खेल क्रिकेट का बीसमबीस
क्रिकेट अपने ही खेल विशेषज्ञों से खतरे में है। खेल में राजनीति खेली जा रही है। क्रिकेट के लघु संस्करण बीसमबीस और उसकी इंडियन प्रीमियर लीग के कारण इस खेल के भविष्य पर सवाल उठाए जा रहे हैं। आइपीएल के पर कतरने की मांग उठ रही है। सवाल उठ रहे हैं, क्या क्रिकेट विकसित हुआ है या विकृत हुआ है?
समय के साथ बदलते खेल ने इस सवाल के अलग-अलग जवाब दिए हैं। लोगों के अलग-अलग मत हैं। परंपरावादी लोग, बीसमबीस खेल के तमाशे को देख कर बेहाल हो रहे हैं। वहीं जो आइपीएल तमाशे पर मुग्ध हैं वे बाजारवाद से उपजे बीसमबीस को भी परंपरा का ही हिस्सा मानते हैं। क्रिकेट अगर खेल का 'बड़' है तो बीसमबीस उसकी शाखा की तरह लोकप्रिय हुआ है। बीसमबीस ने अपनी चमक से सभी को चकित किया है। आज की तात्कालिकता में भागते-दौड़ते जमाने ने बीसमबीस को बखूबी अपनाया है।
जब क्रिकेट पहली बार खेला गया होगा तब सिर्फ बल्ला और गेंद थी। अनिश्चितताओं भरे इस खेल से जुड़ी बाकी सभी बातें बाद में पनपीं। क्रिकेट की तकनीक, उसकी शैली, खेल की योजना और खिलाड़ियों की क्षमता, खेल के नियम और विनियमन, उसके सर्वकालिक रिवाज, खेल के आंकडेÞ और उनको लेकर मतभेद, और खेल में अपूर्व रोमांच देने और न भुलाए जा सकने वाले पल, सभी समय के बहाव के साथ बाद में आए। इस खेल की महान अनिश्चितताओं ने सभी को मंत्रमुग्ध किया है। क्रिकेट की शुरुआत से ही यह खेल बनता और बदलता रहा है। लेकिन खेल का मूल स्वरूप वही रहा है- बल्ले से रन बनाना और गेंद से बल्लेबाज को आउट करना।
इंडियन प्रीमियर लीग के पांचवें और सबसे सफल सत्र का पिछले दिनों समापन हो गया है। इस सत्र में दिखा क्रिकेट सर्वश्रेष्ठ, आकर्षक और आनंददायक रहा। इस आइपीएल में बीसमबीस के चौकों-छक्कों का आकर्षण चरमोत्कर्ष पर रहा। सारे मैदान खचाखच भरे रहे। बीसमबीस को मान्यता आज के समय और समाज की वास्तविकता ने प्रदान की है। बाजारवाद के जमाने में धैर्य बिरले ही रख पाते हैं। बीसमबीस क्रिकेट हमारी लगातार बढ़ती अधीरता को आशामय मनोरंजन देता है। मनोरंजन पाने की ललक में नैतिक विवेक आहत नहीं होना चाहिए। खालिस खेल अपने आप में रोमांचक और मनोरंजक है। क्रिकेट तो दो शताब्दी से हमें रोमांच और आनंद देता आ रहा है। आइपीएल से पहले भी क्रिकेट हमको रोमांचित करता और मनोरंजन देता आया है।
जिस चीज ने खेल और मनोरंजन को अलग पहचान और दिशा दी, वह है टेलीविजन। टेलीविजन ने ही हमें आदत डाली है कि मनोरंजन बिना मेहनत के मिल सके। हमें हर तरह का सस्ता, मगर लुभाने वाला मनोरंजन टेलीविजन के माध्यम से घर में ही परोसा जा रहा है। अपने को रोमांच करने वाला खेल देखना हो या कोई पसंदीदा फिल्म देखनी हो, उसे विज्ञापनों के साथ ही देखना पड़ता है। यह मनबहलाव और उत्तेजित करने वाले विज्ञापनों के ही कारण संभव होता है। बेशक, आज मनोरंजन का बाजार भी खेलों से गर्मी पा रहा हो, लेकिन खेलों का हम पहले भी लुत्फ उठाते रहे हैं।
आइपीएल के पांचवें सत्र में बल्ला-गेंद तो हावी रहे ही, लेकिन उसके सहारे बाजार में भी गरमी आई। हर वर्ष की तरह विवाद उभरते रहे और विरोधाभास बना रहा। विवाद क्रिकेट के कारण नहीं उभरे, बल्कि क्रिकेट को विवादों से चलाए और फैलाए जाने की कोशिश होती रही है। खेल प्रेमियों को आभास कराया गया कि क्रिकेट को भी बाजार ही चला रहा है। लेकिन अगर क्रिकेट की देश में इतनी लोकप्रियता न होती तो बाजार उसे हाथोंहाथ न लेता। बाजार तो समय और वस्तु की नैतिकता समझे बिना, 'जो बिकता है वही चलता है' का अनुगमन करता है। बिना ग्राहक की भागीदारी के कोई व्यापार फल-फूल नहीं सकता।
