Tuesday, September 10, 2013

दंगे की आग में सियासी रोटियां सेंकने में कोई नहीं पीछे

दंगे की आग में सियासी रोटियां सेंकने में कोई नहीं पीछे

Wednesday, 11 September 2013 09:04

अनिल बंसल
नई दिल्ली। मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों का दोषारोपण भले एक-दूसरे पर कर रहे हों पर हकीकत यह है कि इस आग पर सियासी रोटी सेंकने में किसी ने कसर नहीं छोड़ी। समाजवादी पार्टी के लिए जहां मुसलमान वोटों का ध्रुवीकरण असली मकसद दिखता है वहीं भाजपा भी इस बहाने हिंदुओं के अपने पक्ष में ध्रुवीकरण को लेकर बमबम है। दरअसल कवाल गांव में 27 अगस्त को हुई हिंसा की वारदात सही मायने में तो कानून-व्यवस्था का मुद्दा थी। पुलिस प्रशासन ने सूझबूझ, विवेक और निष्पक्षता से उसी समय कर्तव्य का निर्वाह किया होता तो दंगा भड़कने का सवाल ही नहीं उठता। पर अधिकारी समाजवादी पार्टी के नेताओं के एजंट की तरह काम करते रहे। 
मुलायम सिंह यादव और भाजपा दोनों के मन में एक कसक है। बसपा ने दोनों की जीत के कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समीकरण बिगाड़े हैं। अतीत में मुसलमान वोट मोटे तौर पर जनता दल और सपा के साथ था, जबकि राम लहर के प्रभाव में हिंदू वोटों पर भाजपा आगे थी। बसपा ने दोनों को इस क्षेत्र में कमजोर कर दिया। मुलायम लाख दावा करें कि सूबे के अल्पसंख्यक उनके साथ हैं पर जानकार मानते हैं कि नरेंद्र मोदी के मैदान में आने पर सूबे के मुसलमान कांग्रेस के साथ लामबंद हो सकते हैं। वजह साफ है कि दिल्ली में सरकार या तो भाजपा की बनेगी या फिर कांग्रेस की। मुलायम के प्रधानमंत्री बनने की संभावना फिलहाल दूर तक नजर नहीं आती। 
अब जरा चुनावी नतीजे भी देख लें। पिछले लोकसभा चुनाव में सूबे की 80 में से एक भी सीट पर मुलायम का मुसलमान उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। इसके उलट कांग्रेस ने मुरादाबाद, फैजाबाद और फर्रूखाबाद जैसी उन सीटों पर अपने मुसलमान उम्मीदवार जिताए थे जो अतीत में सपा का गढ़ मानी जाती थीं। मुसलमान उम्मीदवारों की जीत के मामले में बसपा का रिपोर्ट कार्ड सबसे ऊपर था। उसके चार मुसलमान उम्मीदवार चुनाव जीत गए थे। मुलायम को इन नतीजों पर बेशक हैरानी हुई थी। 
यह सही है कि पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को सभी तबकों का समर्थन मिला था। नहीं मिलता तो सपा 403 में से 224 सीटें हरगिज न जीत पाती। पर यह भी कटु सत्य है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा के ज्यादातर मुसलमान उम्मीदवार विधानसभा चुनाव हार गए थे। इसके उलट बसपा के ज्यादा मुसलमान उम्मीदवार सफल हुए थे। पश्चिम के मुसलमान नेता कहते हैं कि मुलायम उन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ने में जीत की उम्मीद ज्यादा रहती है। वजह- 15 से 20 फीसद तक दलित वोट मिलने की एक तरह से गारंटी होती है। जबकि मुलायम अपने यादव वोट बैंक वाले इलाकों में मुसलमानों को उम्मीदवार नहीं बनाते। उनके टिकट पर चुनाव लड़ने का मतलब है कि अपने बूते जीत सको तो जीतो। विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने अजित सिंह के जाट वोट बैंक में भी सेंध लगाने की पुरजोर कोशिश की थी। पर उनका एक भी जाट उम्मीदवार नहीं जीत पाया था।

