Wednesday, March 2, 2016

करें ना हल्ला देश हवाले दल्ला! दिनदहाड़े पीएफ डकैती पकड़ी गयी तो बंधने लगी घिघ्घी,नकद लेनदेन पर टैक्स जो लगा,उसपर हल्ला हुआ नहीं है अभी। पीएफ पर टैक्स लगाया।अब नानाना,सचकभी ना कहना।


करें ना हल्ला देश हवाले दल्ला!

दिनदहाड़े पीएफ डकैती पकड़ी गयी तो बंधने लगी घिघ्घी,नकद लेनदेन पर टैक्स जो लगा,उसपर हल्ला हुआ नहीं है अभी।

पीएफ पर टैक्स  लगाया।अब नानाना,सचकभी ना कहना।



पलाश विश्वास


दिनदहाड़े पीएफ डकैती पकड़ी गयी तो बंधने लगी घिघ्घी,नकद लेनदेन पर टैक्स जो लगा,उसपर हल्ला हुआ नहीं है अभी।


फिलहाल दो लाख की लेन देन पर टैक्स लग रहा है।आप अपनी बचत के शफेद धन से कोई घर भी बनाने चले तो पहले टैक्स अलग रखें।यही लेनदेन टैक्स समरसता का अगला अध्याय है।जो पास हो गया तो फिर बाहैसियत करदाता अंबानी अडानी के बराबार हो जायेंगे हम।यह कर ढांचे का सरलीकरण है।


बाकी इस जहरीले बजटबुलेट कि मिथाइल आइसोसाइनाइट का किस्सा हम पहले ही बांच चुके हैं।


मिथाइल आइसोसाइनाइट जैसा निःशब्द कत्लेआम का इंतजाम यह बजट!

डाउ कैमिकल्स के वकील अब समूचे देश को भोपाल गैस त्रासदी में बदलने लगे!



पीएफ पर टैक्स  लगाया।अब नानाना,सचकभी ना कहना।


बगुला संप्रदाय के अर्थशास्त्र के मुताबिक फर्जी आंकड़ों के दल्ला राजकाज के फर्जी विकास की आर्थिक समीक्षा में सीना ठोंककर पीएप पर टैक्स लगाने की बात कही गयी थी।


बजट में पीएफ टैक्स का प्रावधान लागू करते वक्त था नहीं सोचने समझने का कि गांव,देहात,खेत,इत्यादि के बहाने जल जंगल जमीन के सफाया की सलवा जुड़ुम हुकूमत की  मेहनतशो और कर्मचारियों को,मध्यवर्ग को गरीबों और किसानों से अलग करने की हिंदुत्व राजनीति आखिर खुल्ला चांदमारी है और मेहनतश और सरकारी कर्मचारी संगठित ही नहीं हैं,चुनाव नतीजे बदल देने वाले लोग हैं।


थोड़ा सा शोर शराबा हुआ नहीं कि सुर बदल गया।


समझ लो भाइयों कि ये कायरों की जमात है।जो संकट की घड़ी में गिरगिट की तरह रंग बदलती है।यह दल्ला बहुतल्ला है।


दिनदहाड़े पीएफ डकैती पकड़ी गयी तो बंधने लगी घिघ्घी,नकद लेनदेन पर टैक्स जो लगा,उसपर हल्ला हुआ नहीं है अभी।


बीमा पहले से वे बाजार में डाल चुके हैं।

रोजगार आजीविका,जल जंगल जमीन सबकुछ बाजार में डाल चुके हैं बाजार के दल्ला।


बाकी रही जेबें,वे कट ही रही हैं।

दिल काट लिया,दिमाग काट लिया,वजूद किरचों में बिखेर दिया, जमीर का नामोनिशां मिटा दिया,इंसानियत जमींदोज हैं और कायनात कयामत है।


इस आलम में पीएफ और अल्प बचत बाजार में डालने का मौका उनने चुना तो डकैती पकड़ी गयी और फौरन घिघ्घी बांधते हुए सफाई कि असल पर नहीं,ब्याज पर टैक्स लगेगा।


