Saturday, August 30, 2014

पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं


पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं

पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं


स्याह दौर में कागज कारे

- सुभाष गाताडे

''अंधेरे वक्त़ में

क्या गीत होंगे ?

हां, गीत भी होंगे

अंधेरे वक्त़ के बारे में

-बर्तोल्त ब्रेख्त

1.

हरेक की जिन्दगी में ऐसे लमहे आते हैं जब हम वाकई अपने आप को दिग्भ्रम में पाते हैं, ऐसी स्थिति जिसका आप ने कभी तसव्वुर नहीं किया हो। ऐसी स्थिति जब आप के इर्द-गिर्द विकसित होने वाले हालात के बारे में आप के तमाम आकलन बेकार साबित हो चुके हों, और आप खामोश रहना चाहते हों, अपने इर्द गिर्द की चीजों के बारे में गहन मनन करना चाहते हों, अवकाश लेना चाहते हों, मगर मैं समझता हूं कि यहां एकत्रित लोगों के लिए – कार्यकर्ताओं, प्रतिबद्ध लेखकों – ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं है। जैसा कि अपनी एक छोटी कविता में फिलीपिनो कवि एवं इन्कलाबी जोस मारिया सिसोन लिखते हैं

'पेड़ खामोश होना चाहते हैं

मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं'

मैं जानता हूं कि इस वक्त़ हमारा 'मौन', हमारी 'चुप्पी' अंधेरे की ताकतों के सामने समर्पण के तौर पर प्रस्तुत की जाएगी, इन्सानियत के दुश्मनों के सामने हमारी बदहवासी के तौर पर पेश की जाएगी, और इसीलिए जबकि हम सभी के लिए चिन्तन मनन की जबरदस्त जरूरत है, हमें लगातार बात करते रहने की, आपस में सम्वाद जारी रखने की, आगे क्या किया जाए इसे लेकर कुछ फौरी निष्कर्ष निकालने की और उसे समविचारी लोगों के साथ साझा करते रहने की जरूरत है ताकि बहस मुबाहिसा जारी रहे और हम आगे की दूरगामी रणनीति तैयार कर सकें।

आज जब मैं आप के समक्ष खड़ा हूं तो अपने आप को इसी स्थिति में पा रहा हूं।

क्या यह उचित होगा कि हमें जो 'फौरी झटका' लगा है, उसके बारे में थोड़ा बातचीत करके हम अपनी यात्रा को उसी तरह से जारी रखें ?

या जरूरत इस बात की है कि हम जिस रास्ते पर चलते रहे हैं, उससे रैडिकल विच्छेद ले लें, क्योंकि उसी रास्ते ने हमारी ऐसी दुर्दशा की है, जब हम देख रहे हैं कि ऐसी ताकतें जो 'इसवी 2002 के गुजरात के सफल प्रयोग' को शेष मुल्क में पहुंचाने का दावा करती रही हैं, आज हुकूमत की बागडोर को सम्भाले हुए हैं।

अगर हम 1992  – जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ था – से शुरू करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि दो दशक से अधिक वक्त़ गुजर गया जबकि इस मुल्क के साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन को,धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक के बाद एक झटके खाने पड़े हैं। हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि बीच में ऐसे भी अन्तराल रहे हैं जब हम नफरत की सियासत करने वाली ताकतों को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर कर सके हैं, मगर आज जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो यही लगता है कि वह सब उन्हें महज थामे रखने वाला था, उनकी जड़ों पर हम आघात नहीं कर सके थे।