भले उन्होंने अभी अपनी पार्टी के कई जाट नेताओं को हैसियत वाले पद दे रखे हैं पर आम जाट के मन में अभी भी यही धारणा है कि चौधरी चरण सिंह का खुद को विचार पुत्र बताने वाले मुलायम ने उनके असली पुत्र अजित सिंह की जड़ों को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यही वजह है कि मुजफ्फरनगर के दंगों ने जाटों के मन में सपा के प्रति कटुता और बढ़ाई है। 
जहां तक मुसलमान उम्मीदवारों की जीत का सवाल है, पिछले चुनाव में मुलायम ने सहारनपुर से तीन उम्मीदवार उतारे थे। तीनों ही चुनाव हार गए। हारने वालों में जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी के दामाद और आजम खान के एक सिफारिशी भी थे। इसी तरह मुजफ्फरनगर में भी उनका एक ही मुसलमान उम्मीदवार जीत पाया था। बिजनौर जिले में भी सपा के तीनों मुसलमान उम्मीदवार हार गए थे। साफ है कि मुलायम की पैठ न जाटों में हो पाई है और न मुसलमान ही उन पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहे हैं। 
जिस मामूली घटना को सपा सरकार ने वीभत्स दंगे में बदलने दिया। उसे आसानी से दबाया जा सकता था। आरोप है कि राज्य सरकार के मंत्री और मुजफ्फरनगर के सपा विधायक चितरंजन स्वरूप, सपा के जिलाध्यक्ष प्रमोद त्यागी और पूर्व सांसद अमीर आलम के दबाव में जानसठ थाने की पुलिस ने कवाल की घटना को गंभीरता से तो लिया ही नहीं, एकतरफा कार्रवाई करके उसे सांप्रदायिक रंग भी लेने दिया। 27 अगस्त को दोपहर बाद सचिन और गौरव अपनी बहन से छेड़खानी करने वाले शाहनवाज से झगड़ने उसके घर गए थे। बात बढ़ गई तो उन्होंने शाहनवाज पर जानलेवा हमला कर दिया। इसकी खबर कवाल गांव में फैल गई तो शाहनवाज के परिवार और पड़ोस के लोगों ने गौरव और सचिन को घेर कर उन पर हमला कर दिया। इन दोनों की भी वहीं हत्या कर दी गई। जबकि शाहनवाज को अस्पताल में डाक्टरों ने मरा घोषित कर दिया। पुलिस को तभी इन हत्याओं के आरोपियों पर केस दर्ज कर गांव में सुरक्षा बंदोबस्त करना चाहिए था। उसने ऐसा नहीं किया। अलबत्ता बाद में अपराध की इस घटना को सांप्रदायिक नजरिए से देखते हुए दोनों संप्रदायों के अनेक बेकसूर लोगों को भी झूठे मामले में फंसा दिया। इसके बाद तो मामले को सांप्रदायिक रंग लेना ही था।  
सपा नेताओं की बेजा दखलंदाजी से इस घटना ने सांप्रदायिक रूप लिया तो भाजपा, रालोद, कांग्रेस और बसपा के नेता भी पीछे नहीं रहे। हर किसी ने भूमिका अपने वोट बैंक को केंद्र में रख कर अदा की। आग आसपास के गांवों और दूसरे जिलों तक भी पहुंच गई तो अफसरों को बलि का बकरा बना दिया गया। हकीकत तो यह है कि दुर्गा शक्ति नागपाल मामले के बाद पुलिस और प्रशासन के अधिकारी ज्यादातर जगहों पर तटस्थ भूमिका के बजाय सपा नेताओं के एजंट की तरह बर्ताव कर रहे हैं। इसीलिए प्रशासन और पुलिस पर लोगों का भरोसा घटा है। नतीजतन दंगों से निपटने के लिए अर्धसैनिक बल और सेना बुलाने की नौबत आई है। जो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1-2009-08-27-03-35-27/51498-2013-09-11-03-35-02

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