Sunday, September 1, 2013

किसने मारा दाभोलकर को

किसने मारा दाभोलकर को

किसी धर्म या आस्था के विरूद्ध नहीं थे दाभोलकर

राम पुनियानी

Ram Puniyani,राम पुनियानी

राम पुनियानी, लेखक आई.आई.टी. मुम्बई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

डाक्टर नरेन्द्र दाभोलकर की क्रूर हत्या (20 अगस्त 2013),अंधश्रद्धा व अंधविश्वास के खिलाफ सामाजिक आंदोलन के लिये एक बड़ा आघात है। पिछले कुछ दशकों में तार्किकता और सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने का काम मुख्यतः जनविज्ञान कार्यक्रम कर रहे हैं।  महाराष्ट्र में इसी आन्दोलन से प्रेरित हो ''अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति'' का गठन किया गया, जिसने डाक्टर नरेन्द्र दाभोलकर के नेतृत्व में जनजागरण का प्रभावी अभियान चलाया। कुछ लोग अंधश्रद्धा व अंधविश्वासों के खिलाफ उनके आन्दोलन से परेशानी का अनुभव कर रहे थे और इसलिये उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियाँ मिलीं, जिनमें से कम से कम एक में कहा गया था कि उनका अन्त वैसा ही होगा, जैसा कि गांधी का हुआ था। उनकी मृत्यु के बाद, 'सनातन प्रभात' नामक एक हिन्दुत्ववादी अखबार ने लिखा कि ''हर एक को वही मिलता है जिसके वह लायक होता है''। यह अखबार पहले भी डा. दाभोलकर के संबंध में विषवमन करता रहा है।

अंधश्रद्धा के पैरोकार स्वयं भी यह जानते थे कि उनके दावे खोखले हैं। उन्हें पता था कि उनका काला जादू तर्कवादी आन्दोलन के प्रणेता को नहीं मार सकेगा और इसलिये उन्होंने इस काम के लिये भाड़े के हत्यारों की सेवाएं लीं। दाभोलकर को हिन्दुत्व संगठन 'हिन्दू जनजागरण समिति' से नियमित रूप से धमकियां मिलती रहती थीं। समिति ने अपनी वेबसाईट पर यह दावा भी किया था कि उसने हिन्दुओं के खिलाफ षड़यंत्र का पर्दाफाश कर दिया है। अपने प्रकाशनों में यह संस्था खुलेआम दाभोलकर के बारे में अशिष्ट व अत्यंत कटु भाषा का प्रयोग करती थी। ऐसे ही एक लेख में कहा गया था कि 'दाभोलकर गिरोह' के सभी सदस्यों को हिन्दू धर्म के विरूद्ध काम करने के प्रायश्चित स्वरूप अपने चेहरों पर स्थाई तौर पर काला रंग पोत लेना चाहिए''।

दाभोलकर किसी धर्म या आस्था के विरूद्ध नहीं थे। वे तो केवल अंधभक्ति और अंधविश्वासों के विरोधी थे, जिन्हें बाबागण और उनके जैसे अन्य लोग प्रोत्साहन देते हैं। ये बाबा अपनी प्रतिगामी सोच और गतिविधियों का समाज में प्रचार-प्रसार करते हैं। इनमें 'करनी'और 'भानामती' नामक कर्मकाण्ड शामिल हैं, जिसमें परालौकिक शक्तियों के नाम पर जादू किया जाता है। इसी तरह, कुछ साधु-संत और मुल्ला-मौलवी भस्म देते हैं, ताबीज पहनाते हैं, जादुई अंगूठियाँ देते हैं और लोगों के शरीर और मन पर कब्जा कर चुके भूत को भगाने का दावा भी करते हैं। इस तरह के बाबा हर धर्म में होते हैं। उनका यह दावा होता है कि वे परालौकिक शक्तियों से लैस हैं और वे अपने इस दावे का भरपूर प्रचार भी करते हैं। कुछ स्वयं को किसी संत या भगवान का अवतार बताते हैं और इस तरह ईश्वर में श्रद्धा रखने वाले आम लोगों का शोषण करते हैं। इनमें से कई काला जादू करते हैं और उसके नाम पर समाज में आतंक फैलाते हैं। दाभोलकर जिस कानून को बनाने की मांग बरसों से कर रहे थे-और जिसे उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र सरकार ने बनाया-उसमें इस तरह की गतिविधियों को अपराध घोषित किया गया है। दाभोलकर इस तरह की अतार्किक प्रथाओं का विरोध करते थे और इस कारण उन पर हिन्दू-विरोधी होने का लेबल चस्पा कर दिया गया था। यहाँ यह बताना मौजूं होगा कि जब यह विधेयक पहली बार चर्चा के लिये विधानसभा में प्रस्तुत किया गया था तब भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने इसका कड़ा विरोध किया था।

