Wednesday, October 29, 2014

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।

जमीन जल जंगल बेचकर करोड़पति बने लोगों के वर्चस्व तले दबे पहाड़ हैं तो आपराधिक राजनीति और निरंकुश बाजार के चंगुल में तेजी से नगर महानगर में बदलते हुए जख्मी लहूलुहान गांवों में हरे अनाकोंडा का डेरा है,पता नहीं कब किसे निगल जायेे।

पलाश विश्वास

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।


वे वयोवृद्ध हैं और घटनाक्रम को हूबहू याद नहीं कर सकते।वे लेकिन हमारे मुद्दों को भूले नहीं हैं।पैंतीस साल बाद उन्होंन हमें पहली नजर से पहचान लिया और सारे नारके उन्हें याद हैं।


हम उन परिणामों को खंगालने में अभ्यस्त और दक्ष हैं,जिन्हें हम बदल नहीं सकते।हम उन कारणों और मुद्दों को संबोधित करने के मिजाज में कभी नहीं होते,जिन्हें हम अइपना कर्मफल बताते अघाते नहीं हैं।ङम वे आस्थावान धार्मिक लोग हैं ,अधर्म और अनास्था जिनका जन्मसिद्ध अधिकार है।


दिवाली के बाद आज पहलीबार आनलाइन होने का मौका मिला है।


पहलीबार अपने गांव में,अपने जनपद में और अपने राज्य में मुझे खुद  को अवांछित अजनबी जैसा महसूस हुआ।


पहलीबार मैं अपने कस्बों में एक सिरे से दूसरे सिरे तक खोजता रहा अपनों को ,कहीं कोई मिला ही नहीं।


जो मिला वह हमें हमारी क्रयशक्ति से तौलने में लगा रहा।ऩ अपनापा और न कोई सम्मान।


पहलीबार मुझे अपने पिता कूी मूर्ति से खून चूंती  नजर आयी और पहलीबार मुझे लगा कि इस सीमेंट के जंगल में मेरे पिता समेत हमारे किसी भी पुरखे के लिए कोई जगह नहीं है।


पहलीबार मुझे लगा कि मेरे पिता को भी एटीएम बना दिया गया है और उनके नाम से करोड़पति बन रहे लोगों की जनविरोधी हरकतों के मुकाबले मेरे पास कोई हथियार नहीं है।


पहलीबार लगा कि गौरादेवी और सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको की आड़ में लोगों ने अपने अपने घर भर लिए और बेच दी तराई,नदियां बेच दीं,बेच दिये जंगल, बेच दिये पहाड़।


राजीव नयन बहुगुणा और हम इसे रोक भी नहीं सकते।तराई और पहाड़ को बनाने वालों की संतान संततियों का यह वर्तमान है और भविष्य भी यहीं।देश को बनाने वालों,बचानेवालों का भी हश्र यही।


पहलीबार लगा कि हमारे गिरदा की भी ब्रांडिंग होने लगी है।


हमारे पुरखों,हमारे सहयोद्धाओं के संघर्ष की विरासत से भी हम अपनी जमीन,आजीविका ,कारोबार,जल,जंगल,नागरिकता और मनुष्यता की तरह बेदखल हो रहे हैं और हमारी संवेदनाएं अब कंप्य़ूटरों के साफ्टवेअर हैं या फिर एंड्रोयड मोबाइल के ऐप्पस।


पहलीबार लगा कि हमारी सामाजिक संरचना,हमारी सभ्यता और हमारी मातृभाषा और संस्कृति बेदखल खुदरा बाजार की ईटेलिंग हैं।


पहलीबार लगा कि वरनम वन अब सीमेंट का जंगल है जहां चप्पे चप्पे पर कैसिनोदंगल है।जमीन जल जंगल बेचकर करोड़पति बने लोगों के वर्चस्व तले दबे पहाड़ हैं तो आपराधिक राजनीति और निरंकुश बाजार के चंगुल में तेजी से नगर महानगर में बदलते हुए जख्मी लहूलुहान गांवों में हरे अनाकोंडा का डेरा है,पता नहीं कब किसे निगल जायेे।


पहलीबार लगा कि इस गांव में,इस जनपद में हमारी कोई जगह नहीं है और महानगरों से हमारी वापसी नामुमकिन है


हम इसी परिदृश्य में पर्यावरण सेनानी सुंदर लाल बहुगुणा से मिलने उनके बेटी के घधर देहरादून चले गये ताकि पर्यावरण और कृषि के भूले बिसरे मुद्दों पर उनके नजरिये के मुताबिक फिर एक और प्रतिरोध का विमर्श शुरु हो।


बसंतीपुर से लेकर बिजनौर,नैनीताल से लेकर नई दिल्ली में हमारी बेटियों,बहुओं और माताओं ने अपनी सामाजिक सक्रियता और सरोकारों से मुझे बार बार चौंकाया है,हम आहिस्ते आहिस्ते उनके बारे में भी लिखेंगे।


