरोधी जिहाद का असली तात्पर्य समझा जा सकता है।अपने दूसरे कार्यकाल में यूपीए सरकार भ्रष्टाचार, नीतिगत सुस्ती, पर्यावरण मंजूरी में देरी और आर्थिक मोर्चे पर नाकामी को लेकर विपक्ष के निशाने पर रही है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र की योजनाओं को झेलना पड़ा है। तमाम दावों के बावजूद ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेसवे, दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे और दिल्ली को एनसीआर से जोड़ने वाले रैपिड रेल कॉरिडोर का मामला आगे नहीं बढ़ पाया। यूपी समेत देश के कई राज्यों में छोटे एयरपोर्ट बनने का भाग्य भी अब नई सरकार ही तय करेगी।


औद्योगिक संगठन एसोचैम के अध्यक्ष राणा कपूर का कहना है कि केंद्र की सत्ता में आने वाली नई सरकार को 5 साल के लिए एक्शन प्लान बनाना होगा। तभी देश को ऊंची विकास दर के रास्ते पर ले जाया जा सकता है। नई सरकार का पहला बजट इस दिशा में पहला अहम कदम साबित हो सकता है। निवेशकों के भरोसे और अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए कुछ साहसिक फैसले लेने की जरूरत है।


प्रमुख अटकी परियोजनाएं

- दिल्ली-जयपुर एक्सप्रेसवे

- दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे

- ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेसवे

- तीन रैपिड रेल कॉरिडोर

- डीबीटी का विस्तार

- देश भर में 50 छोटे एयरपोर्ट

- दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरिडोर


यह बेदखली का भूगोल है। इस बेदखली के लिए सांप्रदायिक ध्रूवीकरण का ब्रह्मास्त्र चला चुके हैं कल्कि अवतार।


जनादेश के फैसले से पहले आरएसएस की सरकार की कवायदमध्ये रिलायंस आदेश जारी हो गया कल्कि अवतार के लिए।प्राकृतिक गैस की नई दर लागू होने में विलंब होने के संकेतों के बीच रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कहा है कि अगर ऐसा हुआ तो केजी डी-6 ब्लॉक परियोजना के दूसरे सबसे बड़े गैस फील्ड में 4 अरब डॉलर का निवेश रुक जाएगा। पेट्रोलियम मंत्रालय ने संकेत दिया है कि देश में निकलने वाली गैस के दाम बढ़ाने के निर्णय को लागू करने में एक तिमाही की देरी हो सकती है। रिलायंस इंडस्ट्रीज और उसकी भागीदार ब्रिटेन की बीपी पीएलसी ने नए निवेश की योजना पर काम शुरू कर दिया है, पर इन कंपनियों का कहना है कि भविष्य में गैस के दाम क्या होंगे इसको लेकर स्थिति साफ नहीं है।


लोकसभा चुनावों के परिणाम का दिन नजदीक आते ही बाजार की सासें थमने लगी हैं। बाजार विश्लेषकों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत की उम्मीद में बाजार काफी चढ़ चुका है और चुनाव परिणाम अनुकूल न रहने पर गिरावट का जोखिम बढ़ सकता है। ऐसे में निवेशकों की नजरें अब चुनाव बाद सर्वेक्षण पर टिकी गई हैं। सोमवार को अंतिम दौर का चुनाव खत्म होते ही सर्वेक्षण का दौर शुरू हो जाएगा और निवेशक उसी आधार पर अपना रुख तय करेंगे। सिस्टमैटिक्स शेयर्स ऐंड स्टॉक्स के उपाध्यक्ष (अनुसंधान) अरुण गोपालन ने कहा, 'पहले उम्मीद की जा रही थी कि 16 मई एक महत्त्वपूर्ण दिन होगा लेकिन लगता है कि निवेशक अब चुनाव बाद सर्वेक्षण पर ध्यान केंद्रित करने लगे हैं। सर्वेक्षण बाजार में उछाल का बड़ा कारण होगा जैसा हमने शुक्रवार को देखा है।'


इसीके मध्य मदर डेयरी ने खरीद लागत बढ़ने की वजह से दिल्ली.एनसीआर में दूध के दाम 2 रपये प्रति लीटर बढ़ा दिए हैं. मूल्यवृद्धि कल से लागू होगी।मदर डेयरी दिल्ली-एनसीआर में दूध की सबसे बड़ी आपूर्तिकर्ता है और वह प्रतिदिन करीब 30 लाख लीटर दूध की बिक्री करती है। दो दिन पहले अमूल ने भी दूध के दाम में इतनी ही बढ़ोतरी की थी। कंपनी ने एक बयान जारी कर कहा, 'मदर डेयरी 12 मई, 2014 से दिल्ली-एनसीआर में सभी किस्म के दूध के दाम बढ़ा रही है।' इस मूल्यवृद्धि के बाद सोमवार से फुल क्रीम दूध का दाम 48 रुपये प्रति लीटर हो जाएगा जो अभी 46 रुपये प्रति लीटर है।


महंगाई और मुद्रास्फीति से राहत का हाथेगरम उदाहरण यह पेश है।करंट का झटका अलग से लगने को है सर्वकत्र कमोबेश।


मुसलमानों का अल्लाह एक है।उपासना स्थल एक है।उपासना विधि एक है। अस्मिता उनका इस्लाम है।जनसंख्या के लिहाज से वे बड़ी राजनीतिक ताकत है।


रणहुंकार चाहे जितना भयंकर लगे,देश को चाहे दंगों की आग में मुर्ग मसल्लम बना दिया जाये,गुजरात नरसंहार और सिखों के नरसंहार की ऐतिहासिकघटनाओं के बाद अल्पसंख्यकों ने जबर्दस्त प्रतिरोध खड़ा करने में कामयाबी पायी है।


जिस नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहुसंख्यकों ने भारत विभाजन के बलि करोड़ों हिंदू शरणार्थियों के देश निकाले के फतवे का आज तक विरोध नही किया, मोदी के मुसलमानों के खिलाफ युद्धघोषणा के बाद उस पर चर्चा केंद्रित हो गयी है।


अब हकीकत यह है कि कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों की पूंजी जिन आदिवासी इलाकों में हैं,वहां आदिवासियो के साथ हिंदू शरणार्थियों को बसाया गया।इन योजनाओं को चालू करने के लिए हिंदुओं को ही देश निकाला दिया जाना है,जैसा ओडीशा में टाटा,पास्को ,वेदांत साम्राज्य के लिए होता रहा है।समझ लीजिये कि शेयर बाजार शुक्रवार सुबह जब खुला तो उनींदा-सा ही था। और दिनों की तरह। पर दोपहर होते-होते सरपट भागने लगा। बाजार में खबर दौड़ी कि आठ दौर की वोटिंग के एग्जिट पोल के नतीजे लीक हो गए हैं। भाजपा बहुमत हासिल कर रही है। सेंसेक्स 704.45 अंक तक चढ़ गया। 23 हजार के पार। फिर 22,994.23 पर बंद हो गया। यह सेंसेक्स का अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। इसके साथ ही 19 सितंबर 2013 के बाद यह एक दिन की सबसे बड़ी बढ़त भी है। निफ्टी भी 6,858.80 पर पहुंच गया। ऑल टाइम हाई। बाजार विशेषज्ञों ने कहा कि घरेलू और दुनियाभर में आर्थिक मोर्चे पर खास बदलाव नहीं आया है।


और यह खुशखबरी! सोना अभी और होगा सस्ता, 25500 रुपये प्रति 10 ग्राम तक घटेंगे दाम मुंबई : सोने की कीमतें चालू वित्त वर्ष 2014-15 में घटकर 25,500 से 27,500 रुपये प्रति 10 ग्राम पर आ जाएंगी। इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च ने कहा कि वैश्विक कीमतों के अनुरुप देश में भी सोना सस्ता होगा। रेटिंग एजेंसी ने कहा कि घरेलू स्तर पर सोने की कीमतों में कमी वैश्विक रख के अनुरुप आएगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोना घटकर 1,150 से 1,250 डालर प्रति औंस पर आ जाएगा, जो फिलहार 1,300 डालर प्रति औंस है। इस समय घरेलू बाजारों में सोना 29,500 से 30,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के दायरे में चल रहा है।


