असंतोष और असुरक्षा के साये में
April 27th, 2011रामशरण जोशी
मीडिया द्वारा संचालित सहमति और अनुकूलन के कारोबार पर चर्चा की शुरुआत कुछ युवा पत्रकारों की चंद पीड़ाओं से करते हैं। ये पत्रकार विगत 10-12 वर्षों से हिंदी के बहुसंस्करणीय दैनिकों और चैनलों में विभिन्न पदों पर काम कर रहे हैं। इनका कार्यक्षेत्र महानगर दिल्ली, प्रदेश राजधानियां और संभागीय मुख्यालय हैं। इसीलिए इनके अनुभव विविधतापूर्ण हैं। सर्वप्रथम निचले स्तर पर तैनात युवा पत्रकार का कथन लेते हैं।
एक : हमें निर्देश हैं कि प्रथम पृष्ठ पर सिर्फ राजनीतिक और अन्य मसालेदार खबरें छापें। इन खबरों में संगीत व सौंदर्य प्रतियोगिताएं, बॉलीवुड के सितारे, नगर उद्योगपति, कमिश्नर, कलेक्टर, एस.पी., बलात्कार, सैक्स कांड जैसी घटनाएं और विशेष व्यक्ति शामिल रहने चाहिए। (संभागीय उपसंपादक)
दो : हमसे कहा जाता है कि जन-संघर्ष, असंतोष, हड़ताल, सत्याग्रह, धरना, आलोचना, साहित्यिक गतिविधियां आदि की खबरों को प्राथमिकता न दी जाए। इन्हें 'फिलर' के रूप में प्रकाशित करें। राष्ट्रीय और स्थानीय 'सेलीब्रिटीज' को प्रमुखता से छापें। (प्रदेश राजधानी)
तीन : धार्मिक नेताओं, प्रवचनों, त्योहारों आदि को अधिक स्पेस दें। (प्रदेश राजधानी)
चार : अधिक पढऩे और विश्लेषण की जरूरत नहीं है। सिर्फ 'काम चलाऊ' शैली में खबरें लिखें और प्रसारित करें। आपकी खबर बिकनी चाहिए। खबर को उसकी आखिरी बूंद तक निचोड़ो। (महानगर)
पांच : विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखो। विज्ञापन की कीमत पर समाचार या लेख नहीं प्रकाशित होना चाहिए।
छह : अब सब केंद्रीय डेस्क तय करती है। विश्व, राष्ट्रीय, प्रदेश आदि स्तर की बड़ी खबरों में कोई स्थानीय दखल नहीं होता है। सब ऊपर से तयशुदा और प्रायोजित होता है। हम तो केवल भड़ैती हैं। सवाल नहीं कर सकते। (महानगर और प्रदेश राजधानी)
सात : अब संपादक ब्रांड प्रबंधक के मातहत हैं। संपादक, ब्यूरो प्रमुख और विशेष संवाददाता केवल 'राजनीतिक दलाल' और 'लाइजनिंग' की भूमिका निभाते हैं; मंत्रालयों और विभागों में मालिकों के गैर-पत्रकारीय हितों की देख-भाल करते हैं। (दिल्ली और प्रदेश राजधानी)
आठ : हमें व्यवस्था विरोधी समाचारों और लेखों को प्रकाशित करने की कतई इजाजत नहीं है। इसके लिए ऊपर से 'मंजूरी' लेनी पड़ती है। एक अघोषित गैर-सरकारी सेंसरशिप के वातावरणव में हमें काम करना पड़ता है।
अब हम ठेके पर हैं। अच्छी पगार मिलती है। नौकरी नहीं छोड़ सकते। एक सीमा से बाहर असहमति व्यक्त नहीं कर सकते। सहमति ही हमारा कवच है। (दिल्ली से लेकर जिला स्तर तक)
ये चंद प्रतिनिधि अनुभव उन युवा पत्रकारों के हैं जो विगत दस-पंद्रह सालों में मेरे मीडिया विद्यार्थी रहे हैं। आज ये विभिन्न राष्ट्रीय चैनलों और समाचार प्रतिष्ठानों में असंतोष और असुरक्षा के साथ लोकतंत्र का 'चौथा स्तंभ' की भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? या यह सिर्फ मिथ है? इस सवाल ने इन युवा पत्रकारों को ही नहीं, हम सभी को दबोच रखा है।
