Friday, June 8, 2012

आंबेडकर से शिकायत क्यों

आंबेडकर से शिकायत क्यों


Sunday, 03 June 2012 17:10

प्रियंका सोनकर 
जनसत्ता 3 जून, 2012: गांधी हों, मार्क्स या फिर आंबेडकर- इनके विचारों को मानने वालों ने उनके आदर्शों और विचारों की फजीहत ही की है। बहुत कम लोग विचारों और आदर्शों के पालन के लिए जरूरी कष्ट सहने को तैयार हैं। दलितों के उत्थान और एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए लंबी लड़ाई की आवश्यकता है। इसके लिए लोगों को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़ कर विचार और आदर्श पर आधारित जिंदगी जीना होगा। मगर आज दलित भी आपस में ही जाति आधारित गैर-बराबरी बनाए हुए हैं। वे जातिगत रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। अन्य वर्गों की तरह बहुत से दलित भी इसी कोशिश में लगे हुए हैं कि कैसे उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो और वे अपने अन्य दलित साथियों को पीछे छोड़ कर अपनी हाशिये की स्थिति से बाहर आ जाएं। पूंजीवाद ने लोगों को इस भ्रम में डाल रखा है कि अगर सारे दलित व्यक्तिगत प्रयास करें तो इस हाशिये की स्थिति से बाहर आ सकते हैं। पर जब तक व्यवस्था परिवर्तन नहीं होगा और समतामूलक समाज की स्थापना नहीं होगी तब तक यह संभव नहीं है। 
सूरजपाल चौहान ने 'जनसत्ता' में छपे अपने लेख 'एक विचारणीय मुद्दा' में लिखा था कि 'आज अगर हिंदू धर्म जिंदा है तो देश के दलितों के कारण ही। धर्म के नाम पर जागरण करने वाले भी यही हैं और इन जागरणों को आयोजित कराने वाले भी यही हैं।'  हैरानी की बात है कि उन्होंने इस समस्या के लिए आंबेडकर को भी दोषी ठहराया है: 'इस बात के लिए दलितों के मुक्तिदाता डॉ आंबेडकर कम जिम्मेदार नहीं हैं। शुरू-शुरू में उन्होंने हिंदुओं के मंदिरों में दलित प्रवेश को लेकर बड़े पैमाने पर आंदोलन किए थे। उन्हीं आंदोलनों का आज तक इतना गहरा असर है कि देश के दलित मंदिर प्रवेश की लड़ाई में अपना समय नष्ट करने में लगे हुए हैं। जबकि कटु सत्य यह है कि दलितों के देवी-देवता हिंदू देवी-देवताओं से अलग हैं।' 
डॉ आंबेडकर ने ऐसे समय में दलित आंदोलन शुरू किया था जब कांग्रेस और महात्मा गांधी अंग्रेजी दासता के विरुद्ध भारत-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे। इसी ने दलितों की मुक्ति का भी मार्ग खोला। जब हिंदुओं को पराधीनता सहन नहीं है, तो दलितों को पराधीनता कैसे सहन हो सकती है? अगर अंग्रेजी सत्ता से भारत को मुक्ति चाहिए थी, तो हिंदू सत्ता से दलितों को भी मुक्ति चाहिए थी। अगर भारत स्वाधीन हो गया और करोड़ों दलित भारतीयों को स्वाधीनता नहीं मिली, तो भारत की स्वाधीनता का कोई मूल्य नहीं था। इस विचार के साथ डॉ आंबेडकर ने दलित-स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी। 
आंबेडकर ने इस आंदोलन को सीधी लड़ाई से जोड़ने की कोशिश की। उन्होंने दो सत्याग्रह किए- पहला महाड़ में जल सत्याग्रह और दूसरा नासिक में धर्म सत्याग्रह। यों सत्याग्रह गांधीजी का अस्त्र था, मगर आंबेडकर ने इसी को हिंदू सत्ता के खिलाफ इस्तेमाल किया। 
2 मार्च 1930 को, जिस दिन गांधीजी ने अपना सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, ठीक उसी दिन डॉ आंबेडकर ने नासिक में हजारों अछूतों को लेकर काला राम मंदिर की ओर कूच किया था। गांधीजी का आंदोलन ब्रिटिश निरंकुशता के खिलाफ था तो डॉ आंबेडकर का हिंदू निरंकुशता के। गांधीजी के आंदोलन का दमन अंग्रेजी शासन ने किया, तो डॉ आंबेडकर के धर्म सत्याग्रह आंदोलन को सवर्ण हिंदुओं ने सत्याग्रही अछूतों पर हमला करके कुचल दिया। फिर भी अछूतों का जोश कम नहीं हुआ। नतीजतन, मंदिर के प्रबंधकों ने एक साल के लिए मंदिर का दरवाजा ही बंद कर दिया। 
दलित वर्ग के लोग एक निर्णायक लड़ाई लड़ना चाहते थे। मगर आंबेडकर इस सत्याग्रह को लंबे समय तक चलाने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने इसे स्थगित कर दिया। इसका कारण स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि मंदिर आंदोलन इसलिए नहीं किया गया था कि मंदिर में बैठे 'भगवान' अछूतों के कष्ट दूर कर देंगे। यह आंदोलन इसलिए चलाया गया था कि उन्होंने यह अनुभव किया था कि वह दलित वर्गों को ऊर्जा देने और उन्हें वास्तविक स्थिति का बोध कराने का बेहतर मार्ग था। इस सत्याग्रह से उनका उद्देश्य पूरा हो गया है, इसलिए अब मंदिर प्रवेश आंदोलन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके स्थान पर उन्होंने दलितों को अपनी ऊर्जा राजनीति पर केंद्रित करने की सलाह दी। 