न इस अन्तराल में ''साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष को सर्व धर्म समभाव के विमर्श से आगे ले जाया जा सका और नही समाज एवं राजनीति के  साम्प्रदायिक और बहुसंख्यकवादी गढंत (कान्स्ट्रक्ट) को एजेण्डा पर लाया जा सका। उन्हीं दिनों एक विद्वान ने इस बात की सही भविष्यवाणी की थी कि जब तक भारतीय राजनीति की बहुसंख्यकवादी मध्य भूमि majoritarian middle ground – जिसे हम बहुसंख्यकवादी नज़रिये की लोकप्रियता, धार्मिकता की अत्यधिक अभिव्यक्ति, समूह की सीमारेखाओं को बनाए रखने पर जोर, खुल्लमखुल्ला साम्प्रदायिक घटनाओं को लेकर जागरूकता की कमी, अल्पसंख्यक हितों की कम स्वीकृति – में दर्शनीय बदलाव नहीं होता, तब तक नयी आक्रामकता के साथ साम्प्रदायिक ताकतों की वापसी की सम्भावना बनी रहेगी। आज हमारी स्थिति इसी भविष्यवाणी को सही साबित करती दिखती है।

और इस तरह हमारे खेमे में तमाम मेधावी, त्यागी, साहसी लोगों की मौजूदगी के बावजूद ; लोगों, समूहो, संगठनों द्वारा अपने आप को जोखिम में डाल कर किए गए काम के बावजूद और इस तथ्य के बावजूद कि राजनीतिक दायरे में अपने आप के धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली पार्टियों की तादाद अधिक है और यह भी कि इस देश में एक ताकतवर वाम आन्दोलन – भले ही वह अलग गुटों में बंटा हो – की उपस्थिति हमेशा रही है, यह हमें कूबूल करना पड़ेगा कि हम सभी की तमाम कोशिशों के बावजूद हम भारतीय राजनीति के केन्द्र में हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के आगमन को रोक नहीं सके।

और जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं स्थिति की गम्भीरता अधिकाधिक स्पष्ट हो रही है।

इस मौके पर हम अमेरिकन राजनीतिक विज्ञानी डोनाल्ड युजेन स्मिथ के अवलोकन को याद कर सकते हैं, जब उन्होंने लिखा था: '' भारत में भविष्य में हिन्दू राज्य की सम्भावना को पूरी तरह खारिज करना जल्दबाजी होगी। हालांकि, इसकी सम्भावना उतनी मजबूत नहीं जान पड़ती।  भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य के बने रहने की सम्भावना अधिक है।' (इंडिया एज सेक्युलर स्टेट, प्रिन्स्टन, 1963, पेज 501) इस वक्तव्य के पचास साल बाद आज भारत मेंधर्मनिरपेक्ष राज्य बहुत कमजोर बुनियाद पर खड़ा दिख रहा है और हिन्दु राज्य की सम्भावना 1963 की तुलना में अधिक बलवती दिख रही है।

2.

निस्सन्देह कहना पड़ेगा कि हमें शिकस्त खानी पड़ी है।

हम अपने आप को सांत्वना दे सकते हैं कि आबादी के महज 31 फीसदी लोगों ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया और वह जीते नहीं हैं बल्कि हम हारे हैं। हम यह कह कर भी दिल बहला सकते हैं कि इस मुल्क में जनतांत्रिक संस्थाओं की जड़ें गहरी हुई हैं और भले ही कोई हलाकू या चंगेज हुकूमत में आए, उसे अपनी हत्यारी नीतियों से तौबा करनी पड़ेगी।

लेकिन यह सब महज सांत्वना हैं। इन सभी का इस बात पर कोई असर नहीं पड़ेगा जिस तरह वह भारत को और उसकी जनता को अपने रंग में ढालना चाहते हैं।

हमें यह स्वीकारना ही होगा कि हम लोग जनता की नब्ज को पहचान नहीं सके और जाति, वर्ग, नस्लीयता आदि की सीमाओं को लांघते हुए लोगों ने उन्हें वोट दिया। निश्चित ही यह पहली दफा नहीं है कि लोगों ने अपने हितों के खिलाफ खुद वोट दिया हो।

यह हक़ीकत है कि लड़ाई की यह पारी हम हार चुके हैं और हमारे आगे बेहद फिसलन भरा और अधिक खतरनाक रास्ता दिख रहा है।

यह सही कहा जा रहा है कि जैसे-जैसे यह 'जादू' उतरेगा नए किस्म के पूंजी विरोधी प्रतिरोध संघर्ष उभरेगे और हरेक को इसमें अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी। मगर यह कल की बात है। आज हमें अपनी शिकस्त के फौरी और दूरगामी कारणों पर गौर करना होगा और हम फिर किस तरह आगे बढ़ सकें इसकी रणनीति बनानी होगी।

