Thursday, January 15, 2015

खुल जा सिम सिम सिम! सिम दरअसल सिंग है,सिंग मछली ना,भैसवा क सिंग,गुता खाकै लहूलुहान जब तक न हो पता ही न चले कि सिंग का चीज है। पलाश विश्वास


खुल जा सिम सिम सिम!
सिम दरअसल सिंग है,सिंग मछली ना,भैसवा क सिंग,गुता खाकै लहूलुहान जब तक न हो पता ही न चले कि सिंग का चीज है।
पलाश विश्वास
रंग चौपाल में आपका स्वागत है।
कोई लालू प्रसाद यादव ही चरवाहे ना हैं।हम भी जात चरवाहा रहे हैं।बचपन में गायभैंस बकरियों के इंचार्ज रहे हैं।

भैंसवा की पीठ पर सवारी ना गठले हो ति जिनगी बैकार है।भैंसवा की पीठ पर अमन चैन की नींद हमारे लिए सेकुलर डेमोक्रेट इंडिया है।इसमें मजा एसी टु टीअर से जियादा है।

जो बचवा लोग मारे ट्यूशन के बावजूद हीसाब में फेल हैं,उनके वास्ते हमारा देशी नूस्खा है कि तनिको फैंस की पीठ पर तानकर हिसाब जोड़कर देखो खुल्ला आसमान के नीचे।हम वही करते रहे हैं।

हमारे टीचर ट्यूटर वही गाय बैल भैंस बकरे रहे हैं,जिनकी चरवाही हमारा हिंदुत्व की रस्म रही है।हम अंग्रेजी भी उन्हीं से पादबे रहे हैं।

बाकीर जो भैंस की सवारी गांठे रहेन की चुनौती है ,खासकर तब जब आपस में मरने मारने को भि़ड़ जाये ससुर भैंस सकल,वो बुलफाइटो से कम रोमांचक ना है।हम वह तो कर ही रहे थे और अभी भी वहीं कर रहे हैं।

अस्मिताओं में बंटी रंग बिरंग भैंसो में भारी मारामारी हैं और हम सवारी गांठने का मजा ले रहे हैं।जोखिम है भारी,पर मजा आ रिया है।

सच कहें तो लालुवा मा और हममें कोई जियादा फर्क भी ना है।वे रेलमंत्री मुख्यमंत्री रहे,पर देश ने आजतक उनका सीरियसली नोटिस नहीं लिया है।

हम भी चार दशक से किसम किसम विधाओं में लाइवो पादबे रहे हैं।
किसी को गंध आयी नहीं है और न हमारा नोटिस किसी ने लिया है और हम सकुशल हैं।मुरुगन गति ना हुई हमारी।

गौरतलब आहे, हिंदुत्ववादी आणि जातीयवाद्यांच्या धमक्या आणि सातत्याने होणाऱ्या अपमानाला कंटाळून प्रसिद्ध तामिळ लेखक पेरुमल मुरुगन यांनी लिखाणच सोडून देण्याचा निर्णय घेतला आहे।

गौरतलब है कि बलि अतिवादी हिंदू संगठनों की धमकियों से तंग आकर दक्षिण भारत के एक लेखक ने लिखने का काम छोड़ दिया है। इतना ही नहीं, इस लेखक ने अपने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक वॉल पर लिख दिया है कि उनकी मौत हो गई है।

गौरतलब है कि अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक 48 साल के लेखक पेरुमल मुरुगन ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा है, "लेखक पेरुमल मुरुगन नहीं रहा। वो भगवान नहीं है। इसलिए वो दोबारा लिखना नहीं शुरू करेगा। अब सिर्फ एक शिक्षक पी मुरुगन जिंदा रहेगा।"
गौरतलब है कि कुछ हिंदू संगठनों के विरोध का सामना कर रहे तमिल उपन्यास "मधोरुबगन" की सभी प्रतियां प्रकाशक ने वापस ले ली हैं। साथ ही आश्वासन दिया कि लेखक पेरुमल मुरुगन का ये उपन्यास कुछ विवादास्पद अंश हटाने के बाद ही बाजार में बिकेगा। विवादास्पद तमिल उपन्यास "मधोरुबगन" के प्रकाशक कला चुवादु के कन्नन सुंदरम ने बताया कि लेखक ने जिन अंशों को हटाने का वादा किया है उसे हटाने के बाद ही वह इस उपन्यास को ब्रिकी के लिए लाएंगे। इस तमिल उपन्यास को सबसे पहले 2010 में प्रकाशित किया गया था।

