Wednesday, July 11, 2012

संघम शरणम् संगमा By राम पुनियानी 2 hours 29 minutes ago

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संघम शरणम् संगमा

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चुनावी राजनीति का खेल भी अजब है। अक्सर ऐसे गठबंधन बन जाते हैं जिनका कोई वैचारिक आधार नहीं होता। केवल चुनाव जीतने के लिए अलग-अलग और कब-जब विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियां, एक मंच पर आ जाती हैं। हमारी चुनाव व्यवस्था में जो कई खामियां हैं उनमें से एक यह है कि जिसे सबसे अधिक मत मिलते हैं, वह विजेता बन जाता है, फिर चाहे कुल मतों में उसकी हिस्सेदारी कितनी ही कम क्यों न हो। इस व्यवस्था के कारण जनता के असली प्रतिनिधियों के लिए चुनाव जीतना मुश्किल हो जाता है। कई बार, राजनीति की बिसात पर जीत की खातिर कुछ चुनिंदा तथ्य बढ़ा-चढ़ा कर पेश किये जाते हैं तो कुछ को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह अक्सर इसलिए होता है क्योंकि राजनैतिक मजबूरियों के चलते, हर दल को अपने गठबंधन के साथियों को प्रसन्न रखना होता है। यह कहना मुश्किल है कि राजनीति के खिलाड़ी सचमुच तथ्यों से अनजान रहते हैं या फिर वे जानबूझ कर केवल वही बातें करते और कहते हैं जो उनके राजनैतिक हितसाधन या उनका अस्तित्व बनाये रखने के लिए जरूरी हैं। संगमा द्वारा कंधमाल प्रकरण पर क्लीन चिट देना ऐसा ही एक और उदाहरण बनकर हमारे सामने आया है।

हाल में (25 जून 2012)  राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पी.ए. संगमा ने कंधमाल हिंसा और पास्टर ग्राहम स्टेंस की हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका के बारे में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि इन घटनाओं में संघ-भाजपा की संलिप्तता के कोई सुबूत नहीं हैं। उनसे संघ परिवार और जयललिता के ईसाई-विरोधी रूख के बारे में भी प्रश्न पूछे गए। हम नही जानते कि संगमा आदिवासी इलाकों के घटनाक्रम पर कितनी नजर रख रहे हैं, जहां ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा आम बात है। चाहे वह गुजरात हो या मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र या ओडीसा, आदिवासी क्षेत्रों में रह रहे ईसाईयों और वहां काम कर रहे पादरियों और ननों को आये दिन हिंसा और दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ रहा है। क्या हम यह भूल सकते हैं कि जयललिता ने धर्मांतरण-निरोधक विधेयक प्रस्तुत किया था, जिसे बाद में दबाव के चलते वापस ले लिया गया।

ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा का सबसे घृणित और भयावह उदाहरण था ओडीसा के मनोहरपुर जिले के क्योंझार में पास्टर ग्राहम स्टिवर्डस स्टेंस और उनके दो बच्चों को 23 जनवरी 1999 की रात जिंदा जला दिया जाना। पास्टर स्टेंस और उनके दो मासूम लड़के, टिमोथी व फिलिप, जिनकी आयु क्रमशः 10 व 6 वर्ष थी, एक कार्यक्रम में भाग लेने के बाद अपनी जीप में सो रहे थे। बजरंग दल के दारा सिंह ने जीप में आग लगा कर तीनों को जिंदा भस्म कर दिया। अगले दिन, तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने फरमाया कि बजरंग दल ऐसा जघन्य कार्य कर ही नहीं सकता क्योंकि वे इस संगठन को अच्छी तरह जानते-समझते हैं। इसके बाद मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नांडीज व नवीन पटनायक की सदस्यता वाला, केन्द्रीय मंत्रियों का एक दल, क्योंझार पहुंचा और घोषणा की कि अंतर्राष्ट्रीय ताकतों ने एनडीए सरकार को अस्थिर करने के लिए यह साजिश रची है।

आडवाणी ने घटना की जांच के लिए वाधवा आयोग की नियुक्ति की। अपनी रपट में आयोग ने इस बात की पुष्टि की कि दारा सिंह उर्फ रविन्दर कुमार पाल ही पास्टर स्टेंस और उनके मासूम बच्चों का हत्यारा था। रपट में यह भी कहा गया कि दारा सिंह ने स्थानीय लोगों को भड़काया। यह प्रचार किया गया कि पास्टर स्टेंस, हिन्दू-विरोधी हैं और कुष्ठ रोगियों की सेवा के बहाने वे हिन्दुओं को ईसाई बना रहे हैं। दारा सिंह, बजरंग दल और संघ परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा समय-समय पर क्षेत्र में आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेता रहता था। वाधवा आयोग ने यह भी पाया कि जिस इलाके में पास्टर स्टेंस काम करते थे, वहां की ईसाई आबादी में कोई विशेष वृद्धि दर्ज नही की गई। सन् 1991 में ईसाईयों की आबादी कुल जनसंख्या का 0.299 प्रतिशत थी जो 1999 में बढ़कर 0.307 प्रतिशत हो गई। पास्टर स्टेंस की हत्या, दरअसल, पिछले दो दशकों से देश में हो रही ईसाई-विरोधी हिंसा का भाग थी। इस हिंसा के लिए मुख्यतः संघ परिवार, विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम और बजरंग दल द्वारा किया जा रहा दुष्प्रचार जिम्मेदार है। स्थानीय स्तर के भाजपा नेता भी ईसाई-विरोधी गतिविधियों में खासे सक्रिय रहते हैं। संघ परिवार के विभिन्न सदस्य एक-दूसरे की मदद करने में पीछे नही हटते। ओडीसा में कई भाजपा विधायक और नेता, ईसाई-विरोधी गतिविधियों में शामिल थे।