.……जारी

( Revised version of presentation at All India Consultative meeting of Progressive Organisations and Individuals, organised by Karnataka Kaumu Sauhardu Vedike [Karnatak Communal Harmony Forum] to discuss the post-poll situation and the way ahead, 16-17 th August 2014, Bengaluru)
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About The Author

Subhash gatade is a well known journalist, left-wing thinker and human rights activist. He has been writing for the popular media and a variety of journals and websites on issues of history and politics, human right violations and state repression, communalism and caste, violence against dalits and minorities, religious sectarianism and neo-liberalism, and a host of other issues that analyse and hold a mirror to South asian society in the past three decades. He is an important chronicler of our times, whose writings are as much a comment on the mainstream media in this region as on the issues he writes about. Subhash Gatade is very well known despite having been published very little in the mainstream media, and is highly respected by scholars and social activists. He writes in both English and Hindi, which makes his role as public intellectual very significant. He edits Sandhan, a Hindi journal, and is author of Pahad Se Uncha Admi, a book on Dasrath Majhi for children, and Nathuram Godse's Heirs: The Menace of Terrorism in India.

नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते (symbiotic relationship)

नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते (symbiotic relationship)

स्याह दौर में कागज कारे-2

- सुभाष गाताडे

भाजपा की अगुआई वाले गठजोड़ को मिली जीत के फौरी कारणों पर अधिक गौर करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और उस पर प्रतिक्रिया भी दी जा चुकी है। जैसा कि प्रस्तुत बैठक के निमंत्रण पत्रा में ही लिखा गया था कि 'भाजपा की इस अभूतपूर्व जीत के पीछे 'मीडिया तथा कार्पोरेट तबके एवं संघ की अहम भूमिका दिखती है और कांग्रेस के प्रति मतदाताओं की बढ़ती निराशा ने' इसे मुमकिन बनाया है। विश्लेषण को पूरा करने के लिए हम चाहें तो 'युवाओं और महिलाओं के समर्थन' और 'मोदी द्वारा आकांक्षाओं की राजनीति के इस्तेमाल' को भी रेखांकित कर सकते हैं। हम इस बात के भी गवाह हैं कि इन चुनावों ने कई मिथकों को ध्वस्त किया है।-

मुस्लिम वोट बैंक का मिथक बेपर्द हुआ है

यह समझदारी कि 2002 के जनसंहार की यादें लोगों के निर्णयों को प्रभावित करेंगीवह भी एक विभ्रम साबित हुआ है।

यह आकलन कि पार्टी और समाज के अन्दर नमो के नाम से ध्रुवीकरण होगावह भी गलत साबित हो चुका है।

मेरी समझ से यह अधिक बेहतर होगा कि हम हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के उभार के फौरी कारणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करने के बजाय – जिसे लेकर कोई असहमति नहीं दिखती – अधिक गहराई में जायें और इस बात की पड़ताल करें कि चुनाव नतीजे हमें क्या 'कहते' हैं। मसलन्

- भारत में विकसित हो रहे नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते के (symbiotic relationship)बारे में

- हमारे समाज के बारे में जहां मानवाधिकार उल्लंघनकर्ताओं को महिमामण्डित ही नहीं किया जाता बल्कि उनके हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपी तक जाती है

- भारतीय राज्य – बिल्कुल आधुनिक संस्था – का भारतीय समाज के साथ रिश्ता, जो अपने बीच से समय समय पर 'बर्बर ताकतों' को पैदा करता रहता है

दरअसल, अगर हम अधिक गहराई में जायें, ऐसे कई सवाल उठ सकते हैं, जो ऐसी बैठकों में आम तौर पर उठ नहीं पाते हैं। और आप यकीन मानिये यह सब किसी कथित अकादमिक रूचियों के सवाल नहीं हैं, व्यवहार में उनके परिणाम भी देखे जा सकते हैं। वैसे हिन्दुत्व दक्षिणपंथ का यह उभार जिसे साम्प्रदायिक फासीवाद या नवउदारवादी फासीवाद जैसी विभिन्न शब्दावलियों से सम्बोधित किया जा रहा है, उसके खतरे शुरू से ही स्पष्ट हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देखें:

- देश के विभिन्न भागों में साम्प्रदायिक तनावों को धीरे हवा देना

- नफरत भरे भाषणों की प्रचुरता

- साम्प्रदायिक हिंसा के अंजामकर्ताओं के प्रति नरम व्यवहार

- पाठयपुस्तकों के केसरियाकरण

- अल्पसंख्यकों का बढ़ता घेट्टोकरण

- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बढ़ती बंदिशें

- श्रमिकों के अधिकारों पर संगठित हमले

- पर्यावरण सुरक्षा कानूनों में ढिलाई

- भूमि अधिग्रहण कानूनों को कमजोर करने की दिशा में कदम

- दलितों-आदिवासियों की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को बेहतर बनाने की अनदेखी

जैसे-जैसे इस मसले पर बहस आगे बढ़ेगी हम इन खतरों के फौरी और दूरगामी प्रभावों से अधिक अवगत होते रहेंगे। शायद जैसा कि इस दौर को सम्बोधित किया जा रहा है – फिर चाहे साम्प्रदायिक फासीवाद हो या कार्पोरेट फासीवाद हो – इस दौरान दोनों कदमों पर चलने की रणनीति अख्तियार की जाती रहेगी। 'विकास' के आवरण में लिपटा बढ़ता नवउदारवादी आक्रमण के हमकदम के तौर पर (जब जब जरूरत पड़े) तो साम्प्रदायिक एजेण्डा का सहारा लिया जाएगा ताकि मेहनतकश अवाम के विभिन्न तबकों में दरारों को और चैड़ा किया जा सके, ताकि वंचना एवं गरीबीकरण के व्यापक मुद्दे कभी जनता के सरोकार के केन्द्र में न आ सकें।

यह एक विचित्र संयोग है कि जब हम यहां हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के उभार की बात कर रहे हैं, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में स्थितियां उसी तर्ज पर दिखती हैं जहां विशिष्ट धर्म या एथनिसिटी से जुड़ी बहुसंख्यकवादी ताकतें उछाल मारती दिखती हैं। चाहे माइनामार हो, बांगलादेश हो, श्रीलंका हो, मालदीव हो या पाकिस्तान हो – आप नाम लेते हैं और देखते हैं कि किस तरह लोकतंत्रवादी ताकतें हाशिये पर ढकेली जा रही हैं और बहुसंख्यकवादी आवाज़ें नयी आवाज़ एवम् ताकत हासिल करती दिख रही हैं।

वैसे बहुत कम लोगों ने कभी इस बात की कल्पना की होगी कि अपने आप को बुद्ध का अनुयायी कहलानेवाले लोग बर्मा/माइनामार में अल्पसंख्यक समुदायों पर भयानक अत्याचारों को अंजाम देनेवालों में रूपान्तरित होते दिखेंगे। अभी पिछले ही साल ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार 'गार्डियन' एवं अमेरिकी अख़बार 'न्यूयार्क टाईम्स' ने बर्मा के भिक्खु विराथू – जिसे बर्मा का बिन लादेन कहा जा रहा है – पर स्टोरी की थी, जो अपने 2,500 भिक्खु अनुयायियों के साथ उस मुल्क में आज की तारीख में आतंक का पर्याय बन चुका है, जो अपने प्रवचनों के जरिए बौद्ध अतिवादियों को मुसलमानों पर हमले करने के लिए उकसाता है। बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति इन दिनों अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चिन्ता का विषय बनी हुई है। वहां सेना ने भी बहुसंख्यकवादी बौद्धों की कार्रवाइयों को अप्रत्यक्ष समर्थन जारी रखा है। विडम्बना यह भी देखी जा सकती है कि शेष दुनिया में लोकतंत्र आन्दोलन की मुखर आवाज़ कही जानेवाली आंग सान सू की भी माइनामार में नज़र आ रहे बहुसंख्यकवादी उभार पर रणनीतिक चुप्पी साधे हुए हैं।