तमिल साहित्य के मशहूर लेखक पेरुमल मुरुगन(48 साल) ने सोमवार रात को अपनी फेसबुक वॉल पर एक सूइसाइड नोट लिखा। नोट में लिखा है, "लेखक पी. मुरुगन की मौत हो चुकी है। वह भगवान नहीं है। वह फिर नहीं आएगा। इसलिए अब सिर्फ पी. मुरुगन, एक शिक्षक जिंदा है।" नोट में उन सभी लोगों का शुक्रिया अदा किया गया है जिन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी और उनके उपन्यास का समर्थन किया है। नोट में पब्लिशर्स से अपील की गई है कि वह उनके उपन्यास को न बेचें, साथ ही वादा किया गया है कि उनके घाटे की भारपाई की जाएगी। पाठकों को सलाह दी गई है कि वे उपन्यास की प्रतियों को जला दें।

जबकि भैंस की सवारी बीचे जंग हमारे लिए कैथार्सिस है।

इसी खातीर हमारी भैंसोलाजी वाली एस्थेटिक्स डिफरेंट है विद्वतजनों,दक्ष कलाकुशली प्रतिष्ठित विशेषज्ञों से।

जैसे सविता कहती हैं कि गवारो रह गये हम और अब भी माटी गोबर की गंध से महमहाते हैं हम।

भैंसोलाजी लालू की राजनीति है तो यही भैंसोलाजी हमारे लिए रंगकर्म है।
आपसी मारामारी में लहुलूहान वक्त की सवारी है हमारी भैंसेलाजी जो हमारी भाषा है।कला है।संस्कृति भी वहींच।
जो किसी मजहबी फतवों के माफिक हउइबे ना करै हैं।

खुल जा सिम सिम सिम!

सिम दरअसल सिंग है,सिंग मछली ना,भैसवा क सिंग,गुता खाकै लहूलुहान जब तक न हो पता ही न चले कि सिंग का चीज है।

वीरेनदा से कल रात ही भौत बात करने का मन हो रहा था।
दरअसल भूत भगाने का मंत्र वे जाने हैं।
बड़का ओझा ह हमार वीरेनदा।

हमारे पाठक महान हैं।सिंग विंग ना मारे है।
थोड़ा भौत गाली गलौच,फतवा वगैरह झाड़ दिहिस,फिन शांतता।
जैसे वे शांतता रहते हैं डीफाल्ट।

चाहे कुछो हो जाई।शांतता।

मुरुगन गति अबही हमार होने का कोई चांस बाईदवे नहीं हैं।
प्रिंट का जियादा नोटिस लेते हैं लोग।
हम प्रिंट मा नइखे।

पता ही नहीं चलता कि जो हम रोज दिमाग का भरकुस बना देते हैं तान तान तानपुरा बना देते हैं,तो पाठक महाशय के दिलोदिमाग पर क्या क्या गुजरता है।

आगे उंगलियां हरकत में लाने के लिए पाठक की नब्ज जानना बहुत जरुरी है।
रिएक्शन ही होता नहीं है।
लाइको मारने से पहरहेज करते हैं हमारे पाठक।

शेयर वेयर वे किलिंग विलिंग फोटो सोटू का करै दीखै हैं।
अब हमपर तो तीन तीन मुआ भूतो का कब्जा हुई गयो रे।

हम अपण को रंग कर्मी मानते हैं।जिनगी मा हीरो त हो ना सकत है,लेकिन बसंती पुर और दिनेश हाईस्कूल की जात्रा पार्टी के हम हीरो हुआ करते थे।फर्क यह हुआ कि हीरो लोगो का जो फैन होवत है,वह फनवा हमारा ना हुआ कभी।

पर हीरोइन एक हुआ करता था।वही ससुरा दीप्ति सुंदर मल्लिक जो आघयो रहा पिछले दिनों कोलकाता  मा।

