Friday, February 1, 2013

जीवनानन्द दास और सुकान्त भट्टाचार्य की कवितायें


जीवनानन्द दास और सुकान्त भट्टाचार्य की कवितायें

जीवनानन्द दास

वनलता सेन
हजार वर्षों से मैं मुसाफिर हूँ पृथ्वी की राहों का,
सिंहल समुद्र से रात के अँधेरे में मलय-सागर तक
बहुत घूमा हूँ मैं; बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
भी था मैं; और सुदूर अन्धकार में डूबी विदर्भ नगरी में;
मैं थका हुआ प्राणी एक, चारों ओर जीवन के सागर की लहरों का फेन,
मुझे दो घड़ी शान्ति दे गयी थी नाटोर की बनलता सेन !

केश उसके जाने कब के विदिशा की 
निशा के अन्धकार से हो गये एकाकार,
मुख उसका श्रावस्ती की नक्काशी में; 
सुदूर समुद्र के पार खो कर पतवार 
जो नाविक दिशा भूल चुका है
वह जैसे निहारता है हरी घास के प्रदेश दालचीनी के द्वीप में,
वैसे ही देखा है मैंने उसे अन्धकार में; कहा उसने -- कहाँ रहे इतने दिन ?
पक्षी के नीड़ सरीखी आँखें उठा कर बोली नाटोर की बनलता सेन।

समस्त दिनों के अन्त में शिशिर के शब्द की तरह 
आती है सन्ध्या; डैनों से धूप की गन्ध को झाड़ देती है चील;
पृथ्वी के सब रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती है आयोजन
जब कहानी के लिए जुगनुओं के रंग झिलमिलाते हैं;
घर आते हैं पाखी सब -- सारी नदियाँ -- 
चुकता होता है इस जीवन का सब लेन-देन
रहता है केवल अन्धकार, सम्मुख रहती है केवल बनलता सेन।

हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है
हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है अन्धकार में जुगनुओं की तरह;
चारों ओर पिरामिड; कफ़नों की गन्ध; 
रेत के विस्तार पर चाँदनी; खजूरों की छाया यहाँ वहाँ
भग्न स्तम्भ की तरह; असीरया -- रुका हुआ मृत, म्लान;
हमारे शरीरों में परिरक्षित शवों की गन्ध -- 
पूरा हो चुका है जीवन का लेन-देन
'याद है ?' उसने स्मरण कराया, किया याद मैंने केवल 'बनलता सेन।'

सुकान्त भट्टाचार्य

इस नवान्न में
इस हेमन्त में धान की कटाई होगी
फिर ख़ाली खलिहान से फ़सल की बाढ़ आयेगी
पौष के उत्सव में प्राणों के कोलाहल से भरेगा श्मशान-सा नीरव गाँव
फिर भी इस हाथ से हंसिया उठाते रुलाई छूटती है
हलकी हवा में बीती हुई यादों को भूलना कठिन है
पिछले हेमन्त में मर गया है भाई, छोड़ गयी है बहन,
राहों-मैदानों में, मड़ई में मरे हैं इतने परिजन,
अपने हाथों से खेत में धान बोना,
व्यर्थ ही धूल में लुटाया है सोना,
किसी के भी घर धान उठाने का शुभ क्षण नहीं आया -
फ़सल के अत्यन्त घनिष्ठ हैं मेरे-तुम्हारे खेत।
इस बार तेज़ नयी हवा में 
जययात्रा की ध्वनि तैरती हुई आती है,
पीछे मृत्यु की क्षति का ख़ामोश बयान -
इस हेमन्त में फ़सलें पूछती हैं : कहाँ हैं अपने जन ?
वे क्या सिर्फ़ छिपे रहेंगे, 
अक्षमता की ग्लानि को ढँकेंगे,
प्राणों के बदले किया है जिन्होंने विरोध का उच्चारण ?

इस नवान्न में क्या वंचितों को नहीं मिलेगा निमन्त्रण?

बयान
अन्त में हमारे सोने के देश में उतरता है अकाल,
जुटती है भीड़ उजड़े हुए नगर और गाँव में
अकाल का ज़िन्दा जुलूस
हर भूखा जीव ढो कर ले आता है अनिवार्य समता।

आहार के अन्वेषण में हर प्राणी के मन में है आदिम आग्रह
हर रास्ते पर होता है हर रोज़ नंगा समारोह
भूख ने डाला है घेरा रास्ते के दोनों ओर,
विषाक्त होती है हवा यहाँ-वहाँ व्यर्थ की लम्बी साँसों से
मध्यवर्ग का धूर्त सुख धीरे-धीरे होता है आवरणविहीन
बुरे दिनों की घोषणा करता है नि:शब्द।
सड़कों पर झुण्ड-दर-झुण्ड डोलती हुई चलती है कंगालों की शोभा-यात्रा
आतंकित अन्त:पुरों से उठती है दुर्भिक्ष की गूँज।
हर दरवाज़े पर बेचैन उपवासी प्रत्याशियों के दल, 
निष्फल प्रार्थना-क्लान्त, भूख ही है अन्तिम सम्बल;
राजपथ पर देख कर लाशों को भरी दोपहरी में
विस्मय होता है अनभ्यस्त अँखों को।
लेकिन इस देश में आज हमला करता है ख़ूँख़ार दुश्मन,
असंख्य मौतों का स्रोत खींचता है प्राणों को जड़ से
हर रोज़ अन्यायी आघात करता है जराग्रस्त विदेशी शासन,
क्षीणायु कुण्डली में नहीं है ध्वंस-गर्भ के संकट का नाश।
सहसा देर गयी रात में देशद्रोही हत्यारे के हाथों में
देशप्रेम से दीप्त प्राण ढालते हैं अपना रक्त, जिसका साक्षी है सूरज;
फिर भी प्रतिज्ञा तैरती है हवा में अकेले,
यहाँ चालीस करोड़ अब भी जीवित हैं,
भारत भूमि पर गला हुआ सूरज झरता है आज -
दिग-दिगन्त में उठ रही है आवाज़,
रक्त में सु़र्ख टटकी हुई लाली भर दो,
रात की गहरी टहनी से तोड़ लाओ खिली हुई सुबह 
उद्धत प्राणों के वेग से मुखर है आज मेरा यह देश,
मेरे उध्वस्त प्राणों में आया है आज दृढ़ता का निर्देश।
आज मज़दूर भाई देश भर में जान हथेली पर लिये
कारख़ाने-कारख़ाने में उठा रहे तान।
भूखा किसान आज हल के नुकीले फाल से 
निर्भय हो रचना करता है जंगी कविताएँ इस माटी के वक्ष पर।
आज दूर से ही आसन्न मुक्ति की ताक में है शिकारी,
इस देश का भण्डार जानता हूँ भर देगा नया यूक्रेन।
इसीलिए मेरे निरन्न देश में है आज उद्धत जिहाद,
टलमल हो रहे दुर्दिन थरथराती है जर्जर बुनियाद।
इसीलिए सुनता हूँ रक्त के स्रोतत में आहट
विक्षुब्ध टाइ़फून-मत्त चंचल धमनी की।
सुनता हूँ बार-बार विपन्न पृथ्वी की पुकार,
हमारी मज़बूत मुट्ठियाँ उत्तर दें उसे आज।
वापस हों मौत के परवाने द्वार से,
व्यर्थ हों दुरभिसन्धियाँ लगातार जवाबी मार से।

अनुवाद - नीलाभ

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