गुलशन बानो
अपना खुदा एक औरत: नूर जहीर; पृष्ठ:286; मूल्य : रु. 199 (पेपरबैक); हार्पर कॉलिंस
ISBN 9789350290682
समीक्ष्य उपन्यास एक ऐसी स्त्री की दास्तान को व्यक्त करता है जो अपने पिता के घर में धार्मिक प्रतिबंधों में पली-बढ़ी है। लड़कियों को आधुनिक शिक्षा तो मिलती है, लेकिन उस शिक्षा को व्यवहार में लाने पर पाबंदी है। धर्म के मामले में तो बिल्कुल नहीं। इस समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इस्लाम और शरीयत के हिसाब से अपना जीवन जीते हैं, और कट्टरपंथियों मौलवियों की हर बात को खुदा के हुक्म की तरह मानते हैं। उपन्यास की नायिका आधुनिक शिक्षा धर्म के अनुशासन में पली है। साफिया के पिता उसकी शादी सैयद मुर्तुजा मेहदी अब्बास से यह सोचकर तय करते हैं कि उनकी बेटी—''समझदार और सयानी तो है ही, लेकिन उससे बढ़कर उसकी दीनी तालीम मुकम्मल है वह उसे अल्लाह के बच्चे दीन की तरफ लौटा लाएगी।'' ...आखिर कलाम पाक भी तो यही कहता है कि हर अच्छे मुसलमान का यह फर्ज है कि वह भटकी हुई आत्मा को मुस्तकिल ईमान यानी इस्लाम की ओर वापस लेकर आए। मुझे यकीन है हमारी बेटी ऐसा ही करेगी।''
अब्बास विचारों से बहुत प्रगतिशील है। वह स्त्री-पुरुष, सामंतवादी सोच के दायरे से निकलकर, धार्मिक संकीर्णता की बेडिय़ों को तोड़कर स्त्रियों के हक की बात करता है। समाज में औरतें कभी धर्म के नाम पर ठगी जा रही हैं, कभी किसी रीति-रिवाज के नाम पर तो कभी परंपरा के नाम पर। दुख की बात तो यह है कि इन्हें अपने हकों की जानकारी तक नहीं है। अब्बास कहता है, ''धर्म हमेशा रूपकों, कथाओं द्वारा सिखाया जाता है। हमें उनसे मार्गदर्शन लेकर, समय के अनुसार सामाजिक कानून बनाने चाहिए। मेरा धर्म हमेशा प्रगतिशील रहा है, खास करके औरतों के मामलों में पृ. 248 इसीलिए अब्बास को बेदीन, काफिर समझा जाता है, जिसे रास्ते (अल्लाह के, इस्लाम के) पर ले जाने की जिम्मेदारी साफिया पर है। अब्बास चूंकि विचारों से कम्युनिस्ट है। वह कैसे यह बर्दाश्त करता कि एक स्त्री (जो अब उसकी बीवी है) को पर्दे में कैद किया जा रहा है। वह साफिया को किसी भी धार्मिक, सामाजिक आडंबर का हिस्सा बनने से मना कर देता है और कहता है—''साफिया सुनो, यह दुनिया तुम्हारी है। इसकी पहचान के बगैर तुम इसमें कैसे रह पाओगी? तुम औरत हो और यह कोई लज्जा की बात नहीं है।''
शर्म के पर्दे के नकार के साथ ही साफिया पहली बार स्वयं को एक स्वतंत्र इकाई महसूस करती है। जो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। उस समाज के सामने स्वतंत्र, जिसे सदा यह भय सताता है कि वह इस्लाम शरीयत के कानून को चुनौती देगी, कहीं इस कारण पुरुष सत्ता और धर्म लुप्त न हो जाए।
