Tuesday, July 17, 2012

होइहि सोइ जो राम रचि राखा...संदर्भ ओबामा प्रवचन!

होइहि सोइ जो राम रचि राखा...संदर्भ ओबामा प्रवचन!

पलाश विश्वास

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।

भला हो , ओबामा का, स्पर्श न सही, पर इस मर्यादापुरुषोत्तम की वाणी का असर ऐसा होने लगा है कि यूपीए की राजनीतिक बाध्यताओं की दीवारें ढहने लगी हैं। अब अश्वमेध के घोड़ सरपट दौड़ने ही वाले हैं। प्रणव के समर्थन में इंद्रधनुषी एकता की छटा देखते ही बनती है। मुलायम मायावती, शिवसेना शरद पवार के बाद ममता माकपा की बारी थी। सो, हो गया।तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और कोलकाता की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति चुनाव पर अपने पत्ते खोलते हुए कहा कि वह राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी को वोट देंगी। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी आगामी राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी का समर्थन करेंगी। ममता ने कहा कि उपराष्ट्रति पद के चुनाव के लिए बाद में फैसला लिया जाएगा।इस बीच सुधारों के लिए दबाव बढ़ाते हुएअंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) ने 2012 के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को 0.7 प्रतिशत घटाकर 6.1 फीसद कर दिया है। ममता के अवरोध तोड़ दिये गये तो फिर काहे की देरी? प्रधानमंत्री के वित्त मंत्रालय का कामकाज संभालने के बाद आर्थिक सुधार की हवा ने विदेशी निवेशकों का भरोसा बढ़ा दिया है। पिछले 3 महीनों में देश से पैसा निकालने वाले विदेशी निवेशक अब जमकर भारत में पैसा लगा रहे हैं। सिर्फ जुलाई  अब तक विदेशी निवेशकों ने बाजार में 7,350 करोड़ रुपये से ज्यादा निवेश किए हैं।इतनी भारी मात्रा में निवेश बाजारों और सरकार पर के बढ़ते भरोसे का संकेत दे रहा है। इसके पहले अप्रैल-जून तक विदेशी संस्थागत निवेशकों(एफआईआई) ने करीब 2,000 करोड़ रुपये की बिकवाली की थी, जबकि मौजूदा कारोबारी साल के शुरूआती 3 महीनों में विदेशी निवेशकों ने करीब 9 अरब डॉलर यानी 44,000 करोड़ रुपये का निवेश किया था।

मालूम हो कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने रविवार को कहा था कि भारत में निवेश का माहौल चिंताजनक परिस्थिति में है।वहीं प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने  ओबामा का नाम लिए बगैर अर्थव्यवस्था और एफआईआई के निवेश पर अपनी राय रखी है। प्रधानमंत्री कार्यालय के ट्वीट में कहा गया है कि विदेशी निवेशकों की नजर में भारत तीसरी सबसे पसंदीदा जगह है।उन्होंने एफडीआई का भी हवाला दिया और कहा कि चीन में एफडीआई करीब 8 फीसदी बढ़ा है, जबकि भारत में एफडीआई की 31 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। वहीं भारत में ज्यादा विदेशी निवेश के चलते दक्षिण एशिया में एफडीआई बढ़ा है।

विडंबना देखिये कि भारतीय बाजार में निवेश माहौल को खराब बताने वाली अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की टिप्पणी का सरकार ने तीखा जवाब दिया है।लेकिन केंद्र सरकार ने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) के घटते अवसर के संबंध में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की टिप्पणी को उच्चतम न्यायालय में अपनी ढाल की तरह आज इस्तेमाल किया। एटॉर्नी जनरल गुलाम ई. वाहनवती ने टू जी स्पेक्ट्रम मामले में उच्चतम न्यायालय के गत दो फरवरी के फैसले के स्पष्टीकरण को लेकर राष्ट्रपति के आग्रह पत्र 'प्रेसिडेंशियल रिफ्रेंस' पर सुनवाई के दौरान ओबामा की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में विदेशी कंपनियों के निवेश को आमंत्रित करने के लिए संबंधित फैसले का स्पष्टीकरण आवश्यक है। वेस्टिंगहाउस इलेक्ट्रिक कार्पोरेशन और न्यूक्लियर पावर कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड [एनपीसीआइएल] ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत गुजरत में परमाणु संयंत्र निर्माण के लिए प्रारंभिक स्तर पर कार्य किया जाएगा।ईरान से तेल आयात करने की वजह से लगने वाले प्रतिबंधों की आशंका समाप्त होने के बाद भारत और अमेरिका ने अवरुद्ध असैन्य परमाणु समझौते की दिशा में प्रगति के साथ-साथ तीसरे द्विपक्षीय महत्वपूर्ण संवाद में उल्लेखनीय प्रगति की है।मजे की बात है कि भारत अमेरिकी परमाणु संधि के विरोध​ ​ में ही यूपीए की सरकार से समर्थन वापस लिया था वामपंथियों ने , लेकिन परमाणु करार क्रियान्वन पर निःशब्द हो जाने के दिन ही वाम समर्थन से प्रणव का राष्ट्रपति बनना तय हो गया।अमेरिकी कंपनियों की चिंताओं को दूर करते हुए भारत ने अनुपूरक क्षतिपूर्ति संधि (सीएससी) पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।  

यह संयोग ही है, पर शायद बाकी देशवासियों को यह जानना दिलचस्प लगें कि आज बांग्ला के सबसे बड़े दैनिक अखबार के संपादकीय पेज पर ​​कोलकाता स्थित अमेरिकी वाणिज्य दूतावास में तैनात अमेरिकी कंसल जनरल डीनआर थामसन का भारत अमेरिकी द्विपक्षीय संबंध पर एक आलेख प्रकाशित हुआ। जिसमें कोलकाता में हिलेरिया की सवारी, हाल में अमेरिका में हुई स्ट्रैटाजिक डायलाग, आदि की चर्चा के साथ पश्चिम बंगाल में अमेरिकी ​​पूंजी निवेश की विस्तृत रुपरेखा प्रस्तुत की गयी है।स्वास्थ्य,ऊर्जा, परिवहन,कृषि,रेलवे, विमानन,उपभोक्ता सामग्री, सेवाओं, ढांचागत सुविधाओं​ ​ में अमेरिकी दिलचसपी का खुलासा किया गया है। खास तौर पर कृषि क्षेत्र में बंगाल में भारत अमेरिकी सहयोग से चलने वाले संयुक्त उद्यमों का ब्यौरा दिया गया है।अकेले स्वास्थ्य सेवा पर १५ हजार करोड़ डालर के निवेश की संभावना जतायी गयी है।

कोलकाता में मीडियाकर्मियों से बातचीत करते हुए ममता ने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव देश का सबसे बड़ा चुनाव है। इस अहम चुनाव में हम अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहते। उन्होंने स्वीकार किया कि उनके सामने प्रणव मुखर्जी का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। उन्होंने कहा कि यह एक कठिन फैसला था। तृणमूल कांग्रेस की घोषणा पर भाजपा ने आज उसकी नेता ममता बनर्जी की खिंचाई करते हुए सवाल किया कि आखिर किन मजबूरियों के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ा।भाजपा की प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने यहां कहा, ''प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने के तृणमूल कांग्रेस के फैसले से हम निराश हुए हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहली व्यक्ति थीं जिन्होंने जन विरोधी और भ्रष्ट संप्रग के खिलाफ आवाज उठाई। किन मजबूरियों के चलते उन्होंने संप्रग उम्मीदवार का समर्थन किया? सीतारमण ने ममता के निर्णय पर कटाक्ष करते हुए कहा, क्या ममता का संप्रग सरकार की नीतियों के प्रति विरोध महज दिखावा है? क्या वह भी अब आम आदमी के हितों के प्रति उदासीन हो गई हैं?

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक शीर्ष सहयोगी ने ऋण गारंटी कार्यक्रम का समर्थन करते हुए कहा कि राष्ट्रपति कभी यह स्वीकार नहीं करेंगे, कि 21वीं सदी के उद्योग चीन, भारत या यूरोप में हों।ओबामा के साथ ओहायो की यात्रा के दौरान व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जे कार्ने ने संवाददाताओं से कहा कि राष्ट्रपति कभी स्वीकार नहीं करेंगे, कि 21वीं सदी के उद्योग चीन, यूरोप या अन्य कहीं हों। विपक्षी दल शीर्ष दानदाताओं के प्रशासिनक पद हासिल करने तथा सरकारी सहायता प्राप्त करने की रिपोर्ट का हवाला देते हुए ओबामा की आलोचना करते रहे हैं। आलोचकों ने इस संदर्भ में उदाहरण देते हुए कहा कि उर्जा विभाग की ऋण गारंटी योजना का लाभ वैकल्पिक उर्जा कंपनियों को हुआ।साफ जाहिर है कि राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर महज चुनावी बयानबाजी नहीं कर रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपति, भारतीय नेताओं की तरह।उनके हर बयान में अमेरिका की दीर्घकालीन रणनीति की प्रतिच्छवि है।सोवियत संघ के अवसान से पहले भी अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आते रहे हैं। कैनेडी और नेहरु की मित्रता के तो किस्से हैं ही, रीगन और इंदिरा की शिखर वार्ताओं ने भी वैश्विक समीकरण को बदलने में अपनी भूमिका निबाही है।उदारीकरण के ठीक पहले जिम्मी कार्टर और उदारीकरण के बाद बिल क्लिंटन की भारत यात्राओं को कैसे भुलाया जा सकता है?  