हम उन्हें उल्लू के पट्ठे नजर आते हैं।


इसीलिए जिन मनुस्मृति की वजह से संघ परिवार की दुर्दशा भारत दुर्दशा है,उनहीं मनुस्मृति को मायावती के मुकाबले यूपी में ताजपोशी के लिए उछाला जा रहा है।


हम उन्हें उल्लू के पट्ठे नजर आते हैं।


क्योंकि हम बहुसंख्यक आस्थावान हिंदू हैं और आस्था हमारी ताकत नहीं,दुखती हुई रग है।


आस्था हमारा इहलोक नहीं है,परलोक है।

आस्था हमारी आत्मा नहीं है बल्कि आस्था हमारे लिए मुक्त बाजार का अनंत भोग है और हम सभी लोग कमोबेश बजरंगी हैं।


सोचना समझना हमारे बस में नहीं है।दल्ला की दलाली में हम धर्म कर्म न्यौच्छावर कर चुके हैं और यही हमारी देश भक्ति है।

इसीलिए हम उन्हें उल्लू के पट्ठे नजर आते हैं।




कोई उनसे पूछे ब्याज पर टैक्स लगेगा तो हम जैसे ईमानदार नागरिकों को क्या बाबाजी का ठुल्ल्लु मिलेगा।


इसी तरह एफडीआई और विनिवेश में जोर का झटका धीरे से लगाकर अब मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में सौ फीसदी एफडीआई है और पूरा देश ओएलएक्स पर विनिवेश के बहाने सेल पर है।


किसानों और कारोबारियों को ठिकाने लगाने के बाद अब मेहनतकशों और कर्मचारियों के मरी हुई आम जनता से अलग करने के लिए गरीबी का याह वसंत विलाप है,जिसका मकसद है,एक तीर से दो निशाने।


हम उन्हें उल्लू के पट्ठे नजर आते हैं।



गरीब तजिंदगी यह हिसाब जोड़ नहीं सते कि उन्हें क्या मिला,क्या नहीं मिला,उनके हिस्से ख्याली पुलाव।पढ़े लिखे तबके वैसे ही बुड़बक हैं जिनने बाबासाहेब को धोखा दिया और आम जनता को रगड़ने में वे हुकूमत के हाथ पांव हैं तो आम जनता को कुत्तों ने नहीं काटा कि उनका साथ देंगे।बाप का माल जो लाखों करोड़ पीएफ में है,वह इन ससुरों को देने के बजाय बाजार में झोंक देने का सही मौका है।


हम उन्हें उल्लू के पट्ठे नजर आते हैं।



हल्ला हुआ तो संबव है कि वे सच कह रहे हैं कि फिलहाल ब्याज तक कयामत रुकी हुई है और फिर मौत को न्यौता देने की जरुरत नहीं होती।बिना बजट आखेट का सिलसिला ही सुधार है।यही सिलसिला कत्ल का सिलसिला है।जिसका विरोध राजद्रोह है यानी हुकूमत के खिलाफ बगावत।


हां, जी हुकूमत के खिलाफ बगावत राजद्रोह है।

हां, जी हुकूमत के खिलाफ बगावत  राजद्रोह है,राष्ट्रद्रोह नहीं है।

सत्ता के खिलाफ,जनसंहारी नीतियों के खिलाफ खड़ा होना राजद्रोह है,ऐसा राजद्रोह जो राष्ट्रहित में अनिवार्य है।

राष्ट्रहित में अनिवर्य राजद्रोह को वे राष्ट्रद्रोह बता रहे हैं।

हम उन्हें उल्लू के पट्ठे नजर आते हैं।



हमभी वही समझ रहे हैं क्योंकि हम अंध राष्ट्रवादी हैं और यह नहीं सझते कि राष्ट्र को बेजनेवाले दल्ला राज के खिलाफ विद्रोह अनिवार्य है और यह राजद्रोह राष्ट्रद्रोह नहीं है,राष्ट्रप्रेम है।

