Friday, June 8, 2012

नक्सली खतरे की पड़ताल

नक्सली खतरे की पड़ताल


Thursday, 07 June 2012 11:13

अनिल चमड़िया 
जनसत्ता 7 जून, 2012: मनमोहन सिंह की सरकार दो विपरीत बातें करती है। एक तो वह अपनी उपलब्धियों का खाका पेश करती है और अगला चुनाव इन उपलब्धियों के बूते जीतने का दम भरती है तो दूसरी तरफ उसकी इस रट में कमी नहीं आ रही है कि नक्सलवाद देश के लिए सबसे बडेÞ खतरे के रूप में बना हुआ है। यह बात इस नाते विरोधाभासी है कि यूपीए-2 सरकार आर्थिक पिछड़ेपन को ही नक्सलवाद के पनपने का कारण बताती है। आखिर सरकार की नजर में यह नक्सलवाद है क्या? यह स्पष्ट है कि वैसे संगठनों की गतिविधियों को देश के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश नहीं किया जाता है जो कि भूमिगत हथियारबंद कार्रवाई को अपनी नीति बनाए हुए हैं।
वैसे संगठनों को बड़े खतरे के रूप में पेश करने के दावे का संदेश शायद कामयाब नहीं हो सकता, क्योंकि जिस सीपीआई-माओवादी की हथियारबंद कार्रवाई देश के बडेÞ हिस्से में देखी गई है उसके बहुत सारे नेता या तो सरकारी तंत्र द्वारा मारे जा चुके हैं या फिर जेल में हैं। इस तरह मनमोहन सरकार नक्सलवाद की सांगठनिक क्षमता को नहीं उसकी राजनीतिक ताकत को कटघरे में खड़ा करती है। सरकारी तंत्र अपनी संप्रेषण रणनीति पर बहुत ध्यान देता है। उसके संदेशों में कई पेच होते हैं। 
संप्रेषण (संचार) का सिद्धांत है कि जो संदेश दिया जाता है वह ग्रहण करने वाले की तात्कालिक पृष्ठभूमि की भाषा में पहुंचता और अपना असर छोड़ता है। नक्सलवाद को खतरे के रूप में जब पेश किया जाता है तो वह हथियारबंद माओवादी संगठन की गतिविधियों और कार्रवाइयों के रूप में संप्रेषित होता है। यह बात आमतौर पर समाज के बेहद जागरूक लोगों के बीच भी देखी जाती है। विडंबना यह है कि ये लोग एक ओर माओवाद के संबंध में सरकार की भाषा में सोचते और बोलते हैं और दूसरी ओर आदिवासी इलाकों के हालात पर चिंता भी जाहिर करते हैं। 
लेकिन उनकी इस चिंता के कारण उन्हें भी सरकारी तंत्र माओवादी बताने से नहीं चूकता। यह साफ-साफ पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार माओवादी विचारधारा को सबसे बड़ा खतरा मानती है या उन संगठनों की कार्रवाई को, जिनकी गतिविधियों पर उसने पाबंदी लगा दी है। सरकार के आदेश के अनुसार देश में सीपीआइ (माओवादी) का सदस्य होना गैर-कानूनी हो सकता है, लेकिन क्या किसी का राजनीतिक विचारधारा के स्तर पर माओवादी होना भी अपराध है? अगर ऐसा है तो यह संवैधानिक तौर पर गलत है। लेकिन देश में कई लोगों को महज इसलिए गिरफ्तार कर वर्षों के लिए जेल में डाल दिया गया क्योंकि उनके पास से माओवाद से संबंधित साहित्य मिला। 