पिछले कुछ समय से कचोटने वाले अनुभव हो रहे हैं। पूर्व विद्यार्थी दुख के साथ कहते हैं, "सर! आपने जो पढ़ाया था, पत्रकारिता के जिन सिद्धांतों, नैतिकता, आचार संहिता, संवेदनशीलता, ऑबजेक्टिविटी, प्रतिबद्धता, लोक जवाबदेही आदि की शिक्षा दी थी, आज हमें इन सब मूल्यों के विपरीत कम-अधिक काम करके नौकरी बचानी पड़ रही है। व्यवसायिक पत्रकारिता की कोई कसौटी नहीं रह गई है। यह पेशा पूरी तौर पर 'धंधा' बन चुका है जिसका एकमात्र उद्देश्य और लक्ष्य है मुनाफा। अत: जरा सा विरोध का अर्थ बर्खास्तगी। हमें नौकरी से फायर कर दिया जाता है।'' पीड़ा से भरा यह कथन किसी एक पत्रकार का नहीं है, बल्कि इस पीढ़ी की यह 'त्रासद अनुभूति' है। ऐसे भी विद्यार्थी मिले हैं जिन्होंने मीडिया संस्थानों के भीतरी माहौल से त्रस्त होकर स्वयं ही नौकरियां छोड़ी हैं। कुछ छोडऩे के कगार पर बैठे हैं। ऐसे युवा पत्रकारों की संख्या कम नहीं है, जिन्होंने स्थितियों से समझौते कर लिए हैं। मौजूदा माहौल में ही मर-खप जाने की नियति को स्वीकार कर लिया है। सुनहरे दिन लौटेंगे, आदर्शवादी पत्रकारिता होगी, ऐसे सपने भी संजोकर कुछ हठीले युवक मोर्चे पर डटे हुए हैं।
इन कचोटने वाले अनुभवों से चिंता जरूर होती है। विगत डेढ़ दशक में मीडिया का परिदृश्य पूरी तौर पर बदल चुका है। जहां दो दशक पहले यह समाचार और विचार के प्रसारण का माध्यम हुआ करता था, आज इसमें 'सत्ता' का आयाम जुड़ चुका है। इसमें 'डिक्टेट' करने; राज्य का एजेंडा निर्धारित करने; सहमति-असहमति का निर्माण करने; नीति-निर्णय प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने; नेता-अधिकारियों को हांकने, फिक्ंिसग व लॉबिंग करने आदि की क्षमता व शक्ति पैदा हो चुकी है। अब यह निरीह प्रेस या मीडिया या संचार माध्यम भर नहीं रहा है, बल्कि राज्य और लोकतंत्र का भाग्यविधाता मीडियापति या मीडिया शासक स्वयं को समझने लगे हैं। वैश्वीकरण के दौर में मीडिया के चरित्र में यह गुणात्मक बदलाव आया है। कभी यह महाजनी पूंजी व राष्ट्रीय पूंजी (प्रेस) से नियंत्रित व संचालित हुआ करता था। आज कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय पूंजी इसे (मीडिया) हांकती है। अब यह उद्योग है, प्रेस से मीडिया बनने तक की यात्रा का यह आधारभूत परिणाम है।
मीडिया शिक्षा में विधिवत दीक्षित पत्रकारों में मूल्यों को लेकर द्वंद्व पैदा होने लगा है। जब मूल्यों का टकराव बढ़ जाता है और दबाव झेल नहीं पाते हैं तब ये तनाव के शिकार हो जाते हैं। मैं ऐसे कई युवा पत्रकारों को जानता हूं जो तनाव झेल नहीं पाने के कारण मानसिक रोग ग्रस्त हो गए हैं। कइयों ने अपना कार्यक्षेत्र ही बदल लिया है क्योंकि वे ऐसे आदेशों को झेल नहीं पा रहे थे जो कि 'असत्य को सत्य और सत्य को असत्य' में बदलने के लिए होते थे; प्रायोजित सामग्री या विज्ञापनों को समाचार के रूप में पेश करने के लिए कहा जाता था; सही खबरों को दबाया जाता था; विश्लेषण और विमर्शों से परहेज करने के लिए कहा जाता था।