दियागोगार्सिया की याद है किसी को?याद है कि हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाये रखने के लिए दियागोगार्सिया में अमेरिकी नौसैनिक अड्डा बनाये जाने के विरुद्ध निर्गुट मंच से ​इंदिरा गांधी की मुहिम?भौगोलिक रुप से दियागोगार्सिया हिंद महासागर के प्रबाल समृद्ध जिस छागोस लक्षदीव रिज क्षेत्र का अंग है, उसके अंतिम छोर पर अफ्रीकी ​​महादेश से जुड़ा दियागोगार्सिया है तो इस तरफ अपना लक्षदीव।१९६८ में मारीशस की आजादी से पहले ब्रिटिश नियंत्रित इस द्वीप के दोहजार वाशिंदों को खदेड़कर जो अमेरिकी नौसैनिक अड्डा बना था, और भारतीय उपमहाद्वीप को अशांत बनाने की अमेरिकी युद्धक नीति की आक्रामक शुरुआत हुई ​​थी १९७१में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान सातवें नौसैनिक बेड़े के हिंद महासागर में प्रवेश से काफी पहले, उसी का शिकार है आज का दक्षिण​​ एशिया।कुछ समय पहले अमेरिका के रक्षा मंत्री लियोन पेनेटा पिछले दिनों कहा कि एशिया में भारत अमेरिका के लिए प्रवेशद्वार का काम करेगा।पिछले एक दशक से अमेरिका भारत को चीन पर दबाव बनाने की रणनीति के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है। साथ ही इसके पीछे अमेरिका का एक मकसद यह भी रहा है कि भारत के माध्यम से पाकिस्तान पर निर्भरता को कम किया जाए और ईरान पर दबाव बनाया जाए।तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश चाहते थे कि भारत, पाकिस्तान के रास्ते ईरान से आने वाली गैस पाइप लाइन की परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दी जाए। इसके साथ ही अगले साल अमेरिका की तरफ से भारत को एक ऑफर और मिला। अमेरिका ने पेशकश की कि अगर भारत आईएईए में अमेरिका के साथ मिलकर ईरान के खिलाफ वोट डालेगा तो उसे न्यूक्लियर ऊर्जा के क्षेत्र में मदद दी जाएगी और साथ ही भारत के साथ रणनीतिक भागीदारी भी की जाएगी।हिंद महासागर क्षेत्र में उभरते सुरक्षा मैट्रिक्‍स को कुछ राजनीतिक गतिविधियों और चिंताजनक घटकों के कारण वास्‍तव में पेचीदा बताते हुए रक्षा मंत्री  ए.के.एंटनी ने भारतीय नौसेना के शीर्ष अधिकारियों से हर समय उच्‍च स्‍तरीय तैयारी बरकरार रखने का आह्वान किया।  नई दिल्‍ली में नौसैनिक कमांडर सम्‍मेलन को संबोधित करते हुए श्री एंटोनी ने कहा कि हमारे पास हिंद महासागर क्षेत्र के देशों के साथ उच्‍च कोटि की प्रणाली और प्रशिक्षण सहायता कार्यक्रम मौजूद हैं जो उनके क्षमता निर्माण और उन्नयन में सहायक हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह कहकर भारतीय नेताओं का दिल तोड़ दिया कि भारत को आर्थिक मोर्चे पर जरूरी सुधार की दरकार है। ओबामा के इस कथन के बाद उनकी देश में जमकर आलोचना हो रही है। नेताओं ने उन्हें भारत के मामले में टांग न अड़ाने की नसीहत दे डाली है।ओबामा ने हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास जताया। उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था की मौजूदा वृद्धि दर को भी 'प्रभावकारी ' बताया है। उन्होंने कहा कि भारत की वृद्धि दर पर विश्व अर्थव्यवस्था में सुस्ती का असर है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत तथा दुनिया की अर्थव्यवस्था के बारे में कई तरह के सवालों के जवाब दिए। साथ ही उन्होंने भारत-पाकिस्तान संबंधों, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी रणनीति के बारे में भी बोला।अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक समाचार एजेंसी को दिए इंटरव्यू में साफ तौर पर कहा कि अमेरिकी निवेशक भारत में निवेश करना चाहते हैं लेकिन रिटेल सहित कई क्षेत्रों में पाबंदी की वजह से  भारत से मुंह मोड़ने लगे हैं। ओबामा ने कहा कि दोनों देशों में रोजगार के अवसर पैदा करना आवश्यक है और भारत के विकास के लिए ये निहायत जरूरी है।

१९७१ में गौरतलब है कि सीमापार बांग्लादेश में ही युद्ध नहीं चल रहा था, युद्ध भारतीय सीमा में भी जारी था। वसंत के वज्रनिर्घोष के विरुद्ध।अमेरिकी विदेशनीति के लिए इस हकीकत को नजरअंदाज करना शायद शीतयुद्ध के उस उत्कर्ष काल में मुश्किल ही था कि एक ओर जहां पेंटागन और नाटो दुनिया से साम्यवाद का सफाया करने के अभियान में शामिल है, वहीं भारत में जनयुद्ध की शुरुआत हो गयी। पर इस बारे में अभी ज्यादा विश्लेषण हुआ​ ​ नहीं है। १९७१ से ही जनयुद्ध की विचारधारा के विरुद्ध हिंदुत्व का राष्ट्रवाद सत्तावर्ग के लिए सर्वोत्तम सुरक्षा कवच साबित हुआ है, जिसे बांग्लादेश मुक्तिसंग्राम ने वैधता दी। तब से लेकर अब तक भारत अमेरिकी संबंध लगातार मजबूत होते रहे हैं और हिंदुत्व का परचम लहराता रहा है, जिसकी अंतिम परिणति नई विश्व व्यवस्था है, जिसमें निर्णायक अमेरिकी कारपोरेट साम्राज्यवाद है तो नीति निर्धारक हैं जिओनिज्म और हिंदुत्व विचारधाराएं,​​ जो दक्षिण एशिया ही नहीं समूचे विश्व को खुला बाजार में तब्दील करके अश्पृश्यतावादी, रंगभेदी, वर्चस्ववादी व्यवस्था बनाये रखने के लिए​ ​ सतत प्रयत्नशील है। इस समीकरण को समझे बिना न मनमोहन सिंह की इकानामिक्स समझ में आने वाली है और न ही ओबामा की भूमिका। ​​अश्वेत राष्ट्रपति होते हुए जैसे ओबामा अश्वेविश्व ब्रादरी के प्रतिनिधि नहीं हैं,वैसे ही संप्रभु भारत के प्रतिनिध होते हुए मनमोहन भी कोई भारत के जनप्रतिनिधि नहीं है।इसीलिए भारतीय जनता से ज्यादा मनमोहन अमेरिका और नई विश्व व्यवस्था के प्रति ज्यादा जवाबदेह हैं। टाइम के अंडर एचीवर कवरसटोरी का सार यही है, जिसकी प्रतिध्वनियां ओबामा के ताजा बयान में गूंजी हैं।

अब तक तो हमें शिकायत रही है कि कारपोरेट मीडिया में जनसरोकारों के विरुद्ध मिथ्या प्रचारअभियान का घटाटोप है और कारपोरेट मीडिया नरसंहार संस्कृति के धारक वाहक हैं। पर जिस वैकल्पिक मीडिया की बात हम करते हैं, वहां जनसरोकारों की परवाह किसे है?नवउदारवाद के मीडिया सिपाहसालार तमाम अब वैकल्पिक मीडिया के भी आइकन बने हुए हैं और नवउदारवादी हिंदुत्व के आइकनों के गुणकीर्तण में समां बांध रहे हैं, जबकि सामाजिक सरोकार के तमाम मुद्दे हाशिये पर हैं।घोषित वर्चस्ववादियों को मर्यादा पुरुषोत्तम साबित किया जा रहा है और रामचरित मानस बांचा जा रहा है।

राजनीति का हाल इससे बुरा है।हम तो कफ सीरप के असर में जीआईसी के आपातकाल पूर्व दिनों के बाद पहली बार करीब ३६ घंटे नींद में थे, लेकिन तमाम विचारधाराओं और धड़ों के मातबर तो लगता है कि साठ के दशक से नींद में ही हैं और उन्हें लगता है कि नेहरु के अवसान के बाद अब तक का ​​सारा समय अंधायुग है, जो हो रहा है, वह नियतिबद्ध है यानी राम ने जो रच रखा है।भारत अमेरिकी संबंधों की निरंतरता का आख्यान इंदिरा के समाजवादी अवतार से जरूर बाधित है और दृश्यांतर में है। लेकिन पीएल ४०, हरित​ ​ क्रांति से लेकर तकनीक और सूचना विस्फोट में इसकी समय समय पर अभिव्यक्ति होती रही है। हिंदू राष्ट्रवाद का पुनुरूत्थान तो इसका परमाणु​ ​ विस्फोट ही समझिये।यह महाविस्फोट तो इंदिरासमय में ही बुद्ध की मुस्कान के साथ सुसंपन्न हो गया।लकिन अमेरिकी साम्राज्यावाद के विरोदी तो इंदिरा की तरह मुंहजबानी मुखर तक नहीं हुए।

