झारखंड की दो तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहते हुए भूखमरी का शिकार होती जा रही है. उच्चतम न्यायालय के टिप्पणी की अवहेलना करते हुए 10 हजार बोरी चावल को सड़ने के लिए छोड़ देना झारखंड के गरीब, भूमिहीन, भूखमरी से ग्रस्त जनता के साथ क्रूरतम मजाक है...
राजीव
इसे बिडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जहां झारखंड़ की दो तिहाई आबादी गरीबी और भूख से पीडि़त है वहां सरकारी महकमा और नौकरशाहों के कुप्रबंधन से रांची के कडरू स्थित एफएफसी के गोदाम में दस हजार बोरी चावल सड़ गया जिसकी कीमत 1.42 करोड़ रूपए थी. इस अनाज को गरीबों को मजदूरी के साथ दिया जाना था.
एक अनुमान के अनुसार 10 हजार बोरी चावल यानी 10037 मीट्रिक टन चावल से रामगढ़ जिले की लगभग दस लाख अबादी को दो दिन का भोजन मिल सकता था यानी यदि प्रतिदिन एक व्यक्ति 250 ग्राम चावल खाता तो सभी को दो दिन से अधिक का खाना मिलता.
गौरतलब है कि यह 10037 मीट्रिक टन चावल एसजीआरवाई योजना के तहत 2001 में झारखंड़ को मिला था. उक्त योजना के तहत केन्द्र सरकार राज्यों को निशुल्क अनाज उपलब्ध कराती थी. 2006 में उक्त योजना का विलय मनरेगा में कर दिया गया. मनरेगा योजना में मजदूरी के रूप में अनाज बांटने का कोई प्रावधान नहीं था. मुख्य सचिव ने राज्यों के सभी उपायुक्तों को अनाज का उठाव नहीं करने का निर्देश दिया, जिसके कारण सारा अनाज गोदाम में पड़ा रहा गया जो अततः सड़ गया.
ऐसा नहीं है कि अनाज सड़ जाने की यह पहली घटना है और ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ झारखंड में पहली बार हुआ है. भारत में जनवरी 2012 में बफर स्टॉक के आखरी आंकड़े के अनुसार अनाज भंडारों में 5.52 करोड़ टन अनाज भरा हुआ है परंतु पिछले पांच वर्षों में देश में लाखों टन अनाज सड़ चुका है. भारत सरकार और राज्य सरकारें उच्चतम न्यायालय की टिप्पनी कि 'अनाज सड़ने से बेहतर है इसे गरीबों में बांट दिया जाए' का अनदेखा कर रही है और अनाज सड़ रहे है.
झारखंड़ के ग्रामीण विकास मंत्री सुदेश महतो का कहना है कि एसजीआरवाई योजना 2006 में बंद हो चुकी है. पुराने मामले की शिकायत अब कैसे आई, यह जांच का विषय है. गड़बड़ी कैसे हुई, चावल का उठाव कैसे हुआ, इस संबंध में जांच के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. दोषियों के विरूद्ध कड़ी कार्रवाई की जाएगी.
ध्यान देने की बात यह है कि मुख्य सचिव के अनाज नहीं उठाने के आदेश के बावजूद डीआरडीए, रांची ने निर्देश का उल्लंघन करते हुए एफसीआई ने अनाज का उठाव किया गया. इसके अलावे तीस मीट्रिक टन चावल अनगड़ा प्रखंड़ भी भेजा गया था जो जुलाई 2011 में ही सड़ गया था. मामले का खुलासा होने के बाद एजी 25 मई को ग्रामीण विकास विभाग को पत्र लिखकर छह सप्ताह के भीतर जवाब देने को कहा है, तय अवधि में जवाब नहीं देने पर नौकरशाहों पर कार्रवाई की जाएगी.
प्रश्न यह नहीं है कि आदेश का उल्लंघन करते हुए अनाज क्यों उठाया गया, प्रश्न यह है कि 2001 से पड़ा हुआ 10 हजार बोरी चावल की सुध ग्यारह वर्षों तक क्यों नहीं ली गयी ? खास कर तक जब झारखंड की दो तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहते हुए भूखमरी का शिकार होती जा रही है. उच्चतम न्यायालय के टिप्पणी की अवहेलना करते हुए 10 हजार बोरी चावल को सड़ने छोड़ देना यह झारखंड़ के गरीब, भूमिहीन, भूखमरी से ग्रस्त जनता के साथ क्रूरतम मजाक है.
झारखंड की गरीब जनता दो समय दाल या सब्जी नहीं खा सकती. एक आम आदमी को हर दिन 130 ग्राम दाल की आवश्यकता होती है लेकिन झारखंड़ के पचास प्रतिशत लोग 20 से 30 ग्राम दाल का भी सेवन नही कर पाते. दूध की बात करना तो इन पचास प्रतिशत जनता के लिए दिवास्वप्न की तरह है जब कि दूध के उत्पादन में हम अग्रणी है.
सरकारी महकमों और नौकरशाहों की उदासीनता और समय पर निर्णय लेने का अभाव व अक्षमता के कारण न सिर्फ अनाज सड़ रहे है बल्कि सरकार के भंडारण अदुर्दार्शिता के कारण अनाज मंहगा भी होता जा रहा है. यह कैसी बिडम्बना है कि एक तरफ राज्य के करोड़ों लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है और दूसरी तरफ करोड़ों का अनाज सड़ता जा रहा है ?
राजीव पेशे से वकील हैं और राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं.
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