आदिवासी  इलाकों में मुसलामानों की कोई खास आबादी है नहीं।जाहिर है कि इस कानून के निशाने पर हिंदू शरणार्थी और आदिवासी दोनों हैं।


कल्कि अवतार और उनके संघी समर्थक हिंदुओं को मौजूदा कानून के तहत असंभव नागरिकता दिलाने का वादा तो कर रहे हैं लेकिन नागरिकता वंचित ज्यादातर आदिवासी नागरिकों की नागरिकता और हक हकूक के बारे में कुछ भी नहीं कह रहे हैं।जबकि आदिवासी बहुल राज्यों मध्य प्रदेश,झारखंड,छत्तीसगढ़,गुजरात और राजस्थान में सेलरिया हुकूमत है जहां बेरोकटोक सलवा जुड़ुम संस्कृति का वर्चस्व है।


खुद मोदी गर्व से कहते हैं कि देश की चालीस फीसदी आदिवासी जनसंख्या की सेवा तो केसरिया सरकारें कर रही हैं।



अब विदेशी पूंजी के अबाध प्रवाह, रक्षा,शिक्षा, स्वास्थ्य, उर्जा, परमाणु उर्जा, मीडिया, रेल मेट्रो रेल,बैंकिंग,जीवन बीमा,विमानन, खुदरा कारोबार समेत सभी सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश,अंधाधुंध विनिवेश और निजीकरण के शिकार तो धर्म जाति समुदाय अस्मिता और क्षेत्र के आर पार होंगे।


खेत और गांव तबाह होंगे तो न हिंदू बचेंगे ,न मुसलमान, न सवर्णों की खैर है और न वंचित सर्वस्वहारा बहुसंख्य बहुजनों की।


इस सफाये एजंडे को अमला जामा पहवनाने के लिए संवैधानिक रक्षा कवच तोड़ने के लिए नागरिकता और पहचान दोनों कारपोरेट औजार है।


अब खनिजसमृद्ध इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूटखसोट की तमाम परियोजनाओं को हरीझंडी देना कारपोरेट केसरिया राज की सर्वोच्च प्राथमिकता है और इसके लिए सरकार को ब्रूट,रूथलैस बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार है । इसके साथ ही पुलिस प्रशासन और सैन्य राष्ट्र की पाशविक शक्ति का आवाहन है।


अब मसला है कि हिंदुओं और मुसलमानों,आदिवासियों, तमाम जातिबद्ध क्षेत्रीय नस्ली अस्मिताओं कोअलग अलग बांटकर वोटबैंक समीकरण वास्ते कारपोरेट हाथों को मजबूत करके अग्रगामी पढ़े लिखे नेतृत्वकारी मलाईदार तबका आखिर किस प्रतिरोध की बात कर रहे हैं, विचारधाराों की बारीकी से अनजान हम जैसे आम भारतवासियों के लिए यह सबसे बड़ी अनसुलझी पहेली है।


यह पहेली अनसुलझी है।लेकिन समझ में आनी चाहिए कि इस देश के शरणार्थी हो या बस्तीवाले,आदिवासी हों या सिख या मुसलमान, वे अपनी अपनी पहचान और अस्मिता में बंटकर बाकी देश की जनता के साथ एकदम अलगाव के मध्य रहेंगे और सत्तावर्ग प्रायोजित पारस्पारिक अंतहीन घृणा और हिंसा में सराबोर रहेंगे,तो वध स्थल पर अलग अलग पहचान,अलग अलग जाति, वर्ग ,समुदाय,नस्ल,भाषा,संस्कृति के लोगों की बेदखली और उनके कत्लेआम का आपरेशन दूसरे तमाम लोगों की सहमति से बेहद आसानी से संपन्न होगी।


जो पिछले सात दशक के वर्णवर्चस्वी राजकाज का सारसंक्षेप है।फर्क सिर्फ मुक्तबाजार में इस तंत्र यंत्र मंत्र और तिलिस्म के ग्लोबीकरण और सूचना निषेध का है।कुलमिलाकर जिसे सूचना और तकनीकी क्रांति कहा जाता है और जिसका कुल जमा मकसद गैर जरुरी जनता और जनसंख्या का सफाया हेतु आधार कारपोरेट प्रकल्प है।


इसलिए धर्म और जाति और नस्ल के नाम पर घृणा और हिंसा का यह कारोबार सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का मामला ही नहीं है,यह सीधे तौर पर आर्थिक नरसंहार का मामला है।


साफ तौर पर समझा जाना चाहिए के आदिवासी  वन इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के समांतर गैरआदिवासी शहरी और देहात इलाकों में सबसे ज्यादा वार अल्पसंख्यक, दलित,पिछड़ा और वंचित सर्वस्वहारा समुदाय ही होगें जो भूमि सुधार कार्यक्रम की अनुपस्थिति में उतने ही असहाय हैं जितने कि आदिवासी और हिंदू बंगाली शरणार्थी।


अब चूंकि देशज अर्थव्यवस्था और संस्कृति दोनों का कत्ल हो चुका है और उत्पादन प्रणाली ध्वस्त हो जाने से उत्पादन संबंधों के जरिये संगठित और असंगठित क्षेत्रों में तमाम अस्मिताओं की गोलबंदी मुश्किल है,जाति धर्म अस्मिता के खांचे मजबूत करने के केसरिया अश्वमेध का तात्पर्य भी समझना बेहद जरुरी है।


हम उन्हींकी भाषा में अलगाव की चिनगारियां सुलगाकर कहीं प्रतिरोध की रही सही संभावनाएं खारिज तो नहीं कर रहे।


भले ही मुसलमानों,सिखों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों,क्षेत्रीय भाषायी नस्ली राष्ट्रीयता की राजनीतिक ताकत बेहद शख्तिशाली हो,केवल इस आधार पर  हम धर्मोन्मादी बहुसंख्य घृणा और हिंसा के मध्य कारपोरेट जनसंहार अभियान से बच नहीं सकते।


इसी लिए ब्रूट,निर्मम,हिंसक,पाशविक राजकाज के लिए कल्कि अवतार का यह राज्याभिषेक।धर्मनिरपेक्षता,समरसता और डायवर्सिटी जैसे पाखंड के जरिये इस कारपोरेट केसरिया तिलिस्म में हम अपने प्राण बचा नहीं सकते।


नई सरकार बनते ही सबसे पहले बाजार पर रहा सहा नियंत्रण खत्म होगा।सारी बचत,जमा पूंजी बाजार के हवाले होगी। बैंकिंग निजी घरानों के होंगे।सारी जरुरी सेवाएं क्रयशक्ति से नत्थी होंगी।


करप्रणाली का सारा बोझ गरीबी रेखा के आरपार के सभी समुदायों के लोगों पर होगा और पूंजी कालाधन मुक्त बाजार में हर किस्म के उत्तरदायित्व,जबावदेही और नियंत्रण से मुक्त।


अंबानी घराने के मीडिया समूह ने जो केसरिया सुनामी बनायी है और देशभर के मीडियाकर्मी जो कमल फसल लहलहाते रहे हैं,उसकी कीमत दोगुणी गैस कीमतों के रुप में चुनाव के बाद हमें चुकानी होगी और हम यह पूछने की हालत में भी नही होंगे कि भरत में पैदा गैस बाग्लादेश में दो डालर की है और भारत में आठ डालर की,इसके बावजूद गैस की कीमते क्यों बढ़ायी जायेंगी।