फिर रंग दिखावक चाही।


बसंतीपुर जात्रा पार्टी का बड़ा नाम रहे तराईभर में ।
अब भी बसंतीपुर के बच्चे सारे उत्तराखंड में जो सांस्कृतिक  कामकाज से उधम काटे हैं,वह जात्रा की विरासत है।

जात्रा पार्टी अब है नहीं।अभी अभी दिसंबर महीने गांव से लौटा हूं।आगाह कर आया टेक्का विवेक और बाकी बचे खुचे जात्रा पार्टी वालों को कि फिर रंग दिखावक चाही।

वर्धा में बच्चों से कह आया हूं कि निठल्ला हूं।रंगकर्मी ना कह सकत अपण को विशुद्ध।रंगचोर हूं।चितचोर नइखे।किसी के चित पर हमरा जोर नइखे।वरना लड़कपन में ही चित्त हो जाते।रसगुल्ला भगत जरुर रहा हूं।लेकिन अब तो मधुमेह है सो मधुमास हमारे वास्ते शुगर कांटेंट है।हम ससुरे आइडियाबाज है।

गिरदा की सोहबत का असर हुआ ठैरा।
वो गिर्दा भयंकर फिलासाफर रहा करै है।

कवि जेतना,उससे बढ़कर फिलासाफर।
थिंक करके करके थिंक टैंक ना बन पायो तो का,नैनीतालमें सत्तर के दशक में हमारी पूरी जमात का दिमाग गुड़गोबर कर गयो।

मर गया गिराबल्लभ ससुरा ,लेकिन ससुरा सोच वाइरल बना गया।
हम अबही वहीं वायरल का शिकार वानी।

वीरेनदा भी अब गिरदा की कविता से हुड़का की थाप निकालने की फिराक में है।
गिर्दा का हुड़का फिर बोले है तो इस शांतता समय को बाट लग गया समझो।

नैनीताल के गिर्दा समय का रोग है यह रंगकर्म जो जात्रा पार्टी के पारसी थिएटर के फर्माटे से लोक में स्थानातरित हो गया युगमंच सान्निध्ये।

लेनिन पंत,मोहन उप्रेती,बृजमोहन साह और बाबा कारंथ जैसे लोगों के साथ उठने बैठने का शउर सीखा नैनीताली रंगकर्मियों ने तो बादल सरकार और भारतेंदु को भी रंगकर्म मा नुक्कड़ नुक्कड़ खेल दियो।

एनएसडी दिल्ली तो हमारे लिए नैनीताल स्कूल आफ ड्रामा ठहरा।

एनएसडी वाले भी युगमंच के साथ वर्कशाप किये ठैरे।आलोकनाथ नीना गुप्ता वगैरह वगैरह आये रहे।

गिरदा तो खैर परफार्मर थे।
हम थे विशुद्ध चिंतक।

रिहर्सल, नाटक पाठ,परफार्मेंस वगैरह देखते हुए नुक्ता चीनी करने वाले विशेषज्ञ जैसे मोड में और फिर रिहर्सल या पर्फर्मांस के  बाद घूंटघूंट चाय  या घूंट घूंट सुरा मा हिस्सेदारी निभानेवाले या जब तब बाकी लोगों के साथ गिरदा के साझा लिहाफ में घुस जाने वाले या रंगकर्म और साहित्य पर हिमपात मध्ये गिर्दा सरगना गिरोह के साथ अप डाउन मालरोड करते हुए शून्य तापमान का मुकाबला करने क दगाड़।

तो आइडिया बघारने की आदत तभै से ठहरी।

पारफर्म तो कोई कर नहीं रहे हैं।न कर सकै हैं।


हमने जनकृति और काफिला के ईर्द गिर्द रंगकर्मियों से कहा भी कि हम तो आइडिया फैंकने वाले तिजारती हैं सौदागर ख्वाबों के,मुफ्त में माल बेचे हैं कि दोस्ती कमाना हमारी फितरत है कि अपने अपढ़ बाप ने बसंतीपुर के खेतन मा कीचड़ मा धंसे कह दिया था कि ससुरी जिनगी सर्पदंश है।