पांचवें आइपीएल में क्रिकेट का व्यापार खूब चला। लोकप्रियता इस हद तक पहुंची कि आइपीएल का हिस्सा बनने की चाह सभी में प्रबल होती दिखी। सत्ताधारी नेताओं और कॉरपोरेट भाई-भतीजों से लेकर फिल्मी तमाशबीन, बाजार-हित देखने वाले मीडिया और पूर्व क्रिकेट खिलाड़ियों तक सभी इसमें जनसंपर्क निभाने और चेहरा दिखाने आते रहे। इनके द्वंद्व और विवादों को मनोरंजन के तौर पर टेलीविजन के माध्यम से नए क्रिकेट प्रेमियों को परोसा गया।
क्रिकेट के कैनवस पर अच्छे में बुराई और बुरे में अच्छा दर्शाने को मनोरंजन मान लिया गया। इस तरह परोसे गए आइपीएल मनोरंजन से प्रभावित लोग मैदान में उमड़ पड़े। लेकिन जो मनोरंजन क्रिकेट की आड़ में परोसा गया वह क्रिकेट के बिना चल नहीं सकता था। वह क्रिकेट का ही मनोरंजन था, जिसको तमाशे के साथ परोसा जा रहा था। शाहरुख खान और सिद्धार्थ माल्या या और भी किसी लोकप्रिय तमाशबीन के लिए ये मैदान कभी ऐसे नहीं भरते। वह बीसमबीस का क्रिकेट ही था जिसके सहारे आइपीएल का मनोरंजक तमाशा चल पाया।
खेल के विवादों के ही कारण क्रिकेट से कमाई की परिकल्पना गढ़ी गई है। एक टीवी चैनल ने 'स्टिंग ऑपरेशन' किया जो सही खबर को गलत तरीके से खोजने की कोशिश थी। छिपाए गए कैमरे के सामने बेचारे पांच खिलाड़ी छाती फुलाए बड़बोले बन कर अर्धसत्य बोलते रहे। और फिर उन खिलाड़ियों का क्या, जो दिखाने लायक मसालेदार खबर नहीं बना पाए, लेकिन उस स्टिंग धोखाधड़ी का हिस्सा बनाए गए थे।
खिलाड़ी खेल-प्रेम और देश के लिए खेलने की लगन से मेहनत करता है। पहले अच्छा, सफल खिलाड़ी बनने का ही सपना होता है, उससे कमाने का मौका तो बहुत बाद में मिलता है। और यह भी सभी मानेंगे कि नवोदित खिलाड़ी बड़े मैच फिक्स नहीं कर सकते हैं।
आइपीएल की संचालन समिति ने पिछले साल ही मैच के बाद रात को होने वाली 'पार्टी' बंद करा दी थी। लेकिन अगर कोई टीम-मालिक खुशी से जश्न मनाने पर उतारू है तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आस्ट्रेलिया के बिगड़ैल रंगरलीबाज ल्यूक पॉमसर्बेक के बारे में सभी जानते हैं। जिस औरत के साथ आधी रात के बाद बदसलूकी किए जाने पर उनके खिलाफ मामला बना था, उसने अपनी शिकायत वापस ले ली है। सुलह-समझौते के नाम पर दी गई धनराशि ने मानहानि दावा निरस्त करा दिया होगा। हो सकता है कि महिला अब किसी दिन सेलिब्रिटी बन कर 'बिग बॉस' का हिस्सा बने। ऐसे मामले जितने नाजुक होते हैं, कई बार बताई गई सच्चाई से उतने ही परे भी।
क्रिकेट प्रेमियों को याद होगा कि साठ के दशक में भारतीय क्रिकेट के तब के महानतम फिरकी गेंदबाज सुभाष गुप्ते के साथ भी टैस्ट मैच के दौरान एक महिला पाई गई थी। अगले दिन अखबारों में छपने के बाद वे कभी क्रिकेट नहीं खेल पाए। भारतीय खिलाड़ी कृपाल सिंह और सुभाष गुप्ते के बीच हुए इस वाकए के सत्य का खुलासा भी नहीं हो पाया है। लेकिन उसके बाद सुभाष गुप्ते को खेल और भारत छोड़ना पड़ा। वे वेस्टइंडीज जा बसे। एक सम्माननीय खिलाड़ी का अपने समाज के प्रति कुछ उत्तरदायित्व होता है, जिसका निर्वाह उसे करना ही पड़ता है।