नैनीताल,रूद्रपुर, बिजनौर,देहरादून होकर आज दोपहर ढाई बजे कश्मीरी गेट उतरा।


इसबार बहन वीणा या भाई अरुण के यहां जाने के बजाये सीधे प्रगति विहार हास्टल के बी ब्लाक में राजीव के नये डेरे पर चला आया।


राजीव पहले ही कोलकाता से तंबू उखाड़कर दिल्ली में विराजमान है तो बच्चे भी अब दिल्लीवाले हो गये ठैरे।


गोलू और पृथू जी के पीसी पर काबिज हूं।


कल दोेस्तों से मुलाकात के अलावा वीरेनदा से मिलना है और परसो फिर वही दुरंते कोलकाता।फिर बची खुची नौकरी चाकरी।


दिल्ली आकर पीसी पर बैठने से बहले कोलकाता से आनंद तेलतुंबड़े जी का फोन आया कि पिता के निधन की वजह से वे मुंबई में थे। इसीलिए संपर्क में नहीं थे।इस बीच कई बार बीच बहस में बतौर व्याख्य़ा आनंदजी से संपर्क साधने की कोशश भी करता रहा,संभव नहीं हुआ,क्यों, आज जाना।


सीनियर तेलतुंबड़े जी लंबे अरसे से बीमार चलस रहे थे। लेकिन उनका इस तरह जाना बेहद खराब लग रहा है।उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।


हम सविता के मायके से बिजनौर होकर दिल्ली पहुंचे। उनका मायका धर्मनगरी स्वर्गीय धर्मवीर जी का गांव है जिसकी जमीने गंगा के बांध में शामिल हैं।गंगा बैराज संजोग से देश के सबसे समृद्ध कृषि जनपदों मेरठ और मुजफ्फरनगर जिलों को भी धर्मनगरी के सिरे से जोड़ता है।


इसी बिंदू पर जब भी मैं सविता के यहां आता हूं इन तीन जिलों के किसी भी कृषि वैतज्ञानिक के मुकाबले खेती के ज्यादा जानकार किसानों के व्यवहारिक ज्ञान के मुखातिब होता हूं।


सविता का भतीजा रथींद्र विज्ञान का छात्र रहा है।खेती बाड़ी करता है और पंचायत प्रधान भी रहा है।उससे और उसके साथियों से हमारी फसलों ,बीज,जीएम सीड्स,कीटनाशकों,उर्वरकों से लेकर इस क्षेत्र में जीवनचक्र जैव प्रणाली और खादर में पाये जाने वाले हरे एनाकोंडा सांपों के बारे में भी चर्चा हुई।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने आधुनिकता को अपनाया है लेकिन हरित क्रांति का अंधानुकरण नहीं किया है।उन्हें बाजार के हितों और खेती की विरासत के बीच केे संबंधों को साधने की कला आती है।


इसी इलाके में बासमती शरबती,हंसराज,तिलक जैसे देशी धान की खेती अब भी होती है और यहां के किसानों अपने बीजों की विरासत की विविधता मौलिकता छोड़ी नहीं है,यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात है।उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल की दक्षता भी उनकी हैरतअंगेज है।


इस बार की यात्रा के दौरान बसंतीपुर से लेकर तराई और पहाड़ के मौजूदा हालात के विचित्र किस्म के अनुभव भी हुए तो देहरादून में मौलिक पर्यावरण आंदोलनकारी व वैज्ञैनिक परम आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा ने करीब 35 साल के बाद हुई मुलाकात के बाद भी मुझे पहचान लिया और घंटों सविता और मुझसे इस अंतरंगता से बात की कि मैंने राजीवनयन को कहा कि वे सिर्फ तुम्हारे ही नहीं हमारे भी बाबूजी हैं।


हमने जो उत्तराखंड,उत्तरप्रदेश और दिल्ली में हाल फिलहाल महसूस किया और बाकी देश के अलग अलग हिस्सों में भारतीय मुक्त बाजार में बेदखल जल जंगल जमीन पर्यावरण और मनुष्यता के बारे में महसूस करते रहे, उसे सुंदर लाल बहुगुणा जी ने हैरतअंगेज ढंग से रेखांकित किया है।


हम सोच रहे थे कि राजीवनयन दाज्यू के पास रिकार्डिंग की व्यवस्था होगी जो थी नहीं,इसके अलावा विमला जी के साथ जुगलबंदी में भारतीय कृषिनिर्भर पर्यावरण और अर्थव्यवस्था और ग्लोबल जलवायु पर्यावरण मुद्दों पर जो सुलझे विचार उन्होंने व्यक्त किये,उसवक्त राजीव नयन दाज्यू मौके पर हाजिर ही न थे।