सांप का काटा मरीज है आदमी ससुरा।
जब तक जहर झेलने की कुव्वत है तो जीते रहो मरदवा।

जहां झेल नाहीं सकत है,हार्टफेल हुआ मरबो।
फिन उनने कहा कि दोस्त कमाओ ज्यादा से जियादा।
कमसकम हौसला बने रहके चाहि।फेर हार्ट फेल ना हुआ करें।

उनके भी दोस्त कम ना रहे।रीढ़ की हड्डी में कैंसर के बावजूद लाइलाज देशभर दौड़ते रहे जब तक गिरे नाही।गिरे त मरे नाही।दिल भारी मजबूत था।

हम उनकी मौत का इंतजार न कर सकते थे।
टुसुवा हाईस्कूल की तैयारी में था 2001 और हमारी चाकरी अलग थी।

कोलकाता चले आये तो पद्दो ने फोन पर बताया कि पिताजी का हार्टफेल कर गया।
हम ताज्जुब में थे कि उनने दुनियाभर से फ्रेंडशिप की और आखेर हार्टवा फेल हुई गवा।

पद्दो ने कहा कि पिता से पूछा गया था कि उनकी आखिरी इच्छा क्या थी।
इसपर वे बोले थे कि अपने दोस्तों के साथ वे वहीं अनंत विश्राम चाहते हैं,जहां वे सोये हैं।दोस्त मतलब कि उनके आंदोलन के ससुरे कामरेड बसंतीपुर वाले।

वे भी बाकायदा घर में कचहरी ताने सबसे राय मशविरा करके हर मामले का फैसला करते थे।दसियों कोस से लोग राय पूछने आते थे कि रोपाई कब करनी है और बिजाई कब।बैल किस हाट से खरीदना है और खेतवा जोते कबसे।

सब मिल बैठकर फैसला होता था।
वहीं था हमारा रंग चौपाल।

वहींच था गिर्दा का रंगकर्म।बहसो इतना तगड़ा करके हम युगमंच का खलनायक बन गये ठेरै बिना पर्फर्म किये।

जब ससुरो को मौका लगा बनारस में 2000 मे,गिरा्दा कोहीरो बनाकर पूरे नैनीताली मजमा इकट्ठा करके तो भाई हमें वसीयत में जहूरवा जो बड़का बेटा बना था,उसका बाल काटे खातिर हमका नाई बना दिहिस।
वही फिल्म ससुरे फिर फिर देखें बदला लेने खातिर।

मतबल यह कि हम न रंग कर्म और ना कला की किसी विधा में  परफरमांस को आत्ममैथुन माने हैं।
हमें तो प्राध्यापक  सुरेश शर्मा जी के  बिजी हो जाने के बाद हबीब तनवीर प्रेक्षागृह, महात्मा गांधी अतंरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में कला और सामाजिक चेतना विषय गोष्ठी में अध्यक्ष बना दिया ठैरा।

हमउ असल मा पहाड़ी घुघुती वानी।घुगुती में ऐतराज हो तो समझो काक रहे हम कि कांव कांव शोर मचावत रहे तजिंदगी।

दूसर लोग बकबकाये जाये और हम शांतता बइठबो, ई सोहबत नइखे।

अध्यक्षता हमारे बस में नहीं।सब लोगों ने बोल दिया तो हमसे कहा गया अध्यक्षीय भाषण संक्षेप में दें।जानत रहे कि ई बोलबो तो बोलत  ही रहिस।

इस पर तुर्रा यह कि छत्तीसगढ़ी नाचा गम्मत और साहिर फैज की जुगलबंदी से छत्तीसगढ़ी रंगकर्मी निसार मियां ने अजब गजब परफर्म कर दिहिस।

उनके हर ठुमके पर दे ताली दे ताली।उनके हर जुमले पर हमउ  उछल उछल जाई।तो हमें कहना पड़ा कि ई जो कला उला है ,वो ना सौंदर्यशास्त्र है और न व्याकरण।
जितना तोड़बो,उतना ही मजा आई।

ससुरा ये जो रंग कर्म ,कला ,साहित्य संस्कृति वगैरह वगैरह है,ई विद्वता का मामला नईखे।खालिस परफर्मांस है।