वैश्विक सत्ता समीकरण और शीत यु​द्धकालीन राजनय के हिसाब से नेहरु और इंदिरा ने समाजवादी चोला पहना था, लेकिन इससे भारत अमेरिकी संभंध कभी बाधित हुए हों, ऐसे प्रमाण नहीं हैं। हां, भारत के साम्यवादियों और समाजवादियों ने जरूर अपनी अपनी विचारधारा को तिलांजलि देकर सत्ता के वर्चस्वदी समीकरण को मजबूत करते हुए बहिष्कृत बहुसंख्य जनगण के नरसंहार संस्कृति का निरंतर साथ दिया।अमेरिकापरस्त ताकतों की गोलबंदी दरअसल नेहरु इंदिरा जमाने में ही निरंतर तेज होती रहीं।पर न हिंदू राष्ट्रवाद और न साम्राज्यवाद के विरुद्ध कोई राष्ट्रीय मोर्चा वजूद में आया। संघी शब्दों में कहें तो छद्म धर्मनिरपेक्षता के अंग बतौर साम्राज्यवाद विरोध का मंत्र जपने का सिलसिला चलता रहा और बाकी कर्मकांड समाजवादी मार्क्सवादी अंबेडकरवादी रस्मोरिवाज के मुताबिक चलते रहे सत्ता में साझेदारी और वोट बैंक समीकरण के हिसाब से। नेहरु के समय से जनप्रतिनिधित्व में हिंदुत्व की अमिट वर्चस्ववादी छाप है, जिसका असर समूचे लोकतांत्रक ढांचे पर है और संविधान निर्माण के बावजूद आज तक हिंदुत्वविरोधी संविधान दरहकीकत लागू ही नहीं ​​हो पाया। सोवियत अवसान के काफी पहले, तेलयुद्ध और मध्य पूर्व के युद्ध क्षेत्र में बदलने से भी पहले वसंत के वज्र निर्गोष के मुकाबले और फिर​ ​ सिख अलगाववाद के विरुद्ध तमाम तामझाम परे रखकर हिंदू राष्ट्रवाद में राजनीति समाहित हो गया। १९७१ से लेकर १९८४ के इस संक्रमणकाल के पोस्टमार्टम किये बिना १९९१ से निरंकुश नवउदारवादी वर्चस्ववाद की पृष्ठभूमि और ओबामा प्रवचन का सही तात्पर्य समझना मुश्किल होगा।

एकदम ताजा घटना है। अमेरिका निर्यातित अरब वसंत के मौसम में। मिस्र में प्रदर्शनकारियों ने अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन के काफिले पर उस समय टमाटर और जूते फेंके जब वह एलेक्सजेंड्रिया में नए अमेरिकी वाणिज्य दूतावास से लौट रही थीं। प्रदर्शनकारी 'मोनिका, मोनिका, मोनिका' चिल्ला रहे थे। समारोह समाप्त होने के बाद जब कर्मचारी वाहन की तरफ बढ़ रहे थे तब प्रदर्शनकारियों ने उनके ऊपर टमाटर, जूते और पानी की बोतलें फेंकी। दंगा निरोधक पुलिस को भीड़ को रोकने में मशक्कत करनी पड़ी।यह मानना ही होगा कि कट्टरपंथी इस्लामी ब्रदरहुड की विचारधारा मध्यपूर्व में अब भी प्रबल अमेरिकाविरोधी वातावरण बनाये हुए है।लेकिन इस्लामी कट्टरपंत हो या हिंदू कट्टरपंथ, इनका असर क्या दक्षिण एशिया में कम है? पर याद करे कि इतना प्रबल अमेरिकाविरोधी प्रदर्शन इधर कब और कहां हुआ?समाम्राज्यवाद विरोध और धर्मनिरपेक्षता जिन मार्क्सवादियों और समाजवादियों की राजनीति का मूल मंत्र है, विभिन्न राज्यों में दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद उन्होंने कब साम्राज्यवाद और हिंदुत्व का पुरजोर विरोध किया?तमाम जन संगठनों का राष्ट्रव्यापी तामझाम प्रपल पराक्रमी मजदूर संगठन सबके सब हिंदुत्व और अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विकलांग बने​ ​ रहे?एकाध दिन के भारत बंद, रैली या औद्योगिक हड़ताल की र्सम अदायगी के अलावा साठ के दशक से लेकर अब तक कुल जमा प्रतिरोध कितना​​ हुआ, तनिक हिसाब लगाकर बतायें।अल्पमत नरसिंह राव सरकार के गैरराजनीतिक अर्थशास्त्री अमेरिका के कहने पर वित्तमंत्री बना दिये गये और रातोंरात उन्होंने बाजार के सारे दरवाजे खोल दिये, क्या नवउदारवाद का इतिहास महज इतना ही है?लेकिन १९७१ के बाद तमाम सरकारें अल्पमत ही रहीं, जो दांएं बांएं से समर्थन लेकर ही चलती रहीं, अगर नवउदारवाद का विरोध इतना​ ​ ईमानदार है तो कहीं तो अवरोध हुआ होता?

हाल ही में वामपंथियों के गढ़ कोलकाता में हिलेरिया की सवारी निकली। क्या कोई प्रतीकात्मक विरोध तक दर्ज हुआ?

हिंदू राष्ट्रवाद को खत्म करने का जो ब्रह्मास्त्र है, वह है जाति उन्मूलन और बहिष्कत समुदायों को सामाजिक आर्थिक सशक्तीकरण, क्या इस दिशा में कोई पहल हुई?

समावेशी विकास के लिए, संसाधनों के समुचित बंटवांरे के लिए जाति आधारित जनगणना अनिवार्य है, पर जाति के आधार पर राजनीति करने वाले तमाम राजनीतिक दल इसे निरंतर टाल रहे हैं। क्यों?

इस पर शरद यादव के लिखे पर तनिक गौर करें:

हमारे देश की राजनीति में जाति और जातिवाद की चर्चा बार-बार होती रही है, लेकिन सिर्फ चर्चा होती है, इस पर हमारे समाज का बौद्धिक वर्ग बहस करने से कतराता रहता है। जब जाति आधारित आरक्षण का मामला सामने आता है, तब इसका विरोध करते हुए इसके पक्षधरों को जातिवादी बता दिया जाता है। जब जाति जनगणना की बात होती है, तो कहा जाता है कि इससे जातिवाद बढ़ेगा। उत्तर भारत के एक-दो राज्यों के बारे में कहा जाता है कि वहां जाति आधारित राजनीति होती है। पर पिछले दिनों कर्नाटक की राजनीति में जो हुआ, वह क्या था? वहां सदानंद गौड़ा की सरकार थी। वह हट गई। वह हटी क्यों, इसके बारे में किसी को कोई संदेह नहीं है। येदियुरप्पा उन्हें हटाना चाह रहे थे। पार्टी का नेतृत्व उनके दबाव में था। वह दबाव राष्ट्रपति चुनाव के कारण और भी बढ़ गया, क्योंकि उस मौके पर येदियुरप्पा की बगावत का खतरा पैदा हो गया था। चुनाव राष्ट्रपति का था और शिकार सदानंद गौड़ा बने।

येदियुरप्पा का दबाव पार्टी पर इसलिए भी था कि वे एक ऐसे सामाजिक वर्ग से हैं, जिसकी संख्या वहां सबसे ज्यादा है। वह सामाजिक वर्ग है लिंगायतों का। लिंगायत आंदोलन वहां चला था जाति-व्यवस्था के खिलाफ। जाति-व्यवस्था को मिटाने के लिए बसवन्ना ने एक पंथ का निर्माण किया, जिसमें सभी जातियों के लोगों को शामिल किया गया। जो उसमें शामिल होते थे, वे अपनी जाति का त्याग करके वहां आते थे। शर्त ही यही थी कि जो जाति-व्यवस्था को नहीं मानता वह लिंगायत समुदाय में शामिल हो जाय। पर हमारे समाज की यह विडंबना है कि जाति-व्यवस्था को तोड़ने के लिए चला एक आंदोलन खुद एक जाति में तब्दील हो गया।...

बौद्धिक समुदाय का मानसिक दोमुंहापन देखने लायक है। ताकत और सुविधाओं के पदों को कुछ जातियों के लोगों ने अपने पास सुरक्षित कर रखा है। वे नहीं चाहते कि निचले पायदान पर बैठे लोगों का वहां प्रवेश हो और अगर उनके प्रवेश की कोई व्यवस्था की जाती है तो वे जाति-जाति का शोर मचाने लगते हैं। जाति उन्हें अप्रिय सिर्फ उस समय लगती है जब आरक्षण का मामला सामने आता है। जब जाति-व्यवस्था के निचले पायदान पर बैठे लोग आपसी भेदभाव को मिटा कर एकजुट होकर राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, तो कहा जाता है कि वे जातिवाद करते हैं। लोहिया ने कमजोर जातियों के लोगों को संगठित होकर राजनीति करने को कहा तो उन पर जातिवादी का ठप्पा लगा दिया गया। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने जब यही कहा तो कहा गया कि वे जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। लोकसभा में जब हमने जाति आधारित जनगणना की मांग की, तो इस व्यवस्था का सदियों से फायदा उठा रहे लोगों ने कहा कि हम जातिवाद को बढ़ावा देने का आधार तैयार कर रहे हैं।

ऐसा कहते समय वे यह भूल जाते हैं कि जाति खुद जातिवाद का सबसे बड़ा आधार है। इस आधार पर चोट की जानी चाहिए, लेकिन जातिवाद का शोर मचाने वाला हमारा बौद्धिक समुदाय जाति के खिलाफ कुछ नहीं बोलता। इसका कारण यह है कि उस समुदाय के लोग खुद जाति के कारण लाभ पाते रहे हैं। वे इस पर किसी प्रकार की खुली बहस के लिए भी तैयार नहीं हैं। वे जाति-जनगणना से डरते हैं, क्योंकि इस जनगणना के बाद जाति और जाति-व्यवस्था पर बहस होगी। इस व्यवस्था के शिकार लोग अनेक ऐसे सवाल खड़े करेंगे, जिनका जवाब हमारे समाज के तथाकथित प्रबुद्ध लोगों के पास नहीं है।(साभार जनसत्ता,पूरा आलेख पढ़ें: http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/24367-2012-07-17-04-56-19)

हिंदू राष्ट्रवाद का मुख्य आधार है अहिंदू समुदायों के प्रति निरंतर घृणा अभियान, खासकर मुसलमानों के खिलाफ। आक्रमक हिंदू राष्ट्रवाद से ​​आशंकित मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए धर्म निरपेक्षता का जाप करने वाले राजनीतिक दलों ने अपने अपने सत्ता समय में संबंधित राज्यों में​ ​इस सिलसिले में सच्चर कमिटी की रपट या मंडल कमिटी की रपट लागू करने में कितनी पहल की?