उधर श्रीलंका में बौद्ध अतिवादियों की उसी किस्म की हरकतें दिख रही हैं। दो माह पहले बौद्ध भिक्खुओं द्वारा स्थापित बोण्डु बाला सेना की अगुआई में – जिसके गठन को राजपक्षे सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है – कुछ शहरों में मुसलमानों पर हमले किए गए थे और उन्हें जानमाल एवं सम्पत्ति का नुकसान उठाना पड़ा था। तमिल उग्रवाद के दमन के बाद सिंहली उग्रवादी ताकतें – जिनमें बौद्ध भिक्खु भी पर्याप्त संख्या में दिखते हैं – अब 'नये दुश्मनों' की तलाश में निकल पड़ी हैं। अगर मुसलमान वहां निशाने पर अव्वल नम्बर पर हैं तो ईसाई एवं हिन्दू बहुत पीछे नहीं हैं। महज दो साल पहले डम्बुल्ला नामक स्थान पर सिंहली अतिवादियों ने बौद्ध भिक्खुओं की अगुआई में वहां लम्बे समय से कायम मस्जिदों, मंदिरों और गिरजाघरों पर हमले किए थे और यह दावा किया था कि यह स्थान बौद्धों के लिए 'बहुत पवित्रा' हैं, जहां किसी गैर को इबादत की इजाजत नहीं दी जा सकती। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था कि इन प्रार्थनास्थलों के निर्माण के लिए बाकायदा सरकारी अनुमति हासिल की गयी है। यहां पर भी पुलिस और सुरक्षा बलों की भूमिका दर्शक के तौर पर ही दिखती है।

या आप बांगलादेश जाएंया हमारे अन्य पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जाएंवहां आप देखेंगे कि इस्लामिस्ट ताकतें किस तरह 'अन्योंकी जिन्दगी में तबाही मचाये हुए हैं। यह सही है कि सेक्युलर आन्दोलन की मजबूत परम्परा के चलते, बांगलादेश में परिस्थिति नियंत्रण में है मगर पाकिस्तान तो अन्तःस्फोट का शिकार होते दिख रहा है, जहां विभिन्न किस्म के अतिवादी समूहों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ किए जा रहे अत्याचारों की ख़बरें आती रहती हैं, कभी अहमदिया निशाने पर होते हैं, तो कभी शिया तो कभी हिन्दू।

इस परिदृश्य में रेखांकित करनेवाली बात यह है कि जैसे आप राष्ट्र की सीमाओं को पार करते हैं उत्पीड़क समुदाय का स्वरूप बदलता है। मायनामार अर्थात बर्मा में अगर बौद्ध उत्पीड़क समुदाय की भूमिका में दिखते हैं और मुस्लिम निशाने पर दिखते हैं तो बांगलादेश पहुंचने पर चित्र पलट जाता है और वही बात हम इस पूरे क्षेत्र में देखते हैं। यह बात विचलित करने वाली है कि इस विस्फोटक परिस्थिति में एक किस्म का अतिवाद दूसरे रंग के अतिवाद पर फलता-फूलता है। मायनामार के बौद्ध अतिवादी बांगलादेश के इस्लामिस्ट को ताकत प्रदान करते हैं और वे आगे यहां हिन्दुत्व की ताकतों को मजबूती देते हैं। अगर 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस समूचे इलाके में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों ने एक दूसरे को मदद पहुंचायी थी, तो 21 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हम बहुसंख्यकवादी आन्दोलनों का विस्फोट देख रहे हैं जिसने जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रयोगों की उपलब्धियों को हाशिये पर ला खड़ा किया है।

…….जारी

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पेड़ खामोश होना चाहते हैं मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं

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( Revised version of presentation at All India Consultative meeting of Progressive Organisations and Individuals, organised by Karnataka Kaumu Sauhardu Vedike [Karnatak Communal Harmony Forum] to discuss the post-poll situation and the way ahead, 16-17 th August 2014, Bengaluru)
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