प्राय: मीडिया दावा करता है यह जनता की रूचियों-मांगों को ध्यान में रख कर ही सामग्री परोसता है, अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ता है। यह एक प्रकार का मिथ है जिसे मीडिया लगातार गढ़ता है। वास्तविकता यह है कि मीडिया ने अपने दर्शक-पाठक ग्राहकों की चारों तरफ से 'घेराबंदी' कर रखी है। इस घेराबंदी के माध्यम से मीडिया बड़ी बारीक-जहीन शैली में अपने ग्राहकों की चेतना व रूचियों को अनुकूलित करने की कोशिश करता है। जब चक्रव्यूह में ग्राहक घिरा हो तो उसके पास विकल्प कहां रहते हैं? जब सभी मनोरंजन और खबरिया चैनल सामग्री के नाम पर घटिया-मध्ययुगीन सीरियल, आइटम गर्ल व ब्वॉय, किट्टïी पार्टियां, अंधविश्वास, अपराध, ज्योतिष की भविष्यवाणियां, उपभोगवादी जीवन शैलियां, धार्मिक अनुष्ठान जैसी चीजों को प्रसारित करेंगे तो दर्शक ग्राहक कहां जाएगा। औसत दर्शक में इतना तो विवेक होता नहीं है कि वह इस सामग्री का विवेचन करे और इसमें निहित संदेशों को समझे। जब मीडिया दार्शनिक मार्शल मैक्लुहान यह कहते हैं कि "माध्यम ही संदेश है'' तो इसका सीधा अर्थ यह है कि कोई भी माध्यम तटस्थ व वस्तुनिष्ठ नहीं होता है। वह निश्चित मूल्यों, उद्देश्यों, लक्ष्यों और हितों का प्रतिनिधि होता है। अत: मीडिया को निरपेक्ष भाव से स्वीकार नहीं किया जा सकता। मैक्लुहान ने इस तथ्य को बार-बार रेखांकित किया है कि मीडिया अपने ग्राहकों की इंद्रियों पर आक्रमण करता है, उसे नियंत्रित व संचालित करता है और अंतत: उसे ठेलने लगता है। इस प्रक्रिया व स्थिति का लाभ "निजी निगमों'' को होता है क्योंकि ग्राहक अपनी आंखें और कान मीडिया को सौंप देता है। और इसके साथ ही निजी क्षेत्र की तिकड़में शुरू हो जाती हैं; वृहत से लेकर लघु स्तर तक सहमति व अनुकूलन का कारोबार होने लगता है। इस कारोबार में 'एकाधिकारवाद' अहम भूमिका निभाता है। संचार माध्यमों का जितना अधिक केंद्रीकरण और मोनोपोलीकरण होगा, सहमति और अनुकूलन के कारोबार का उतना ही विस्तार होगा। इस कारोबार के खतरों और प्रवृत्तियों के संबंध में विश्व विख्यात प्रतिरोधी बुद्धिजीवी नोम चोमस्की ने अपनी पुस्तक मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट : द पोलिटिकल इकोनॉमी ऑफ द मास मीडिया में विस्तार से उदाहरण सहित लिखा है।
इस अमेरिकी बुद्धिजीवी का मत है कि इस कारोबार में 'केंद्रीकृत स्वामित्व'; स्वामी की संपत्ति; जन संचार फर्मों का मुनाफा; विज्ञापन, जन माध्यमों की प्राथमिक आय; सरकार, व्यापारिक घरानों तथा सत्ता व विज्ञापन दाताओं द्वारा स्वीकृत दलाल विशेषज्ञों की सूचना एवं अभिमतों पर मीडिया की आश्रिता; मीडिया को अनुशासित करने के विभिन्न माध्यम; साम्यवाद विरोध एक राष्ट्रीय धर्म के रूप में तथा नियंत्रण तंत्र। इन तमाम तरीकों से मीडिया को अनुकूलित किया जाता है और समाचार की कच्ची सामग्री तैयार की जाती है। इन विभिन्न चैनलों से गुजरने के बाद ही तैयार सामग्री जनता तक पहुंचती है। चोमस्की कहते हैं, "मीडिया का अभिजातवर्गीय प्रभुत्व और विरोधियों का हाशियाकरण'' मूलत: इसी प्रक्रिया का परिणाम है। उनका मानना है कि यह प्रक्रिया इतने स्वाभाविक ढंग से चलती रहती है कि किसी को इसके प्रभावों का अंदाज तक नहीं होता। इस प्रक्रिया के माध्यम से मीडिया अपने ग्राहक वर्ग को यह विश्वास दिलाने में सफल रहता है कि उसके द्वारा प्रसारित समाचार पूरे तौर पर "ऑबजेक्टिव है तथा व्यवसायिक समाचार मूल्यों पर आधारित है।''
