| Thursday, 07 February 2013 10:57 http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/38367-2013-02-07-05-28-28 |
गंगा सहाय मीणा इनके अलावा 'तरंग भारती' के माध्यम से पुष्पा टेटे, 'देशज स्वर' के माध्यम से सुनील मिंज और सांध्य दैनिक 'झारखंड न्यू्ज लाइन' के माध्यम से शिशिर टुडु आदिवासी विमर्श को बढ़ाने में लगे हैं। बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने आदिवासी विशेषांक निकाल कर आदिवासी विमर्श को आगे बढ़ाने में मदद की है, जैसे- 'समकालीन जनमत' (2003), 'दस्तक' (2004), 'कथाक्रम'(2012), 'इस्पातिका' (2012) आदि। शुरू में हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं ने आदिवासी मुद्दों को छापने में उतनी रुचि नहीं दिखाई लेकिन अब विमर्श की बढ़ती स्वीकारोक्ति के साथ ही इन पत्रिकाओं में आदिवासी जीवन को जगह मिलने लगी है। छोटी पत्रिकाओं में आदिवासी लेखकों को पर्याप्त जगह मिल रही है। समृद्घ मौखिक साहित्य परंपरा का लाभ आदिवासी रचनाकारों को मिला है। आदिवासी साहित्य की उस तरह कोई केंद्रीय विधा नहीं है, जिस तरह स्त्री लेखन और दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखन की है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, सभी प्रमुख विधाओं में आदिवासी और गैर-आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी जीवन समाज की प्रस्तुति की है। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी लेखन में आत्मकथात्मक लेखन केंद्रीय स्थान नहीं बना सका, क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज 'आत्म' से अधिक समूह में विश्वास करता है। अधिकतर आदिवासी समुदायों में काफी बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पार्इं। परंपरा, संस्कृति, इतिहास से लेकर शोषण और उसका प्रतिरोध- सबकुछ सामूहिक है। समूह की बात आत्मकथा में नहीं, जनकविता में ज्यादा अच्छे से व्यक्त हो सकती है। आदिवासी साहित्य में आर्इं आदिवासियों की समस्याओं को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है- उपनिवेश काल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से पैदा हुई समस्याएं, और दूसरे, आजादी के बाद शासन की जनविरोधी नीतियों और उदारवाद के बाद की समस्याएं। आदिवासी कलम तेजी से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रही है। आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वनोपज पर प्रतिबंध, तरह-तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस-प्रशासन की ज्यादतियां आदि हैं, जबकि आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल, जंगल और जमीन छीन कर उन्हें बेदखल कर दिया। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है, इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। दलित और स्त्री साहित्य से भिन्न आदिवासी साहित्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति इसमें अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति सहयोगी भाव है। स्त्रीवादी साहित्य ने जाति के प्रश्न को नहीं समझा और दलित साहित्य ने स्त्री के सवालों को तरजीह नहीं दी, जिसके फलस्वरूप 'दलित स्त्री विमर्श' अस्तित्व में आया। चूंकि आदिवासी समाज में श्रम में भागीदारी के कारण स्त्री अपेक्षया बेहतर स्थिति में रही है, इसलिए साहित्य में भी बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनके और अन्य रचनाकारों के माध्यम से आदिवासी साहित्य में स्त्री के सवालों को पर्याप्त जगह मिल रही है। आदिवासी साहित्य अपने दायरे में अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति संवेदनशील है। चूंकि आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से लेता है, इसलिए उन आंदोलनों की भाषा और भूगोल भी महत्त्वपूर्ण रहा है। हिंदी अधिकांश आदिवासियों की भाषा नहीं है। मुंडारी, संथाली, हो, भीलोरी, ओड़िया, गारो आदि उनकी भाषाएं हैं। आदिवासी रचनाकारों का मूल साहित्य उनकी इन्हीं भाषाओं में है। हिंदी में मौजूद साहित्य देशज भाषाओं में उपस्थित साहित्य की इसी समृद्घ परंपरा से प्रभावित है। कुछ साहित्य का अनुवाद और रूपांतरण भी हुआ है। भारत की तमाम आदिवासी भाषाओं में लिखा जा रहा साहित्य हिंदी, बांग्ला, तमिल जैसी बड़ी भाषाओं में अनूदित और रूपांतरित होकर एक राष्टÑीय स्वरूप ग्रहण कर रहा है। आदिवासी साहित्य की मूल विशेषता इसका पार्थक्य है, इसलिए इसके मूल्यांकन के लिए एक नए सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता होगी। आदिवासी साहित्य पाठक के अनुभव का विस्तार कर उसे उस भूगोल, समाज और इतिहास में ले जाता है, जिससे अधिकतर पाठक अपरिचित हैं। इसमें आई प्रकृति, परंपरागत प्रकृति चित्रण से भिन्न है। यह आदिवासी जीवन और संस्कृति का मूलाधार है। आदिवासी साहित्य जीवन-जगत के प्रति एक अलग नजरिया पेश करता है, इसलिए इसके मूल्यांकन में सतर्कता बरतनी होगी और साथ ही साथ इसे साहित्य की राजनीति से भी बचाना होगा। आदिवासी साहित्य के प्रति पत्रिकाओं, प्रकाशकों, और सबसे ज्यादा पाठकों का बढ़ता रुझान आशान्वित करता है। |
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आदिवासी अस्मिता और साहित्य
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