चिल्लपों मचाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। अगला राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए भारत और चीन में बाजार खोलने के लिए ओबामा की कोशिशें रंग दिखाने लगी है।राजनीतिक बाध्यताएं संसदीय कार्यवाही में आड़े आ सकती हैं, नीति निर्दारण और राजकाज में नहीं। विचारधाराओं का पाखंड​ ​ जीते हुए हिंदुत्ववादी नवउदारवाद को कैसे मजबूत किया जा सकता है, सभी राजनीतिकदलों में सत्ता में अपनी अपनी ताकत के मुताबिक साझेदारी निभाते हुए इस कला में गठबंधन मजबूरी और लोकतंत्र को कायम रखने, राजनीतिक स्थिरता के बहाने अलापते हुए पारंगता हासिल कर ली है। निरर्थक​ ​ वादविवाद में बेसिक मुद्दों को हाशिये पर डालना मीजिया ही नहीं, राजनीति का कला कौसल बन गया है। एक के बाद एक जनविरोधी कानून पास हो जाते हैं, कानोंकान खबर नहीं होती।समरसता इतनी कि दायां बायां एकाकार। हिंदू राष्ट्रवाद के सर्वाधिनायक प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति बनना तय और उप राष्ट्रपति पद के लिए फिर नये सिद्धांत, नई रणनीति, ध्रूवीकरण।​

ओबामा प्रशासन में हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे बड़े समर्थक बतौर हिलेरिया मैडम तो हैं ही, अगर रिपब्लिकन सत्ता में आ जायें, तो ग्लोबल हिंदुत्व के झंडावरदार  अमेरिका में लुसियाना प्रांत के भारतीय मूल के अमेरिकी गवर्नर बॉबी जिंदल भारतीय सत्तावर्ग का प्रतिनिधित्व करेंगे अमेरिकी प्रशासन में। इतना चाक चौबंद इंतजामात हैं।यहां िसके मुकाबले ाप महज विचारधारा की जुगाली में लगे हैं।

बॉबी जिंदल  ने राष्ट्रपति बराक ओबामा पर निशाना साधा है। जिंदल ने नवम्बर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के सम्भावित उम्मीदवार मिट रोमनी के लिए 20 लाख डॉलर का अनुदान जुटाया है।

लुसियाना के बैटन रौग में रोमनी के लिए आयोजित अनुदान संग्रह समारोह के दौरान जिंदल ने ओबामा की आलोचना करते हुए उनकी नीतियों को `अक्षम` करार दिया और कहा कि ओबामा की राजनीति बहुत ढीली है। जिंदल ने कहा कि ओबामा की राजनीति अमेरिकी नागरिकों के हित में नहीं है।

जिंदल ने कहा, यह राष्ट्रपति, राष्ट्रपति ओबामा, अपने रिकॉर्ड का अनुपालन नहीं कर सकते, वह अपने राजनीतिक सिद्धांतों पर नहीं चल सकते, इसलिए उन्होंने गवर्नर रोमनी के रिकॉर्ड पर हमला बोला और उसे तोड़-मरोड़कर पेश किया।

`एनसीबी` के अनुसार, रिपब्लिकन प्राइमरी में टेक्सास के गवर्नर रिक पेरी का समर्थन करने वाले जिंदल हाल में रोमनी के साथ कई अभियानों में देखे गए हैं, जहां उन्होंने ओबामा पर हमला बोला।

सवाल है कि जब जापान जैसा देश अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को सुरक्षित नहीं रख पा रहा है तो ऐसे में भारत को भी देश में परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने से पहले सोचना चाहिए। देश में हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु में 6 न्यूक्लियर प्लांट स्थापित होने हैं। जैंतापुर (महाराष्ट्र) में 10 हजार मेगावाट क्षमता का दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर प्लांट लगने जा रहा है। भूकंप व सुनामी की लगातार बढ़ रही घटनाओं के चलते विश्व के किसी भी देश के न्यूक्लियर एनर्जी प्लांट सुरक्षित नहीं हैं।  हरियाणा के फतेहाबाद क्षेत्र में न्यूक्लियर प्लांट के विरोध में पिछले 2२0 दिनों से आंदोलन चलाया जा रहा है। महाराष्ट्र के तारापुर क्षेत्र में चल रहे न्यूक्लियर एनर्जी प्लांट के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। इस क्षेत्र में जहां लोग बड़े पैमाने पर कैंसर व बांझपन के शिकार हो रहे हैं। जापान के फुकुशिमा दाइची में परमाणु संयंत्र चला रही कंपनी भी भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित कर रही है। ऐसे में जब यह कंपनी जापान में अपने संयंत्र को सुरक्षित नहीं रख पा रही है तो वह भारत में संयंत्र  की सुरक्षा की क्या गारंटी दे पाएगी?

काला धन और भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे और रामदेव बाबा सरकार से आर-पार करने की ठान चुके हैं और दोनों नौ अगस्त से एक साथ आंदोलन करेंगे। काला धन वापस लाने और मजबूत लोकपाल के मुद्दे पर दोनों ने एक साथ आंदोलन करने का ऐलान किया। पुणे में आयोजित एक कार्यक्रम में दोनों मिलकर यह घोषणा की कि वे नौ अगस्त से देश व्यापी आंदोलन शुरू कर देंगे।पर कालाधन की जो वर्चस्ववादी अर्थव्यवस्था इस देश में लागू है, उसके मूल आधार हिंदू राष्ट्र्वाद के ही धारक वाहक हैं दोनों जिहादी, जिन्हें न अमेरिकी साम्राज्यवाद से कोई शिकायत है और न आर्थिक सुधारों के बहाने जनता के नरसंहार के प्रतिरोध से कोई सरोकार।कुछ इसी तरह, अपने टीवी शो के जरिए सामाजिक बुराइयों के खिलाफ मुहिम चला रहे फिल्म अभिनेता आमिर खान ने जब सोमवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और केंद्रीय मंत्री मुकुल वासनिक से मुलाकात कर उन्हें सिर पर मैला ढोने वालों की दुर्दशा से अवगत कराया तो आश्वसन मिला कि इस मुद्दे को सरकार प्राथमिकता देगी और कड़े प्रावधानों वाला मसौदा विधेयक संसद के मानसून सत्र में पेश करेगी।
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​इस बीच आर्थिक सुधारों के लिए जो बुनियादी इंतजाम किये गयें है, उन पर नजर किसी की नहीं है।

मामला महज प्रणव को आर्थिक सुधार के एजंडा में मिसफिट समझकर राष्ट्रपति भवन के कूड़ेदान में फेंकने या वित्तमंत्री बतौर पिर मनमोहनी अवतार का नहीं, बल्कि राजकाज और नीति निर्धारण की पूरी प्रक्रिया के कारपोरेटी कायाकल्प का है, जहां राजनीति का हस्तक्षेप है ही नहीं। राजनीति की औकात​​ राष्ट्रपतिभवन की मुहर तक सीमाबद्ध। नीति निर्धारण अब न कोई मंत्रिमंडल करेगा और न  अधिकारप्राप्त मंत्रीसमूह, विशेषज्ञ समितियां करेंगी। तकनीशयनों, कारपोरेट एजंटों और अफसरान की विशेषज्ञ समितियां। जिसे सैनिक राष्ट्र लागू करेगा हिंदू अंध राष्ट्रवाद की वैधता के साथ।एचडीएफसी समूह के चेयरमैन दीपक पारेख को सरकार ने वित्तीय आधारभूत संरचना क्षेत्र पर बनी उच्च स्तरीय समिति का प्रमुख नियुक्त किया है। नवंबर, 2010 में गठित इस समिति के प्रमुख पद पर पारेख ने रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर राकेश मोहन की जगह ली है।वित्तीय क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं के विकास के लिए निवेश बढ़ाने के उपाय सुझाने और मौजूदा नीतियों की समीक्षा करने के लिए इस समिति का गठन किया गया था। प्रधानमंत्री ने इस पद पर पारेख की नियुक्ति को इस महीने की शुरुआत में मंजूरी दी।प्रणव मुखर्जी दर्जन भर अधिकारप्राप्त मंत्रीसमूह के अध्यक्ष थे।अब ऐसे मंत्री समूह के बदले विशेषज्ञ समितियां ही नीति निर्दारण करेंगी।

केंद्र सरकार ने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) के घटते अवसर के संबंध में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की हाल की टिप्पणी को उच्चतम न्यायालय में अपनी ढाल की तरह आज इस्तेमाल किया। एटॉर्नी जनरल गुलाम ई. वाहनवती ने टू जी स्पेक्ट्रम मामले में उच्चतम न्यायालय के गत दो फरवरी के फैसले के स्पष्टीकरण को लेकर राष्ट्रपति के आग्रह पत्र 'प्रेसिडेंशियल रिफ्रेंस' पर सुनवाई के दौरान ओबामा की टिप्पणी का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में विदेशी कंपनियों के निवेश को आमंत्रित करने के लिए संबंधित फैसले का स्पष्टीकरण आवश्यक है।