हिन्दू धर्म की राजनीति करने वाले इन संगठनों के अतिरिक्त, अन्य पुरातनपंथी लोग भी उनके संगठन की गतिविधियों के खिलाफ थे। आस्था एक जटिल परिघटना है। निःसंदेह, समाज के एक तबके को उसकी जरूरत है। परालौकिक शक्ति में आस्था, किसी पैगम्बर में विश्वास या किसी धर्म अथवा ईश्वर के नाम पर बनाई गई किसी संस्था पर श्रद्धा, लोगों को असमानताओं और दुःख-तकलीफों से भरी इस क्रूर दुनिया में जीने की भावनात्मक शक्ति देती है। इस मानवीय आवश्यकता से लाभ उठाने के लिये कई धर्म-उद्यमियों ने श्रद्धा को अंधश्रद्धा में बदल दिया है। वे पाखण्डों और कर्मकाण्डों पर जोर देने लगे हैं और इन कर्मकाण्डों का इस्तेमाल, सहज-विश्वासी लोगों का शोषण करने के लिये करते हैं।

अंधश्रद्धा और तर्कवाद के बीच का संघर्ष लंबे समय से जारी है। तर्कवाद का अर्थ है, हर विश्वास पर प्रश्न उठाना, उसे सत्य की कसौटी पर कसना और अपने ज्ञान की परिधि में लगातार बढ़ोत्तरी करते रहना। आस्था, विशेषकर 'धार्मिक संस्थाओं' के आसपास बुनी गई आस्था, की शुरूआत होती है नियमों, विश्वासों और प्रथाओं को आंख मूंदकर स्वीकार करने से। हमें ऐसा बताया जाता है कि ये नियम, विश्वास और प्रथाएं ऐसी हैं, जिन पर प्रश्न उठाना ही मना है। उन्हें तो बिना किसी तर्क के स्वीकार करना होगा। बहुत से लोगों का व्यवसाय इसी तरह की प्रथाओं पर आधारित होता है और वे लगातार यह दावा करते रहते हैं कि वे ईश्वरीय शक्ति से लैस हैं। यह दिलचस्प है कि अधिकांश धर्म-संस्थापकों और पैगम्बरों ने उनके समय में प्रचलित मान्यताओं, आस्थाओं और प्रथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाए। और इस कारण उन्हें सत्ताधारियों के कोप का सामना भी करना पड़ा। मजे की बात यह है कि शनैः शनैः इन्हीं पैगम्बरों के आसपास पुरोहित वर्ग ने आस्था और परालौकिकता का जाल बुन दिया और उनके नाम पर अर्थहीन प्रथाएं स्थापित कर दीं। ये प्रथाएँ भी समय-समय पर बदलती रहीं हैं। इस सबका उद्देश्य यह था कि न केवल ज्ञान के क्षेत्र में यथास्थितिवाद बना रहे वरन् सामाजिक ढांचे में भी कोई बदलाव न आए। पुरोहित वर्ग-चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो-हमेंशा से सामाजिक यथास्थितिवाद का हामी रहा है और चाहता है कि लोग बिना कोई प्रश्न पूछे, बिना कोई शंका व्यक्त किए, धर्म की उसकी व्याख्या को स्वीकार करें और उसके बताये रास्ते पर चलें।

इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने तार्किक बातें कीं, उन्हें या तो अपनी जान गँवानी पड़ी या घोर कष्ट भुगतने पड़े। भारत में चार्वाक ने वेदों की परालौकिकता को चुनौती दी। उसे घोर निन्दा का सामना करना पड़ा और उसकी लिखी पुस्तकों को जला दिया गया। यूरोप मेंकॉपरनिकस और गैलिलियो का पुरोहित वर्ग ने क्या हाल बनाया, यह हम सब को ज्ञात है। ब्रूनो और सरवाटसनामक वैज्ञानिकों ने यह कहा कि रोग, दुनियावी कारणों से होते हैं न कि ईश्वरीय प्रकोप के कारण। यह कहने पर, पुरोहित वर्ग के इशारे पर, उन्हें जिंदा जला दिया गया। बात बहुत सीधी सी थी। अगर लोगों को यह समझ में आ जायेगा कि बीमारी बैक्टीरिया और वाइरस के कारण होती है, ईश्वर के कोप के कारण नहीं, तो वे स्वस्थ होने के लिये पुरोहितों के पास जाना बंद कर देंगे। स्वभाविकतः इससे पुरोहित वर्ग की आमदनी और सामाजिक हैसियत, दोनों कम होगी।

भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण, भू-सुधार और समाज पर पुरोहित वर्ग का शिकंजे ढीला करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। समाज पर पुरोहित वर्ग का दबदबा बना रहा। भारतीय संविधान, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात कहता है और नेहरू जैसे नेताओं ने आम लोगों में वैज्ञानिक समझ विकसित करने पर बहुत जोर दिया था। परन्तु धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली ताकतों को यह मंजूर न था। वे वैज्ञानिक, तार्किक सोच का लगातार विरोध करती रहीं और देश के प्राचीन इतिहास का महिमामंडन भी। अनिश्चितताओं और परेशानियों से घिरे आम लोगों को झूठे सपने दिखकर उनका शोषण करना पुरोहित वर्ग के लिये आसान था।

