बीजापुर मुठभेड़ के दिन पत्रकार थे सैर पर
भेजा गया था प्रशासनिक खर्चे पर
मुठभेड़ के दौरान पत्रकारों को शहर से बाहर रखने की साजिश पहले से थी. देश की पुलिस और सुरक्षा बलों ने हत्याकांडों को अंजाम देने की यह खतरनाक 'मोडस आपरेंडी' संभवतः पहली बार आजमायी होगी. हत्याकांड ने माओवाद, मुठभेड़ और जमीन अधिग्रहण के बीच सरकार की भूमिका को फिर एक बार संदेहास्पद कर दिया है...
जनज्वार. छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के बासागुडा में 28-29 जून की रात तीन गांवों में माओवादियों से हुई कथित मुठभेड़ में 17 आदिवासी मारे गये थे और 5 गंभीर हालत में अस्पताल पहुंचा दिये गये थे. लेकिन इस सच को लिखने के लिए जिले का कोई संवाददाता-पत्रकार वहां मौजूद नहीं था क्योंकि उस दिन सभी पत्रकार प्रशासनिक खर्चे पर सैर पर गये हुए थे.
जिले के सभी पत्रकार मुठभेड़ के दिन (28 जून को) हैदराबाद की सैर पर भेज दिये गये थे. उन्हें एक एसी बस में सवार कर प्रशासनिक खर्चे पर हैदराबाद सैर करने के लिये भेजा गया था. सुत्रों के मुताबिक हत्याकांड के दिन ही पत्रकारों को हैदराबाद के सैर पर भेजने की योजना एक पुलिस अधिकारी ने बनायी थी, जो पहले बीजापुर के एसपी रह चुके हैं.
इस खबर की पुष्टि करते हुए एक स्थानीय पत्रकार ने बताया कि एकाध पत्रकारों को छोड़ सभी को सैर पर भेजने का इंतजाम एक पुलिस अधिकारी ने किया था. शहर में एकाध वही पत्रकार रह गये थे जिनके घर में कुछ अनहोनी हो गयी थी या राज्य के लिए वे माओवादी समर्थक और संदिग्ध थे. दिल्ली के भी एक पत्रकार ने बताया कि जब उन्होंने इस घटना के संबंध में बिजापुर संवाददाता को फोन किया तो उसने वारदात के दिन हैदराबाद होने की बाद स्वीकारी.
इस मुठभेड़ को आदिवासियों का सामूहिक नरसंहार मान लिया जाये इसके खुलासे तो मुठभेड़ के अगले दिन से ही होने लगे थे, लेकिन पत्रकारों को सैर पर भेजने के खुलासे से साफ हो गया है कि यह मुठभेड़ नहीं बल्कि आदिवासियों के हत्याकांड की सुनियोजित योजना थी.
गांधीवादी कार्यकर्ता और वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख हिमांशु कुमार ने बताया कि, 'दरअसल उन गांवों को सरकार खाली कराना चाहती है और इससे पहले भी वह 2009 में एक प्रयास कर चुकी है.' उनसे पत्रकारों के हैदराबाद जाने के सवाल पर बात हुई तो उनका कहना था कि, 'मुझे भी ऐसी जानकारी मिली है. अगर ऐसा हुआ है तो यह पत्रकारिता के सरोकार और सरकार की भूमिका को बड़ा साफ कर देता है कि पत्रकार वे किसके साथ हैं.'
सभी जानते हैं कि किसी वारदात के बाद मामले के सार्वजनिक होने और सच-झूठ से आम लोगों को परिचित कराने का बड़ा जरिया पत्रकार ही होता है. और अगर उस जरिये को ही गायब कर दिया जाये तो वही होगा जो बीजापुर मुठभेड़ में हुआ. ऐसे में सवाल उन पत्रकारों पर भी है जो पत्रकारिता करने की बजाय प्रशासनिक खर्चों पर मजे करने की जुगत में लगे रहते हैं.
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