प्रेम पुनेठा
द मेकिंग आफ ए स्माल स्टेट: अनूप कुमार; पृ: 335; रु.: 553; ओरिएंट ब्लैक स्वान, दिल्ली
ISBN - 9788125042006
आजादी के बाद से ही भारतीय संघ में अलग राज्य के निर्माण के आंदोलन चलते रहे हैं और अभी भी जारी है। राज्य पुनर्गठन के बाद भी यह मसले अभी खत्म नहीं हुए हैं। वैसे भी भारत जैसे बहुभाषी और बहुसंस्कृति वाले देश की एक प्रशासनिक इकाई के साथ ही सांस्कृतिक पहचान भी है। अलग राज्य का मुद्दा कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व के खिलाफ जनगोलबंदी करने का एक भावुक मुद्दा भी रहा है। ऐसे आंदोलनों को भाषाई अखबारों का पर्याप्त समर्थन भी प्राप्त रहा है। क्षेत्रीय राजनीति और भाषाई अखबारों का सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आंध्र प्रदेश का इनाडु अखबार रहा है, जिसने तेलुगू अस्मिता का प्रश्न उठाकर कांग्रेस का तख्ता पलट दिया। अनूप कुमार ने अपनी किताब में प्रेस और आंदोलन के अंतर्संबंधों को उत्तराखंड राज्य आंदोलन को लेकर विश्लेषित किया है। राज्य की मांग के समर्थन में जनगोलबंदी और राज्य गठन में हिंदी प्रेस विशेषकर अमर उजाला और दैनिक जागरण की भूमिकाएं बदलती रहीं और किसी परिवर्तन या नए नेतृत्व के विकास के बजाय उन्होंने अपने हितों के लिए यथास्थिति को ही बनाए रखा। दोनों अखबारों ने आंदोलन के दौर में सनसनीखेज और भावात्मक रिपोर्टिंग कर अपनी सामाजिक और प्रिंट पूंजी का विस्तार किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में अखबारों ने न केवल अपनी तटस्थता को त्याग दिया वरन् खबरों के प्रस्तुतिकरण से आंदोलन को भड़काने का प्रयास भी किया। इसका परिणाम हुआ कि राज्य आंदोलन में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक और पर्यावरणीय मुद्दे प्रभावी होने के बजाय यह सिर्फ भावनाओं की सुनामी बनकर रह गया।
अलग पहाड़ी राज्य की मांग के एलीट चरित्र के जनआंदोलन में बदलने की चेतना और अखबारों का विस्तार साथ-साथ चला। राज्य की मांग आजादी की लड़ाई के साथ ही शुरू हो गई थी। 1920 के दशक में कांग्रेस के नेताओं ने कुमाऊं परिषद की स्थापना की और शासन से पर्वतीय क्षेत्र के भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थिति के कारण अलग प्रशासनिक इकाई की मांग की। तब अंग्रेजों के बनाए कानूनों के खिलाफ लड़ाई का मुख्य स्वर यही था कि पर्वतीय इलाकों को विशेष कानून से संचालित किया जाए। आजादी के संघर्ष के साथ कांग्रेस के नेता इस तरह के आंदोलनों के अगुवा थे लेकिन आजादी के बाद जब देश की बागडोर कांग्रेस के हाथ आई तो पहाड़ के कांग्रेसी नेताओं ने इस मांग को भुला दिया। अलग राज्य की मांग को कम्युनिस्ट पीसी जोशी ने उठाया इसके बाद टिहरी के पूर्व राजा मानवेंद्र शाह ने भी इस मांग का समर्थन किया। जोशी और शाह के अलग-अलग संगठन बने थे, जो वैचारिक और क्षेत्रीय कुमाऊं और गढ़वाल के आधार पर बंटे हुए भी थे। लेकिन अलग राज्य की मांग कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं की बहस तक ही सीमित थी। इस मांग को कभी जनसमर्थन प्राप्त नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण इस विचार का गैर राजनीतिक होना था क्योंकि किसी भी संगठन ने इसे चुनावी राजनीति का मुद्दा नहीं बनाया था। फिर कांग्रेस ने खुद को इस विचार से बाहर रखा क्योंकि पहाड़ के कांग्रेसी नेता लखनऊ और दिल्ली की राजनीति में उलझे थे।
