Saturday, June 9, 2012

ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही भूमिसुधार में सबसे बड़ी बाधा!

ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही भूमिसुधार में सबसे बड़ी बाधा!

पलाश विश्वास


भारत में अतिअल्पसंख्यक ब्राह्मण ही हजारों साल से शिक्षा और ज्ञान पर एकाधिकार के कारण वास्तविक सत्तावर्ग है। ब्राह्मण वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ही सत्तावर्ग के असली महाअधिनायक हैं,जनगणमन अधिनायक भारत भाग्यविधाता! भले ही यूपीए की नेता सोनिया गांधी हों या फिर एनडीए के नेता लालकृष्ण आडवाणी! विश्वपुत्र प्रणवदादा को राष्ट्रपति बनाने के लिए जहां बाजार की तमाम ताकतें एकजुट हैं, वहीं संघ परिवार भी अब राष्ट्रपति भवन में प्रणव मुखर्जी को देखना चाहता है।क्या यह अकारण है? जब तक भारत में मनुस्मृति व्यवस्था जारी रहेगी और हिंदुत्व के उन्माद पर लगाम नहीं लगता, न भूमि सुधार की कोई गुंजाइश है और न शरणार्थी समस्या का कभी समाधान होने वाला है। भारत विभाजन के नतीजन जितने शरणार्थी बने, उससे कई गुणा ज्यादा विकास, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण बने हैं।

जब सत्तावर्ग पूरे देश को सेज, सिडकुल, एनएमजेड,औद्योगिक कारीडोर, परमाणुसंयंत्र संकुल, शापिंग माल में तब्दील करने पर तुला हो, जब ठेके पर खेती कानूनी हो​ ​ गया हो, हरित क्रांति और दूसरी हरित क्रांति के बहाने कृषि का सत्यानाश हो गया हो, देहात की कीमत पर नरसंहार की संस्कृति के जरिये खुला बाजार की सेनसेक्स फ्रीसेक्स अर्थ व्यवस्था हो,उत्तराखंड और हिमाचल की सवर्णबहुल देवभूमि और सिक्किम को छोड़कर समूचे हिमालय में विशेष सैन्य अधिकार अधिनियम के तहत बिल्डरों, प्रोमोटरों, जंगल माफिया का राज हो और मणिपुर की इरोम शर्मिला नाम की एक लड़की के लगातार ग्यारह साल से आमरण अनशन का बाकी देश की सेहत पर कोई असर न हो रहा हो,, संविधान के खुला उल्लंघन के तहत पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तमाम प्रावधानों को तोड़कर देशभर के आदिवासी इलाकों में आदिवासियों को माओवादी  नक्सलवादी घोषित करके निरंकुश कारपोरेट राज हो और आदिवासी जनता का नरसंहार हो रहा हो,जल, जंगल, जमीन, आजीविका और जीवन, मानव व नागरिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा हो प्रकृति से जुड़े जनसमुदायों को, देशभर में धार्मिक और भाषिक ​​अल्पसंख्यकों के विरुद्ध निरंतर घृणा अभियान जारी हो और मीडिया बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार हो,हिंदुत्व ग्लोबल हो और उसका कारपोरेट साम्राज्यवाद और जिओनिस्ट विश्वव्यवस्था के साथ पारमाणविक गठजोड़ हो, हिमालय को तबाही के कगार पर धकेलते हुए स्थगित परमाणु विस्फोट में तब्दील कर दिया गया हो, तब आप किससे भूमि सुधार की उम्मीद करते हैं? २००८ में भूमि सुधार पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ​अगुवाई में उच्चस्तरीय कमिटी बनी है, जिसकी आजतक कोई बैठक नहीं हुई और आर्थिक सुधारों की कवावद में सरकार और विपक्ष, तमाम राजनीतिक दल और विचारधाराएं लामबंद हैं जनता के विरुद्ध, तब आप कैसे समावेशी विकास, सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और भूमिसुधार की बात करते हैं?