शाहरुख खान ने माफी मांग ली है, लेकिन उस विवाद का खेल से कतई लेना-देना नहीं था। सभी की प्रतिक्रियाएं उछाली गर्इं। चूंकि इसका कोई लेना-देना क्रिकेट से नहीं था, इसलिए विवाद को नजरअंदाज किया जाना चाहिए था। सभी सहभागियों को आइपीएल के बहाने चर्चा में बने रहना था, इसके अलावा विवाद में और कुछ नहीं था।
तीसरे आइपीएल में रवींद्र जाडेजा को अपने लिए बाजार से वाजिब कीमत मांगने पर प्रतिबंधित कर दिया गया था। वे 2010 में आइपीएल में खेल नहीं पाए थे। उसके अगले साल वे कोच्चि टीम के लिए खेले और इस साल यानी 2012 की नीलामी में वे सबसे महंगे बिके। 2010 में जाडेजा को प्रबंधन के जिस फैसले के कारण प्रतिबंधित किया गया था वह फैसला 2012 में सरेआम गलत सिद्ध हो गया है। 2010 में न जाडेजा की सही कीमत लगी थी न ही 2012 में आइपीएल देखने वाले मानेंगे कि उनकी कीमत सही साबित हुई। 'मुर्गे लड़ाने' जैसी नीलामी में कभी किसी की सही कीमत नहीं लगती है। खेल से खिलाड़ियों की नीलामी को निरस्त करना होगा।
अगर मान भी लें कि मैच फिक्स किए जाते हैं तो लेन-देन को अदालत में साबित करना टेढ़ी खीर है और ऐसा करने वाले खिलाड़ियों को सजा दिलाना और मुश्किल है। वैसे भी हाल के खिलाड़ियों को पर्याप्त धनराशि मेहनताने के तौर पर मिल रही है। उनको फिक्सिंग में फुसलाना मुश्किल है। मैच फिक्सिंग के अलावा 'स्पॉट फिक्सिंग' अगर होती है तो ऐसे खतरनाक मंसूबों को मजहर माजिद जैसे अतिविश्वासी दलाल कभी भी उजागर कर खिलाड़ी का भविष्य खतरे में डाल सकते हैं।
आइपीएल का क्रिकेट चलता रहेगा। लेकिन आइपीएल में क्रिकेट की उपयोगिता बनाए रखने के लिए कई सुधार लाने होंगे। भारतीय क्रिकेट संघ को आइपीएल की नीलामी से छुटकारा पाना होगा। खेल खिलाड़ियों के दम पर चलता है, जबकि खिलाड़ियों को सरेबाजार नीलाम करना उनकी और खेल दोनों की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। बाजार का अस्तित्व उसके नफे-नुकसान में होता है, लेकिन क्रिकेट संघ का सरोकार तो खेल और खिलाड़ियों के प्रति होना चाहिए।
जिस दिन दिल्ली की टीम राजस्थान रॉयल्स से कोटला में खेलने वाली थी, गायक मीका को शाम के मैच के बाद गाने का न्योता था। आखिरी गेंद तक मैच में गजब का रोमांच बना रहा और दिल्ली की टीम जीत गई। मैच देखने आए मनोरंजन के प्यासे लोग मीका को गाता छोड़ घर लौट गए। कुछ ही देर में मैदान खाली हो गया। मीका खाली कुर्सियों के लिए तो गा नहीं सकते थे इसलिए दर्शकों के पीछे वे भी निकल लिए। मैच के मनोरंजन के आगे मीका फीके पड़ गए। इसी तरह फिल्मी गानों पर नाचने के लिए बुलाई गर्इं 'चीयर गर्ल्स' भी क्रिकेट के मनोरंजन के सामने बेमानी हैं। दर्शक उनकी ओर पलक जरूर झपकाते होंगे, लेकिन उनकी आखें तो क्रिकेट पर ही गड़ी रहीं।
भारतीय क्रिकेट संघ का आइपीएल शुरू करने के बाद उसमें रमे रहना प्रबंधन की कमजोरी को उजागर करता है। उभरे विवादों को सीधे बल्ले से सुलझने की काबिलियत और क्षमता भी उनमें नहीं दिखती है। विश्व क्रिकेट में आइपीएल की स्थायी जगह बननी चाहिए और भारतीय संघ को इसके प्रबंधन का भार छोड़ना होगा। तभी आइपीएल का सही विकास होगा। बीसमबीस और आइपीएल भी क्रिकेट ही हैं। भारतीय क्रिकेट संघ के लिए आइपीएल की आत्मा की झाड़-पोंछ करने का समय यही है। देश की राजनीति में खेल भावना बेशक न पनपे, मगर खेल में राजनीतिक भाव नहीं आने चाहिए। समाज में खेल तभी टिकेगा।
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