बेटा, दम हो तो गुल खिलाकर दिखा जइसन तानसेन की भिड़त बैजू बावरा सेहुई रहि।बेटा बोलो मत,परफर्म कर दिखाओ।

कायनत में खलबली हो जाये,एइसन कोई करिश्मा कर दिखाओ।

हमने कहा कि कला दरअसल सामाजिक उत्पादन है और साझे चूल्हे की विरासत है।
वह आग साझे चूल्हे की न हुई तो वो कला वला हमारे लिए दो कौडी के न होबे।

सामजिक सरोकार न हो तो कलाकौशल दक्षता,भाषा तिलिस्म तमाम निकष उत्कर्ष और रंगबरंगो पुरस्कार सम्मानमान्यता प्रतिष्ठा दो कौ़ड़ी का है।

तो हमने कह दिया कि सबसे बड़ा रगकर्मी तो कबीरदास हुए जो बीचबाजार ताल ठोंककर  अपना अपना घर फूंकने की हांक लगाते रहे।

हम तो अपने बाप को तजिंदगी अपना घर फूंकते देखते रहे हैं।
रंग कर्म और कला साहित्य,संस्कृति के हमारे लिए पहला सबक यही है।

अध्यक्षीय भाषण में राशन तय होता है।ढेरो ना पाद सकै हैं।

पादबे खातिरे गोरख पांडेय हास्टल,नागार्जुन सराय और ढाबे में असन जमाये बच्चों के मुखातिब हुए और कह दिया कि बच्चों,परफर्मर तो तुम्ही करोगे। या परफर्म करेंगे अपने मियां निसार अली।

हम तो नुक्ताचीनी की पुरानी आदत से बाज आने से रहे।

गिरदा और हम में बस यही चार इंच का फर्क है।

हम दोनों जुड़वां भाई ठैरे वैसे।वो खास अल्मोड़े के कुलीन तिवाड़ी बामण छन  और हमउ तराई में रिसेटल बेनागरिक अछूत बंगाली शर्णार्थी।रक्तसंबंध नाहीं।आध्यात्मिक रिश्ता जैसा कुछ है।

वो जेनुइन रंकर्मी रहिस।कविता तो हवा पानी है।रंगकर्म के लिए बेहद जरुरी बा।
जैसे लोक रंग के बिना रंगकर्म नंगटा पहाड़बा।

बिन हरियाली मरघट सा खेतवा जइसन या कि कच्छ का रण,नूनो का समुंदर हो।

झां सफेद कभीकभार दीखै है,माल पानी नइखे।

रंगकर्म तो मजदूरी है,जेकर दिहाड़ी मिलबो के नाय,कोई ना बता सकै हैं।
घर फूंक तमाशा है।जो कबीर बनना चाहे,रंगकर्म आजमा कर देख लें।

आपण घर फूंके का मजा अलग है।
पिता हमारे भी घर फूंक के बिना फिक्र बिना सलवट बेफिक्र खेत हुई गयो।

वो भी रंगकर्मी बाड़न।वे लेकिन परफर्मर थे।कीचड़ में धंस धंस कर गोबर में लथपथ।
हम तो माटी को तरसै हैं और गोबरगंध भूल गये हैं।देहवा डिओड्रेंट भयो।

बाकीर  जो जनोसरोकार का तिल है,वो हम गिरदा हम दोनों में कामन ठैरा।वो ससुरे हमारे सारे दोस्तों में कामन हुइबे करें।

तनिको गौर से देखें तो वीरेनदा,आनन्दी स्वरुप वर्मा,पंकजदा ,राजीवदाज्यु की क्या कहें न कहें,अपने युवा तुर्क रियाज और अभिषेकवा और अमलेंदु में भी वहींच तिल होइबे करै हैं।जो निसार अली के पासो है आउर ससुर हर जेनुइन रंगकर्मी के घोंघिया आंखि के आसोपास कहीं न कहीं रहबे करै हैं।

वीरेनदा को कल रात से रिंगाये रहे हैं।

वे लिहाफ ओढ़े आलसी महाजन बने बैठे। सुबह यानी कि जब हम आंखि चियार रहीं,हकबकाय अखबार बांचे रहै तो सुबह है।