वाहनवती ने मुख्य न्यायाधीश एस एच कपाडिया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ से कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में एफडीआई में कटौती किये जाने की गम्भीरता का उल्लेख किया है। न्यायालय के संबंधित फैसले से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत मजाक का विषय बनकर रह जाएगा। उन्होंने दलील दी कि भारत में विदेशी कंपनियों के निवेश के मद्देनजर यह स्पष्ट करना जरूरी है, अन्यथा यहां विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित हो जाएगा।

केंद्र सरकार ने पिछली सुनवाई को कहा था कि वह स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए नीलामी का रास्ता अपनाने के लिए बाध्य है, लेकिन उसे प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में न्यायालय के इस फैसले के अनुपालन को लेकर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। गैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर पब्लिक इंटेरेस्ट लिटिगेशन (सीपीआईएल) की दलील थी कि केंद्र सरकार ने न्यायालय के फैसले की परोक्ष समीक्षा कराने का प्रयास किया है, जिसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उसकी दलील थी कि चूंकि इस मामले में सरकार ने समीक्षा याचिका वापस ले ली है. इसलिए न्यायालय को अब प्रेसिडेंशियल रिफ्रेंस की सुनवाई नहीं करनी चाहिए।

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति डी के जैन. न्यायमूर्ति जगदीश सिंह केहर. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई शामिल हैं। उच्चतम न्यायालय ने सीपीआईएल और स्वामी की याचिकाओं पर ही टूजी मामले में 122 दूरसंचार कंपनियों के लाइसेंस रद्द किये हैं। राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 .एक. में वॢणत प्रावधानों के तहत आग्रह पत्र भेजकर उच्चतम न्यायालय से प्राकृतिक  संसाधनों के आवंटन के बारे में अपने फैसले को स्पष्ट करने को कहा है।

भारतीय मूल के अमेरिकी विक्रम सिंह को अमेरिका के रक्षा मंत्रालय के मुख्यालय पेंटागन में एक प्रमुख पद दिया गया है। उन पर दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशिया से जुड़े मामलों की जिम्मेदारी होगी।पेंटागन की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि विक्रम जे सिंह की नियुक्ति वरिष्ठ कार्यकारी सेवा के लिए की गई है। उन्हें रक्षा [नीति] कार्यालय में दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशिया मामलों का उप सहायक रक्षा मंत्री नियुक्त किया गया है।सिंह इससे पहले इसी कार्यालय में विशेष सहायक के तौर अपनी सेवाएं दे चुके हैं। वह दिवंगत रिचर्ड होलबु्रक के निकट सहयोगी भी रहे। होलब्रुक अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में अमेरिका के विशेष दूत थे।भारतीय मूल के सिंह ने पेंटागन में रॉबर्ट सहर की जगह ली है, जिन्हें अब योजना मामलों का उप सहायक रक्षा मंत्री बनाया गया है।

भारत को दोहरे इस्तेमाल की तकनीक देने पर ना नुकुर कर रहा अमेरिका जल्द इसकेलिए राजी हो सकता है।ओबामा ने कहा कि उनका रक्षा मंत्रालय भारत को ऐसी तकनीकें देने के रास्ते में आड़े आ रहीं समस्याओं पर विचार कर रहा है। पेंटागन फौजी और गैर फौजी इस्तेमाल में आने वाली तकनीकों को भारत को देने का सर्वमान्य रास्ता जल्द निकाल लेगा। ओबामा ने एक साक्षात्कार में कहा कि ऐसी तकनीकें भारत को देने के कई फायदे हैं। हमें भारत पर पूरा यकीन है। मुझे भरोसा है कि विभिन्न परेशानियों के बावजूद दोनों देश मिलकर काम करते रहेंगे।गौरतलब है कि भारत को ऐसी तकनीकें देने से अमेरिका दशकों से इंकार कर रहा है। इन तकनीकों के न मिलने से भारत के रक्षा और अंतरिक्ष कार्यक्रम को नुकसान पहुंच रहा है। एक अमेरिकी धड़ा सोचता है कि इन अनोखी तकनीकों का इस्तेमाल भारत सैन्य उद्देश्यों विशेषकर परमाणु हथियारों के लिए करेगा। ओबामा ने 2010 में भारत यात्रा की थी। इसके बाद 9 भारतीय अंतरिक्ष और रक्षा संबंधी संस्थानों को प्रतिबंधित सूची से बाहर कर दिया था। हालाकि डीआरडीओ के प्रमुख वीके सारस्वत ने कहा था कि भले ही हम प्रतिबंधित सूची से बाहर आ गए हों लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं बदला। घोषणाओं का 10 फीसद कार्यान्वय भी नहीं किया जा रहा है। ओबामा ने न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में भारत को शामिल करने का भी समर्थन किया था।

अमेरिका का कहना है रक्षा मंत्रालय पेंटागन की ओर से रक्षा निर्यात नियमों में बदलाव की जो योजना बनाई गई है उससे भारत को बहुत लाभ होगा।

अमेरिकी रक्षा मंत्री लियोन पेनेटा ने कहा कि रक्षा व्यापार हमारे सहयोगी देशों के साथ रक्षा सहयोग को और बढ़ाने का एक आशाजनक मार्ग है। निर्यात नियंत्रण को लेकर जो बदलाव किए जा रहे हैं वे सहयोग बढ़ाने में महत्वपूर्ण होंगे। प्रत्येक लेन देन प्रशिक्षण, अभ्यास और संबंध बनाने का नया अवसर देता है। भारत उन देशों में शामिल है जिसे इस बदलाव से लाभ होगा।'

पेनेटा ने यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ पीस [यूएसआइपी] में अपने संबोधन में कहा कि मैंने इसी माह अपनी भारत यात्रा के दौरान घोषणा की थी कि मेरे डिप्टी अश कार्टर अपने भारतीय समकक्षों के साथ रक्षा व्यापार की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए काम करेंगे। परंपरागत सहयोगियों और नए सहयोगियों के साथ रक्षा सहयोग को सुगम बनाने की दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है। हम उस दिशा में काम कर रहे हैं ताकि सहयोगियों के प्रति अमेरिकी सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया को सरल और तेज बनाया जा सके।

ओबामा ने कहा कि मुझे खुशी है कि भारत में न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने में अमेरिकी कंपनिया प्रगति कर रही हैं। हालाकि, 2005 में इंडो-यूएस न्यूक्लियर एग्रीमेंट पर उतना तेजी से काम नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा कि परमाणु समझौता दोनों देशों की आर्थिक प्रगति के लिए बेहद जरूरी है। उन्होंने भारत-अमेरिका संबंधों को 21वीं सदी के लिए बेहद जरूरी बताया। हालाकि, कुछ क्षेत्रों में और तेजी से काम किया जाना बाकी है। भारत-अमेरिका संबंध गहरे और मजबूत हुए हैं। ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर ओबामा ने कहा कि भारत और अमेरिका तेहरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने ईरान से तेल खरीद कम करने के लिए भारत की सराहना भी की। अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य बनाए जाने का समर्थन करता है।

स्पेक्ट्रम की नीलामी में टेलिकॉम कंपनियों के लिए मोबाइल सर्विस रोलआउट की शर्ते काफी सख्त हो सकती हैं। स्पेक्ट्रम नीलामी पर बनी ईजीओएम ने टेलिकॉम विभाग को रोलआउट की शर्तों पर नया प्रस्ताव बनाने को कहा है।नई रोल आउट शर्तों के मुताबिक पहले साल में टेलिकॉम कंपनियों को 20 फीसदी ब्लॉक स्तर तक सर्विस पहुंचानी होगी। पहले साल में 10 फीसदी और 3 साल में 50 फीसदी जिला मुख्यालय का कवरेज करना होगा।माना जा रहा है कि बुधवार ईजीओएम की बैठक में नई रोलआउट शर्तों पर फैसला हो सकता है। टेलिकॉम कंपनियों ने कड़ी शर्तों पर एतराज जताया है। अगर शर्तें कड़ी हुईं तो यूनिनॉर, सिस्टेमा नीलामी में भाग नहीं लेंगी।

इस बीच सुधारों के लिए दबाव और बढ़ाते हुए इंटरनैशनल मॉनिटरी फंड (आईएमएफ) ने सोमवार को कैलेंडर वर्ष 2012 के लिए भारत की ग्रोथ के अनुमान को घटा दिया। उसने कहा कि कमजोर डोमेस्टिक डिमांड और विदेश में मुश्किल हालात के चलते ऐसा किया गया। आईएमएफ ने कहा कि डॉलर के मुकाबले रुपये की वैल्यू घटने और बड़े फिस्कल डेफिसिट के चलते भारत की फाइनैंशल स्टेबिलिटी को लेकर चिंता बढ़ गई है। आईएमएफ ने अपने वर्ल्ड इकनॉमिक आउटलुक (डब्ल्यूईओ) में ग्लोबल इकॉनमी को बढ़ते रिस्क और चीन में अचानक ग्रोथ कम हो जाने को लेकर आगाह किया। फंड ने दो अन्य रिपोर्ट्स ' ग्लोबल फाइनैंशल स्टैबिलिटी ' और फिस्कल मॉनिटर भी जारी की। फंड को 2012 में भारतीय इकॉनमी की ग्रोथ सिर्फ 6.1 फीसदी रहने की उम्मीद है। इससे पहले अप्रैल में उसने 6.8 फीसदी ग्रोथ का अनुमान जताया था। इसके अलावा, उसे 2013 में खास रिकवरी की उम्मीद भी नहीं है।