अमेरिका ने इसी कारोबार की ताकत पर वियतनाम, निकारागुआ, ग्वेटेमाला, अल सल्वाडोर, चिली, इराक, अफगानिस्तान जैसे देशों में किए गए अपने कूटनीतिक व हिंसक अपराधों को छुपाने की कोशिश की है। इन प्रचार माध्यमों से विश्व में 'छद्म सहमति' के निर्माण का षडय़ंत्र रचा। याद करिए खाड़ी युद्ध के मीडिया कवरेज को। दूसरे खाड़ी युद्ध के समय दो शब्द उछले थे—इंबेडेड जर्नलिस्ट अर्थात सजावटी पत्रकार या भड़ैती पत्रकार। इस वर्ग के पत्रकारों ने वही खबरें प्रसारित व प्रकाशित कीं जोकि अमेरिकी राजनीतिक व सैन्य प्रतिष्ठानों की नीतियों के अनुकूल थीं। इन्हीं पत्रकारों ने इराक के सद्दाम हुसैन को 'खलनायक' घोषित किया और विश्व भर में प्रचारित किया कि इस देश में जन संहार रासायनिक शस्त्रों के भंडार हैं। अमेरिका सहित अधिकांश देशों की जनता ने इस पर यकीन किया। लेकिन वास्तविकता क्या निकली, हम सभी परिचित हैं; एक भी रासायनिक हथियार नहीं मिला। अमेरिका-योरोपीय सत्ता प्रतिष्ठान ने संचार माध्यम के जरिए यह भी सहमति पैदा करने का अथक प्रयास किया कि खाड़ी जंग एक न्यायपूर्ण जंग है और हुसैन के पतन के पश्चात इस देश में हमेशा के लिए शांति स्थापित हो जाएगी, लोकतंत्र लौट आएगा। क्या ऐसा हुआ? आज भी इराक अशांत है, आए दिनों विस्फोटों में दर्जनों लोग मर रहे हैं। यही स्थिति अफगानिस्तान की है। जब अफगानिस्तान में रूसी सेनाएं थीं (नवें दशक में) तब अफगानिस्तान-संकट के लिए सोवियत संघ को मीडिया में खलनायक घोषित किया गया। रूसी सेनाओं की वापसी के बाद अमेरिका समर्थित सरकारें (मुजाहिद्दीन और तालिबान) सत्ता में आईं, लेकिन रक्तपात आज तक नहीं रुका है। क्यों इराक अशांत है? अफगानिस्तान का संकट क्यों हैं? तालिबान व लादेन को किसने जन्म दिया? इस्लामी देशों में मध्ययुगीन शासन व्यवस्था किसके दम पर है? पाकिस्तान में सैनिक सत्ता क्यों ताकतवर है? इन बुनियादी सवालों को लेकर मीडिया में बहस गोल है। युद्ध और संकट के दौरान सत्ता प्रतिष्ठान और मीडिया के बीच कितनी गहरी यारी-दोस्ती रहती है, इसका विस्तार से विश्लेषण दया किशन-डेज फ्रीडमेन द्वारा संपादित युद्ध और मीडिया में देखा जा सकता है। इन संपादक द्वय के मत में सभी प्रकार के तनावों-संघर्षों के दौरान मीडिया और सेना के बीच करीबी रिश्ते रहते हैं जिसका प्रभाव संवाददाता की तटस्थ रिपोर्टिंग पर पड़ता है। फ्रांस के प्रसिद्ध समाजशास्त्री ज्यां बोरद्रिय ने तो यहां तक कह डाला कि खाड़ी युद्ध में वास्तविक मिसाइलों की तुलना में हम पर सबसे अधिक बमबारी टीवी छवियों की रही। यह है मीडिया द्वारा प्रायोजित सहमति-असहमति तथा नायक-खलनायक गढऩे का कमाल।