भारत में भी वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिये कई तार्किकतावादी आन्दोलन चले परन्तु समाज पर उनका कोई विशेष प्रभाव न पड़ सका। सन् 1980 के दशक में साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के साथ, अतार्किकता और अंधभक्ति की एक बड़ी लहर भारत पर छा गयी। बाबा और आचार्य कुकुरमुत्तों की तरह ऊग आये। उन्होंने अपनी धार्मिक संस्थाएं खोल लीं और इनसे जमकर पैसा कमाने लगे। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि किसी दिन, बाबाओं का बिजनेस मॉडल भी एमबीए के विद्यार्थियों को पढ़ाया जायेगा। कई बाबाओं ने अन्य प्रकार के शारीरिक आनन्द भी उठाये। आसाराम बापू अभी हाल में इसी तरह के एक मामले में फंसे हुये हैं। कई बाबा इस श्रेणी के शारीरिक सुख का आस्वादन पहले भी कर चुके हैं। इन बड़े बाबाओं के अलावा हमारे देश में सैंकड़ों ऐसे छोटे-मोटे बाबा और पीर-फकीर हैं जो हवा से राख और सोने के आभूषण पैदा करने जैसे जादू दिखाते रहते हैं और इसे वे ईश्वर से अपनी नजदीकी का सुबूत बताते हैं। दाभोलकर और उनके संगठन के सदस्य इसी तरह के फरेबियों का पर्दाफाश कर रहे थे।

अंधश्रद्धा के पैरोकारों और पंचसितारा बाबाओं को विभिन्न राजनैतिक दलों और उनके नेताओं का समर्थन और सहयोग हासिल रहता है। इनमें से कुछ बाबा तो आरएसएस के स्थाई स्तम्भ हैं। अन्य राजनैतिक दलों के सदस्य भी इन फरेबी बाबाओं के भक्त हैं। साम्प्रदायिक तत्व इन बाबाओं का साथ देते हैं क्योंकि उसमें उन्हें अपना फायदा नजर आता है।सनातन संस्था ने भी दाभोलकर को 'हिन्दू विरोधी' बताया था। इसी तरह का एक ठग बैनीहिम सार्वजनिक रूप से 'फेथ हीलिंग' कार्यक्रम आयोजित किया करता था जिनमें विकलांगों और रोगियों को बिना किसी दवा के चन्द मिनटों में ठीक करने का दावा किया जाता था।

दाभोलकर कई दशकों से अंधश्रद्धा निवारण कानून बनवाने के लिये संघर्षरत थे। परन्तु महाराष्ट्र सरकार ने उनके जीवन की बलि के बाद ही यह कानून बनाया। उन्होंने ऐसे आँकड़े इकट्ठे किये थे जिनसे यह जाहिर होता था कि काला जादू करने वालों की सबसे बड़ी शिकार महिलायें होती हैं। वे हीरा, मोती, मूंगा आदि जैसे रत्नों और उनके तथाकथित जादुई प्रभाव के विरोध में अभियान शुरू करने वाले थे। इससे बड़ी संख्या में लोगों के व्यापारिक हित प्रभावित होते। यह दुःख की बात है कि अब ऐसा नहीं हो सकेगा। क्या अन्य राज्य सरकारें भी इसी तर्ज पर ऐसे कानून बनायेंगी जिनसे अंधश्रद्धाकाला जादू, रत्नों आदि का समृद्ध व्यापार बंद हो सके या कम से कम उसके आकार में कमी आए? क्या प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन उन लोगों की सुध लेंगे जो इन घिनौनी प्रथाओं का शिकार बन रहे हैं और समाज को तार्किक विचार, तार्किक संस्कृति और तार्किक राजनीति की ओर ले जायेंगे? हमारे देश ने विज्ञान के क्षेत्र में जबरदस्त प्रगति की है परन्तु यह दुःख की बात है कि जहाँ हम उन उपकरणों का इस्तेमाल कर रहें हैं जो विज्ञान की देन हैं, वहीं हमारी मानसिकता में विज्ञान को स्थान नहीं मिला सका है। हम कम्प्यूटर तो इस्तेमाल करते हैं परन्तु दशहरे पर उसकी पूजा भी करते हैं और उस पर फूल भी चढ़ाते हैं। क्या दाभोलकर का बलिदान, हमारे नीति निर्माताओं को इस बात का एहसास करा सकेगा कि लाखों इंजीनियर और हजारों वैज्ञानिक व डाक्टर पैदा करने वाला हमारा देश आज भी अंधविश्वासों व अंधभक्ति की चक्की में पिस रहा है। हमें विज्ञान और तकनीकी से लाभ उठाने में कोई संकोच नहीं हैं परन्तु हम वैज्ञानिक सोच को अपनाना नहीं चाहते।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcom

Website counter

Census 2010

Followers

Blog Archive

Contributors