आरक्षण और कोटा अप्रासंगिक बना दिये जाने के बाद भी हम लगातार कुरुक्षेत्र में एक दूसरे का वध कर रहे हैं,लेकिन बेरोजगार करोड़ों युवाजनों के अंधेरे भविष्य के लिए हम एक दिया भी नहीं जला सकेंगे।


उपभोक्ताबादी मुक्त बाजार में सबसे शोषित सबसे वंचित सबसे ज्यादा प्रताड़ना,अत्याचार और अन्याय की शिकर महिलाों और बच्चों को अलग अलग अस्मिता में बांदकर न हम उन्हें इस पुरुषवर्चस्वी वर्ण वरस्वी यौनगंधी गुलामी से आजाद कर सकते हैं और न उन्हें प्रतिरोध की सबसे बेहतरीन और ईमानदार ताकत बतौर गोलबंद कर सकते हैं।



दरअसल मुसलमानों,ईसाइयों और सिखों की राजनीतिक ताकत की असली वजह उनमें जाति व्यवस्था और कर्मकांड संबंधी भेदाभेद नगण्य होना है और जब आंच दहकने लगती है तो वे प्रतिरोध में एकजुट हो जाते हैं।


छह हजार जातियों में बंटा हिंदू समाज में कोई भी जनसमुदाय देश की पूरी जनसंख्या के मुकाबले में दो तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं है।


जिनकी आबादी इतनी भी है,वे तमाम शासक जातियां हैं चाहे सवर्ण हो या असवर्ण।


इसके बरखिलाफ शोषित वंचित हिंदू समुदायों और जातियों की अलग अलग जनसंख्या शून्य प्रतिशत के आसपास भी नहीं है।


मुक्त बाजारी स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ वे चूं नहीं कर सकते।हिंदू शरणार्थी देश भर में बंगाली,सिख ,तमिल ,कश्मीरी मिलाकर दस करोड़ से कम नही हैं।


मुक्त बाजार के देशी विदेशी कारपोरेट हित साधने के लिए कल्कि अवतार इसीलिए।


मसलन शरणार्थी केसस्टडी ही देखें, डा. मनमोहन सिंह,कामरेड ज्योति बसु और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेता हिंदू शरणार्थी समुदायों से हैं।लेकिन शरणार्थी देश भर में अपनी लड़ाई अपनी अपनी जाति,भाषा और पहचान के आधार पर ही लड़ते रहे हैं।


पंजाबियों की समस्य़ा सुलझ गयी तो पंजाबी शरणार्थी नेताओं ने बंगाली शरणार्थियों की सुधि नहीं ली,यह बात तो समझी जा सकती है।


बंगाल की शासक जातियों का जिनका जीवन के हर क्षेत्र में एकाधिकार है,उन्होंने बंगाल से सारे के सारे दलित शरणार्थियों को खदेड़ ही नहीं दिया और जैसा कि खुद लालकृष्ण आडवाणी ने नागरिकता संसोधन कानून पास होने से पहले शरणार्थियों की नागरिकता और पुनर्वास  के मसले पर बंगाली सिख शरणार्थियों में भेदाभेद पर कहा,हकीकत भी वही है,बंगाल और त्रिपुरा के मुख्यमंत्रियों के अलावा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बंगाली सुचेता कृपलानी रही हैं, जिनके जमाने में 64 में पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यक उत्पीड़न के बाद बंगाली हिंदू शरणार्थियों का बहुत बड़ा हुजूम उत्तर प्रदेश भी पहुंच गया थे, उनमें से किसी ने बंगाली हिंदू  शरणार्थियों के पुनर्वास और उनकी नागरिकता के लिए कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभायी ।


विभिन्न राज्यों से चुने जाने वाले बंगाली सांसदों ने,जिनमें आरक्षित इलाकों के वे सांसद भी हैं,जिनकी जातियों के लोग सबसे ज्यादा शरणार्थी हैं,उन्होंने भी इन शरणार्थियों के हक में आवाज नहीं  उठायी।


आडवाणी पंजाबी शरणार्थियों के साथ बंगाली शरणार्थियों के मुकाबले आरोपों का जवाब दे रहे थे और गलत भी नहीं थे।


बंगालियों के मुकाबले पंजाबी राष्ट्रीयता शरणार्थी समस्या पर एकताबद्ध रही है और बंगाल के मुकाबले कहीं ज्यादा खून खराबे के शिकार विभाजित पंजाब के शरणार्थियों की समस्या तुरंत युद्धस्तर पर सुलटा दी गयी।उन्हें तुरंत भारत की नागरिकता मिल गयी।


पंजाब से आये शरणार्थी एकताबद्ध होकर पंजाबी और सिख राष्ट्रीयताओं को एकाकार करके विभाजन की त्रासदी से लड़े,इसके विपरीत पूर्वी बंगाल से आये सारे शरणार्थी अकेले अकेले लड़ते रहे।


बंगाली राष्ट्रीयता शरणार्थियों से पीछा छुड़ाने का हर जुगत करती रही। पढ़े लिखे संपन्न तबके पश्चिम बंगाल में समायोजित होत गये,चाहे जब भी आये वे।लेकिन चालीस पचास के दशक में आये मुख्यतंः किसान,दलित,पिछड़े और अपढ़ लोग न सिर्फ बंगाल के भूगोल से बल्कि मातृभाषा और इतिहास के बाहर खदेड़ दिये गये।


बंगाल में बड़ी संख्या में ऐसे केसरिया तत्व हैं जो विभाजन पीड़ितों के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति के विरुद्ध हैं और शुरु से उन्हें वापस सीमापार भेज देना चाहते हैं।कमल ब्रिगेड का असली जनाधार बंगाल में वहीं है,जिसे कल्कि अवतार ने धर्मेन्मादी बना दिया है।इस तबके में बंगाल के शरणार्थी समय के मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय, वाम शासन काल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु,जिन्होने दंडकारण्य से आये शरणार्थियों का मरीचझांपी में कत्लेआम किया और प्रणवमुखर्जी जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून और निलेकणि आधार परियोजना लागू की, सिपाहसालार रहे हैं।


बंगाली शरणार्थियों की दुर्दशा के लिए सिख और पंजाबी शरणार्थी जिम्मेदार नहीं हैं।यह तथ्य पिताजी ने बखूब समझाया जो सिखों और पंजाबियों के भी उतने बड़े नेता तराई में थे,जितने बंगालियों के।तराई विकास सहकारी संघ के उपाध्यक्ष, एसडीएम पदेन अध्यक्ष वे साठ के दशक में निर्विरोध चुने गये थे।


विडंबना यह कि बंगाल में शरणार्थी समस्या की चर्चा होते ही मुकाबले में पंजाब को खड़ा कर दिया जाता है।बहुजन राजनीति के सिसलिले में महाराष्ट्र को खड़ा कर दिया जाता है।हमारे लोग दूसरों को शत्रु मानते हुए अपने मोर्चे के असली गद्दारों के कभी पहचान ही नहीं सकें।




आडवाणी के मुताबिक बंगाली शरणार्थियों के पुनर्वास और नागरिकता के मामले में बंगाल की कोई दिलचस्पी नही रही है।


मैं कक्षा दो पास करने के बाद से पिताजी के तमाम कागजात तैयार करता रहा क्योंकि पिताजी हिंदी ठीकठाक नहीं लिख पाते।वे किसानों,शरणार्थियों,आरक्षण और स्थानीय समस्याओं के अलावा देश के समक्ष उत्पन्न हर समस्या पर रोज राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सारे के सारे केंद्रीय मंत्री,सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, सभी मुख्यमंत्रियों और ज्यादातर सांसदों को पत्र लिखा करते थे।


वैसे किसी पत्र का जवाब बंगाल से कभी आया हो,ऐसा एक वाकया मुझे याद नहीं है।


बाकी देश से जवाब जरुर आते थे।राष्ट्रपित भवन,राजभवन और मुख्यमंत्री निवास से रोजाना जवाबी पत्र आते थे,लेकिन उन पत्रों में कोलकाता से कभी एक पत्र  नहीं आया।