जनहितों से ऊपर राष्ट्र हित नहीं होता।


जनहित ही राष्ट्र है क्योंकि राष्ट्र जनता से बनता है अबाध विदेशी पूंजी से नहीं।अबाध विदेशी पूंजी के दल्लाराज के खिलाफ इसलिए विद्रोह अनिवार्य है।हुकूमत के खिलाफ इसी बगावत को वे राष्ट्रद्रोह बता रहे हैं और हम मान भी रहे हैं।फिर हम भीड़तंत्र में भेड़ हैं ।


रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या को छुपाने के लिए जेएनयू को निशाना बनाया तो विश्वविद्यालयों में आग लगी है,जिसमें झुलसने लगी मनुस्मृति तो वैशाली की नगरवधू का अवतार हो गया।


वर्धमान में मुंह की खानी पड़ी सत्ता को,जेएनयू में बजरंगी बवाल की वजह से दिवालिया बादशाह सरेआम राजपथ पर नंगे खड़े हैं और कड़ी शिकस्त के बावजूद घनघोर हिंदुत्व का रास्ता चुन रहे हैं और उन्हें अपनी इस नंगी सियासत में मजा भी खूब आने लगा है।


जयश्री राम के नारे फिर गूंजने लगे हैं।

फिर कारसेवा की तैयारी है।

कश्मीर में अलगाववादियों के साथ सत्ता शेयर करने की उतावली बेशर्म सियासत को कश्मीर शब्द के उच्चारण से ही सजग नागरिकों को राष्ट्रद्रोही करार देने में सत्ता की सुगंध मिल रही है।


जितना तेज हो रहा है आंदोलन,जितने गोलबंद हो रहे हैं देशभर में मनुष्य,उतने ही अंधेरे के जीवजंतु अंधियारा का कारोबार फैला रहे हैं।इस फैले हुए रायते में वे अपनी कब्र खोदने लगे हैं।


संसद में जनता की आवाज गूंजने लगी तो बेगुनाह इशरत जहां के मुसलमान होने का फिर फायदा यह कि एक और मुसलमान को गद्दार बनाकर खड़ा कर दिया क्योंकि जेएनयू के छात्रों को गद्दार साबित करने के सारे कारनामों का खुलासा हो गया है।


सामने फिर वही मुसलमान,और भारत देश के जनगण की देशभक्ति की सबसे पकी हुई जमीन है नफरत मुसलमानों के लिए।इसलिए  वे रोज नया नाया खेल करते रहेंगे और बुड़बक की तरह हम लोग आयं बांय बहस में उलझकर बुनियादी मुद्दों से भटकते रहेंगे और देश दल्ला हवाले।

वैशाली की नगरवधू और सोप ओपेरा में तब्दील लोकतंत्र का बेनकाब चेहरा


आज फिर लोकतंत्र में अभिनय दक्षता निर्णायक होती जा रही है।आवेश,आवेग और मुद्राओं का लोकतंत्र है यह,जहां चिंतन मनन सत्य असत्य मतामत सहमति विरोध जैसे तमाम लोकतांत्रिक शब्द बेमायने हैं।


संवाद और स्मृति और अभिनय के साथ मुद्राओं की पेशावर दक्षता से जनता का दिलोदिमाग दखल कर लो और यही निर्णायक है।


अब संसदीय बहस के लिए बेहद जरुरी है कि सभी पक्ष जनता की नुमाइंदगी के लिए पेशेवर अभिनेता और अभिनेत्रियों को चुन लें क्योंकि इस लोकतंत्र में फिर वही वैशाली की नगरवधू की पूनम की रात है।

Every other Indian is deshdrohi because every other Indian stands with JNU!That is why,no wonder,JNU row: Rahul, Kejriwal, Yechury, D Raja among 9 booked for sedition!

Sedition is the latest theme song for Manusmriti regime.Just speak out against the hegemony,just dare to lodge your dissent,just speak conscience,they would not spare you!

Absolute power unprecedented!

#Shutter Down JNU

#Shutter Down Jadavpur

#Shutter Down All Universities!

#Shutter down all Institutes!

#Invoke the KaalRatri

#Never cry freedom

#Never Cry Equality

#Never cry Justice

#Absolute Regime selects its People

#Guillotine waits for others

#Defend your daughters to be raped if you can

#Daughters hide your faces if you can

#Shutter down all doors and windows lest light might eneter the Hell losing that Hindutva turns out

#Watch Bardwan scenario where goons all those doors whereingirl students live and threatened that they should stop studies lest the might be raped!