भारतीय परिदृश्य की ओर लौटें। 1990 और 1992 के कमंडल दौर को याद कीजिए। जरा सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा और कारसेवा के मीडिया कवरेजों को दिमाग में जगाइए। मीडिया द्वारा सृजित 'केसरिया जुनून' को स्मृति-पटल पर बुलाइए। आप देखेंगे उस दौर में इस जुनून के पक्ष में भाषाई मीडिया किस नग्नता के साथ 'केसरिया सहमति' का निर्माण करता दिखाई दे रहा है; घटनाओं को किस प्रकार तोड़-मरोड़ कर प्रसारित किया जा रहा है; घायलों व मृतकों के आंकड़ों को किस प्रकार बढ़ा-चढ़ा कर छापा जा रहा है; संपूर्ण हिंदू समाज को केसरिया रंग में दिखाया जा रहा है। 2002 के गुजरात दंगों के कवरेजों में भी यही मीडिया करिश्मा देखने को मिला। इन दंगों में स्थानीय गुजराती मीडिया ने लगभग एक तरफा भूमिका निभाई और कौम विशेष के विरुद्ध समाज व राज्य की असहमति का माहौल पैदा किया। मुस्लिम समाज के विरुद्ध घृणा, विद्वेष, अस्वीकृति, सामाजिक खलनायकी, तमाम अपराधों एवं हिंसा की जड़ जैसी भावनाएं प्रसारित की गईं। केबल माध्यम ने तबाही मचा दी। इस हिंसा में सामाजिक व राजनीतिक स्वीकृति एवं सहमति है, प्रादेशिक मीडिया (गुजराती व हिंदी) ने यह चित्रित करने की कोशिश की। गोधरा रेल अग्निकांड में कारसेवकों की मौत का प्रतिशोध अनुचित नहीं है बल्कि न्यायोचित है, मीडिया के एक वर्ग ने इस तरह का मत गढऩे की कोशिश की। इस संबंध में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा गठित जांच समिति की रिपोर्ट उल्लेखनीय है। इसके निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट ने प्रदेश के प्रमुख दैनिकों को कटघरे में खड़ा किया है।
प्रश्न राष्ट्रों के बीच युद्धों और सांप्रदायिक दंगों तक ही सीमित नहीं है, सहमति और अनुकूलन के कारोबार का क्षेत्र विशाल व व्यापक है। मिसाल के तौर पर, 2004 में मुद्रण इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने प्रचारित किया कि भाजपा के नेतृत्व में एन.डी.ए. सरकार की सत्ता में पुनर्वापसी हो रही है। चुनाव पूर्व मत सर्वेक्षण, चुनाव शास्त्रियों द्वारा चैनलों पर चर्चाएं और एग्जिट पोल परिणाम आदि सभी ने भाजपा के सत्तारूढ़ होने की भविष्यवाणियां की थीं। मीडिया ने 'फील गुड फैक्टर', 'इंडिया शायनिंग' जैसे नारों को युद्ध स्तर पर उछाला। इन नारों के माध्यम से 'सहमति की परियोजना' देश में चलाई गई।
लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं कि इस तात्कालिक असफलता से मीडिया के चरित्र में किसी प्रकार का गुणात्मक अंतर आया है। नेपथ्य में जो शक्तियां पहले सक्रिय थीं, वे आज भी हैं; पेड न्यूज और राडिया महाकांडों से स्थिति स्वत: स्पष्ट है। बल्कि इन महाकांडों ने इस कारोबार में सक्रिय कारपोरेट, मीडिया मालिक, नौकरशाह, लॉबीबाज, संपादक व पत्रकार और नेता-मंत्री के दुष्टतापूर्ण गठजोड़ को ही उजागर किया है। इस गठजोड़ से निम्न चंद निष्कर्ष निकलते हैं:
1. अब मुख्यधारा के मीडिया की स्वतंत्रता कोरी मिथ है।
2. मीडिया, कारपोरेट घरानों व विज्ञापन घरानों का बंधक है।