आडवाणी आंतरिक सुरक्षा के मुकाबले शरणार्थी समस्या को नगरिकता संशोधन विधेयक के संदर्भ में तुल नहीं देना चाहते थे।उनका स्पष्ट मत था कि घुसपैठिया चाहे हिंदू हो या मुसलमान,उनका देश निकाला तय है।


विभाजन के बाद भारत आये पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात तब संसद में डा. मनमोहन सिंह और जनरल शंकर राय चौधरी ने ही उठायी थी।


लेकिन संसदीय समिति के अध्यक्ष बंगाली नेता प्रणव मुखर्जी ने तो शरणार्थी नेताओं से मिलने से ही,उनका पक्ष सुनन से ही साफ इंकार कर दिया था और बंगाली हिंदू शरणार्थियों के लिए बिना किसी प्रावधान के वह विधेयक सर्वदलीय सहमति से पास हो गया।


यूपीए की सरकार में डा.मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनें तो प्रणवदादा की पहल पर 2005 में इस कानून को नये सिरे से संशोधित कर दिया गया और इसके प्रवधान बेदखली अभियान के मुताबिक बनाये गये।


पिताजी अखिल भारतीय उद्वास्तु समिति के अध्यक्ष थे आजीवन तो भारतीय किसान समाज और किसानसभा के नेता भी थे।ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के भी वे नेता थे।


हमसे उनकी बार बार बहस होती रही कि जैसे तराई में वे सिख और बंगाली शरणार्थियों के मसलों को एकमुस्त संबोधित कर लेते थे,उसीतरह क्यों नहीं वे सर्वभारतीय कोई शरणार्थी संगठन बनाकर बंगाली,बर्मी,तमिल पंजाबी सिख,सिंधी और कश्मीरी शरणार्थियों की समस्याएं सुलझाने के लिए कोई आंदोलन करते।


हकीकत तो यह है कि वे सर्वभारतीय नेता रहे हैं लेकिन बंगाल में उनका कोई सांगठनिक असर था नहीं। उन्होंने अखिल भारतीय बंगाली समाज की स्थापना की ,जिसमें सभी राज्यों के लोग थे,लेकिन बंगाल के नहीं।जब बंगाली शरणार्थी ही एकताबद्ध नहीं रहे तो सारे शरणार्थियों को तरह तरह की पहचान और अस्मिता के मध्य उनके बड़े बड़े राष्ट्रीय नेताओं की साझेदारी के बिना कैसे एकजुट किया जा सकता था,पिताजी इसका कोई रास्ता निकाल नहीं सके।हम भी नहीं।


गौर करें,गर्मी बढ़ने के साथ ही उत्तरी भारत में बिजली संकट पैदा हो गया है। उत्तर प्रदेश हो या हरियाणा, दिल्ली हो या फिर राजस्थान, इन सभी राज्यों में गर्मी की शुरुआत में ही घंटों बिजली गुल हो रही है। लेकिन ये समस्या आने वाले दिनों में ज्यादा गंभीर हो सकती है।


एक तरफ गर्मी में बढ़ता पारा और दूसरी तरफ बत्ती गुल यानी दोहरी मुसीबत। मई की शुरुआत में ही देश के अलग-अलग इलाकों में 3-5 घंटे बिजली गुल हो रही है। दिल्ली कहने को तो देश की राजधानी है, लेकिन बिजली की कमी से बुरी तरह परेशान हो रही है। यहां जरूरत है 6035 मेगावॉट की, जबकि सप्लाई है 5653 मेगावॉट। सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश में 13089 मेगावॉट बिजली की जरूरत है, जबकि सप्लाई महज 12327 मेगावॉट की हो रही है। बिजली सप्लाई के लिहाज से पंजाब की हालत सबसे खस्ता दिखाई दे रही है। पंजाब में बिजली की डिमांड 10089 मेगावॉट है, जबकि यहां बिजली कंपनियां महज 8733 मेगावॉट बिजली ही सप्लाई कर रही हैं। कुल मिलाकर पूरे उत्तरी भारत में 3160 मेगावॉट बिजली की किल्लत है।


बिजली का पर्याप्त उत्पादन न होना भी इस बिजली संकट के पीछे बड़ी वजह है। बिजली बनाने के लिए कोल और गैस की कमी के चलते बिजली डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक देश में 26000 मेगावॉट गैस आधारित पॉवर प्लांट में से सिर्फ 16000 मेगावॉट क्षमता के प्लांट 15 फीसदी क्षमता पर चल रहे हैं। और तो और कोयले की किल्लत का आलम ये है कि आधे से ज्यादा कोल भंडारों में मुश्किल से 7 दिन का अतिरिक्त कोयला बचा है। ऐसे हालात में इन गर्मियों में लोगों को बिजली की कमी से छुटकारा मिलेगा ये मुमकिन नहीं लगता।



लेकिन अब मुक्त बाजारी स्थाई कारपोरेट बंदोबस्त के खिलाफ किसी शरणार्थी संगठन से भी हम बच नहीं सकते।वह संगठन कैसा हो,कैसे बने वह संगठन,जिसमें सारे के सारे सर्वस्वहारा,सारी की सारी महिलाएं,सारे के सारे कामगार,सारे के सारे छोटे कारोबारी,सारे के सारे नौकरीपेशा लोग,सारे के सारे छात्र युवा लामबंद होकर बदलाव के लिए साझा मोर्चा बना सके,अब हमारी बाकी जिंदगी के लिए यह अबूझ पहेली बन गयी है।हम शायद बूझ न सकें ,लेकिन जो बूझ लें वे ही बदलाव के हालात बनायेंगे,इसी के सहारे बाकी जिंदगी है।


गौर करें,आम चुनाव के बाद केन्द्र में आने वाली नई सरकार आर्थिक सुस्ती और राजस्व तंगी की समस्याओं से पार पाने के लिए 10 प्रमुख सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी आंशिक हिस्सेदारी बेचकर एक लाख करोड़ रुपये तक जुटा सकती है। उद्योग मंडल एसोचैम के एक अध्ययन में यह कहा गया है। एसोचैम ने कहा है कि ओएनजीसी, कोल इंडिया, भारतीय स्टेट बैंक, एनटीपीसी, इंडियन ऑयल कार्पोरेशन, एनएमडीसी, पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन और भेल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों में मौजूदा बाजार मूल्य पर 10 फीसदी अथवा इससे अधिक सरकारी हिस्सेदारी का विनिवेश कर काफी पूंजी जुटाई जा सकती है।


एसोचैम के इस अध्ययन के अनुसार विदेशी संस्थागत निवेशकों के भारी पूंजी प्रवाह के चलते इस समय बैंक ऑफ बड़ौदा सहित इन प्रमुख उपक्रमों का बाजार पूंजीकरण 11,00,000 करोड़ रुपये से अधिक पहुंच चुका है। 'आम चुनाव के बाद यदि केन्द्र में मजबूत स्थिर सरकार आती है तो इन कंपनियों का बाजार पूंजीकरण 15 से 20 फीसदी तक और बढ़ सकता है।


एसोचैम अध्यक्ष राणा कपूर ने कहा, 'नई सरकार को शेयर बाजार की मौजूदा तेजी का लाभ उठाना चाहिए। विदेशी निवेशकों की लिवाली बाजार में जोरों पर है। ऐसे में सरकार को आर्थिक सुस्ती से जूझते अपने खजाने की स्थिति बेहतर बनाने में स्थिति का लाभ उठाना चाहिए।' एसोचैम अध्ययन के अनुसार शेयर बाजार की हाल की तेजी में कई प्रमुख सार्वजनिक उपक्रमों में निवेशकों की लिवाली से इनके शेयर चढ़े हैं।   



गौर करें कि राजनीति का उंट किस करवट बैठेगा, इसका पता तो 16 मई को चलेगा, लेकिन शेयर बाजार के हिलोरे मारने से ब्लूचिप शेयरों पर दांव लगाने वाले नेताओं की झोली पहले ही भरने लगी है.