#JNU breaks Manusmriti because it cries equality so Shut Down JNU

# JNU breaks Manusmriti because it cries justice so Shut Down JNU

#JNU breaks Manusmriti because it empowers girls sashing the Sati Rule of Hindutva so Shut Down JNU

Thus,JNU row: Rahul, Kejriwal, Yechury, D Raja among 9 booked for sedition!

क्या हम मनुष्य भी हैं?

क्या मनुस्मृति की निंदा काफी है,उनका क्या करें जो सेकुलर हैं और बेटियों को बख्श नहीं रहे हैं?

बंगाल में अब छात्राएं स्कूल कालेज छोड़कर घर जाकर मुंह छुपा रही हैं क्योंकि राजनीतिक गुंडे न सिर्फ उनसे मारपीट कर रहे हैं बल्कि उन्हें बलात्कार करने की धमकी दे रहे हैं,सरेआम।

हिंदू क्या हिंदू  राष्ट्र क्या,बुनियादी सवाल यह है कि हम हिंदू हों न हों,क्या हम मनुष्य भी हैं और जिस राष्ट्र के नाम यह कुरुक्षेत्र है,वह राष्ट्र क्या है,कहां है!


सच है कि यादवपुर विश्वविद्यालय के साथ साथ जेएनयू के पक्ष में कुछ विषैले जीवजंतुओं के अलावा पूरा बंगाल एकजुट है,तो सात मार्च को संभावित चुनाव अधिसूचना से पहले केसरिया मुहिम के तहत यादवपुर विश्वविद्यालय में दीदी ने पुलिस नहीं भेजा,लेकिन वर्दमान विश्वविद्यालय में पहले कैंपस में पुलिस बुलाकर छात्र छात्राओं को धुन डाला गया।फिर इसके खिलाफ जब वे अनशन पर बैठे तो तृणमूल कर्मियों ने रात में बत्ती बुझाकर उनकी खबर ली फिर मोटर बाइक पर सवार होकर घूम घूमकर  छात्रावासों और निजी आवासों में जाक छात्राओं को घुसकर बलात्कार कर देने की धमकी दे दी।


हालात ये हैं कि पूरे वर्दमान जिले में बलात्कार का शिकार होने के खतरे के मद्देनजर छात्राएं स्कूल कालेज छोड़कर घर में मुहं छुपाकर बैठने को मजबूर हैं।


कन्याश्री के राज में यह आलम है तो क्या सिर्फ मनुस्मति की निंदा करना काफी होगा?


पुरुष वर्चस्व  के आक्रामक लिंग से कैसे बचेंगी हमारी माताें,बहने और बेटियां जबकि सत्ता वर्ग के घरों में वे शायद हैं ही नहीं?

यह देश है वीर जवानों का। 2007 में असम में घटी थी यह घटना। दूरदर्शन पर इसे लेकर हंगामा हुआ था। इस औरत का नाम है लक्ष्मी ओरंग।



जेएनयू देखने में महिला विश्वविद्यालय लगता है,जहां करीब सत्तर फीसद छात्राएं तीश फीसद छात्रों के साथ पढ़ती हैं।


बनारस विश्वविद्यालय के साथ ही इसकी तुलना की जा सकती है।जेएनयू में दलित,ओबीसी और आदिवासी छात्र छात्राएं देश में जय भीम कामरेड का नारा बुलंद कर रही हैं।


इसी विश्वविद्यालय में अपने पूर्वोत्तर,हिमालय,कश्मीर,ओड़ीशा और असम जैसे पिछड़े इलाकों,द्रविड़ और अनार्य जनसमुदायों वाले दक्षिणात्य,लातिन अमेरिका और अफ्रीका के साथ साथ एशियाई मुल्कों के बच्चे पढ़ते हैं,लेकिन वहां कंडोम गिनने लगा है आरएसएस।