अब्बास समाज में गलित, जडि़त मूल्यों के खिलाफ आवाज उठाता है। लेकिन जब अपने ही घर में देखता है कि लड़कियों को गुलाम बनाने के लिए उसी की मां लेडी जीनत खरीद रही है, वह अपना घर छोड़कर अपने इस विरोध को दर्ज कराता है। वह अपने विचारों से किसी भी प्रकार का समझौता करता नजर नहीं आता है, वह जिस बात का विरोधी है उसका पक्ष कभी नहीं लेता चाहे उसके लिए उसे कितनी ही समस्याओं का सामना क्यों न करना पड़े। साफिया पर अब्बास के इस व्यक्तित्व की छाप गहरी होती जाती है। वह भी जीवन को अपने तरीके से जीने के लिए खुद को तैयार करती है। अब्बास के जेल जाने के बाद भी साफिया उसके आदर्शों, विचारों को न केवल संजोए रखती है बल्कि लेडी जीनत के खिलाफ जाकर अपनी बी.ए. की पढ़ाई भी करती है और नकाब नहीं पहनती है। वह नौकरी करती है। इस तरह वह लखनऊ के खानदानी रुतबे वाले घर के खिलाफ खड़ी हो जाती है। अब्बास जिन धार्मिक संकीर्णताओं को तोड़कर ऊपर उठता है, स्त्रियों को समाज में एक पुरुष के बराबर रखने की पैरवी करता है, शरीअत का इस्तेमाल स्त्रियों के हक में करता है, स्त्रियों को पर्दे से निकालने का प्रयास हो या अनमेल विवाह का विरोध कर प्रेरम विवाह की वकालत करना हो तथा साफिया को बार-बार कट्टरपंथियों, मौलवियों, फतवों आदि से न डरने का हौसला देता है। उसका यही हौसला उसे एक मौलवी पर हाथ उठाने का साहस देता है। मौलवी स्कूल की लड़कियों को छुपकर देखता था।
हर धर्म के भीतर कुछ अच्छाइयां होती हैं और उसमें कुछ बातें समय के बदलाव के साथ व्यर्थ पड़ जाती हैं। कुरान शरीफ, जिसमें औरतों को यह हक मिला है कि वह निकाह अपनी मर्जी से करने के लिए स्वतंत्र हैं। किंतु इस स्वतंत्रता को हमेशा ही औरतों से दूर रखा जाता है। अब्बास और साफिया औरतों के इस अधिकार से 'नसीम' (साफिया की शार्गिद) की न केवल पहचान कराते हें बल्कि नसीम अपने इस अधिकार का प्रयोग करते हुए अपने 'दादा' समान दूल्हे से निकाह को ठुकराकर उसी के पोते से प्रेम-विवाह करने में सफल होती है। वास्तव में अब्बास या साफिया किसी धर्म विशेष से घृणा करते नजर नहीं आते बल्कि उस धर्म में आई विकृतियों का विरोध करते हैं। हिंदू औरतों पर भी जुल्म कम नहीं है, पर उनकी सामाजिक रीति-रिवाज को अटल कानून होने का सहारा नहीं है। इसलिए एक राजाराम मोहन राय, सती प्रथा से लड़ सकते हें और जीत सकते हैं। अगर सामाजिक जरूरतों के हिसाब से हिंदू अपना आईना बदल सकते हैं तो एक धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक देश में वही फायदा मुसलमानों को क्यों नहीं होगा? कानून और मजहब दो अलग चीजें हैं, अलग मुद्दे हैं और उनसे ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए। अब्बास स्त्रियों का इतना हिमायती होने के कारण, कट्टरपंथियों की आंख की किरकिरी बना हुआ था। इसी कारण पार्टी के मौकापरस्त लोग नहीं चाहते थे कि मौलवियों को नाराज किया जाए। जिसके चलते अब्बास को पार्टी से मोहभंग हो जाता है। लेकिन साफिया उसे सहारा देकर फिर से नई जगह से शुरुआत करने के लिए राजी कर लेती है। जब भी कोई व्यक्ति समाज में परिवर्तन का प्रयास करता है तो उसे विरोध झेलना पड़ता है। अब्बास के खिलाफ भी विभिन्न फतवे कट्टरपंथियों द्वारा जारी किए गए। जिसके कारण बाद में उसकी हत्या भी कर दी गई।