न्यायालय में पुलिस अपना मुकदमा इसी रूप में पेश करती है कि आरोपी माओवादी है। दरअसल, विचारों की आजादी के प्रति सचेतपन में थोड़ी-सी ढिलाई अपनी स्वतंत्रता को स्वयं ही कटघरे में खड़ा कर देती है। इसका नतीजा यह होता है कि तंत्र उस ढील के बहाने अपने शिकार का विस्तार करता है। मौजूदा दौर में सरकार की नीतियों के खिलाफ मुहिम चलाने वालों के बारे में यह प्रचारित करना ही सरकारी तंत्र के लिए काफी होता है कि विरोध करने वाले माओवादी हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि माओवादी राजनीति, विचारधारा से सरकार को एतराज है या उसे मानने वाले कुछ संगठनों की गतिविधियों को वह गैर-कानूनी मानती है? क्योंकि कई ऐसे संगठन हैं जो पूर्ण या आंशिक रूप से माओवाद को खारिज नहीं करते और हथियारबंद संघर्ष भी नहीं चलाते हैं। 
अगर सरकार नक्सलवाद की राजनीतिक विचारधारा को बड़े खतरे के रूप में पेश करती है तो यह विमर्श किया जा सकता है कि आखिर विचारधारा के तौर पर नक्सलवाद को वह किस रूप में ग्रहण करती है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी के नाम पर हथियारबंद वामपंथी आंदोलन का नामकरण हुआ है। तब से उस आंदोलन को अपनी विरासत मानने वाले अनेक संगठन रहे हैं। नक्सलवाद की विचारधारा में उतना ही मतभेद इन संगठनों के बीच है जितना संसदीय वामपंथी पार्टियों के बीच। गांधीवादी विचारधारा के आधार पर खडेÞ संगठनों और समाजवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित संगठनों के बीच भी मतभेद हैं। कई नक्सलवादी संगठन चुनाव में भी हिस्सेदारी करते हैं।
इस पृष्ठभूमि में यह विचार किया जा सकता है कि सरकार को संसद वाली विरोधी पार्टियों से कोई खतरा दिखाई नहीं देता है। इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि संसद में बैठी विपक्षी पार्टियों का सरकार की नीतियों को लेकर कोई नीतिगत विरोध नहीं है। कार्यनीतिक (प्रबंधकीय) विरोध हो सकता है। 
कार्यनीतिक विरोध संसदीय पार्टियों के समर्थन जुटाने और विरोध झेलने का केंद्रबिंदु बना हुआ है। आखिर नीतिगत विरोध इन पार्टियों के बीच क्यों नहीं है, जबकि तमाम पार्टियों के दस्तावेज विभिन्न आंदोलनों और समाज निर्माण की परिकल्पना को लेकर बुनियादी मतभेदों से भरे पडेÞ हैं। क्या संसदीय राजनीति एक छलावे में तब्दील हो गई है, इसीलिए आज उस पर चौतरफा सवाल खड़े हो रहे हैं? आखिर इन पार्टियों में यह कैसी एकता है? वह कौन-सा सूत्र है जो इन्हें जोड़ता है? यह एकता पार्टियों के रुख में आए एक बड़े बदलाव से जुड़ी है। 

भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद से लगातार देश का राजनीतिक रुख वामपंथ से दक्षिणपंथ की तरफ मुड़ता गया है। कांग्रेस को अपना नुकसान होने का डर भारतीय जनता पार्टी से ही दिखता है और भारतीय जनता पार्टी को   कांग्रेस से। मध्यमार्गी पार्टियों के भीतर रुझान वाम की तरफ रहा है। इसीलिए दक्षिणपंथ की प्रवक्ता भाजपा (और उससे पहले जनसंघ) राजनीतिक तौर पर उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। लेकिन सोवियत संघ के ढहने के बाद पूरी दुनिया में जिस तरह से दक्षिणपंथी रुझान राजनीतिक विचारधाराओं में बढ़ा है वह भारत में भी तेजी के साथ विस्तारित हुआ है। देश की राजनीति में वाम रुझान की समाप्ति की अंतिम लड़ाई पश्चिम बंगाल में हुई, जहां वाम मोर्चे की सरकार ने अपनी परायज निश्चित कर ली। 
वाम मोर्चे में दक्षिणपंथ का वह रूप सिंगूर, नंदीग्राम से लेकर तसलीमा नसरीन के पश्चिम बंगाल से निष्कासन के साथ बहुत साफ हो गया। यहां तक कि नक्सलवादियों के खिलाफ जिस मुखरता और जिस तरीके से वाम मोर्चे की सरकार लड़ रही थी, उससे वहां वाम मोर्चे और कांग्रेस-भाजपा के तौर-तरीकों के बीच अंतर समाप्त हो गया था। लड़ाई का यह नियम है कि वही जीतता है जिसका अखाड़ा होता है। दक्षिणपंथ के अखाडेÞ की अगुआई ममता बनर्जी कर रही थीं और उन्होंने पैंतीस साल पुराने वाम मोर्चे के किले को फतह कर लिया। 
देश के राजनीतिक परिदृश्य में वाम रुझान को बनाए रखना ही वाम मोर्चे की विशिष्टता और ताकत रही है। वोटों से तसलीमा नसरीन के पश्चिम बंगाल में रहने और न रहने का कोई रिश्ता नहीं था। लेकिन वाम मोर्चे ने उस मुद्दे को भी वोटों से जोड़ दिया।
यह खालिस दक्षिणपंथी कार्यनीति होती है जिसका शिकार कमोबेश हर पार्टी हो चुकी है। दरअसल, भारत की संसदीय राजनीति में यह दौर ही ऐसा है कि जब वैसी पार्टियां दक्षिणपंथ का रुख कर रही हैं जिनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आधार वाले वर्ग को वामधारा की सख्त जरूरत है। यहां लालू यादव का उदाहरण भी ले सकते हैं और मायावती का भी।
मायावती ने उस सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले में अपनी सुरक्षा खोजनी शुरू की, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने अपने विस्तार की रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया। यह भूल कर कि सोशल इंजीनियरिंग शब्द उनके लिए नहीं बना है तो उसकी उन्हें जरूरत भी नहीं है। हारते ही उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया। दूसरी तरफ ममता बनर्जी के उदाहरण से समझें कि उन्होंने हवाई चप्पल के रूप में वाम की छवि से दक्षिणपंथ की विचारधारा को संगठित करने में कामयाबी हासिल कर ली। 
सरकार के दावे और विपक्ष द्वारा समर्थित इस बात को गहराई से समझने के लिए उपरोक्त बातें जरूरी थीं जिनमें नक्सलवाद को ही देश के सबसे बडेÞ खतरे में रूप में बताया जा रहा है। सांगठनिक क्षमता के रूप में देखें तो नक्सलवाद और खासतौर से हथियारबंद संघर्षों का प्रभाव देश के दो प्रतिशत गांवों में भी नहीं है। यह खुद सरकार स्वीकार करती रही है। भले ही प्रचार की रणनीति के तहत वह नक्सलियों या माओवादियों के प्रभाव को राज्यों और जिलों के स्तर पर पेश करती है। 
जाहिर है कि सरकार जब इसे सबसे बडेÞ खतरे के रूप में पेश करती है तो वह उनके हथियारबंद संघर्ष की क्षमता को लेकर ऐसा नहीं कर सकती। सरकार नक्सलवाद को देश के सामने मौजूद सबसे बड़ा खतरा बताती है। जबकि सच यह है कि कई बार लोग नक्सलवाद का नारा लगाते हुए उसकी राजनीति और सांगठनिक क्षमता को जानते और समझते भी नहीं हैं। हर समाज विकल्प के तौर पर उन राजनीतिक प्रयोगों की तरफ बढ़ता है जो तात्कालिक तौर पर उसे दिखाई देते हैं। लोगों और खासतौर से ग्रामीण इलाकों में विरोध की क्षमता को नेतृत्व देने वाला कोई सांगठनिक ढांचा भले न दिखता हो, पर वहां विरोध एक राजनीतिक शक्ल में दिखाई देने लगता है तो सरकार को चिंता होती है। 
सरकारी नीतियों पर संसदीय पार्टियों की रजामंदी के बाद भी विरोधों का खड़ा होना सरकार को नक्सलवाद के रूप में ही दिखाई देगा, क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय राजनीतिक पृष्ठभूमि में यह वैसा आंदोलन रहा है जिसने सबसे उग्र विरोध के रूप में अपनी पहचान बनाई है। देश की अधिकांश आबादी सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी का दंश झेल रही है। इसलिए स्वाभाविक ही उसका आकर्षण उन राजनीतिक शक्तियों की तरफ होता है जो किसी न किसी हद तक वामपंथी रुझान रखती हैं। यही कारण है कि मध्यमार्गी धारा के राजनीतिकों को भी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की भाषा बोलनी पड़ती है। लालू यादव को जब गांधी मैदान में बड़ी रैली का आयोजन करना था तब उन्होंने उसे लांग मार्च का नाम दिया। आखिर विरोध की शब्दावली और प्रतीक कहां से आ रहे हैं!

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