3. मीडिया सामग्री 'प्रोडक्ट' है, न कि सूचना-विचार की वाहक।
4. मीडिया लोकतंत्र और राज्य के चौथे स्तंभ के स्थान पर राष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय और एकाधिकारवादी पंूजी का रक्षक व एजेंट है।
5. मीडिया प्रतिष्ठानों में आंतरिक सेंसरशिप और पत्रकारों का औपनिवेशी-करण।
6. लॉबिंग संस्कृति का उभार।
7. मीडिया की अन्तर्वस्तु और कार्यशैली का एकरूपीकरण।
8. मूल सवालों व मुद्दों का विलोपीकरण या हाशियाकरण; सतही सवालों व मुद्दों का केंद्रीकरण।
9. वैकल्पिक राजनीति व व्यवस्था के प्रति उपेक्षा भाव।
10. एंग्लो-सैक्सन, आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था और मीडिया संस्कृति की पक्षधरता।
11. मीडिया का अभिजात वर्गीय एजेंडा और यथास्थितिवादी पोषक विमर्श।
12. राज्य का एजेंडा सेटिंग करने और सत्ता का मजबूत घटक होने का अहंकार।
13. ग्लोबल मीडिया के साथ एकीकृत होने का दंभयुक्त सुख।
इन चंद बिंदुओं की पृष्ठभूमि में स्थिति का और खुलासा किया जा सकता है। पिछले दो दशकों से मुख्यधारा के मीडिया में वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण और विनिवेशीकरण को लेकर आम सहमति बनी हुई है। टीवी चैनलों और प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में वैश्वीकरण और उसके सहयोगी घटकों के नकारात्मक प्रभावों को लेकर कितनी बहसें होती हैं? कुछ वर्ष पहले अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों में आर्थिक मंदी का विस्फोट होता है; बैंक व बीमा कंपनियां फेल होते हैं; उत्पादन गिरता है व कारखाने बंद होते हैं; आई.टी. क्षेत्र लडख़ड़ा जाता है; आवासीय भवन निर्माण क्षेत्र तबाही के कगार पर पहुंच जाता है; बेरोजगारी बढ़ती और लोग आत्महत्या करते हैं। इन दुष्प्रभावों और वैश्वीकरण पर कितनी विश्लेषणपरक चर्चाएं हुईं? अमेरिका में निजी क्षेत्र को संकट से उबारने के लिए सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। मुक्त अर्थव्यवस्था के कट्टïर समर्थक अमेरिकी राज्य को अपने चरित्र के विरुद्ध जाकर फोर्ड जैसे बहुराष्ट्रीय एकाधिकारवादी पूंजीपतियों की सहायता करनी पड़ी। बुश और ओबामा ने इस मामले में समान चरित्र का प्रदर्शन किया। क्या मीडिया में इस सवाल पर बहस हुई कि राज्य ने धन कुबेरों की क्यों रक्षा की और आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप किया? जब वंचितों को राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है तब मीडिया बैरन कंजूसी का प्रदर्शन करते हैं। ऐसा क्यों है? क्या मीडिया ने दो दशकों में वैश्वीकरण के अश्वमेघ यज्ञ के पक्ष में सहमति व अनुकूलन का हिमालय खड़ा नहीं किया है? आज किस चैनल पर या अखबार में इसके विरुद्ध खुल कर बोला जा सकता है? जरा सोचिए! वैकल्पिक मीडिया के रूप में सक्रिय लघु पत्र-पत्रिकाएं ही प्रतिरोध को स्पेस दे रही हैं। इनमें ही वैश्विक पूंजीवाद और उसके सहयोगी राष्ट्रीय घटकों के दुष्प्रभावों पर खुलकर बहसें हो रही हैं। क्या यह स्थिति हम सभी के लिए चिंता का विषय नहीं है?