आंबेडकर का मानना था कि वर्णव्यवस्था ही जाति भेद और अस्पृश्यता का मूल है। हिंदू नेताओं ने कुछ समय बाद दलित वर्गों से मंदिर प्रवेश आंदोलन को समर्थन देने की अपील की थी, पर आंबेडकर इसके पीछे की राजनीति जानते थे। इसलिए उन्होंने एक लंबा वक्तव्य 14 फरवरी 1933 को प्रेस को दिया। इस वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि 'अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, भारत में यूरोपियन क्लबों के दरवाजों पर लिखा होता था- कुत्तों और भारतीयों का प्रवेश वर्जित है। आज हिंदुओं के मंदिरों पर भी ऐसे ही बोर्ड टंगे हैं। अंतर सिर्फ यह है कि उनमें जानवर प्रवेश कर सकते हैं, पर दलितों को प्रवेश की अनुमति नहीं है। दोनों मामलों में स्थिति एक-सी है। पर भारतीयों ने अपना स्वाभिमान त्याग कर कभी भी यूरोपियों से उनके क्लबों में जाने की भीख नहीं मांगी। क्या फिर दलित ही अपना स्वाभिमान त्याग कर उन मंदिरों में प्रवेश करना चाहते हैं, जहां से हिंदुओं ने उन्हें बहिष्कृत कर दिया है? दलितों के लिए मंदिरों के दरवाजे खुलें या न खुलें- इस प्रश्न पर हिंदुओं को सोचना है न कि दलितों को इसके लिए आंदोलन चलाना है।... हिंदू इस बात पर भी विचार करें कि क्या मंदिर प्रवेश हिंदू समाज में दलितों के सामाजिक स्तर को ऊंचा   उठाने का अंतिम उद्देश्य है? या उनके उत्थान की दिशा में यह पहला कदम है? अगर यह पहला कदम है तो अंतिम लक्ष्य क्या है? अगर मंदिर प्रवेश अंतिम लक्ष्य है, तो दलित वर्गों के लोग उसका समर्थन कभी नहीं करेंगे। दलितों का अंतिम लक्ष्य है सत्ता में भागीदारी।' 
यानी डॉ आंबेडकर ने दलितों के अंदर वह चेतना जगाई, जो उनके पहले किसी ने भी उनमें नहीं जगाई थी। उनके अधिकारों के प्रति चेतना। उन्होंने दलितों को वह अधिकार वापस दिलाया जो इस संसार में मनुष्य होने के नाते उनके पास होने चाहिए। 
आज अगर दलित हिंदू धर्म अपना रहे हैं और अपने घरों में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां रख कर पूजा कर रहे हैं तो यह उनकी अज्ञानता है, न कि आंबेडकर द्वारा दलितों को उनका मनुष्य के रूप में दिलाया गया अधिकार। आंबेडकर ने साफ-साफ कहा था कि यह धर्म हमें गुलाम बनाता है। उन्होंने कहा कि 'हिंदुओं की गिनती उन अविश्वासी लोगों में की जा सकती है, जिनकी करनी और कथनी में अंतर है। उन लोगों पर विश्वास मत कीजिए, जो एक ओर घोषणा करते हैं कि ईश्वर सभी में है और दूसरी ओर आदमियों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार करते हैं। ऐसे लोगों से संबंध मत रखिए, जो चीटियों को तो चीनी दें, पर आदमियों को सार्वजनिक कुंओं से पीने का पानी न लेने देकर मारें।'
आंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए कहा था। उनका मानना था कि बौद्ध धर्म अत्यंत व्यावहारिक है, जो मनुष्य के चरमोत्कर्ष का साधन है।  उनके अनुसार 'धर्मांतरण कोई खेल नहीं। न तो यह मौज या मनोरंजन का विषय ही है। यह तो संपूर्ण दलित समाज के जिंदगी और मौत का प्रश्न है। व्यक्ति के विकास के लिए समाज की आवश्यकता है, तब भी समाज की धारणा धर्म का अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। व्यक्ति का विकास ही धर्म का वास्तविक उद्देश्य है, ऐसा मैं समझता हूं। जिस धर्म में व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं है, वह धर्म मुझे स्वीकार नहीं।' 
इन सब बातों को ध्यान में रख कर देखें तो कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि डॉ आंबेडकर ने दलितों को हिंदू धर्म ग्रहण करने के लिए बाध्य किया हो या फिर बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए। ऐसे में दलितों के हिंदू धर्म अपनाने या फिर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करने के लिए आंबेडकर को जिम्मेदार ठहराना कहां तक उचित है?

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