विदेशी संस्थागत निवेशकों सहित सभी निवेशकों को एक स्थायी सरकार बनने की उम्मीद है जिससे भारतीय शेयर बाजार के सूचकांक नित नयी उंचाइयां छू रहे हैं और सेंसेक्स 23,000 के स्तर पर पहुंचने के करीब है.

रिलायंस इंडस्ट्रीज, रिलायंस पावर और टीसीएस जैसी कंपनियों के शेयर समृद्ध एवं शक्तिशाली निवेशकों के पसंदीदा शेयर बन गए हैं.

राकांपा प्रमुख शरद पवार की पुत्री व बारामती से सांसद सुप्रिया सुले के पास 5.6 करोड़ रपये मूल्य के शेयर हैं जिनमें यूबी, अडाणी एंटरप्राइजेज, कोल इंडिया, ब्रिटानिया, डीएलएफ, हिंदुस्तान युनिलीवर, किंगफिशर व रैनबैक्सी के शेयर शामिल हैं.

सुप्रिया सुले के पति सदानंद के पास करीब 100 कंपनियों के शेयर हैं.

फिल्म अभिनेता व भाजपा के अहमदाबाद पूर्व के उम्मीदवार परेश रावल के पास 1.37 करोड़ रपये मूल्य के शेयर हैं. उनके पास 45 लाख रपये मूल्य के आरआईएल के शेयर हैं और 20 लाख रपये मूल्य के टाटा स्टील के शेयर हैं.

कांग्रेस के मिलिंद देवड़ा की पत्नी पूनम के पास दिशमान फार्मा, मुक्ता आर्ट्स, एनआईआईटी, ओबेराय रीयल्टी और एडलैब्ज फिल्म्स सहित नौ सूचीबद्ध कंपनियों के शेयर हैं.



गैस की कीमतें बढ़ाने में देरी पर रिलायंस ने सरकार को भेजा नोटिस


गैस की कीमत एक अप्रैल से बढ़नी थी लेकिन चुनाव आयोग की अपील के बाद सरकार ने कीमत बढ़ाने का फैसला टाल दिया है.

पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा है कि उन्हें भी नोटिस की जानकारी है लेकिन वो दिल्ली से बाहर हैं और नोटिस पढ़ने के बाद ही कोई प्रतिक्रिया देंगे.

सरकार को ये नोटिस रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ ही ब्रिटेन की बड़ी ऊर्जा कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम और कनाडा की एक्सपलोर्र ने साझा तौर पर दी है.

इन कंपनियां ने सरकार को ये नोटिस इसिलए दिया है कि ताकि वह केजी-डी6 बेसीन सहित देश के अन्य बेसीन से जो गैस का उत्पादन हो रहा है इसकी कीमत दोबारा तय की जाएं.

ये दूसरी बार है जब रिलायंस और दूसरी कंपनियों ने केंद्र सरकार को गैस की कीमत बढ़ाने के लेकर नोटिस दिया है. दिलचस्प बात यह है कि नई सरकार आने से चंद दिन पहले नोटिस देने से यह साफ है कि आने वाली सरकार पर भी इस मुद्दे का दबाव होगा.

आपको बता दें कि प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन की कमेटी ने मौजूदा गैस की कीतम 4.2 डॉलर प्रति यूनिट से 8.3 डॉलर प्रति यूनिट करने का सुझाव दिया था. ये कीमत बीते अप्रैल महीने से ही बढ़ाई जानी थी, लेकिन चुनाव के कारण केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की सलाह पर टाल दिया.

'जीडीपी ग्रोथ के लिए जीएसटी जल्द लागू करना जरूरी'

'जीडीपी ग्रोथ के लिए जीएसटी जल्द लागू करना जरूरी'

मुंबई. देश की आर्थिक वृद्धि दर (जीडीपी ग्रोथ) को 7 से 7.75 फीसदी करने के लिए केंद्र में बनने वाली नई सरकार को गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) को लागू करने तथा वित्तीय घाटे

को कम करने पर फोकस करना होगा। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने शनिवार को मुंबई में भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक सम्मेलन में यह बात कही। गौरतलब है कि जुलाई 2006 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट भाषण में जीएसटी को अप्रैल, 2010 में लागू करने की बात कही थी। हालांकि, आज तक जीएसटी पर फैसला नहीं हो सका।


उन्होंने कहा कि नई सरकार के लिए पहला वर्ष हनीमून समय होगा। इसके बाद के वर्षों में नीति निर्णय लिए जाएंगे। यदि नई सरकार सही कदम उठाती है, तो देश की आर्थिक वृद्धि दर फिर से पटरी पर आ सकती है। हालांकि आर्थिक वृद्धि दर को आठ फीसदी पर लाना थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन इसको 7.75 फीसदी के स्तर तक लाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि नई सरकार वित्तीय घाटे को कम करने पर ध्यान रखना चाहिए। मौजूदा केंद्र सरकार से इस मामले में चूक हुई है। हम वित्तीय घाटे को कम कर सकते हैं। इसमें लगातार कमी संभव है। उन्होंने कहा कि देश में निवेश भी 35 से घटकर 32 फीसदी रह गया है, जबकि मौजूदा हालात में निवेश लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। उन्होंने कहा कि जीएसटी को तेजी से लागू करने की जरूरत है।

इसके लिए नई सरकार को सिस्टम में सुधार करने होंगे। मेरा मानना है कि जीएसटी को लागू करने तथा वित्तीय घाटे को कम करने को लेकर मतभेद कम होंगे, लेकिन यह देखना होगा कि राजनीतिक घटनाक्रम कैसे चलता है। उन्होंने कहा कि आर्थिक वृद्धि दर औद्योगिक वृद्धि दर पर निर्भर करती है। जबकि निर्माण, खनन और उत्पादन क्षेत्र में अभी तक सुस्ती बरकरार है। उत्पादन क्षेत्र की वृद्धि दर भी दो अंकों में हो। यदि औद्योगिक वृद्धि दर नहीं बढ़ेगी, तो छोटे व मझौले उद्योगों का विकास भी नहीं होगा। उन्होंने कहा कि नई सरकार को निवेश पर मंत्रिमंडलीय समिति और मंत्रिमंडलीय सचिवालय में प्रोजेक्ट मॉनिटरिंग ग्रुप की कार्यप्रणाली को भी प्रभावी करना होगा। इन का गठन हो चुका है।

सरकारों को कैसे होगा लाभ

एक अनुमान के मुताबिक, जीएसटी लागू होने से एक साल में 15 अरब डॉलर का फायदा होगा, क्योंकि इससे निर्र्यात बढ़ेगा। रोजगार व वृद्धि दर में इजाफा होगा। इससे मैन्युफैक्चरिंग व सर्विसेज के बीच कर का भार बंट जाएगा।

आम जनता व कंपनियों का फायदा भी

जीएसटी को लागू कर दिया जाता है, तो सेंट्रल और स्टेट टैक्स को बिक्री के दौरान ही लिया जाएगा। दोनों ही उत्पादन लागत पर कर वसूलेंगे। इससे लोगों को भी फायदा होगा, क्योंकि कीमतों में कमी आएगी। कीमतें कम होने से खपत बढ़ेगी, जिससे कंपनियों को मदद मिलेगी।

वापस लाएंगे ब्लैक मनी, देंगे ईमानदारों को हिस्साः नरेंद्र मोदी

11 May 2014, 0750 hrs IST,नवभारत टाइम्स  

नई दिल्ली

करीब दो महीने तक चले मैराथन इलेक्शन कैंपेन में जमकर हुआ नमो-नमो का जाप। जाहिर है, बीजेपी के पीएम कैंडिडेट नरेंद्र मोदी को एनडीए जहां हीरो के रूप में पेश कर रहा था, वहीं यूपीए और अन्य दल उन्हें विलेन साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे थे। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में पहली बार ऐसा चुनाव देखने को मिला, जो सत्तापक्ष की मुखालफत के बजाय विपक्ष के एक 'कद्दावर' पीएम कैंडिडेट को केंद्र में रखकर लड़ा गया। ऐसे में मोदी का आभामंडल पूरे चुनावी अभियान के दौरान 'विराट' होता चला गया। मौजूदा चुनावी माहौल में जो कटुता देखने को मिली, उस बारे में मोदी का क्या नजरिया है? यदि मोदी पीएम बनते हैं, तो उनका विकास का रोड मैप क्या होगा? मोदी से एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में गुलशन राय खत्री और नरेंद्र नाथ ने ऐसे ही कई अहम सवाल पूछे, पेश है खास अंशः


खबर पढ़ें: मोदी की भागवत से मुलाकात, क्या हुई बात?