जो जन प्रतिनिधि ऐसा महान कर्म कर रहे हैं,उनने कभी अपने इलाके की कोई समस्या उठाया हो.मीडिया ने उसे इसीतरह फ्लैश क्यं नहीं किया ताज्जुब है।


दुनियाभर के लोग जानते हैं कि भारतीय राजनीति में सबसे विद्वान तीन लोग हैंःनेताजी,सुभाष और जवाहर।


हमारे शहीदे आजम भगत सिंह जैसे आजादी के लिए मर मिटे नौजवानों में भी विद्वता थी तो मां मनुस्मृति के हाथों बलि हुए दलित शोध छात्र की विद्वता की भी चर्चा दुनियाभर में है।


जेएनयू.यादवपुर विश्वविद्यालय समेत तमाम विश्विद्यालय, आईआईटी और आईआईएम समेत तमाम सरकारी उच्च शिक्षा संस्थान बंद करने के पीपीपी विकास माडल के तहत पतंजलि मार्का हावर्ड विश्वविद्यालय खोलने की मुहिम में बाकी देश को राष्ट्रद्रोही साबित करने पर आमादा मनुसमृति के सारस्वत वरद पुत्रों को अब नेहरु अपढ़ नजर आ रहे हैं.तो यह उनकी वैदिकी संस्कृति का ही प्रतिमान है,जिसके तहत कला साहित्य और ंस्कृति की तमाम विधाओं और माध्यमों में बहुजन अछूत और बहिस्कृत हैं।


बड़े अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि संसद में जिन सांसद सुगत बोस,नेताजी वंशज ने तृणमूल कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की डंका पीट दी,उनके राजकाज में हाल और बुरा है।


सच है कि यादवपुर विश्वविद्यालय के साथ साथ जेएनयू के पक्ष में कुछ विषैले जीवजंतुओं के अलावा पूरा बंगाल एकजुट है,तो सात मार्च को संभावित चुनाव अधिसूचना से पहले केसरिया मुहिम के तहत यादवपुर विश्वविद्यालय में दीदी ने पुलिस नहीं भेजा,लेकिन वर्दमान विश्वविद्यालय में पहले कैंपस में पुलिस बुलाकर छात्र छात्राओं को धुन डाला गया।


फिर इसके खिलफ जब वे अनशन पर बैठे तो तृणमूल कर्मियों ने रात में बत्ती बुझाकर उनकी खबर ली फिर मोटर बाइक पर सावर होकर छात्रावासों और निजी आवासों में जाक छात्राओं को घुसकर बलात्कार कर देने की धमकी दे दी।


हालात ये हैं कि पूरे वर्दमान जिले में बलात्कार का शिकार होने के खतरे के मद्देनजर छात्राएं स्कूल कालेज छोड़कर घर में मुहं छुपाकर बैठने को मजबूर हैं।


कन्याश्री के राज में यह आलम है तो क्या सिर्फ मनुस्मति की निंदा करना काफी होगा?


पुरुष वर्चस्व  के आक्रामक लिंग से कैसे बचेंगी हमारी माताें,बहने और बेटियां जबकि सत्ता वर्ग के घरोंमें वे सायद हैं ही नहीं?

हमारे गुरुजी ने आज लिखा हैः

मैं शत प्रतिशत भारतीय हूँ, राजनेताओं से भी अधिक भारतीय. भारतीयता मेरी अस्मिता है, व्यवसाय नहीं. जीवन के पिछ्ले ७५ सालों में मुझे हिन्दू होने या माने जाने से भी कोई गुरेज नहीं था. पर जब से इस देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ है हिन्दुत्व योगी आदित्यनाथ, सा्क्षी महाराज, तोगड़िया, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सनातन संस्था, और तमाम नामों से उभरती संस्थाओं के द्वारा व्याख्यायित होने लगा है, मुझे हिन्दू और हिन्दुस्तान शब्द में खालिस्तान, तालिबान जैसी अनुगूंज सुनाई देने लगती है. और मैं भारत और उसकी समन्वयमयी संस्कृति के भविष्य के बारे में चिन्तित हो उठता हूँ.