इसके साथ ही संचार माध्यमों के अभाव ने लोगों के बीच अलग राज्य की चेतना के विस्तार में एक बड़ी बाधा का काम किया। तब पर्वतीय क्षेत्रों में अखबार के नाम पर साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्र-पत्रिकाएं ही थीं। कठिन भौगोलिक स्थिति के कारण पर्वतीय क्षेत्रों से खबरें इकट्ठा करना बड़ी समस्या था। देहरादून से छपने वाले अखबार मुख्य रूप से शहर और आसपास तक ही सीमित थे। स्थानीय स्तर पर किसी दैनिक के न होने के कारण समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान तक बहुत देरी से पहुंचते थे। शहरों में बिकने वाले दिल्ली के अखबारों को यहां के स्थानीय मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। यहां तक कि चिपको आंदोलन की खबर भी सबसे पहले युगबाणी साप्ताहिक में छपी और वह भी कई दिनों के बाद।
उत्तर प्रदेश के दौर में 1973 विश्वविद्यालय का आंदोलन एक कड़ी परिघटना रही, जिसके बाद कुमाऊं और गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। छात्र नेताओं और कुछ शिक्षाविदों ने मिलकर पहली बार 1979 में अलग राज्य के मुद्दे पर एक राजनीतिक संगठन उत्तराखंड क्रांति दल का गठन किया। इस समय तक पर्वतीय इलाकों के सामाजिक और पर्यावरण के आंदोलनों ने खबरों के प्रचार-प्रसार के लिए जगह बना दी थी और इस जगह को भरने के लिए मेरठ और बरेली के हिंदी दैनिकों ने पर्वतीय क्षेत्र की ओर रुख किया। पहले अमर उजाला और फिर दैनिक जागरण पहाड़ की ओर आए। अमर उजाला और जागरण ने दूरदराज के लोगों में पहली पीढ़ी के अखबार बने। खबरों के संकलन और प्रसार की व्यवस्था के अनुसार दोनों अखबार उत्तराखंड की जनता की आवाज बन गए थे। इसलिए जब 94 में राज्य आंदोलन हुआ तो ये प्रसार और समाचार संकलन के हिसाब से सही जगह पर थे।
उक्रांद के गठन और चुनावी राजनीति में भागीदारी के बाद अलग राज्य का मुद्दा अखबारों में जगह पाने लगा। नवें दशक के मध्य तक कई राजनीतिक दलों विशेषकर भाजपा ने भी इस मांग को उत्तरांचल के नाम से समर्थन करना शुरू कर दिया। अलग राज्य के लिए सबसे बड़ा आंदोलन 1994 में शुरू हुआ। मुलायम सिंह सरकार की शैक्षिक संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ यह आंदोलन शुरू हुआ। जुलाई में कॉलेज खुलने और प्रवेश शुरू होने के साथ ही छात्र आंदोलन शुरू हो गया। छात्रों का कहना था कि उत्तराखंड में सिर्फ दो प्रतिशत पिछड़ा वर्ग ही रहता है तो 27 प्रतिशत आरक्षण क्यों? छात्रों की मांग थी कि या तो 27 प्रतिशत आरक्षण खत्म किया जाए या फिर पूरे उत्तराखंड को ही पिछड़ा वर्ग में शामिल किया जाए। वास्तव में यह आरक्षण के खिलाफ एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन ही था। इस समय तक राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठनों ने आंदोलन से दूरी बनाए रखी और इस आंदोलन को प्रेस ने भी ज्यादा महत्त्व नहीं दिया। लेकिन अगस्त में उक्रांद ने पौड़ी में आंदोलन शुरू कर दिया। इसकी चार मांगों में से एक अलग राज्य भी था। उक्रांद के आंदोलन को पुलिस की सहायता से प्रशासन ने खत्म करवा दिया। इस घटना को दोनों अखबारों ने जमकर छापा और यह जताया कि उनकी सहानुभूति आंदोलनकारियों के साथ है। अखबार में आंदोलनकारियों