ईसाई-विरोधी हिंसा की जांच, समय-समय पर, विभिन्न जन न्यायाधिकरणों और जांच समितियों ने की है। गुजरात में जनसमिति की रपट सन् 2006 में "गुजरात में हिन्दूकरण की अनकही कथा" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। ओडीसा में भूतपूर्व न्यायमूर्ति के.के. ऊषा की अध्यक्षता वाले भारतीय जन न्यायाधिकरण ने इस मामले की तहकीकात की थी। सन् 2010 में न्यायमूर्ति ए.पी. शाह की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय जन न्यायाधिकरण ने कन्धमाल हिंसा की जांच की थी। ये सभी रपटें बताती हैं कि सांप्रदायिक संगठनों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में चलाया जा रहा घृणा फैलाने का अभियान ही हिंसा के लिए जिम्मेदार है। मजे की बात यह है कि जब ईसाई मिशनरियां शहरों में अपने स्कूल खोलती हैं तब उनका कोई विरोध नहीं होता परन्तु यही काम जब वे आदिवासी क्षेत्रों में करती हैं तो उनके खिलाफ हिंसा की जाती है। मिशनरियों के विरूद्ध आदिवासी क्षेत्रों में जाकर जहर उगलने वाले नेताओं के पुत्र-पुत्रियां शहरों के मिशनरी स्कूलों में पढ़ते हैं।

कंधमाल में तो हालात बहुत ही खराब थे। राष्ट्रीय जन न्यायाधिकरण ने पाया कि कई भाजपा नेता, ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा में खुलकर शामिल थे। रपट कहती है, "ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा को भड़काने और उसे अंजाम देने में हिन्दुत्ववादी संगठनों की भूमिका को आधिकारिक रूप से स्वीकार किया गया है"। विधानसभा में पूछे गये एक प्रश्न के लिखित उत्तर में ओडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने स्वीकार किया कि जांच से यह पता चला है कि "आर.एस.एस., विहिप और बजरंग दल" के सदस्य हिंसा मे शामिल थे। मुख्यमंत्री ने यह भी बताया कि आर.एस.एस के 85, विहिप के 321 और बजरंग दल के 118 सदस्यों को इन हमलों के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने कहा कि इनमें से 27 लोग अब भी जेल में हैं। यह तो एक उदाहरण मात्र है। ईसाईयों के खिलाफ हिंसा की हर जांच से यही साबित हुआ है कि इसके पीछे संघ परिवार का हाथ था।

संगमा ऐसे पहले राजनेता नहीं हैं जो आमजनता को बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जिन दिनो मायावती का भाजपा से गठबंधन था, उन्होंने गुजरात चुनाव में मोदी के समर्थन में प्रचार करते हुए गुजरात कत्लेआम के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया था। संगमा अपने गले में एक बड़ा सा क्रास लटकाये रहते हैं और बार बार यह कहते हैं कि क्षमाशीलता ईसाई धर्म के मूल तत्वों में से एक है। बिलकुल ठीक। पास्टर स्टेंस की विधवा ग्लेडियस स्टेंस ने भी यही किया था। परन्तु जहां तक एक समूह या संगठन को सामूहिक रूप से माफ कर देने का प्रश्न है, ऐसा तभी किया जा सकता है जब संबंधित संगठन अपने किए पर पछतावा व्यक्त करे और माफी मांगे। यहां तो सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में दोषी सीना फुलाये घूम रहे हैं, उनकी राजनैतिक शक्ति बढ़ गई है और वे पीड़ितों को ही हिंसा के लिए दोषी बता रहे हैं। क्षमा का सिद्धांत उन लोगों पर कैसे लागू हो सकता है जो अपने अपराध को उचित ठहरा रहे हैं? और इस मामले में तो क्षमा करने का अधिकार केवल उन लोगों को है जिनके परिवारजन हिंसा में मारे गये हैं या जो स्वयं हिंसा के शिकार हुए हैं।

यह संयोग मात्र नहीं है कि कंधमाल हिंसा में संघ परिवार की कोई भूमिका नहीं थी, यह बात संगमा को तब पता चली जब भाजपा ने राष्ट्रपति चुनाव में उनको समर्थन देने का निर्णय किया।

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