नूर जहीर ने उपन्यास में जिस मोहभंग को दिखाया है वह वास्तव में सन् 47 के आसपास और उसके बाद मुस्लिमों का एक अलग देश पाकिस्तान बनने की वजह से भारत में रह गए मुस्लिमों को होता है। उन्हें पार्टियों से अपने फायदे के हिसाब से बर्खास्त कर दिया जाता है। वह समाज में तो पहले से ही सशंकित थे। मुस्लिमों को भारत में हर जगह इसी विडंबना से जूझना पड़ रहा था। यही कारण था कि अब्बास के पिता न्यायाधीश सर जाफरी अपनी स्थिति को लेकर बड़े ही असमंजस की स्थिति से गुजरते हुए कहते हैं—आजादी से एक साल पहले उसने मुझसे इसरार किया था कि मैं 'सर' का खिताब लौटा दूं। उसने मुझे समझाना चाहा था कि मेरा अपने लोगों के साथ पहचान बनाना अपने वतन में पैर जमाना जरूरी है ताकि मैं उनके सहारे के बिना खड़ा हो सकूं, जिन्होंने उसे गुलाम बनाया उसे चूस कर खोखला कर दिया'' (पृ. 119) अपने ही देश में यही पहचान का संकट एक अन्य पात्र में दिखाई पड़ता है, ''मुसलमान शक के घेरे में है। आम आदमी हमारा भरोसा नहीं करता, हमारे नेताओं को यह मुल्क अपना नेता नहीं मानता, झूठी-सच्ची कहानियां मुसलमानों के बारे में फैलाई जाती हैं, और उन पर यकीन किया जाता है।'' दरअसल यह सारी कारगुजारियां हिंदू महासभा बहुत पहले से करती चली आ रही थी। आजादी के बाद तो इस बात को वह पुख्ता रूप में स्थापित करने में सफल हो गए। इसीलिए मुस्लिम समाज को और ज्यादा समस्याओं से गुजरना पड़ा।
अब्बास की हत्या के बाद दिल्ली आने पर साफिया की मुलाकात अमृता से होती है जो ऊपर से खुश है, दौलतमंद है, लेकिन अपने पति द्वारा प्रताडि़त की जाती है जिसे वह समाज से छिपाए रखना चाहती है। साफिया के समझाने के कारण उसे नैतिक बल मिलता है और शोषण के खिलाफ अपना स्वर मुखर करती है। स्त्रियां किसी भी धर्म विशेष की क्यों न हों पुरुष सदा उसे एक उपभोग की वस्तु मानता रहा है, उसे अपने पैरों तले रौंदता रहा है, साफिया स्त्री शक्ति को जागृत कर ऐसे पुरुष शासित समाज में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाती है। वह अपनी बेटी सितारा में भी वही आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता भरती है, जिससे स्वयं साफिया संचालित है। उसके विवाह का फैसला भी वह उसी पर छोड़ती है वसीम नाम के व्यक्ति से सितारा के साथ के कारण उसमें तब्दीलियां आएंगी, किंतु वसीम कट्टरपंथ का रास्ता नहीं छोड़ता बल्कि विदेशों में जाकर अपराध के रास्ते पर निकल पड़ता है। सितारा को धमकाता रहता है और उसे अपनी हैसियत में रहने देने की सलाह देता है। साफिया का संघर्ष अभी तक अपने स्तर तक सीमित था, लेकिन शाह बानो केस के फैसले के बाद वह शाह बानो का साथ देकर एक बार फिर कट्टरपंथियों को जवाब देती हुई, मृत्यु को प्राप्त होती है। साफिया ने अपने घर से लेकर शाह बानों से मिलने तक एक अदम्य जिजीविषा का प्रमाण दिया है। वह अपने पिता के घर जहां वह केवल एक औरत थी अब्बास के प्रेरित करने के कारण एक इंसान की तरह जीवन जीती है, सारे धार्मिक कर्मकांडों का विरोध करते हुए, अपने लिए अपना रास्ता खुद निकालती है।
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