नतीजा यह हुआ कि मोबाइल मामले में अनाड़ी हमने जो भी रिकार्ड करने की कोशिश की,रथींद्र ने बताया कि वह कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ।लेकिन हमारे दिलोदिमाग पर वे बातें अब पत्थर की लकीरें हैं।


जैसे सुंदरलाल जी ने कहा कि हिमालय में भूमि उपयोग के तौर तरीके बदले बिना इस उपमहादेश में भयंकर जलसंकट होने जा रहा है,जिसका असर पूरी दुनिया पर होगा।


हम इन मुद्दों पर गंभीरता से सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।


हमने हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा को जिसतरह पथरीले जमीन में तब्दील होते महसूस किया,जैसे रामगंगी की हालत देखी धामपुर के पास,जैसे यमुना नदी को दिल्ली में ररते सड़ते हुए महसूस किया,वह पुरानी टिहरी के बांद में दम तोड़ते देखने या जलप्रलय की चपेट में केदार में लाशों का पहाड़ दरकना देखने से कम भयावह नहीं है।


जो बेहिसाब निर्माण और जमीन डकैती सर्वत्र जारी है,जो निरंकुश प्रोमोटर बिल्डर राज तराई,पहाड़.पश्चिम उत्तर प्रदेश और पराजधानी नई दिल्ली में भी देखा है,वह भारतीय कृषि,भारतीय अर्थव्यवस्था, देशज कारोबार,उद्योग धंधे,मातृभाषा,शिक्षा,संस्कृति और सभ्यता की मृत्युगाथा है।


अनाकोंडा सिर्फ लातिन अमेरिका में नहीं होते।


अनाकोंडा शुक्रताल से लेकर गंगा के खादर क्षेत्र में भी होते हैं।हरे रंग के वे अनाकोंडा उतने ही खतरनाक हैं जितने अमाजेन की बहुराष्ट्रीय ईटेलिंग और अमेजन की सर्प संस्कृति।


अनाकोंडा परिवार यह लेकिन हमारी हरित क्रांति है।


भारतीय अनाकोंडा भी हरे हरे होते हैं और गंगा की गहराइयों में अनाकोंडा के इस बसेरे पर नेशनल जियोग्राफी,वाइल्ड लाइफ और डिस्कावरी में भी चर्चा नहीं होती।


पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों को लेकिन इन हरे अनाकोंडाओं के बारे मेँ खूब मालूम है  और उन्होंने तराई,पहाड़ और बाकी देश की तरह कृषि की हत्या में अब भी कोई भूमिका निभाने से इंकार के तेवर में हैं।


अपने खेत छोड़़ने को अब भी वे तैयार नहीं है और खेती की खातिर वे राजधानी दिल्ली का कभी भी घेराव कर सकते हैं।


हम खाप पंचायतों के मर्दवादी तेवर का किसी भी तरीके से समर्थन या महिमामंडन नहीं कर सकते लेकिन खेतों खलिहानों के हक हकूक की लड़ाई में इन खाप पंचायतों की सामाजिक क्रांति को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते।


उऩके इस खाप पंचायती तेवर को आप चाहे कुछ भी कहें, भारतीय कृषि को  मुक्त बाजार के मुकाबले,बहुराष्ट्रीय रंगबिरंगे अनाकोंडाओं के देहात की गोलबंदी और उसकी ताकत का मुशायरा भी ये खाप पंचायतें हैं।


आदिवासी इलाकों में भी सामाजिक संरचना बाजार के डंक का असर न होने की वजह से ही जल जंगल जमीन की लड़ाई इतनी तेज हैं वहां।


बाकी देश में सामाजिक संरचना का ताना बाना छिन्न भिन्न है और समाज देश को जोड़ने का कोई जनांदोलन जनजागरण कहीं भी नहीं है और न खाप पंचायतों की जैसी मजबूत कोई सामाजिक संरचना बची है।उलट इसके बाजार की नायाब हरकतों के संग संग राजनीति और महानगरीय मेधा आइकानिक सिविल सोसाइटी हर तरीके से समाज परिवार अस्मिताओं को और भी ज्यादा काट काटकर देश को मल्टीनेशनल आखेटगाह बना रही हैं।


इसलिए बेदखली का कोई सामाजिक सामूहिक विरोध अन्यत्र संभव भी नहीं है।खाप पंचायतों के इस मुक्त बाजार विरोधी तेवर को नजरअंदाज करके हम सामाजिक गोलबंदी के लिए लेकिन पहल कोई दूसरी कर नहीं सकते


बाकी समुदायों और बाकी समाज में प्रगति का जो पाखंड है,वही है मुक्त बाजार और बुलेट हीरक चतुर्भुज का डिजिटल देश।


बाकी चर्चा फिर आनलाइन होने की हालत में।


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