के नाम छापने की होड़ लग गई। इस घटना के अखबारों में आने के बाद छात्रों के इस आंदोलन में महिलाएं भी शामिल हो गईं। लोग जुलूस प्रदर्शन और धरने में शामिल होने लगे। अखबारों ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया और खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर और सनसनीखेज बनाकर छापा जाने लगा, जिससे आंदोलन लगातार बढ़ता ही चला गया। अखबारों ने मुख्य राजनीतिक दलों को छोड़कर सिविल संगठनों को महत्त्व दिया। आंदोलन के बीच में ही सरकार ने स्पष्ट किया कि कोटा व्यवस्था किसी भी तरह से खत्म नहीं की जाएगी। लेकिन अलग राज्य की मांग का समर्थन किया। इससे आंदोलनकारियों को यह संदेश मिला की कि ओबीसी आरक्षण तो खत्म नहीं होगा तो क्यों न राज्य की मांग की जाए ताकि अलग राज्य में आरक्षण की व्यवस्था स्थानीय जरूरतों के अनुसार हो। शासन के स्तर पर मुलायम सिंह की हठधर्मिता और पुलिस के खटीमा व मसूरी में आंदोलनकारियों पर गोली चलाने के बाद पूरा आरक्षण विरोधी आंदोलन अलग राज्य के संघर्ष में बदल गया। इस बीच आंदोलन के स्वरूप को गैर राजनीतिक बनाए रखा गया और आंदोलनकारियों के बीच तालमेल के लिए उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन किया गया। इसमें राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता व्यक्तिगत हैसियत से आए लेकिन अपनी पार्टी का झंडा-डंडा बाहर रखकर। आंदोलन की बात केंद्र सरकार तक पहुंचाने के लिए दो अक्टूबर को दिल्ली चलो का नारा दिया गया। आंदोलनकारियों के साथ रामपुर का तिराहा में रोक कर गोलीकांड, महिलाओं से बलात्कार हुआ। यहां से आंदोलन में बिखराव आ गया।
रामपुर का तिराहा कांड के बाद पूरे आंदोलनकारी हतप्रभ रह गए। इसी समय भाजपा को हस्तक्षेप का मौका मिल गया। आंदोलनकारियों की छोड़ी हुई जगह को इस दल के नेताओं ने भरना शुरू कर दिया। अखबारों ने सरकार की आलोचना ओर आंदोलनकारियों से सहानुभूति तो रखी लेकिन इन पार्टियों के नेताओं को भी जगह देकर आंदोलन की धारा राजनीतिक दलों की ओर मोड़ दी। आंदोलन की सहानुभूतिपूर्ण रिपोर्टिंग और रामपुर तिराहा कांड में सरकार के खिलाफ जिस तरह से रिपोर्टिंग की गई उससे उत्तर प्रदेश सरकार और विशेष रूप से मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को आलोचना का सामना करना पड़ा। महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार और पुलिस के जरूरत से ज्यादा प्रयोग पर मुलायम सिंह चौतरफा घिर गए। राज्य सरकार ने कहा भी कि अखबार सनसनीखेज रिपोर्टिंग कर रहे हैं। अखबारों के तेवरों को देखते हुए उत्तर प्रदेश की सरकार इनसे नाराज हो गई। सपा सरकार ने दोनों अखबारों के खिलाफ हल्ला बोल का नारा दिया। इससे दोनों अखबारों की स्थिति परेशानी वाली हो गई। इन दोनों अखबारों का मुख्य कार्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश ही था और सरकार के विरोधी होने की स्थिति में इनको नुकसान हो रहा था। विशेष रूप से सरकारी खबरों का स्रोत बंद हो गया। हल्ला बोल का ही प्रभाव था कि दोनों अखबारों ने मुख्यमंत्री की आलोचना का स्वर धीमा कर दिया। वैसे भी दोनों अखबार प्रसार के लिहाज से पूरे पर्वतीय इलाके में स्थापित हो चुके थे।
अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में उत्तराखंड में जब कर्फ़्यू हटा और आंदोलन दोबारा शुरू हुआ तो अखबारों के स्वर बदल चुके थे। अब आंदोलन से ज्यादा अखबारों को अपने व्यवसाय की चिंता हो रही थी। इस बदली स्थिति में उन्होंने स्थापित राजनीतिक दलों का साथ दिया, विशेष रूप से भाजपा। ताकि उत्तर प्रदेश के हल्लाबोल के खिलाफ उन्हें राजनीतिक समर्थन मिल सके। उत्तराखंड में अखबार अब आंदोलनकारियों को चेतावनी देने लगे थे कि नेपाल और चीन से लगे इस क्षेत्र में असामाजिक तत्त्वों से वे दूर रहे। आंदोलन की खबरें अब उतनी कड़े तेवरों के साथ नहीं छापी जा रही थीं। प्राइवेट स्कूलों को बंद करने के प्रयासों की भी आलोचना की जाने लगी। इसी समय सरकारी कर्मचारी और शिक्षकों ने मुलायम सिंह से मुलाकात कर औपचारिक रूप से आंदोलन खत्म करने की घोषणा कर दी। इससे आंदोलन कमजोर हो गया। इधर, अलग राज्य के साथ ही रामपुर तिराहा के दोषियों को सजा का मुद्दा भी जुड़ गया। इस मुद्दे को भाजपा और कांग्रेस ने उठा लिया। तब तब संयुक्त संघर्ष समिति के साथ जुड़कर उक्रांद अपनी पहचान को कमजोर कर चुका था। अखबारों ने भी इस मुद्दे पर संघर्ष समिति के बजाय मुख्य राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा को ही महत्त्व दिया। इस तरह पर्वतीय इलाकों में दोनों दलों ने अपनी प्रभावी उपस्थिति फिर से पा ली। इधर, दोनों राजनीतिक दलों और दोनों अखबारों का प्रयास रहा कि सिविल संगठनों के हाथों से आंदोलन बाहर आ जाए। अब आंदोलन की विफलता के लिए इसके गैर राजनीतिक स्वरूप और संगठन न होने को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। इससे भी राजनीतिक दलों की भूमिका को स्थापित होने में सहायता हुई। अखबारों ने आंदोलनों के शुरू होने पर जिस गैर राजनीतिक स्वरूप की प्रशंसा की, आंदोलन के कमजोर होने पर वही अखबारों की आलोचना का प्रमुख विषय हो गया। आंदोलन का स्वत: स्फूर्त कहा जाने लगा, जिसका सीधा अर्थ हुआ कि वह बिना मुद्दों और बिना नेतृत्व का था और धीरे-धीरे खत्म हो गया।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सत्ता जाने और भाजपा के सहयोग से बसपा की सरकार बनने से आंदोलन समाप्त ही हो गया। भाजपा ने अलग राज्य के कार्ड को बेहतर तरीके से खेला और जब 1996 में विधानसभा के चुनाव हुए तो पर्वतीय इलाके में एक को छोड़कर सभी सीटें उसको मिलीं। इसका एक कारण संघर्ष समिति और उक्रांद का चुनाव बहिष्कार भी रहा। भाजपा के केंद्र में आने के साथ ही राज्य बनाने की प्रक्रिया केंद्र के स्तर पर शुरू हो गई। इस बीच अखबार कांगे्रस और भाजपा के साथ चले गए। क्षेत्रीय अखबारों के कारण न तो आंदोलन के मुद्दे स्थापित हुए और न ही नया नेतृत्व जन्म ले सका। इसका नतीजा यह हुआ कि जब राज्य बना तो वह आंदोलन की पैदाइश कम राजनीतिक दलों की कृपा अधिक साबित हुआ। इस राज्य में छात्रों, महिलाओं, सिविल सोसाइटी और आंदोलनकारियों के जल, जंगल, जमीन के मुद्दे कहीं भी नहीं थे। शासन करने वाले वर्ग और जनता के बीच उतनी ही दूरी दिखी जितनी उत्तर प्रदेश में थी। इस दूरी को राज्य में पहली सरकार के शपथ ग्रहण के अवसर पर गैरसैण में आंदोलनकारियों के इकट्ठा होने और अस्थाई राजधानी देहरादून में सरकार के होने से साफ दिखाई दिया। सबसे आश्चर्य है कि अखबारों से गैरसैण और आंदोलनकारी गायब थे और राजनेता प्रमुखता से छाए थे।
No comments:
Post a Comment