आज जिसे माओइस्ट मीनेस कहा जाता है, वह तो जल, जंगल ,जमीन, आजीविका , जीवन और लोकतंत्र के लिए वंचित मूलनिवासियों की हजारों साल से जारी महासंग्राम ही है, जिसमें भद्रलोक लोकतांत्रिक ताकते एकदम अनुपस्थित हैं, क्योकि वे ब्राहमणवादी वर्चस्व के तहत कारपोरेट मनुस्मृति व्यवस्था के पोषक बन गयी हैं।

लगातार खबरें आती रही हैं कि भूमि अधिग्रहण बिल को संसद में पेश करने के बाद सरकार का अगला लक्ष्य देश में भूमि से जुड़े मुद्दों पर किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने का है। इसी के मद्देजनर जल्दी ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश भर मुख्यमंत्रियों के साथ एक बैठक कर सकते हैं जिसमें भूमि सुधार से जुडे़ विभिन्न मसलों पर विचार-विमर्श किया जाएगा।पर प्रगति क्या हुई? राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद की किसी बैठक के बारे में हमें तो कोई जानकारी नहीं है। लगातार खबरें आती रही हैं कि राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद की पहली बैठक में भूमि सुधार, जमीनी दस्तावेजों के आधुनिकीकरण और राजस्व प्रशासन में सुधार के प्रस्तावित मुद्दे होंगे।गौरतलब है कि इस मुद्दे पर बनी विभिन्न सचिवों की एक समिति ने 'कमिटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एंड द अनफिनिश्ड टास्क इन लैंड रिफॉर्म्स' की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों की जांच की है। इसके बाद भूमि संसाधन विभाग स्थापित किया गया। सचिवों की समिति ने रिपोर्ट के आधार पर तत्काल कदम उठाने की सिफारिश की है।कमिटी द्वारा की गई सिफारिशों में अलग-अलग श्रेणियों में भूमि की सीलिंग की सीमा तय करने की बात भी की गई है। इसके अलावा, इसमें सरकारी जमीन, भूदान में आई जमीन, जंगल की जमीन, आदिवासी इलाकों से जुड़ी भूमि सहित जमीन संबंधी अन्य महत्वपूर्ण मामलों पर सिफारिशें की गई हैं।क्या यह पहली बैठक हो गयी है? किसी को कोई ब्यौरा मालूम हो तो बतायें! केंद्र  और राज्य सरकारों का सारा फोकस देशी औदयोगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों, निगमों को बेरोकटोक जमीन का हस्तातंण पूंजी का अबाध प्रवाह और कालेधन को सफेद करने पर है। बहुप्रचारित भूमि सुधार का लक्ष्य भी वही है। भूमि अधिग्रहण संशोधन कानून, खनन संशोधन अधिनियम, नागरिकता सं संशोधन धन कानून और आधार कार्ड गैरकानूनी प्रोजेक्ट के स्वर्णिम चतुर्भुज के मध्य बेरोकटोक जल, जंगल और​ ​ जमीन से बेदखली अभियान असली एजंडा है और यही सत्ता वर्ग का भूमि सुधार है।

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने जब जाति उन्मूलन के खिलाफ जेहाद का ऐलान किया था, तब क्या प्रतिक्रिया हुई थी, इसका हमें अंदाजा नहीं है, पर तेलंगना,ढिमरी ब्लाक, नक्सलबाड़ी, मध्य बिहार, श्रीकाकुलम, समूचे मध्य भारत में भूमि आंदोलनों का क्या हश्र हुआ हम जानते हैं।