अभी मेरे गुरुजी को वे तमाम चीखें सुनायी नहीं पड़ी हैं,जिससे हिंदू क्या हिंदू  राष्ट्र क्या,बुनियादी सवाल यह है कि हम हिंदू हों न हों,क्या हम मनुष्य भी हैं और जिस राष्ट्र के नाम यह कुरुक्षेत्र है,वह राष्ट्र क्या है,कहां है!


हमारे गुरुजी ने आगे लिखा हैः

वैचारिक मतभेद, उन पर बहस, की संस्कृति के विकास में मुख्य भूमिका होती है. बहस करने और तर्क करने से ही किसी ्घटना या धारणा के मूल तक पहुँचने और नये तथ्यों के अन्वेषण में सहायता मिलती है. इसीलिए हमारे प्राचीन मनीषियों ने ' वादे-वादे जायते तत्वबोध: की सलाह दी थी. दुर्भाग्य से सामन्ती सोच वाला समाज और हर सत्ता इसे अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है और उसे हर तरह से दबाने की चेष्टा करती है. पर विचार तो चेतना है, वह कभी नष्ट नहीं होती, उसे दबाने वाले ही नष्ट हो जाते हैं. ऐसा समाज पिछड़ जाता है.


नये प्रवाह को रोकिये मत, केवल उसे सही दिशा में मो्ड़िये और खुद भी उसके साथ चलने का प्रयास कीजिये. क्यों कि समय पुरातनता की कैंचुल को अधिक दिन तक सहन नहीं करता. नित्य नूतनता ही जीवन है, जो पुराना हुआ उसे प्रकृति खुद ही मिटा देती है.


गुरुजी के कहे मुताबिक पुनरुत्थान समय के हिंदू राष्ट्र में  यह विवेक कहां है,जहां सहमति का विवेक हो और असहमति का साहस भी हो?



हमारे लोग जानते हैं कि हमने अपने पिता की कभी नहीं सुनी।उनसे मेरे मतभेद विचारधारा के मुद्दे पर भयंकर और सार्वजनिक थे।हालांकि मेहनतकशो की हर लड़ाई में हम उनके साथ थे और आज भी उनकी लड़ाई में मर मिटने का इरादा है।इसके अलावा हमारी कोई दूसरी तमन्ना नहीं हैं।


क्योंकि कैंसर को हराकर जीने वाले,लड़ने वाले और कैंसर के आगे आत्मसमपर्ण किये बिना सारा दर्द हंसते हुए आखिरी सांस तक दुनिया को बेहतर बनाने का ख्वाब देखने वाले पिता का पुत्र हूं।



पिता मेरे अपढ़ थे।अंबेडकरी थे और कम्युनिस्ट भी थे।मतभेद उनसे इसी अंबेडकरी मिशन को लेकर था।पिता अपढ़ थे और कोई भाषा उनके लिए दीवार न थी।


राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री वगैरह वगैरह से बेखौफ अपने लोगों के लिए लड़ने वाले उस पिता ने शरणार्थी होकर भी इस देश के मुसलमानों को कभी भारत विभाजन का जिम्मेदार नहीं माना।


उनने असम से लेकर देश के कोने कोने में दंगापीड़ित मुसलमान इलाकों में जाते रहने की अपनी कवायद को राजनीति या धर्मनिरपेक्षता के साथ कभी न जोड़ा।


वे  तमाम अस्मिताओं से ऊपर थे और जयभीम कामरेड का नारे न लगाकर भी वे तजिंदगी लाल थे और नील भी।


फिर भी मैंने उनका कहा कभी नहीं सुना।उलट इसके उन्होंने मेरे मतामत को हमेशा सर्वोच्च प्राथमिकता दी।


मेरी विश्वविद्यालयी शिक्षा दीक्षा मुझे अपने पिता से एक कदम भी आगे ले जा सके,तो यह उपलब्धि किसी पुरस्कार या सम्मान से बड़ी होगी।


तारा चंद्र त्रिपाठी जी ने मुझे कभी किसी कक्षा में पढ़ाया नहीं। जीआईसी नैनीताल में वे विज्ञान पढाने वाले शिक्षकों को हिंदी पढ़ाते थे और मैं हाीस्कूल पास करते ही साहित्यकार बनने की धुन में विज्ञान को अलविदा कह चुका था।