आईएमएफ ने 2013 में सिर्फ 6.5 फीसदी ग्रोथ का अनुमान जताया है, जो पहले के 7.2 फीसदी के अनुमान से कम है। रिपोर्ट में कहा गया है, 'कई उभरते बाजार खासकर ब्राजील, चीन और भारत में भी ग्रोथ मोमेंटम कम हुआ है। यह आंशिक रूप से विदेश में कमजोर हालात का संकेत देता है, लेकिन पिछले एक साल में पॉलिसी में सख्ती और क्षमता विस्तार में बाधा के चलते भी डोमेस्टिक डिमांड सुस्त हुई है।' कई प्राइवेट इकनॉमिस्ट्स ने फाइनैंशल ईयर 2012-13 में ग्रोथ के अनुमान को पहले ही घटाकर करीब 6 फीसदी कर दिया है। आईएमएफ ने 2012 में ग्लोबल ग्रोथ के अनुमान को 0.1 फीसदी घटाकर 3.5 फीसदी कर दिया है। उसे 2013 में ग्रोथ बढ़कर 3.9 फीसदी रहने की उम्मीद है। यह भी उसके पहले के अनुमान से कम है। वर्ल्ड इकॉनमी के मिड-ईयर एसेसमेंट में कहा गया है, 'गिरावट का काफी ज्यादा जोखिम बना हुआ है।'

रिपोर्ट में चीन में ग्रोथ अचानक घटने को लेकर आगाह किया गया है। इसमें कहा गया है कि चीन में कई सेक्टरों में ओवरकैपेसिटी को देखते हुए इनवेस्टमेंट स्पेंडिंग में और तेज गिरावट आ सकती है। उसने कैलेंडर वर्ष 2012 में चीन की ग्रोथ 8 फीसदी रहने की उम्मीद जताई है। डब्ल्यूईओ में सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से पॉलिसी फ्रंट पर तुरंत कदम उठाने और यूरो क्राइसिस के जल्द समाधान की जरूरत बताई गई है। आईएमएफ ने कहा है कि अमेरिका को टैक्स में कटौती जारी रखने की जरूरत पड़ सकती है। उसने कहा कि ऐसा नहीं होने पर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में अगले साल ग्रोथ रुकने का रिस्क है।

पूर्व विदेश सचिव और वाशिगटन में भारतीय राजदूत निरुपमा राव ने कहा है कि भारत और अमेरिका के रिश्ता बदलाव के अद्भुत दौर से गुजरने के बाद वैश्विक आयाम में अब एक सामरिक रणनीति के रूप में तब्दील हो चुका है।

अमेरिकन यूनिवर्सिटी में बदलती दुनिया में भारत की भूमिका नामक विषय पर व्याख्यान में निरुपमा ने कहा, अमेरिका के साथ हमारा द्विपक्षीय रिश्ता अद्भुत परिवर्तन का साक्षी बना है और अब वैश्विक आयाम में सामरिक साझेदारी का रूप ले चुका है। उन्होंने कहा, हमारी बहुआयामी सामरिक साझेदारी रणनीतिक एवं आर्थिक हितों की बुनियाद पर टिकी है। हमारे लोगों और कारोबारों के बीच व्यापक रिश्ते हैं। दोनों बड़े लोकतंत्र हैं और उनके मूल्य भी समान हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की 2009 में अमेरिका यात्रा और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पिछले साल की भारत यात्रा दोनों देशों के रिश्तों में बड़ा आयाम साबित हुई है।

निरुपमा ने कहा, आज के समय में हम सिर्फ सामरिक सहयोग, आतंकवाद विरोधी लड़ाई, रक्षा, उच्च तकनीक, असैन्य परमाणु एवं अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग पर ही नहीं, बल्कि विकास से जुड़े व्यापाक मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। विदेश सचिव ने कहा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मौसम का अनुमान जैसे मुद्दों पर भी बातचीत चल रही है, जो दोनों देशों की जनता को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं।उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में दुनिया के साथ भारत का संपर्क बढ़ा है वह अब विश्व विकास में योगदान दे रहा है।

राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी पर जॉब आउटसोर्स करने का आरोप लगाने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने माफी मांगने से साफ इनकार किया है। दरअसल ओबामा ने रोमनी पर बतौर बेन कैपिटल प्रमुख रहते हुए जॉब आउटसोर्सिंग का आरोप लगाया था। रोमनी ने आरोप को गलत कहकर खारिज कर दिया है।

पिछले सप्ताह मेसाचुसेट्स के पूर्व गवर्नर ने ओबामा के चुनाव अभियान द्वारा उनकी छवि को खराब करने की बात पर माफी मांगने को कहा था। रोमनी ने कहा था कि उन पर व्यक्तिगत हमला राष्ट्रपति पद की गरिमा के खिलाफ है। एक दिन पहले स्थानीय वर्जीनिया टीवी स्टेशन से प्रसारित हुए साक्षात्कार में ओबामा ने कहा कि हम माफी मांगने नहीं जा रहे हैं।

दरअसल आरोप यह है कि रोमनी की कंपनी ने अमेरिकी कर्मचारियों को हटाकर मैक्सिको और चीन के लोगों की नियुक्ति की। जबकि रोमनी का कहना है कि वे कंपनी के लिए निर्णय नहीं ले रहे हैं।
डिएगो गार्सिया
मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%8F%E0%A4%97%E0%A5%8B_%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE

अन्य प्रयोग हेतु, डिएगो गार्सिया (बहुविकल्पी) देखें।
साँचा:Infobox airport डिएगो गार्सिया एक उष्णकटिबंधीय, पदचिह्न-आकार का मूंगे का प्रवालद्वीप (एटोल) है जो भूमध्य रेखा के दक्षिण में मध्य हिंद महासागर में सात डिग्री, छब्बीस मिनट दक्षिण अक्षांश (भूमध्य रेखा के दक्षिण में) पर स्थित है. यह ब्रिटिश हिंद महासागरीय क्षेत्र [BIOT] का हिस्सा है और इसकी अवस्थिति 72°23' पूर्व देशांतर में है. यह एटोल अफ्रीकी तट के लगभग 1,800-nautical-mile (3,300 कि.मी.) पूर्व में और भारत के दक्षिण सिरे से 1,200-nautical-mile (2,200 कि.मी.) दक्षिण में है (चित्र 2.3). डिएगो गार्सिया जिन प्रवाल भित्तियों, एटोल और द्वीपों की लम्बी श्रृंखला के सुदूर दक्षिणी छोर पर पड़ता है वे लक्षद्वीप, मालदीव और छागोस द्वीपसमूह, जिसमें डिएगो गार्सिया भौगोलिक रूप से स्थित है का गठन करते हैं. स्थानीय समय है GMT + 6 घंटे वर्ष-भर (कोई दैनिक समय बदलाव नहीं).
छागोस द्वीपसमूह के अंतर्गत - जिसमें परोस बान्होस, सॉलोमन द्वीप समूह, थ्री ब्रदर्स (द्वीपसमूह), एग्मोंट द्वीप और ग्रेट छागोस बैंक शामिल हैं - डिएगो गार्सिया सबसे बड़ा भूमि का टुकड़ा है, और एक एटोल के रूप में यह लगभग 174-वर्ग-कि.मी. (67 वर्ग मील) पर फैला है, जिसमें से 27.19-वर्ग-कि.मी. (10 वर्ग मील) सूखी भूमि है. [1] एटोल रिम का सतत हिस्सा एक छोर से दूसरे छोर तक 40-मील (64 कि.मी.) लम्बा है, जिसमें 13-मील (21 कि.मी.) लंबा और 7-मील (11 कि.मी.) चौड़ा एक लैगून घिरा है, और उत्तर की तरफ 4-मील (6 कि.मी.) का एक पास है. पास में तीन छोटे द्वीप स्थित हैं. [2]
डिएगो गार्सिया को 16वीं सदी में जब यूरोपियन द्वारा खोजा गया तो वहां कोई स्थाई निवासी नहीं था और ऐसी स्थिति 1793 तक बनी रही जब उसे एक फ्रांसीसी उपनिवेश बना लिया गया. [3] नेपोलियन युद्ध की समाप्ति पर इसे पेरिस की संधि (1814) में छागोस द्वीपसमूह के अन्य हिस्सों के साथ इंग्लैंड को सौंप दिया गया. [4] डिएगो गार्सिया और छागोस द्वीपसमूह, मॉरीशस द्वीप की औपनिवेशिक सरकार द्वारा 1965 तक प्रशासित थे, जब जब यूनाइटेड किंगडम ने उन्हें £3 मीलियन में मॉरीशस की स्व-शासित सरकार से खरीद लिया, और उन्हें पृथक ब्रिटिश ओवरसीज़ टेरिटरी घोषित कर दिया. [5] 1968 में मॉरीशस की स्वतंत्रता के बाद BIOT प्रशासन को सेशेल्स ले जाया गया जहां वह 1976 में सेशेल्स की स्वतंत्रता तक रहा,[6] और उसके बाद से लंदन में विदेश और राष्ट्रमंडल कार्यालय में एक डेस्क से संचालित होता है. [7]
द्वीप के सम्पूर्ण इतिहास में नारियल बागान प्राथमिक उद्योग रहा है जहां खोपरा और/या नारियल तेल का उत्पादन होता था,[8] इस बागवानी को अक्तूबर 1971 में बंद करके इसके वासियों को डिएगो गार्सिया से स्थानांतरित कर दिया गया. 1880 के दशक में एक अल्प-अवधि के लिए इसका उपयोग स्वेज नहर से होते हुए हिंद महासागर से ऑस्ट्रेलिया को जाने वाले भाप के जहाज़ों के लिए कोलिंग स्टेशन के रूप में किया गया. [9]
1793 से लेकर 1971 की सम्पूर्ण अवधि के दौरान डिएगो गार्सिया के निवासियों का अधिकांश तबका बागान श्रमिक थे. वहां श्रमिकों की कई श्रेणियां थीं, जिसमें शामिल थे फ्रेंको-मॉरीशस प्रबंधक, इंडो-मॉरीशस प्रशासक, मॉरीशस और सेशेल के संविदा कर्मचारी और 19वीं सदी के उत्तरार्ध में कुछ चीनी और सोमाली कर्मचारी भी थे. इन मजदूरों में से, निवासियों का एक बड़ा समूह एक पृथक क्रिओल संस्कृति में विकसित हुआ जिसे इलोईस कहा गया, फ्रेंच में जिसका अर्थ है "द्वीपवासी". इलोईस (जिन्हें अब छागोस आइलैंडर या छागोसियन कहा जाता है) मूल रूप से फ्रेंच द्वारा 1793-1810 के आसपास मेडागास्कर से लाए गए दासों के वशंज हैं, और पाउलो न्यास के दास बाज़ार से मलय के दासों को लाया गया. पाउलो न्यास सुमात्रा के उत्तरी-पश्चिमी तट पर एक द्वीप है जहां से दासों को 1820 से तब तक लाया जाता रहा जब तक कि दास उन्मूलन अधिनियम 1833 के बाद दास व्यापार अंततः समाप्त नहीं हो गया. [10] इलोईस ने एक फ्रेंच आधारित क्रियोल बोली भी विकसित कर ली जिसे अब छागोसियन क्रियोल कहा जाता है.
जब अमेरिका ने यहां अपने अड्डे का निर्माण किया तो 1966 में हस्ताक्षरित यूके/यूएस एक्सचेंज ऑफ़ नोट्स की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 1971 तक डिएगो गार्सिया के किसी भी वंश या रोजगार वाले सभी निवासियों को अनैच्छिक और कुछ का दावा है कि जबरन तरीके से छागोस द्वीपसमूह, या मॉरिशस या सेशेल्स में अन्य द्वीपों पर स्थानांतरित कर दिया गया. [11] यह अनैच्छिक स्थानांतरण निर्णय, यथा 2010, मुकदमे के अधीन है. [12] [13]
1971 के बाद से, डिएगो गार्सिया और उसके 3-nautical-mile (6 कि.मी.) जल क्षेत्र को BIOT सरकार की अनुमति के बिना जनता की पहुंच से प्रतिबंधित कर दिया गया है और इसका उपयोग विशेष रूप से सैन्य अड्डे के रूप में किया जाता है, मुख्य रूप से अमेरिका द्वारा. इस लैगून में अमेरिका, एक विशाल समुद्री जहाज और पनडुब्बी समर्थन अड्डे, सैन्य हवाई ठिकाने, संचार और अंतरिक्ष संचार पर नज़र रखने की सुविधा को संचालित करता है, और क्षेत्रीय संचालनों के लिए मिलिटरी सीलिफ्ट कमांड पर पूर्व-तैनात सैन्य आपूर्ति का संग्रह रखता है.[14]
वहां पौधों, पक्षियों, उभयचरों, साँपों, घोंघे, क्रसटेशियन या स्तनधारियों की कोई स्थानिक प्रजातियां नहीं हैं. वहां कई स्थानिक मछलियां और जलीय रीढ़रहित जीव हैं. सभी पौधों, वन्य जीवों और जलीय प्रजातियों को एक किसी न किसी रूप में संरक्षित किया गया है. इसके अलावा, लैगून का अधिकांश जल एक नामित रामसर (RAMSAR) साइट है, और द्वीप का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र है. [15]


भारत-अमेरिका परमाणु करार से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें
http://www.himanshushekhar.in/?p=33