सारी कवायद किसानों, आदिवासियों, बस्ती में रहनेवालों  और शरणार्थियो की बिना प्रतिरोध बेदखली पर है। नगरों और महानगरों में देशव्यापी सीमापार और सीमा के भीतर विस्थापन के नतीजन बेशकीमती जमीन पर आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों का कब्जा है, चाहे वह मुंबई का​  विश्व प्रसिद्ध धारावी हो, कोलकाता, चेनन्ई, दिल्ली की गंदी बस्तियां हों या उत्ताराखंड की तराई की बस्तियां, बस्ती जनसंख्या का गणित यही ​​है। इसके अलावा अंबेडकर के पूरे चुनाव क्षेत्र को पाकिस्तान में डाल देने के बाद जो विभाजन पीड़ित अछूत शरणार्थी भारत में विभिन्न राज्यों में बसाये गये, वे सारे इलाके आदिवासियों के रहे हैं। मसलन दंडकारण्य, उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश, दक्षिण भारत और अंडमान निकोबार द्वीप समूह, पूर्वोत्तर।यह महज किसान और भूमिसुधार आंदोलन का विघटन नहीं था और न ही ब्राह्मणवादी वर्चस्व बनाये रखने के लिए राष्ट्रीय मूलनिवासी आंदोलन की भ्रूणहत्या, बल्कि यह आदिवासी इलाको में पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के प्रावधानों को तोड़ने की अचूक रणनीति थी। जिसके तहत राष्ट्रीय नेताओं के वायदे के मुताबिक ​​शरणार्थी पुनर्वास के मानवीय कार्यभार  निष्पादन का निर्विरोध उपाय रहा है यह और इस बहाने आदिवासी इलाकों में गैर आदिवासी प्रभावशाली वर्गों के लिए राजमार्ग बनाने और आदिवासियों की बेदखली का पूरा बंदोबस्त है। एक तीर से दो शिकार। आखिर दोनों, आदिवासी और शरणार्थी मारे जाने के​ ​ लिए एक दूसरे के विरुद्ध लामबंद कर दिये गये। उनकी बेदखली के खिलाफ कहीं कोई प्रतिवाद न हो और हाशिये पर जी रहे इन लोगों के समर्थन में बाकी देश की कोई प्रतिक्रिया न हो , इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट का माहौल अंध हिंदू राष्ट्रवाद के तहत शरणार्थियों, आदिवासियों, बस्तीवालों और अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ जारी है। विभाजन पीड़ित सिख या सिंधी शरणार्थियों को कभी पाकिस्तानी शरणार्थी नहीं कहा​ ​ जाता, पर बंगाली शरणार्थियों और बंगाल से बाहर आजीविका के लिए जाने वाले तमाम लोग बांग्लादेशी बताये जाते हैं। बांग्लादेशी होने से तात्पर्य यह कि वह शख्स भारत का नागरिक नहीं है, घुसपैठिया है, देशनिकाले के लिए सजायाफ्ता है और अमेरिका के आतंकवाद विरोधी युद्ध के तहत संदिग्ध राष्ट्रद्रोही  या फिर आतंकवादी।

भूमिसुधार पर मेरी पिछला आलेख उत्तराखंड के सितारगंज के भाजपा विधायक किरण मंडल को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को विधानसभा ​​पहुंचाने के लिए तोड़ लेने और इस सौदेबाजी के तहत शक्तिफार्म में बंगाली शरणार्थियों को दिये गये भूमिधारी हक से मचे राजनीतिक भूचाल, संघ परिवार के घृणा अभियान और मित्र प्रयाग पांडेय के भूमि सुधार पर आलेख के जवाब में कैविएट बतौर था। इस आलेख से प्रयाग भाई को दो बातों पर खास ​​आपत्ति है, एक तो उन्हें लगा कि मैं उन्हें संघ परिवार के अभियान से जोड़ रहा हूं और दूसरा यह कि मैं उन्हें इस आलेख में कोई निष्पक्ष पत्रकार​ ​ नहीं लगा और उनके मुताबिक भारत विभाजन की पृष्ठभूमि बताते हुए ब्राह्मणवादी वर्चस्व का खुलासा करते हुए मैंने जातिवादी नजरिया ​​पेश किया है। भूमि सुधार का मसला मेरे लिए कोई नया मसला नहीं है और न शरणार्थी समस्या पर मैं पहली दफा लिख रहा हूं। तराई पर जो आंकड़े और भूमि विवरण प्रयाग भाई ने पेश किये हैं, वे १९७८ से नैनीताल समाचार, दिनमान और तमाम पत्र पत्रिकाओं में मैं पेश करता रहा हूं, उनसे मेरी असहमति का प्रश्न नहीं उठता।

