Monday, January 30, 2012

कम न आंकिए इन वोट कटवा पार्टियों को

कम न आंकिए इन वोट कटवा पार्टियों को


Monday, 30 January 2012 09:26

अनिल बंसल नई दिल्ली, 30 जनवरी। यूपी विस चुनाव में जाति आधारित छोटी पार्टियों का भी अपना वजूद है। बेशक सत्ता की जंग में चार पार्टियां बसपा, सपा, भाजपा और कांग्रेस ही शामिल हैं। पर जाति आधारित दर्जन भर छोटी पार्टियों का भी अपना वजूद है। ये पार्टियां खुद भले चुनावी सफलता का परचम न लहरा पाएं पर कई जगह बड़ी पार्टियों के वोट काट कर उनका खेल जरूर बिगाड़ेंगी। इनमें अपना दल, पीस पार्टी, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी, लोकमंच व महान दल के उम्मीदवार कई सीटों पर पूरे दमखम से लड़ रहे हैं। 
अपना दल का जनाधार मुख्य रूप से कुर्मियों में है। कुर्मी भी जाटों और यादवों की तरह ही पिछड़े तबके की अगड़ी जाति माने जाते हैं। इस पार्टी की स्थापना सोनेलाल पटेल ने की थी। जो बसपा के शुरुआती दौर में कांशीराम के खास सिपहसालार थे। इस पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता और जनाधार का ही नतीजा था कि 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी ने इसके साथ तालमेल किया था। सोनेलाल पटेल की 2009 में एक सड़क दुर्घटना में मौत के बाद उनकी पत्नी कृष्णा पटेल और बेटी अनुप्रिया पटेल इसे चला रही हैं। पार्टी के प्रमुख उम्मीदवारों में खुद अनुप्रिया पटेल और इलाहाबाद के बाहुबली अतीक अहमद व प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी भी हैं।  
पिछले साल राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष अजित सिंह ने भी अपना दल से गठबंधन किया था। पर बाद में कांग्रेस के साथ दोस्ती के चलते वे अलग हो गए। इस बार विधानसभा चुनाव में अपना दल, पीस पार्टी और बुंदेलखंड विकास कांग्रेस ने हाथ मिलाया है। पीस पार्टी के अध्यक्ष पूर्वांचल के नामी सर्जन डाक्टर अयूब हैं और बुंदेलखंड कांग्रेस के अध्यक्ष फिल्म निर्माता राजा बुंदेला हैं। जो अर्से से अलग बुंदेलखंड राज्य की लड़ाई लड़ते रहे हैं। अपना दल 130, पीस पार्टी 230 और बुंदेलखंड कांग्रेस 14 सीटों पर मैदान में है। 
सबसे ज्यादा घबराहट सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों को नई उभरती पीस पार्टी से है। इस पार्टी का असली जनाधार मुसलमानों में है। मायावती के फार्मूले पर ही अयूब आगे बढ़ रहे हैं। उनका नारा उत्तर प्रदेश में मुसलमान को मुख्यमंत्री बनवाने का है। आजादी के बाद इस राज्य में आज तक कोई भी मुसलमान मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। अयूब की रणनीति भी मायावती की तरह मुसलमानों को साथ जोड़ कर दूसरी जातियों को मिलाने की है। वे भी मुसलमानों को उसी तर्ज पर अपना वोटबैंक बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं जैसे मायावती ने दलितों को बनाया है। इस पार्टी की ताकत का ही नतीजा है कि बसपा से निकाले गए बाहुबली विधायक जितेंद्र सिंह उर्फ बबलू फैजाबाद की बीकापुर सीट से पीस पार्टी के उम्मीदवार बने हैं। बबलू दो साल पहले तब चर्चा में आए थे जब लखनऊ में उनकी अगुआई में उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के घर को जलाया गया था। 
एक और छोटी पार्टी महान दल ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारे हैं। इस पार्टी के संस्थापक केशव देव शाक्य हैं। वे बाबू सिंह कुशवाहा की जाति के हैं। इस पार्टी का असली जनाधार भी शाक्य, कुशवाहा, मौर्य, किसान और काछी जातियों में है। खेती-किसानी से जुड़ी ये जातियां भी राज्य की दबंग पिछड़ी जातियां मानी जाती हैं। एक अन्य पार्टी है प्रगतिशील मानव समाज पार्टी। फूलनदेवी की जाति के बिंद, मल्लाह, केवट और निषाद इसके समर्थक हैं। पूर्वांचल के माफिया ठाकुर बृजेश सिंह जेल से इसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। 

ज्यादातर छोटी पार्टियां बुंदेलखंड, पूर्वांचल और मध्य उत्तर प्रदेश में हैं। पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक जेबी पार्टी पुराने बाहुबली डीपी यादव की भी है। राष्ट्रीय परिवर्तन दल के बैनर पर पिछले चुनाव में डीपी और उनकी पत्नी उमलेश यादव दोनों   ही जीत गए थे। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी इस पार्टी का बसपा में विलय कर लिया था। बसपा से निष्कासित कर दिए जाने के कारण इस बार उन्होंने आजम खान की मार्फत सपा में घुसने की कोशिश की थी पर छवि को लेकर चौकस मुलायम के बेटे अखिलेश यादव ने वीटो लगा दिया। कहीं पनाह नहीं मिली तो डीपी फिर अपने राष्ट्रीय परिवर्तन दल को जीवित कर उसी के नाम पर मैदान में हैं। 
अमर सिंह ने भी अपने लोकमंच की तरफ से बड़ी तादाद में उम्मीदवार उतारे हैं। उनका मकसद अपनी जीत कम, अपने पुराने साथी और आज के सबसे बड़े सियासी शत्रु मुलायम सिंह यादव की हार सुनिश्चित करना है। वे और उनकी इकलौती सहयोगी जया प्रदा दोनों ही उड़न खटोले से जमकर चुनावी प्रचार में जुटे हैं। इसी तरह पिछड़े तबके के ही भरत सिंह बघेल की लेबर पार्टी और ओम प्रकाश राजभर की भारतीय समाज पार्टी व गोरखनाथ निषाद का उदय मंच भी अति पिछड़ी जातियों के वोटों में सेंध लगाते दिख रहे हैं। कल्याण सिंह की जनक्रांति पार्टी का असली दारोमदार उनकी लोध जाति पर है। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने तीन सीटें जीती थी। मुख्तार अंसारी को किसी ने पनाह नहीं दी तो उन्होंने भी अपना अलग कौमी एकता दल बना लिया है। इंडियन जस्टिस पार्टी के जरिए उदित राज राज्य के दलितों को बांटने की कवायद काफी अर्से से करते आ रहे हैं। यह बात अलग है कि उनका अभी खास प्रभाव नहीं बन पाया है। 
इस बार भाजपा ने चालाकी बरती है। 2007 के विधानसभा चुनाव में   पार्टी ने अपने सहयोगी जद (एकी) और अपना दल के लिए पचास से ज्यादा सीटें छोड़ी थी। पर जद (एकी) के एक उम्मीदवार को छोड़ कोई नहीं जीत पाया था। इस बार भाजपा ने छोटी पार्टियों से हाथ नहीं मिलाने की रणनीति अपनाई है। उसका मानना है कि इन पार्टियों के उम्मीदवार उसे नहीं बल्कि उसके विरोधियों को नुकसान पहुंचाएंगे। तमाम छोटी पार्टियों में फिलहाल पीस पार्टी सबसे ज्यादा मुखर दिख रही है। इसके उम्मीदवारों ने पिछले साल डुमरियागंज और लखीमपुर विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में सपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों को भी पछाड़ दिया था।

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