आजोकाल एक मुश्किल अच्छे दिनों की अजीब है।

दफ्तर आने जाने में वक्त भौत जाया होता है।
दिल्ली रोड मुंबई रोड दोनों पार करके दप्तर से आना जाना।

कल हमारे घर के पास जो सोदपुर रेलवे स्टेशन लांघने को फ्लाईओवर है,उसके बीचोंबीच जोड़ इंसाान फर्राटा मराकर मोटर साईकिल दौड़ाते दौड़ाते ट्रक के नीच कुचले हैं।तो तुरंत यह लाइफ लाइन बंद।

56 नंबर की बस सीधे दिल्ली रोड कनेक्टर तक फेंक कर हावड़ा निकल जाती है बेलुड़ होकर। ब्रिजवा के मुखवा वो मुड़कर निकली तो जल्दी जल्दी दफ्तर पहुंच खातिर हम उमा बइठ गये।दो किमी को चक्कर लगाकर रेलवे क्रासिंग,फेर बीटी रोड।

रेलवे क्रासिंग पर जाकर देखा कुलै ट्रैफिक वहीं फंस गया।कुलै ट्राफिक जाम।
मौसम बेमौसम विकास का जलवा यह कि रस्ता सारा खन दिया।
न आगे  और न पीछे जा सके।

झख मारकर पैदल बीटी रोड जाकर डनलपके लिए गिरजा से बस पकड़े तो वे सोदपुर चौराहे तक पहुंचकर बंद हो गयी।

आगे रास्ता फिर जाम।

रात के नौ बज गये तो बीटी रोज से बड़ा पाव लेकर सविताबाबू के दरबार में वापस लौट आये।फिर आसन जमाकर बइठ गये पीसी के सामने।
बीचों में फंसे रहे तो क्या करें,ममझना मुश्किल है।

इधर दीदी कटघरे में हैं।
जाड़ों में मुकुल पतझड़ हो गयो तो अब केसरिया ब्रिगेड बंगाल दखल को मुस्तैद है।
कोलकाता कारपोरेशन दखल वास्ते अमित शाह काफी नहीं।मोदी खुदै आ रहे हैं।

दीदी के मंत्री मतुआ मंजुल के बेचो को केशरिया तोप दिया और वह अब वनगांव लोकसभा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी हैं।

हिंदुत्व उन्माद के लिए चिड़िया की आंख बंगाल विधानसभा चुनाव है।
अमित शाह ने कह रखा है कि बंग विजय के बिना भारत विजय अधूरा है।

मुकुल अंदर दाखिल होते न होते दीदी की बारी है।उसीकी तैयारी है।

लालू प्रसाद को चारा घोटाले में जेल में भेजे रहि उपेन विश्वास को सीबीआई के मुकाबले दीदी का सिपाहसालार बना दिया गया है और बाकीर राजनीतिक मोर्चाबंदी है और बंगाल को आग लगा देने की पूरी तैयारी है।

नेशनल हाईवे और एक्सप्रेस वे जो हैं सो हैं,बाकीर जो कनेक्टर है वहां या तो गड्ढा खना है विकासे खातिर या फिर वसूली है ट्रकों से जबरजंग।

ट्रक वालों को मीलों दूर खबर हो जाती है।जहां तहां ट्रेन सरीखा कंटेनर बीच सड़क में खड़ा करके सो जाते हैं शुतुरमुर्ग की तरह।रास्ता खुल जायी तो डंडा मार मारकर उठाना पड़े।

वातानुकूलित कार  तो है नहीं,पुल कार से घर लौटते हुए ट्रकों के काफिले के आगे पीछे रोज खुल जा सिम सिम सिम जाप है।

सर्दी कड़कड़ती है और रास्ते के चारों तरफ अब भी दखल हुई बिन नीली झीलें हैं।
हवा सनसनाती जाये और कारमा शीतलहर जैसा हाल हुआ करे।