मेरे लिए भूमि सुधार का मामला किसी किरण मंडल के भाजपा से कांग्रेस में दलबदल और दशकों से लंबित भूमिधारी हक एक निर्दिष्ट इलाके के​ ​ एक समुदाय को दे देने की राजनैतिक सौदेबाजी का मामला कतई नहीं है। बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता, धर्मनिरपेक्षता, अर्थव्यवस्था से ​​जुड़ा मूलनिवासियों के मानव और नागरिक अधिकारों का मामला है, जिसके तहत में पिछले चार दशक से न सिर्फ लिख रहा हूं, लड़ भी रहा हूं। यह कोई तदर्थ पत्रकारिता का मामला नहीं है मेरे लिए, एक निरंतर मुद्दा है। मुझे भारतीय नागरिकों को विस्थापित या शरणार्थी कहे जाने पर कोई खास आपत्ति​​ नहीं है। मैंने प्रयाग जी के आलेख में बंगाली और बांग्लादेशी को मीडिया की प्रचलित मुद्रा के तहत एकाकार कर दिये जाने पर आपत्ति जतायी है। प्रयाग जी दुबारा मेरा लेख पढ़ लें। एक ओर तो वे भूमि सुधार की बात कर रहे हैं, चाहे वह किसी भाजपा विधायक के कांग्रेस में चले जाने के संदर्ब में ही क्यों न हों, निःसंदेह उन्होंने निहायत जरूरी मुद्दा​ ​ उठाया है। पर बंगाली शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताते जाने से स्वतः ही उनके इस आलेख और माडिया में छप रही या प्रायोजित तमाम चीजों​ ​ से संघ परिवार के घृणा अभियान को ही वैधता मिल जाती है।जिस पर बाहैसियत एक बंगाली शरणार्थी मेरा आपत्ति दर्ज करना जरूरी हो जाता है। यह पत्रकारिता नहीं , हमारे वजूद और पहचान, हमारी नागरिकता का मामला है, प्रयाग जी! मैं प्रयाग जी को जानता हूं और मुझ उनकी नीय़त पर कोई शक नहीं है। बहरहाल बहस शुरू करने के लिए प्रयाग जी की भूमिका सराहनीय है और  यह बहस चलनी चाहिए। लेकिन भूमि सुदार की चर्चा हो और​ ​ ब्राह्ममवादी वर्चस्व, जो भारतीय भूमि बंदोबस्त का इतिहास , भूगोल और  वास्तव है, उससे परहेज?

मामला कुछ जमता नहीं। अब आगे भी यह चर्चा जारी रहेगी। जरूरी हुआ तो हम दस्तावेजी सबूत भी पेश करेंगे। पहाड़ के ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों और राजनेताओं की भूमिका तो अभी हमने खुलासा किया ही नहीं है। महज बंगाली ब्राह्मणवादी वर्चस्व की बात की है। इसीसे आपको तकलीफ हो गयी तो आगे आप भूमि सुधार पर बहस कैसे चलायेंगे क्योंकि भूमि सुधार में ब्राह्मणवादी वर्चस्व ही सबसे बड़ी बाधा है?

यह बहस आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि पाठक हमारे प्रिय मित्र प्रयाग जी का पक्ष भी समझ लें जो उन्होंने फेसबुक पर नैनीताल की विधायक सरिता आर्य के वाल पर पोस्ट किया है।तो पेश है प्रयाग जी का नजरिया। बाकी पाठकों और खासकर भूमि सुधार की लड़ाई लड़ रहे सहयोद्धायों से आगे बहस जारी रखने की अपेक्षा रहेगी।

[NAINITAL MLA. ( SARITA ARYA )] १९५० से १९८० के बीच कृषि भूमि के पट्टाधारकों को...



