Thursday, 22 August 2013 10:28 |
उर्मिलेश
उनका तर्क है कि अन्य सभी पेशों के लिए कुछ न कुछ योग्यता तय है। पर पत्रकार कोई भी बन जाता है! पांच-छह महीने पहले उनके इस आशय के बयानों पर काफी विवाद हुआ तो विस्तृत रिपोर्ट और सुझाव देने के लिए उन्होंने प्रेस परिषद के एक पत्रकार-सदस्य की अध्यक्षता में नई समिति बना दी। समिति की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। जहां तक रिपोर्ट का सवाल है, निस्संदेह, भारतीय मीडिया उद्योग और पत्रकारिता की मौजूदा चुनौतियों और समस्याओं पर यह एक उल्लेखनीय संसदीय पहल है। संसदीय समिति ने रिपोर्ट तैयार करने के क्रम में मीडिया से जुड़े विभिन्न पक्षों, सरकार, प्रेस परिषद के प्रतिनिधियों, विशेषज्ञों और आम जनता के नुमाइंदों की भी राय ली। लगभग सभी ज्वलंत सवालों को इस रिपोर्ट में समेटने और उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में रखते हुए समाधान सुझाने की कोशिश की गई है। इस रिपोर्ट में वह सब कुछ है, जिस पर बीते पांच-सात सालों से भारतीय मीडिया में बहस होती रही है। खबरों की दुनिया पर हावी विज्ञापन-बाजार, क्रास मीडिया स्वामित्व, रोक के तमाम दावों के बावजूद 'पेड न्यूज' का अबाध गति से जारी रहना, मीडिया पर बढ़ता कॉरपोरेट-दबाव या मीडिया का कॉरपोरेटीकरण, नियमन बनाम स्वनियमन, प्रेस परिषद या मीडिया कौंसिल, संपादकीय विभागों की नौकरियों में ठेका-प्रथा, संपादक नामक संस्था का लगातार निष्प्राण किया जाना और पत्रकारों के बीच बढ़ती पेशागत-असुरक्षा जैसे लगभग सभी बड़े सवालों को इसमें शामिल किया गया है। आश्चर्य कि इस रिपोर्ट पर प्रेस परिषद और मंत्रालय, दोनों खामोश नजर आते हैं। कौन महत्त्वपूर्ण है, संसद या मंत्रालय? संसद की स्थायी समिति (जिसे मिनी पार्लियामेंट कहा गया है) की रिपोर्ट या प्रेस परिषद के अध्यक्ष या मंत्री के निजी विचार? सामूहिक विचार-विमर्श से तैयार शोधपरक रिपोर्ट की ऐतिहासिक संसदीय पहल को नजरंदाज करने के पीछे क्या इरादा हो सकता है? क्या मंत्रालय या परिषद ने इस बात पर कभी गौर किया कि भारतीय मीडिया में दलित-आदिवासी अनुपस्थित क्यों हैं? अल्पसंख्यक और महिलाएं भी इतना कम क्यों हैं? इस तरह की समस्याओं का समाधान पत्रकारिता का लाइसेंस-राज नहीं है? यह कम दिलचस्प नहीं कि परिषद और मंत्रालय, दोनों की चिंता में सिर्फ पत्रकारों को सुधारना शुमार है, मीडिया उद्योग या कॉरपोरेट को नहीं! देश में बने प्रथम प्रेस आयोग से द्वितीय आयोग तक, मीडिया उद्योग और पत्रकारिता की गुणवत्ता में सुधार और उसे समाज-सापेक्ष बनाए रखने के कई कदम सुझाए गए हैं। कई सुझावों पर आज तक अमल नहीं हुआ! खबर और विज्ञापन के औसत पर क्यों बात नहीं हो रही है (ट्राई के निर्देश पर ढिलाई बरते जाने के संकेत मिल रहे हैं), 'पेड न्यूज' और 'प्राइवेट ट्रिटीज' के धंधे पर क्यों नहीं सवाल उठाए जा रहे हैं? आज गली-गली खुल रहे ज्यादातर मास कॉम निजी संस्थान पत्रकार बनने के छात्रों के सपने का धंधा कर रहे हैं। इन्हें कौन दे रहा है लाइसेंस? प्रेस परिषद और सरकार के आला अधिकारी पत्रकारों-पत्रकारिता के लिए नई योग्यता-लाइसेंस आदि की बात कर रहे हैं, पर वे जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा बनाए सन 1955 के 'श्रमजीवी पत्रकार कानून' को याद तक नहीं करना चाहते! सरकार या संसद ने अभी इस कानून को निरस्त नहीं किया है, पर मीडिया उद्योग के संचालकों और उनके वफादार संपादकीय सिपहसालारों ने उस कानून को जिंदा रहते मार डाला है। आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की प्रक्रिया का असर मीडिया संस्थानों पर तेजी से पड़ा, उसमें सबसे पहले इस कानून की बलि ली गई। वेतन बोर्ड के जमाने में कुछेक मीडिया संस्थानों में यूनियनों की गुटबाजी और काम के प्रति लापरवाही भी देखी जाती थी। पर उसका इलाज उस ढांचे में भी संभव था। अब तक के अनुभव से साफ है कि ठेका प्रथा ने पत्रकारिता में निर्भीकता और निष्पक्षता की विरासत को बुरी तरह प्रभावित किया है। टीवी-18 और कोलकाता के शारदा समूह का मामला देखिए, पत्रकारों में किस कदर असुरक्षा बढ़ी है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक बीते छह-सात सालों के दौरान देश में लगभग दस हजार पत्रकार और अन्य मीडियाकर्मी अपने नियमित रोजगार से बेदखल हुए हैं। इस तरह के जरूरी सवालों पर सभी खामोश रहना चाहते हैं, वे सिर्फ पत्रकारों को 'योग्य' बनाने पर तुले हैं, पूरा मीडिया उद्योग चाहे जितना अयोग्य, अन्यायी और अनैतिक बना रहे!
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पत्रकारिता का लाइसेंस क्यों
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