1-एनबीटीः चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों में कड़वाहट बढ़ी है। क्या इससे बचा जा सकता था? क्या आने वाले दिनों में इसका असर सरकार और विपक्ष के संबंधों पर भी देखने को मिल सकता है?


नरेंद्र मोदीः यह बात सही है कि जैसे-जैसे चुनावी प्रचार परवान चढ़ता गया, भाषणों और वक्तव्यों में हमारे विरोधियों ने सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं, खासकर शुरुआती राउंड में भारी पोलिंग के बाद सहमे कांग्रेस और उसके साथी दलों ने गाली-गलौज करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। शुरुआत में हमने यह तय किया था कि इस पूरे चुनाव को विकास और सुशासन जैसे सकारात्मक मुद्दों पर लड़ेंगे। यदि अन्य राजनीतिक दल भी इस पहल में हमारा साथ देते तो शायद भारतीय चुनावी राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ जाता। लेकिन अफसोस, हमारे विरोधी दलों ने चुनाव को उसी पुरानी जाति और संप्रदाय की राजनीति की तरफ धकेलने में ही अपना सारा जोर लगा दिया। इसके बावजूद यह पहला चुनाव है जिसमें बीजेपी जैसी कोई बड़ी पार्टी विकास और सुशासन के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है। पिछले छह महीने से मेरा यह ईमानदार और गंभीर प्रयास रहा है कि हम नागरिकों के असली मुद्दों को उठाएं।


मीडिया का यह कहना कि चुनाव के दौरान पैदा हुई कटुता का प्रभाव चुनाव के बाद भी देखने को मिलेगा, एक अतिशयोक्तिपूर्ण सोच है। दरअसल, जमीनी हकीकत ऐसी नहीं है। अक्सर आपने देखा होगा कि चुनावी समर में एक-दूसरे पर तीखे वार करने वाले नेता जब अनायास किसी हवाई अड्डे पर मिलते हैं, तब उनके बीच बड़े ही सहज ढंग से बातचीत होती है। ऐसा नहीं है कि चुनावी जंग की तल्खियां राजनेताओं के आपसी रिश्ते पर हावी हो जाती है। गर्मजोशी के साथ मिलने के बाद जब वे फिर रैलियों में पहुंचते हैं तो आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। यह समझना होगा कि राजनीति में प्रतिस्पर्धा तो होती है, लेकिन दुश्मनी कतई नहीं। एक अहम बात और कहना चाहूंगा। इधर, पिछले कुछ समय से सार्वजनिक जीवन में व्यंग्य और विनोद का चलन खत्म-सा होता जा रहा है। सार्वजनिक जीवन में गंभीरता के साथ-साथ व्यंग्य और विनोद का होना भी जरूरी है, आपसी रिश्तों में उदासीनता के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।


मालूम हो कि व्यंग्य, कार्टून तथा लतीफों की दुनिया में भी हम राजनेताओं की मौजूदगी व्यापक स्तर पर होती है। इन दिनों 'मॉरल पुलिसिंग' का दौर भी चल रहा है। एक हद तक तो यह सही है, लेकिन इसका अतिरेक निश्चित ही गैरजरूरी प्रतीत होता है। जहां तक आने वाले दिनों में इसके असर की बात है तो हम न तो बदले की भावना से कोई काम करेंगे और न ही चुनावी प्रतिद्वंद्विता को चुनाव पश्चात आगे ले जाएंगे। हम पूरी शालीनता के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे और हमारे विरोधियों के साथ भी आपसी सहयोग से देश के विकास के लिए कार्यरत रहेंगे।


2-एनबीटीः अगर आप सत्ता में आते हैं तो यह देश आपसे क्या उम्मीद करे? आप विपक्ष को किस तरह से साथ लेकर चलेंगे और विपक्ष को साथ लेकर चलने के लिए क्या कदम उठाएंगे?


नरेंद्र मोदीः हम इतना सुनिश्चित करेंगे कि लोगों की जो आशाएं और अपेक्षाएं हमसे जगी हैं, उन्हें पूरा करने के लिए पुरजोर मेहनत करेंगे। हमारा यह प्रयास होगा कि देश का विकास करने और सुशासन प्रदान करने के लिए हम दिन-रात कार्यरत रहेंगे। देश की प्रगति और लोकतंत्र की मजबूती के लिए जागरुक विपक्ष का होना आवश्यक है। मुद्दों के आधार पर विरोध की गुंजाइश को समझा जा सकता है। इसके लिए हम खुले मन से चर्चा को तैयार रहेंगे। देश हित में आम राय बनाकर चलना हमारी कार्यशैली का हिस्सा होगा।


3-एनबीटीः इस देश में 90 के दशक में उदारवादी आर्थिक नीतियां शुरू हुई थीं। क्या ये आगे भी जारी रहेंगी या फिर वक्त के साथ इनमें कुछ बदलाव करने की जरूरत है?


नरेंद्र मोदीः कोई भी देश या समाज यदि एक ही जगह स्थिर रह जाए तो वह विकास नहीं कर सकता। समयानुरूप बदलाव की आवश्यकता हर देश में होती है। अर्थव्यवस्था में भी निरंतर गति बनाए रखने के लिए सुधार जरूरी है। हम हर उस कदम को उठाएंगे, जिससे अर्थव्यवस्था सुधरे, विकास की गति बढ़े और रोजगार के अवसर पैदा हों।


4-एनबीटीः जीएसटी और मल्टि-ब्रैंड रिटेल में एफडीआई पर आपकी क्या राय है? क्या यह होना चाहिए या नहीं?


नरेंद्र मोदीः जीएसटी राजस्व में बढ़ोतरी का सरल और बेहतर उपाय है। राज्यों को मिलने वाली सहायता राशि में भेदभावपूर्ण रवैया अपनाने की वजह से जीएसटी स्थगित हो गया है। लेकिन हमारी सरकार जीएसटी की सभी बाधाओं और उसमें होने वाले करप्शन और अनुचित देरी की संभावनाओं को दूर करने के लिए सकारात्मक भूमिका अदा करेगी। जीएसटी के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए आईटी नेटवर्क का देशव्यापी ढांचा खड़ा करना जरूरी है, मगर यूपीए सरकार ने इस दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाया। तमाम अहम मामलों में देरी या कहें कि 'पॉलिसी पैरालिसिस' की स्थिति के लिए राज्य सरकारों को बदनाम करने की यूपीए सरकार की बीमार मानसिकता रही है। मल्टि-ब्रैंड रिटेल में एफडीआई का जहां तक सवाल है, हमारी पार्टी का आधिकारिक रुख हमारे मेनिफेस्टो में साफ कर दिया गया है।


5-एनबीटीः आप अक्सर देश में बुलेट ट्रेनें चलाने और सौ नए शहर बसाने की वकालत करते रहे हैं। इससे देश का आर्थिक विकास तो तेज होगा, लेकिन इसके लिए भारी-भरकम राशि का इंतजाम कहां से होगा? मुंबई-अहमदाबाद के बीच ही एक बुलेट ट्रेन चलाने के लिए करीब 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है तो क्या इस तरह की बुलेट ट्रेनें देश भर में चलाने पर वे आर्थिक लिहाज से कामयाब होंगी?