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Date: 2012/6/8
Subject: [NAINITAL MLA. ( SARITA ARYA )] १९५० से १९८० के बीच कृषि भूमि के पट्टाधारकों को...
To: "NAINITAL MLA. ( SARITA ARYA )" <207286132719040@groups.facebook.com>

Prayag Pande posted in NAINITAL MLA. ( SARITA ARYA )
*
Prayag Pande

5:39pm Jun 8


१९५० से १९८० के बीच कृषि भूमि के पट्टाधारकों को मालिकाना हक़ देने सम्बन्धी फैसले से पहली नजर में हम जैसे अल्प बुद्धियों को लगा कि तराई के इलाके में समग्र रूप से भूमि सुधार कानूनों को लागू किये बिना इस फैसले के कोई मायने नहीं हैं | पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते तराई के भूमि सम्बन्धी मामलों में हमें थोड़ी - बहुत, आधी - अधूरी जानकारी थी और है | हमारा उद्देश्य था और है कि राज्य सरकार तराई समेत पूरे उत्तराखंड में भूमि सुधार की दिशा में ठोस पहल करे | ताकि तराई और पहाड़ के भीतर रह रहे हरेक जरूरतमंद को उसका वाजिब हक़ मिल सके | हमने अपने आलेख में तराई के भीतर रह रहे गरीब , भूमिहीनों और खासकर बंगाली विस्थापितों की मौजूदा दुर्दशा का सविस्तार जिक्र किया भी है | इस आलेख को लिखने से पहले मैंने बड़े भाई श्री पलाश विश्वास जी से सम्पर्क करने का भरपूर प्रयास भी किये | अनेक कोशिशों के बाद भी जब उनका सम्पर्क नम्बर हासिल नहीं हो सका तो मैंने उन्हें फेसबुक पर संदेश भी भेजा | कोई जबाब नहीं मिलने पर अन्तत: आलेख लिख दिया |
श्री पलाश विश्वास जी हमारे अग्रज हैं | तराई ही नहीं पूरी देश दुनियां की सियासी और सामाजिक हालातों से बाखबर लेखक , चिंतक और नामचीन बरिष्ठ पत्रकार हैं | उन्हें विस्थापित या शरणार्थी शब्द पर आपति हो सकती है | यह बात दीगर है कि आमतौर पर रोजमर्रा के बोलचाल में लोग इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं और कर रहे हैं | लेकिन वे इस बात को बखूबी जानते और समझते हैं कि उत्तराखंड सरकार के इस ताजा निर्णय से तराई के भीतर रह रहे विस्थापित बंगाली परिवारों की समस्याओं का समाधान कतई नहीं होना है | कितने बंगाली परिवार इस निर्णय से लाभ उठा पाएंगे | सवाल यह है कि तराई के भीतर इस निर्णय कि जद में आने वाले बंगाली परिवारों की संख्या कितनी है ? | उन बाकी बंगाली परिवारों का क्या होगा , जिनके पास न पट्टे है और न ही जमीन |
खैर . यह बड़ी बहस का मुद्दा है | इस पर सोचना सरकार का काम है, हमारा नहीं | श्री पलाश विश्वास जी ने अपने आलेख में लिखा है - "बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब ब्राह्मणवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के तीन केंद्र रहे हैं। बंगाल के अछूतों, खासकर नमोशूद्र चंडालों ने डा भीमराव अंबेडकर को महाराष्ट्र में पराजित होने के बाद अपने यहां से जोगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंदबिहारी मल्लिक जैसे नेताओं की खास कोशिश के तहत जिताकर संविधानसभा में भेजा। इसके बाद ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बयान आया कि भारत का विभाजन हो या नहीं, बंगाल का विभाजन अवश्य होगा कयोंकि धर्मांतरित हिंदू समाज के तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल ने विभाजन का प्रस्ताव बहुमत से खारिज कर दिया, लेकिन ब्राह्मणबहुल पश्चिम बंगाल ने इसे बहुमत से पारित कर दिया।अंबेडकर के चुनावक्षेत्र हिंदूबहुल खुलना, बरीशाल, जैशोर और फरीदपुर को पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। नतीजतन अंबेडकर की संविधानसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी। उन्हें कांग्रेस के समर्थन से महाराष्ट्र विधानपरिषद से दोबारा संविधानसभा में लिया गया और संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक बंगाल और पंजाब के विभाजन से भारत में अछूतो, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का मनुस्मृति विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का अवसान तो हो गया पर अंबेडकर को चुनने की सजा बंगाली शरणार्थियों को अब भी दी जा रही है।"