इसी प्रकार मीडिया में वैकल्पिक अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, जीवन शैली, जैसे मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं होती है। 1. देश के अरण्य क्यों सुलग रहे हैं? 2. एकाधिकारवाद व पूंजी का केंद्रीकरण क्यों हो रहा है? 3. क्यों करोड़पति-अरबपति-खरबपतियों की आबादी बढ़ रही है? 4. क्यों न्यूनतम मजदूरी और अधिकतम वेतन के बीच 50 गुना से लेकर 10 हजार गुना तक का अंतर होता है? 5. किसान आत्महत्या क्यों करते हैं? 6. विदेशी बैंकों के भारतीय काला खातेदारियों के नाम उजागर क्यों नहीं किए जाते हैं? 7. महाघोटालों (2 जी स्पेक्ट्रम, सी.डब्ल्यू जी आदि) के असली सूत्रधार कौन हैं? 8. पेड न्यूज के असली अपराधियों के नामों को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गयाï? 9. महंगाई के असली जिम्मेदार कौन हैं और किसे इसका फायदा मिल रहा है? क्या इन सवालों पर मीडिया में बहस नहीं होनी चाहिए?
दिल्ली और महानगर के मीडिया या शेष भारत के मीडिया में गहरा फर्क है। तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया (विशेष रूप से अंग्रेजी) में थोड़ी बहुत आजादी जरूर है लेकिन प्रदेश व जिला स्तर के मीडिया में स्थिति सर्वथा विपरीत है। प्रदेश राजधानी से प्रकाशित होने वाले औसत दैनिक मुख्यमंत्री और प्रतिपक्ष नेता के इशारों पर नाचते हैं। मुख्य सचिव, पुलिस महानिरीक्षक, सचिवों जैसे नौकरशाहों की घुड़की में मालिक, संपादक और पत्रकार आ जाते हैं। प्रदेश राजधानियों संभागीय और जिला मुख्यालयों में विभिन्न प्रलोभनों (भूमि आवंटन, तबादला उद्योग, कोटा आदि) की भूमिका नेपथ्य में काफी प्रभावशाली होती है। नतीजतन, प्रादेशिक मीडिया अघोषित सेंसरशिप के तले कम-अधिक दबा रहता है। चूंकि अधिकांश क्षेत्रीय अखबारों के मालिक ही संपादक होते हैं इसलिए संपादकीय विभाग का 'अदृश्य औपनिवेशीकरण' हो जाता है। सह-संपादक, समाचार-संपादक, ब्यूरो प्रमुख, चीफ-रिपोर्टर, फीचर संपादक, सामान्य रिपोर्टर आदि इस संपादकीय औपनिवेशिक संस्कृति का उपचेतना में आंतरिकीकरण करने लगते हैं। ऊपर से निर्धारित स्वतंत्रता के दायरे में ये लोग सोचते हैं। इस दायरे का अतिक्रमण कुफ्र माना जाता है। मीडिया प्रतिष्ठान का तो ढांचागत (ऑफिस, मशीन, ले-आउट आदि) आधुनिकीकरण किया गया है लेकिन सोच व व्यवहार के धरातल पर आज भी महाजनी मानसिकता का राज है। यह मानसिकता नए विचारों, प्रयोगों को पनपने नहीं देती है। 'खुलापन' असहनीय और जोखिमभरा लगता है। अलबत्ता, इस वर्ग के मालिक संपादक धार्मिकता, अंधविश्वास, फैशन शो आदि को प्रोत्साहित करने में प्रगतिशीलता समझते हैं लेकिन बुनियादी मुद्दों पर विमर्श के लिए अपने दरवाजे बंद रखते हैं। इस दृष्टि से महानगरीय मीडिया महाजनी मानसिकता के क्षेत्रीय मीडिया प्रतिष्ठानों के सागर से घिरा एक टापू-सा है। (वैसे अपवाद हर जगह हैं।)
इस संदर्भ में शुरू में वर्णित युवा पत्रकारों की टीस या शिकायतों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। क्योंकि मीडिया प्रतिष्ठान का 'आंतरिक औपनिवेशीकरण' ही सहमति व अनुकूलन का कारोबार विभिन्न स्तरों पर चलाता है। इस औपनिवेशीकरण का अंत कैसे किया जाए, मुक्ति आंदोलन के कौन-से माध्यम हो सकते हैं, ऐसे सवाल चेतनशील नागरिकों, बुद्धिजीवियों और जन संगठनों का साझा एजेंडा होना चाहिए।
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