नीचे से सर्द हवा फुरफुराते हुए कलेजे तक में बिंध जाये।

एक बजे कि साढ़े बारह बजे भी दफ्तर से रवानगी हो तो मुंबई रोड दिल्ली रोड लांघकर घर आते आते साढ़े तीन चार बजबे करे हैं तो हमारे लिखने पढ़ने का भी बारह बजे है।

यह है हीरक चतुर्भुजवा का हालचाल।
रंग केसरिया है और कमाई भी केसरिया है।
जो रंग की राजनीति है कमाई उसी रंग की ।
न सफेद और न काला।

अमित शाह ठीक ही बोलिस हैं कि मामला जटिल है।
पता चला है कि झारखंड क केसरिया बनते ही पब्लिक एजंडा तालाबंद है।

बाकीर कल का दिन खराब रहा।शुगर बड़ा है तो डाक्टर ने कड़ा डोज दिया है।दिनचर्या साधते रहे हम महीनेभर।पण शुगर फेर बढ़ गया है।

दिमाग ऐसा खराब हुआ कि अपनी नई चप्पल छोड़ वहीं,टूटहा और किसी की चप्पल पहिन कर घर लौटे।

सविता हायहाय करने लगी कि अभी तो मफलर गुमाये हो।
बोली,टोपी भी हराय हो।कपड़े लत्ते कब तक सहीसलामत रहेंगे,अब कहना मुश्किल है।

डाक्टर ने लेकिन दिलासा दिया कि शुगर बढ़ने में फाल्ट हमारा नहीं है।उनने जो नयी दवा मंहगी लिख मारी ,उ बेकार है।
हम तो गिनिपिग बन गइलन।
फेर नयी दवा लिख दी।

डाक्टर फुरसत में थे।बचपन के किस्से बताने लगे तो हमउ बतियाने लगे।
फीस न दी।
लौटने लगे तो असिस्टेंट ने धर लिया,फीस तो देते जाओ।

सुबह वीरेनदा को फोन लगाया तो भाभी ने पकड़ा।
उनने कहा कि ददा बाथरूम में है।

हम तनिको दुकान वुकान हो आये कि ददा का फोनवा आ गया।
बोले कि मकर संक्रांति है।काक स्नान है।
बोले कि पहाड़ों में घुघुति पर्व है और बागेश्वर में उतरैनी का मेला शुरु हुआ है।

कोलकाता में भी गंगासागर मेला चल रहा है,हम जानै है।
पिछले तेइस साल से न जाने किस साध्वी के प्रेम में फसे अपने जयनारायण इस बार बिना बीमार हुए लगातार वहीं डेरा बांधे हैं और एकोबार नहाया नहीं है।
इसबार भी उसका तंबू वहीं लगा है।

वीरेनदा बोले कि कई दिनों से नहाया नहीं था।कल रात लिहाफ से निकलकर फोन लगाया था और सुबह भी लगाया तो रिंगवा हुआ नहीं।

हम तड़ाक से बोले कि कुछो समझ में नही आ रिया है कि वायरल हो गया।

वीरेनदा बोले जिस फारमेट में लिख रहे हो .वह तो ठीकै था।मैं तो मजे ले रहा था।जान रहा था कि नाचा गम्मत में फंस गये हो।परफर्मांस कोई झटकेदार देखके अभिभूत हो तो यह दौर चलेगा।फिर पुराने ढांचे में लौटोगे।

हम बोले तीनों भूत परेशान किये हैं।
पहिला नंबर वो हबीब तनवीर।मर गयो।छोड़ गयो नाचा गम्मत।
दूसरा भूत और खतरनाक है,वो रहा हरिशंकर परसाई।
और तीसरका ताजा भूत चरणदास चोर,वहीं चेतराम का जीव।

वीरेनदा बोले,समझ रहा हूं।
हम बोले कुछो नाय समझे।

हमने उनको समझाया कि अनेकों जिंदा भूतों के फेर में हूं।रंग चौपालों में फस गया हूं।रंगकर्मियों के मेले में भटक गया हूं।

निसार अली तो जिंदा भूत होइबे करै हैं।
ससुरो परफार्मेंस से दिलोदिमाग का नोटबोल्टवा ढीलौ छोड़ दिया है।
उनके साथ इप्टा की विरासत भी है और छत्तीसगढ़ के सगरे रंगकर्मी भी।
बाकी तमाम थेटर वाले है।
रंग चौपाल है।