श्री पलाश विश्वास जी आगे लिखते हैं - ".....भाजपा विधायक किरण मंडल को तोड़कर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को विधानसभा पहुंचाने के लिए शक्तिफार्म के बंगाली शरणार्थियों को भूमिधारी हक आननफानन में दे देने के कांग्रेस सरकार की कार्रवाई के बाद राजनीतिक भूचाल आया हुआ है। इसके साथ ही संघ परिवार की ओर से सुनियोजित तरीके से अछूत बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ घृणा अभियान शुरू करके उन्हें उत्तराखंड की मुख्यधारा से काटने का आपरेशन चालू हो गया। इस राजनीतिक सौदे की जानकारी गांव से भाई पद्मलोचन ने हालांकि फोन पर मुझे मुंबई रवाना होने से पहले दे दी थी और राजनीतिक प्रतिक्रिया का मुझे अंदेशा था, लेकिन लिखने की स्थिति में नहीं था। मीडिया में तमाम तरह की चीजें आने लगीं, जो स्वाभाविक ही है। तिलमिलाये संघ परिवार कांग्रेस का कुछ बिगाड़ न सकें तो क्या, शरणार्थियों के वध से उन्हें कौन रोक सकता है? जबकि उत्तराखंड बनने के तुरंत बाद भाजपा की पहली सरकार ने राज्य में बसे तमाम शरणार्थियों को बांग्लादेशी घुसपैठिया करार देकर उन्हें नागरिकता छीनकर देश निकाले की सजा सुना दी थी। तब तराई और पहाड़ के सम्मिलित प्रतिरोध से शरणार्थियों की जान बच गयी। अबकी दफा ज्यादा मारक तरीके से गुजरात पैटर्न पर भाजपाई अभियान शुरू हुआ है अछूत शरणार्थियों के खिलाफ। जैसे मुसलमानों को विदेशी बताकर उन्हें हिंदू राष्ट्र का दुश्मन बताकर अनुसूचित जातियों और आदिवासियों तक को पिछड़ों के साथ हिंदुत्व के पैदल सिपाही में तब्दील करके गुजरात नरसंहार को अंजाम दिया गया, उसीतरह शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताकर उनके सफाये की नयी तैयारियां कर रहा है संघ परिवार, जो उनके एजंडे में भारत विभाजन से पहले से सर्वोच्च प्राथमिकता थी। नोट करें, यह बेहद खास बात है, जिसे आम लोग तो क्या बुद्धिजीवी भी नहीं जानते हैं। इसे शरणार्थियों की पृष्ठभूमि और भारत विभाजन के असली इतिहास जाने बगैर समझा नहीं जा सकता।"

श्री पलाश विश्वास जी के लिखते हैं कि "........ बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।"

वे आगे लिखते हैं कि -" बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज २.८ प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज ३.४ प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३.६ प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। २.८ प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३.६ फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का ५.६ प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है। "
श्री पलाश विश्वास जी , जैसा कि में पहले लिख चुका हूँ ,आप हमारे अग्रज हैं , बरिष्ठ है | लेकिन तराई में माकूल भूमि सुधार पर मेरे आलेख में आप जैसे बरिष्ठ पत्रकार की इस प्रकार की टिप्पणी निश्चित ही तकलीफदेह है | पत्रकारिता का विधार्थी के एक स्वतंत्र , निष्पक्ष और विश्लेष्णात्मक आलेख को राजनीतिक प्रतिक्रिया करार देना भी शायद अनुचित होगा |में, यह बात साफ कर देना अपना दायित्व समझता हूँ कि बंगाली विस्थापितों को लेकर संघ और भा.ज.पा. के नजरिये और सोच से हमारा दूर - दूर तक कोई वास्ता नहीं है और अतीत में भी कभी नहीं रहा है | में ,श्री पलाश विश्वास जी से आदर पूर्वक निवेदन करना चाहता हूँ कि जिस भूमि सुधार के मामले को आप ब्राह्मण वाद की अनंत गहराइयों तक ले गए हैं ,शायद आप जानते ही होंगे कि मालिकाना हक़ का निर्णय लेने वाले उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री भी ब्राह्मण ही है | लिहाजा सभी मुद्दों को जातिगत नजरिये के बजाय वस्तुनिष्ट तरीके से परखना समीचीन होगा |





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