राजनीति - 1 Comment » - Posted on February, 21 at 7:46 am
हिमांशु शेखर
एनपीटी क्या है?
एनपीटी को परमाणु अप्रसार संधि के नाम से जाना जाता है। इसका मकसद दुनिया भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है। पहली जुलाई 1968 से इस समझौते पर हस्ताक्षर होना शुरू हुआ। अभी इस संधि पह हस्ताक्षर कर चुके देशों की संख्या 189 है। जिसमें पांच के पास आणविक हथियार हैं। ये देश हैं- अमेरिका, ब्रिटेन, प्रफांस, रूस और चीन। सिर्फ चार संप्रभुता संपन्न देश इसके सदस्य नहीं हैं। ये हैं- भारत, इजरायल, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया। एनपीटी के तहत भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता नहीं दी गई है। जो इसके दोहरे मापदंड को प्रदर्शित करती है। इस संधि का प्रस्ताव आयरलैंड ने रखा था और सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाला राष्ट्र है फिनलैंड। इस संधि के तहत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने पहली जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो। इस आधार पर ही भारत को यह दर्जा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं प्राप्त है। क्योंकि भारत ने पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया था।
सीटीबीटी क्या है?
सीटीबीटी को ही व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि कहा जाता है। यह एक ऐसा समझौता है जिसके जरिए परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित किया गया है। यह संधि 24 सितंबर 1996 को अस्तित्व में आयी। उस वक्त इस पर 71 देशों ने हस्ताक्षर किया था। अब तक इस पर 178 देशों ने दस्तखत कर दिए हैं। भारत और पाकिस्तान ने सीटीबीटी पर अब तक हस्ताक्षर नहीं किया है। इसके तहत परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित करने के साथ यह प्रावधान भी किया गया है कि सदस्य देश अपने नियंत्रण में आने वाले क्षेत्रें में भी परमाणु परीक्षण को नियंत्रित करेंगे।
123 समझौता क्या है?
यह समझौता अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 के तहत किया गया है। इसलिए इसे 123 समझौता कहते हैं। सत्रह अनुच्छेदों के इस समझौते का पूरा नाम है- भारत सरकार और संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के बीय नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के लिए सहयोग का समझौता। इसके स्वरूप पर भारत और अमेरिका के बीच एक अगस्त 2007 को सहमति हुई। अमेरिका अब तक तकरीबन पच्चीस देशों के साथ यह समझौता कर चुका है। इस समझौते के दस्तावेज में अमेरिका ने भारत को आणविक हथियार संपन्न देश नहीं माना है, बल्कि इसमें यह कहा गया है कि आणविक अप्रसार संधि के लिए अमेरिका ने भारत को विशेष महत्व दिया है।
हाइड एक्ट क्या है?
हाइड एक्ट का पूरा नाम हेनरी जे हाइड संयुक्त राज्य-भारत शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा सहयोग अधिनियम 2006 है। यह अमेरिकी कांग्रेस में एक निजी सदस्य बिल के रूप में पास हुआ है। इसमें भारत और अमेरिका के बीच प्रस्तावित परमाणु समझौते से जुड़े नियम एवं शर्तों को समाहित किया गया है। इस समझौते के लिए जब अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 में संशोधन किया गया तब इसका नाम हाइड एक्ट रख दिया गया।
आईएईए क्या है?
इस संस्था का पूरा नाम इंटरनेशनल एटोमिक एनर्जी एजेंसी है। यह नाभिकीय क्षेत्र में सहयोग का अंतरराष्ट्रीय केंद्र है। इसका गठन 1957 में हुआ था। यह संस्था शांतिपूर्ण और सुरक्षित नाभिकीय प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए काम करती है। इस संस्था का मुख्यालय आस्ट्रिया के विएना में है। अभी इसके महानिदेशक मोहम्मद अलबरदेई हैं। इस संस्था के तीन मुख्य काम हैं- सुरक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी एवं सुरक्षा व संपुष्टि।
45 देशों की एनएसजी क्या है?
एनएसजी का पूरा नाम न्यूक्लियर सर्विस ग्रुप है। इसे ही न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप भी कहा जाता है। इस समय इसके सदस्य देशों की संख्या 45 है। यह ऐसा समूह है जो नाभिकीय सामग्री के निर्यात पर दिशानिर्देश लागू करके नाभिकीय हथियारों के अप्रसार में मदद देता है। इसका गठन 1974 में किया गया था। शुरूआत में इसके सदस्यों की संख्या महज सात थी। उस वक्त भारत ने परमाणु परीक्षण किया था। जिसे उस समय नाभिकीय हथियार वाला देश नहीं कहा जाता था। इसका पहला दिशानिर्देश 1978 में आईएईए के दस्तावेज के रूप में तैयार किया गया था। करार के आगे बढ़ने की स्थिति में नाभिकीय सामग्री प्राप्त करने के लिए भारत को इस समूह के पास जाना पडेग़ा।
ईंधन आपूर्ति की शर्तें क्या हैं?
हाइड एक्ट की धारा 104 और 123 समझौते की धारा 2 देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि हाइड एक्ट भारत को नाभिकीय ईंधन मिलने की राह में रोडे अटकाता है। हाइड एक्ट की धारा 104 के मुताबिक परमाणु ऊर्जा अधिनियम की धारा 123 के तहत हुए भारत के सहयोग के बाबत किसी समझौते और इस शीर्षक के उद्देश्य के तहत किसी करार को लागू होने की स्थिति के बावजूद भारत की नाभिकीय या नाभिकीय ऊर्जा से संबध्द सामग्री, उपकरण्ा या प्रौद्योगिकी का भारत को निर्यात रद्द किया जा सकता है। हमें यूरेनियम की आपूर्ति बाजार भाव पर की जाएगी और इसका दाम भी बाजार की ताकतें ही तय करेंगी। बीते कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में यूरेनियम की कीमत में चार गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है और इसके दाम थमते नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में यूरेनियम की उपलब्धता को लेकर अनिश्चितता बना रहना तय है।
परमाणु बिजली घरों से कितनी बिजली बनेगी?
करार समर्थकों का यह दावा कोरा ख्वाब सरीखा ही है कि 2020 तक भारत की नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन की क्षमता बीस हजार मेगावाट हो जाएगी। अभी देश में पंद्रह रिएक्टर काम कर रहे हैं। जिनसे 3300 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। देश में कुल ऊर्जा उत्पादन अभी एक लाख चालीस हजार मेगावाट है। जाहिर है कि इसमें परमाणु ऊर्जा का योगदान बहुत कम है। वैसे, 1400 मेगावाट बिजली के उत्पादन के लिए नए रिएक्टर अभी बन रहे हैं। कुडुनकुलम और चेन्नई के रिएक्टर तैयार होने पर परमाणु ऊर्जा से बनने वाली बिजली सात हजार मेगावाट पर पहुंच जाएगी। भारत सरकार के तहत ही काम करने वाला आणविक ऊर्जा विभाग कहता आया है कि देश के पास इतना यूरेनियम है कि अगले तीस साल तक दस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सके। ऐसे में पहले तो हमें अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। ऐसा होते ही परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य को पाने के करीब हम पहुंच जाएंगे। इसके लिए न तो हमें अमेरिका की दादागीरी को झेलना होगा और न ही परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों की खुशामद करनी होगी। अगर 2020 तक बीस हजार मेगावाट के लक्ष्य को पाना है तो 13000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली की व्यवस्था करनी होगी। ऐसा तब ही संभव है जब अगले बारह सालों में हम चार पफास्ट ब्रीडर रिएक्टर, आठ रिएक्टर 700 मेगावाट के और आयातित रिएक्टरों से छह हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन करें। व्यवहारिक तौर पर ऐसा संभव ही नहीं है, चाहे हम कैसा भी करार कर लें। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी 1990 के मध्य से आणविक ऊर्जा की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत पर अटकी हुई है। दूसरी तरफ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि नाभिकीय बिजलीघरों से बनने वाली बिजली में लागत दुगनी होती है। जिस वजह से यह बेहद महंगी भी है।
क्या अमेरिकी कंपनी को ही ठेका मिलेगा?
अमेरिका का नाभिकीय उद्योग विदेशी आर्डरों के भरोसे ही कायम है। क्योंकि पिछले तीस साल में अमेरिका में कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं लगाया गया है। इसलिए अमेरिका की नजर अब भारत से आने वाले अरबों डालर के आर्डरों की ओर लगी हुई है। 150 अरब डालर के इस समझौते से अमेरिकी कंपनियों का मालामाल होना तय है। अमेरिकी कंपनियों के लिए यह समझौता अपने आर्थिक गतिरोध को तोड़ने के लिए सुनहरा अवसर साबित होने जा रहा है। 16 नवंबर 2006 को अमेरिकी सीनेट ने समझौते को मंजूरी दी। उसी महीने के आखिरी हफ्ते में 250 सदस्यों वाला व्यापारियों का प्रतिनिधिमंडल भारत आया। उसमें जीई एनर्जी, थोरियम पावर, बीएसएक्स टेक्नोलोजिज और कान्वर डायन जैसी कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे। अमेरिकी थैलीशाहों के मकसद का खुलासा उनके पूर्व रक्षा सचिव विलियम कोहेन के बयान से हो जाता है। उन्होंने कहा है, 'अमेरिकी रक्षा उद्योग ने कांग्रेस के कानून निर्माताओं के पास भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलाने के लिए लाबिंग की है। अब उसे मालदार सैन्य ठेके चाहिए।' इन ठेकों को पाने के लिए लाकहीड मार्टिन, बोईंग, राथेयन, नार्थरोप गु्रमन, हानीवेल और जनरल इलेक्ट्रिक जैसी पचास से ज्यादा कंपनियां भारत में अपना कार्यालय चला रही हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडलिजा राइस ने कांग्रेस में सापफ-साफ कह भी दिया है कि यह समझौता निजी क्षेत्र को पूरी तरह से दिमाग में रखकर तैयार किया गया है।
परमाणु परीक्षण के बारे में करार में क्या स्थिति हैं?
कोई भी परमाणु परीक्षण बगैर यूरेनियम संवर्धन के हो ही नहीं सकता है। इस समझौते के जरिए भारत के यूरेनियम संवर्धन को प्रतिबंधित किया गया है। हाइड एक्ट के अनुच्छेद 103 में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इस समझौते का मकसद नाभिकीय अप्रसार संधि में शामिल या उससे बाहर के किसी गैर परमाणु शस्त्र संपन्न राज्य द्वारा परमाणु हथियार बनाने की क्षमता विकसित करने का विरोध करना है। इसके अलावा लिखा गया है कि जब तक बहुपक्षीय प्रतिबंध या संधि लागू न हो तब तक भारत को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि वह असुरक्षित नाभिकीय स्थानों पर विखंडनीय पदार्थों का उत्पादन न बढ़ाए। हाइड एक्ट में ही इस बात का उल्लेख किया गया है कि अगर भारत कोई परमाणु परीक्षण करता है तो यह समझौता रद्द हो जाएगा और हमें इस करार के तहत प्राप्त सामग्री और प्रौद्योगिकी वापस करनी पड़ेगी।
करार से अमेरिका का हित कैसे सधेगा?
अमेरिका का मकसद अपने हितों को ध्यान में रखते हुए सैन्य प्रभुत्व जमाना है। इसके लिए वह कई सहयोगियों को जोड़कर हर दिशा में सैन्य गतिविधियों की पूर्ण स्वतंत्रता चाहता है। इस दिशा में वह भारत को प्रमुख रणनीतिक सहयोगी के तौर पर देखता है। ताईवान, उत्तर कोरिया, मानवाधिकार, लोकतंत्र और एटमी प्रसार के मसले पर अमेरिका और चीन में मतभेद है। इसलिए वह चीन को रोकने के लिए इस इलाके में एक शक्ति संतुलन चाहता है। वह एशिया में नाटो जैसा एक नया संगठन चाहता है। जिसके लिए भारत एक उपयुक्त सैन्य सहयोगी दिखाई पड़ता है। ईरान से युध्द होने की स्थिति में अमेरिका उस पर सैन्य कार्रवाई करने के लिए हिंदुस्तानी सरजमीं का इस्तेमाल करना चाहता है। अमेरिकी कांग्रेस में रखी गई एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले पंद्रह साल के अंदर चीन से उसका एक युध्द संभव है। ऐसा होने पर भारत अमेरिका के लिए चीन पर हमला करने के लिए बेहद उपयुक्त स्थान है।
इस करार के तहत हाइड एक्ट की धारा 109 के जरिए अमेरिका ने यह सुनिश्चित किया है कि परमाणु नि:शस्त्रीकरण के अमेरिकी अभियान में भारत साथ चलने को बाध्य होगा। इस बारे में हर साल अमेरिकी राष्ट्रपति वहां के कांग्रेस में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा, जिसके आधार पर यह तय किया जाएगा कि भारत अमेरिका के मुताबिक काम कर रहा है या नहीं। जाहिर है इससे भारत के निर्णय लेने की क्षमता पर आंच आना तय है।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का क्या इंतजाम है?
हाइड एक्ट प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाता है। साथ ही यह भारत को दोहरे प्रयोग की प्रौद्योगिकी तक पहुंचने से रोकता है। यानी भारत नाभिकीय ईंधन के संपूर्ण चक्र का हकदार नहीं हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति हर साल जो रिपोर्ट वहां की कांग्रेस में रखेंगे, अगर उसमें यह पाया जाता है कि भारत इसका पालन नहीं कर रहा तो वह समझौते को रद्द कर देगा। साथ ही वह अन्य देशों पर भी यह दबाव डालेगा कि वे भारत को एटमी ईंधन और प्रौद्योगिकी की सप्लाई बंद कर दें। हम इस सौदे में पफायदे से ज्याद नुकसान में रहेंगे। भारत को न तो आणविक ईंधन और न ही रिएक्टर कम दाम या मुफ्त में मिलेगा। इसे हमें प्रचलित बाजार मूल्य पर ही खरीदना होगा। जो निश्चय ही स्वदेशी परमाणु शक्ति के दाम को बढ़ा देगा। नाभिकीय तकनीक मिलने का दावा भी खोखला है। एक तो यह बहुत देर से आएगा और दूसरी बात यह कि इसकी मात्र बहुत कम होगी।
करार टूटने पर क्या होगा?
अगर करार टूटता है तो भारत को वो सारी मशीनें, औजार और प्रौद्योगिकी वापस करनी होगी जो इस डील के तहत मिलेगा। इसके अलावा हमारे चौदह परमाणु रिएक्टर पर निगरानी जारी रहेगी। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा करार में किए गए किसी वायदे को तोड़ा जाता है तो ऐसी हालत में क्या होगा, इसका उल्लेख इस समझौते में नहीं किया गया है।


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