संजोग से हाफ ईअरली परीक्षा की मेरी हिंदी की कापी वे जांच रहे थे और वही देखकर उनने मुझे दबोच लिया और आज भी उन्हीं के कब्जे में हूं।


मेरे जीवन में वे ही एक मात्र व्यक्ति हैं,जिनका कहा मैंने हमेशा अक्षरशः पालन किया है जिनने पहली ही मुलाकात के बाद मुझे अपने घर परिवार में शामिल कर लिया।मैं जो कुछ भी हूं,अच्छा बुरा उन्हींकी बदौलत हूं।वे नहीं मिलते तो मैं कुछ भी हो सकता था,लेकिन आज जो मैं हूं,वह हर्गिज नहीं होता।


इस नाते से मैं ब्राह्मण भी हूं क्योंकि अगर धर्म है तो उस हिसाब से ताराचंद्र त्रिपाठी मेरे धर्मपिता हैं।


उन्ही ताराचंद्र त्रिपाठी का ताजा स्टेटस शेयर कर रहा हूं।हस्तक्षेप पर उनके इतिहास के पाठ जारी हैं।जो भी सही इतिहास पढ़ना चाहते हैं,हस्तक्षेप पर हमारे गुरुजी की कक्षा में उनका स्वागत है।

गुरुजी ने लिखा हैः


मैं शत प्रतिशत भारतीय हूँ, राजनेताओं से भी अधिक भारतीय. भारतीयता मेरी अस्मिता है, व्यवसाय नहीं. जीवन के पिछ्ले ७५ सालों में मुझे हिन्दू होने या माने जाने से भी कोई गुरेज नहीं था. पर जब से इस देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ है हिन्दुत्व योगी आदित्यनाथ, सा्क्षी महाराज, तोगड़िया, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सनातन संस्था, और तमाम नामों से उभरती संस्थाओं के द्वारा व्याख्यायित होने लगा है, मुझे हिन्दू और हिन्दुस्तान शब्द में खालिस्तान, तालिबान जैसी अनुगूंज सुनाई देने लगती है. और मैं भारत और उसकी समन्वयमयी संस्कृति के भविष्य के बारे में चिन्तित हो उठता हूँ.

अक्सर यह होता है कि राजनीतिक रूप से जीत हासिल करने वाला सांस्कृतिक रूप से हार जाता है. यूनानी जीते, यूनानी सेनापति हेलियोदोर जैसे अनेक यूनानी वैष्णव या बौद्ध हो गये. शक, कुषाण, हूण, और भी न मालूम कितने आक्रान्ता और इस देश में अपना राज्य स्थापित करने वाले हमारे धर्म और समाज में विलीन हो गये. पूरा मध्यकाल राजनीतिक रूप से मुस्लिम सत्ता का युग है. पर साहित्य और कला की दृष्टि से वह मुस्लिम परम्पराओं पर भारतीय परंपराओं की अनवरत विजय का युग भी है. अंग्रेज जीते पर हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ उन्हें अनवरत अभिभूत कर रही हैं. हमारे जन नायकों ने अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाने के लिए विवश कर दिया. यह हमारी विजय थी. पर जीत कर भी हम अंग्रेजियत के सामने हार गये. वे हमें गुलाम समझते हुए भी हमारी प्राचीन संस्कृति का ओर- छोर प्रकाशित कर गये. पिशेल जैसे प्राकृत भाषाओं के महान जर्मन वैयाकरणिक ने सदा यह कामना की यदि मेरा जन्म भारत में न ह॒आ हो, मेरी मृत्यु भारत में हो. भगवान ने उनकी सुनी और वे भारत में आने के कुछ ही दिन बाद मद्रास में उनके पंचतत्व यहाँ की माटी में विलीन हुए. लेकिन हमारे अन्दर आजादी के बाद कितनी गुलामी भर गयी है, यह हमारे नव धनिकों और उनकी देखादेखी सामान्य जन को भी संक्रमित कर चुकी है.



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