नरेंद्र मोदीः हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि अब तक जिस प्रकार की सरकारें यहां चलाई गईं, उसमें मानों गरीबी एक अभिशाप नहीं वरन एक वरदान हो, एक आवश्यकता हो। भले वह चाहे वोट बैंक की राजनीति के लिए हो या सत्तारूढ़ राजनेताओं में दीर्घदृष्टि के अभाव चलते हो। नतीजा यह, कि हम न कुछ बड़ा सोच पाते हैं, न कुछ विश्वस्तरीय करने का प्रयास करते हैं। दूसरी तरफ, आजादी के समय भारत जैसी ही हालात वाले साउथ कोरिया जैसे छोटे देश एक व्यापक सोच के कारण विकास की बुलंदियों को छू रहे हैं। अटल जी की सरकार में स्वर्णिम चतुर्भुज जैसी योजनाओं को लागू करने की एक अहम शुरुआत हुई। वह एक प्रयास था कि भारतीय नागरिकों को भी वर्ल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध करवाया जाए। दुर्भाग्यवश पिछले दस साल में हम उस दिशा में आगे बढ़ने के बजाय बहुत पीछे धकेल दिए गए हैं। मेरा मानना है कि यदि हमारा विजन बड़ा हो, उसके अनुरूप पुरुषार्थ करने की क्षमता और तैयारी हो तो हमारा देश भी प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकता है। हम भी अपने नागरिकों को क्रमशः हर क्षेत्र में वर्ल्ड क्लास इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया करा सकते हैं। रही पैसों की बात मुझे नहीं लगता कि मौजूदा समय में ऐसी योजनाओं के लिए पैसे जुटाना मुश्किल है।


6-एनबीटीः पाक समेत पड़ोसी देशों के साथ इस वक्त भारत के रिश्तों की आपको जानकारी है? क्या इन रिश्तों को बेहतर बनाने के लिए आपके दिमाग में कोई योजना है? यदि हां, तो वह क्या है?


नरेंद्र मोदीः आज जब आतंकवाद ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है और हमारा देश भी कई मोर्चों पर इससे मुकाबला कर रहा है। ऐसे में, यह जरूरी हो जाता है कि एक स्वस्थ और मजबूत रिश्ते की बुनियाद आतंकवाद के खिलाफ साथ मिलकर लड़ने की रणनीति पर रखी जाए। जब तक कोई भी पड़ोसी देश भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देगा तब तक उसके साथ अच्छे रिश्ते बनाना मुश्किल है। मेरा मानना है कि हमारी विदेश नीति आपसी सम्मान और भाईचारे पर आधारित होनी चाहिए। इसी तरह अन्य देशों के साथ हमारे संबंध भी बराबरी और परस्परता पर आधारित होने चाहिए। देश हित सर्वोपरि रखा जाना चाहिए। हम न किसी को आंख दिखाना चाहते हैं और न ही चाहते हैं कि कोई हमें आंख दिखाए। हम चाहते हैं आंख से आंख मिलाकर बात करें।


7-एनबीटीः केंद्र और राज्यों के बीच भी आप पीएम और सीएम टीम की बात करते रहे हैं, लेकिन क्या राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों के होते हुए भी यह संभव है? यदि हां, तो केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को किस तरह से और कौन सी नई शक्ल देंगे?


नरेंद्र मोदीः मेरी सोच के मुताबिक टीम इंडिया में प्रधानमंत्री और सभी मुख्यमंत्री शामिल होने चाहिए। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री साथ मिलकर बतौर टीम काम करें। यदि सब साथ मिलकर काम करें, तभी हम सही मायने में प्रगति कर सकते हैं। सारी निर्णय प्रक्रिया में राज्यों को बराबर का भागीदार बनाया जाए। बड़े प्रॉजेक्ट को मंजूरी के वक्त राज्य सरकार को भी साथ रखा जाए। यह हमारी प्राथमिकता होगी कि सभी राज्यों को विकास की प्रक्रिया में बराबर का साझीदार समझा जाए। जब हम भागीदारी की बात करते हैं, तो इससे हमारी साफ नीयत का पता चलता है। यदि नीयत सही है, तो राज्यों में विपक्षी दल की सरकार का होना रुकावट की वजह नहीं बनेगा।


8-एनबीटीः इस वक्त महंगाई की मार से देश के लोग त्रस्त हैं। महंगाई, राज्य सरकारों की पहल के बिना खत्म नहीं हो सकती। ऐसे में राज्यों को इसके लिए कैसे तैयार करेंगे?


नरेंद्र मोदीः महंगाई को नियंत्रित करने के लिए डिमांड-सप्लाई मिसमैच यानी कि मांग-आपूर्ति के असंतुलन को दूर करने की आवश्यकता है। इसके लिए खाद्यान्न और अन्य पदार्थों की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि सुनिश्चित कराना जरूरी है। यह तभी संभव हो पाएगा, जब कृषि पर आवश्यक बल दिया जाए और सिंचाई सुविधाओं का विकास किया जाए। इस बारे में एक नई सोच के साथ काम करने की जरूरत है। हमारी पार्टी के मेनिफेस्टो में कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार के लिए 'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना' का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा, आज हमारे देश में कृषि क्षेत्र का कोई रीयल टाइम डेटा उपलब्ध नहीं है। लिहाजा, कृषि विकास के लिए योजनाएं बनाने का कोई सटीक मतलब नहीं रह जाता। हम कृषि क्षेत्र का रीयल टाइम डेटा हासिल कर उसके मुताबिक पॉलिसी और प्रोग्राम बनाएंगे। खाद्यान्न की कीमतों को स्थिर रखने के लिए विशेष फंड बनाया जाएगा। हम गुजरात की श्वेत क्रांति का देशभर में प्रसार करना चाहेंगे।


9-एनबीटीः इस वक्त देश की जनता की इतनी सारी उम्मीदें आपसे जुड़ गई हैं। क्या आपको इन उम्मीदों का बोझ महसूस होता है? इन पर खरा उतरने के लिए आपकी क्या तैयारी है?


नरेंद्र मोदीः दरअसल, पिछले दशकों के दौरान राजनीति के स्तर में जो गिरावट आई है, उसके चलते सरकारों के प्रति आम जनमानस में निराशा और तिरस्कार की भावना बन गई थी। बड़े लंबे समय बाद चुनावी राजनीति में लोगों की दिलचस्पी वापस आई है, मतदाताओं का भरोसा पुनःस्थापित होता दिख रहा है। समूचे देश में एक आशा का संचार हुआ है। मुझे इस बात का अहसास है कि बीजेपी से देशभर में बहुत ज्यादा उम्मीदें बांधी जा रही हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अपने नागरिकों को भी सपने संजोने का हक है, आशावादी होने का अधिकार है। उम्मीदें बांधने की इजाजत होनी चाहिए, इसमें कुछ बुरा नहीं है। इन सारी बातों का हमें पूरा ख्याल है और उसी के अनुसार कठिन से कठिन परिश्रम करने की मानसिक तैयारी हम कर चुके हैं।


10-एनबीटीः विदेश से काला धन लाना आसान नहीं है? कई विदेशी कानून इसमें अड़चन बने हुए हैं। आप इन्हें कैसे दूर करेंगे और यदि काला धन वापस आता है तो इससे देश के लोगों को क्या फायदा होगा? आपकी नजर में कितना काला धन हो सकता है?