वीरेनदा ने इलाज बता दियो कि रुक रुककर तानो।
लगातार मत खींचो।

हमने फिर बताया कि लिहाफो अंदर घुसे रहे हो और हमें अंदाज नहीं कि केतना कम्युनिकेट हो रहा है।

पुरोहिती विशुद्ध भाषा तो हमारी सोहबत ना है।
लोक तो वैसे भी खिचड़ी है।परोसने की रस्म कोई पंडिताउ ना है।
लोक बिलकुल छठ पर्व है।

हम तो छत्तीसगढ़ी,भोजपुरी,कुंमाउंनी,मराठी का काकटेलवा पेश कर रहे हैं।
हाजमे में का का असर हो रहा है।

समझ नहीं पा रहा तो रिंग दिया मियां नसीर को।
वे बोले ठीकौ है।
ताने रहो कि दुई चार टुकड़े मतलब के निकर आई तो नुक्कड़ भी ताने देंगे।

हमने दा से बताया कि सन 1991 से हिंदी अंगेजी बांग्ला में आर्थिक मुजद्दों पर लगातार लिख रहा हूं।एको आदमी ऐसा मिल नहीं रहा जो कहता हो कि उसको समझ आया।

मुंबई प्रेस क्लब में और सेक्टर सेक्टर दर सेक्टर बजट विश्लेषण करते रहे,किताब लिख मारी तो कोई हलचल ना हुई।

अब रंगकर्म के सिवाय कोई चारा नहीं है।
वहींचएको रास्ता बचा है।
सो रंग चौपाल।

जिस भाषा में हमारी बात जनता तक पहुंच ही नहीं रही हो,जिस भाषा में लिखने से लोग समझते तो हों,पर शांतता फार्मेट से बाहर ननिकले शुतुरमुर्ग ट्रकवाला जइसन दीखे हों कि लाइको ना मार सकै हैं और न शेयर करने की हिम्मत है और न असम्मति जोर आवाज में बोल सके हैं तो बोलियों के रस्ते गलियों मोहल्ले में धूल फांकने के अलावा हमारे पास बचता क्या है।

वीरेनदा बोले ,बड़ी समस्या है।
हम तो खुल जा सिम सिसम सिम जाप रहे हैं।
लेकिन दिलोदिमाग के सारे दरवज्जे बंद हैं।

आपको सूझे तो रास्ता तो बतायें जो हाईवे एक्सप्रेसवे से बेहतर हों।

आर्थिक सूचनाएं अनेक है।
साझा करने से क्या फायदा कि कोई हलचल ही नहीं है।

जाते जाते एक राज की बात कहें कि हम जो भोजपुरी लिखने का जोखिम उठा रहे हैं,वो बिना आधार नइखे।

बसंतीपुर मा हमार पांच पांच भाई भोजपुरिया बोलेक रहि।
वे भी हमरे परिजन हैं।
महावीर भाई नहीं रहे।
भौजी अब भी गोबर पाथे हैं जबकि बहुएं रसोई गैस से बनावे हैं।

रामविहारी देस मा लौट गयो देवरिया के पास।
बाकीर दो भाई वहीं बस गयो वीरबहादुर के पूरबिये कायाकल्प के बाद।

श्यामबिहारी लगभग हमारी उम्र के हैं।हमारे घर के पिछवाडे ही उनका घर है।बसंतीरपुर मा जब रहे तो सुबह नलके पर दातुन वतून करके उसी घर में चाय चुई पीवत रहे हैं।

बाकीर हमारे घर का मैनेजर जो हुई रहे हैं,उनर नाम जउ हरिजन है,जिनसे हम भोजपुरी सीखै रहै।पूरब से जो मजदूरी करने खातिर साठ के दशक में आये रहे उनर हाथों बनाय़ी मोटी मोटी आग सेंकी रोटियों का स्वाद अभी खूनै मा बाकी बा।

आगे का लेखन कइसे किया जाई कइसे या तिलिस्म तोड़े खातिर कुछ करेके बा,आप लोगन की राय के इंतजार में रहेंगे हम।

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