नरेंद्र मोदीः सबसे पहली बात है काला धन वापस लाने की मंशा और संकल्पशक्ति। बीजेपी ने काले धने को वापस लाने की अपनी मंशा साफ तौर पर व्यक्त की है। हम मानते हैं कि काले धन की समस्या एक बड़ी चुनौती है। यह सिर्फ टैक्स चोरी ही नहीं बल्कि देशद्रोही प्रवृत्ति भी है। काला धन जो पैदा हुआ है और विदेशों में जमा हो रहा है, वह आगे चलकर गैर-कानूनी और देशद्रोही गतिविधियों की दिशा में चला जाता है। हमारे लिए यह अत्यंत अहम मुद्दा है। मैं देशवासियों को भरोसा दिलाता हूं कि काला धन वापस लाने की मेरी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता है और हम तत्काल ही एक टास्क फोर्स का गठन करेंगे और इसके लिए जरूरी कानूनी सुधार के साथ-साथ कानूनी फ्रेमवर्क-ढांचे में जरूरी बदलाव भी लाएंगे। इतना ही नहीं, देश में ऐसा काला धन वापस लाकर उसका आंशिक हिस्सा ईमानदार करदाताओं विशेषकर सैलरीज क्लास के टैक्स पेयर्स को प्रदान करेंगे। यह जरूरी है कि हमारी कर-व्यवस्था-टैक्स सिस्टम ईमानदार टैक्स पेयर्स को प्रोत्साहन और इनाम देने वाली कर चोरों के खिलाफ सख्ती से पेश आने वाली हो।


11-एनबीटीः इस वक्त लोकसभा चुनाव अंतिम चरण में है? आपको क्या लग रहा है कि अगली लोकसभा का सीन क्या रहने वाला है?


नरेंद्र मोदीः अब तस्वीर बिल्कुल साफ हो गई है कि देश की जनता बदलाव चाहती है। महंगाई, भ्रष्टाचार और घोटालों के दलदल में फंसी यूपीए सरकार ने देशवासियों को सिवाय नाउम्मीदी के कुछ और नहीं दिया। अब तक 9 में से 8 चरणों का मतदान पूरा हो चुका है। और इन चरणों में हुए मतदान के रुझान से साफ हो गया है कि यूपीए सरकार का सत्ता से जाना वोटरों ने तय कर दिया है। वहीं, बीजेपी और साथी दलों की सरकार की नींव भी रख दी गई है। अब सिर्फ 41 सीटों पर पोलिंग होनी है। मुझे आशा है कि देश के अन्य राज्यों की ही तरह जहां मतदान होना बाकी है, वहां मतदाता बीजेपी और साथी दलों को अपार समर्थन देने वाले हैं।


12-एनबीटीः आप कहते हैं कि कांग्रेस का आंकड़ा दहाई तक ही पहुंच पाएगा तो आपको क्या लगता है कि सबसे बड़ा विपक्षी दल कौन होगा?


नरेंद्र मोदीः जी हां! इन चुनावों में कांग्रेस अपने चुनावी इतिहास के सबसे खराब प्रदर्शन का एक नया रेकॉर्ड बनाने जा रही है। बहुत संभव है कि वह दहाई के आंकड़े तक ही सिमट कर रह जाएगी। इन सबके बीच कांग्रेस के आला नेता पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने की खातिर परिस्थितियों को किस तरह मैनेज करते हैं, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। हम तो चाहते हैं कि सबसे बड़ा विपक्ष चाहे कोई भी हो, वह सकारात्मक राजनीति करे और देश की प्रगति और खुशहाली के लिए जिम्मेदार राजनीति की एक स्वच्छ परंपरा का पालन करे।


13-एनबीटीः आप कांग्रेस में किसी नेता को पीएम लायक मानते हैं? यदि हां, तो वह कौन है?


नरेंद्र मोदीः देखिए, मैं समझता हूं कि आज कांग्रेस नेतृत्वविहीन पार्टी हो गई है। जनता से जुड़ा कोई कद्दावर नेता, जिसकी आवाज कश्मीर से कन्याकुमारी तक गूंजती हो, कांग्रेस के पास नहीं है। गांधी परिवार की भक्ति और परिक्रमा ही कांग्रेस के नेताओं का एकसूत्रीय अजेंडा है। ऐसे में पीएम पद के लायक नेता ढूंढ़ना बहुत दूर की कौड़ी है। इंदिरा जी के जमाने से ही किसी नेता का कद इतना बड़ा नहीं होने दिया गया कि वह आगे चलकर गांधी परिवार के लिए चुनौती साबित हो।


14-एनबीटीः डॉ. मनमोहन सिंह को निजी तौर पर कैसे आंकते हैं? क्या वे पीएम के रूप में ही अच्छे साबित नहीं हुए या फिर निजी तौर पर उनमें अच्छे गुण भी हैं?


नरेंद्र मोदीः देखिए, किसी भी इंसान के आकलन/मूल्यांकन के लिए उसे करीब से देखना जरूरी है। डॉ. मनमोहन सिंह के साथ बहुत ज्यादा मुलाकात तो नहीं हुई। हां, कुछ आधिकारिक मुलाकातें जरूर हुई हैं, लेकिन उन चंद मुलाकातों के आधार पर मैं उनके बारे में कोई राय कायम करना उचित नहीं समझता। रही बात बतौर प्रधानमंत्री उनके आकलन की तो उनके निराशाजनक कार्यकाल को देखकर देश हकीकत समझ चुका है।


15-एनबीटीः अगर आप सत्ता में आए तो वे ऐसे पांच काम कौन से हैं, जो आप सबसे पहले करना चाहेंगे?


नरेंद्र मोदीः सरकार और सरकारी व्यवस्था में भरोसा लौटाना हमारा पहला काम होगा। दूसरा, अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कारगर कदम उठाना हमारी प्राथमिकता होगी। तीसरा, महंगाई को नियंत्रित करने के लिए त्वरित कदम उठाए जाएंगे और चौथा, सरकारी व्यवस्था में जान फूंकना और निर्णय प्रक्रिया को कारगर बनाना होगा। पांचवां काम पॉलिसी पैरालिसिस से निजात पाना होगा।


16-एनबीटीः क्या आपको लगता है कि आपके पीएम पद तक पहुंचने की राह में कोई रुकावट बन सकता है?


नरेंद्र मोदीः देखिए, एक सामान्य परिवार का बेटा आज यहां तक पहुंचा है। इस लंबे सामाजिक और राजनीतिक सफर में न जाने कितने लोगों का समर्थन, आशीर्वाद और दुआएं मुझे मिली हैं। मैं समझता हूं यह एक काल्पनिक सवाल है, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं है।


17-एनबीटीः वाजपेयी जी की याद आती है? क्या आपकी सरकार में उनके कामकाज की छवि नजर आएगी?


नरेंद्र मोदीः बीजेपी का एक सिपाही होने के नाते निश्चित रूप से वाजपेयी जी की याद तो आती ही है। भारत के इतिहास में एकमात्र पूर्णकालिक गैर-कांग्रेसी सरकार चलाने का यश उन्हें जाता है। आम जनता को ध्यान में रखते हुए ऐसे कई कार्य वाजपेयी जी ने किए थे, जो आज भी याद किए जाते हैं। चूंकि मैंने अपना राजनीतिक सफर वाजपेयी जी की छत्रछांव में ही तय किया है, लिहाजा यह लाजिमी है कि काम करने की उनकी विशिष्ट शैली और आम जनता से हमेशा सरोकार रखने की उनकी शिद्दतभरी आतुरता का मैं कायल रहा हूं। सबसे बड़ी बात, कांग्रेस शासनकाल में महंगाई से त्रस्त देश की जनता को जिस तरह से वाजपेयी जी की सरकार ने राहत दी थी, हम चाहेंगे कि आम जन को यह राहत एक बार फिर से मिले।


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