Sunday, November 8, 2015

बस बन्द करें स्तुतियाँ और भर्त्सनाएँ . आगे मुँह खोलने से पहले शेखर पाठक का यह पत्र पढ़ लें.

बस बन्द करें स्तुतियाँ और भर्त्सनाएँ . आगे मुँह खोलने से पहले शेखर पाठक का यह पत्र पढ़ लें.

प्रेषक :

शेखर पाठक
पहाड़, 'परिक्रमा', तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल-263002

स्पीडपोस्ट 5 नवम्बर 2015

सेवा में,
श्रीमान प्रणव मुखर्जी
भारत के राष्ट्रपति
राष्ट्रपति भवन
नई दिल्ली-110001

महोदय,
मैं हिमालय क्षेत्र के उत्तराखण्ड प्रान्त का वासी हूँ और कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल में शिक्षक रहा। मैंने कुछ काम हिमालयी इतिहास, सामाजिक आन्दोलन, स्वतंत्रता संग्राम और भौगोलिक अन्वेषण के इतिहास पर किया और अभी भी इसमें जुटा हूँ। हिमालयी समाज, संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर केन्द्रित प्रकाशन पहाड़ को मैं अपने साथियों के साथ संपादित करता रहा हूं। भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण के कार्य से भी मैं जुड़ा रहा।मेरा किसी राजनैतिक पार्टी से सम्बन्ध नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा समता मैं मेरा अगाध विश्वास है। मैं जनान्दोलनों का समर्थक और हिस्सेदार रहा हूँ।
2007 में मुझे शिक्षा तथा साहित्य के लिए पद्मश्री सम्मान दिया गया था, जिसे मैंने तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. ए.पी.जे. अबुल कलाम साहब के हाथों प्राप्त किया था। मैं इसे राष्ट्र द्वारा दिया गया बहुत बड़ा सम्मान मानता हूं। अब मैं अत्यन्त रंज के साथ इस सम्मान को लौटा रहा हूँ। क्योंकि मेरे पास प्रतिकार का कोई और अस्त्र नहीं है। निम्न चार कारण इसके पीछे हैं-
1. देश में जिस तरह असहिष्णुता और नफरत का माहौल बनाया जा रहा है, स्वतंत्रचेता विचारकों की हत्या की जा रही है और हमारी 'भारतीय पहचान' के बदले धार्मिक और साम्प्रदायिक पहचान को सामने लाया जा रहा है, वह किसी भी आम भारतवासी की तरह मुझे अस्वीकार्य है। इतने विविधता भरे, सदियों में विकसित विभिन्न विचारों, दर्शनों, प्रतिरोधों और सृजनशीलताओं वाले मेरे देश में, जो सामन्ती व्यवस्था, औपनिवेशिक शासन, विभाजन और तमाम जातीय और साम्प्रदायिक दंगों के दंश सह कर भी अपनी जगह खड़ा था और धीमे ही सही आगे बढ़ रहा था,एकाएक इतनी अधिक असहिष्णुता पैदा कर दी जायेगी और विचारों की अभिव्यक्ति को रोकने की कोशिश होगी या विचारकों और साहित्यकारों की हत्या का विरोध कर रहे साहित्यकारों, फिल्मकारों, वैज्ञानिकों और इतिहासकारों का उपहास किया जायेगा, यह सोचा भी न था।
चाहे एम.एम. कलबुर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर या गोविन्द पानसरे की हत्या हो; मेरठ, दादरी या अन्यत्र के काण्ड हो, सुधीन्द्र कुलकर्णी पर स्याही फेंकना हो या उस्ताद गुलाम अली को मुम्बई में प्रस्तुति करने से रोकना हो ये सब फासीवादी पद्धतियाँ हैं, जिनके साथ अपने अलावा किसी भी और आवाज को न सुनने का अपराध जुड़ा है। मैं इन शर्मनाक घटनाओं पर अपना रोष प्रकट करता हूँ।
2. डाॅ. एम.एम. कलबुर्गी (तथा अन्य स्वतंत्रचेता विद्वानों) की खुलेआम हत्या की तो सर्वत्र निन्दा होनी चाहिए थी। डा. कलबुर्गी शरण साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान तथा कन्नड़ भाषा के उन्नायक भी थे। साहित्य अकादमी का इससे कतराना शर्मनाक था। यों तो किसी भी निरीह की हत्या का विरोध होना चाहिए पर साहित्य अकादमी अपने ही साहित्यकार की हत्या पर मूक हो जाय, यह कोई सोच भी नहीं सकता। साहित्यकारों द्वारा जब इसके विरोध में वक्तव्य दिये गये या साहित्य अकादमी के द्वारा दिये गये सम्मान लौटाये गये तो जिम्मेदार लोगों द्वारा उनका मजाक उड़ाया गया और स्वतंत्रचेता व्यक्तित्वों पर शक किया गया। यह अत्यन्त अपमानजनक है।
मैं इन तमाम साहित्यकारों, इतिहासकारों, फिल्मकारों और वैज्ञानिकों का सम्मान करता हूँ। कई मामलों में मैं उनसे असहमत भी हो सकता हूँ (यह भी मैंने उनसे सीखा है) पर मुझे उन पर नाज है। अपने देश को जानने में उनकी कृतियां और कार्य मददगार रहे हैं। इन प्रतिभाओं का मजाक उड़ाना प्रकारान्तर में इस देश की सृजनशीलता और विविधता का मजाक उड़ाने जैसा है। मैं इसका विरोध करता हूँ।
3. हमारी संस्थाओं का पतन तो पहले ही शुरू हो गया था (दिल्ली विश्वविद्यालय तो आपकी आँखों के सामने नीचे आया है) पर आज उसे और भी नीचे ले जाया जा रहा है। जिस तरह भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय, भारतीय तकनिकी संस्थानों, राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद, राष्ट्रीय फिल्म टेलीविजन संस्थान और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान आदि संस्थानों की स्वायत्तता को ताक पर रखा गया है, स्वतंत्रचेता व्यक्तियों पर तरह-तरह के दबाव डाले गये हैं और कतिपय संस्थाओं में दोयम दर्जे के लोगों को लाया गया है, वह आपत्तिजनक है। यह संस्थाओं की स्वायत्तता पर हस्तक्षेप तथा देश की प्रतिभाओं का अनादर है। यह देश के समग्र विकास के रास्ते का रोड़ा भी है। सत्ता के समीप रहने वाले या सत्ता के आनुषांगिक संगठनों के व्यक्ति पहले भी लाभ पाते रहे थे पर अब यह क्रम बढ़ गया है। देश की स्वतंत्रचेता प्रतिभाओं को नकारा जा रहा है। मैं इस का भी विरोध करता हूँ
4. 1990 के बाद इस देश को जिस तरह खगोलीकरण, निजीकरण और कारपोरेटीकरण का शिकार होना पड़ा है उससे कोई भी अपरिचित और अप्रभावित नहीं है। आम जनता/समुदायों की जमीन, जंगल, जल संसाधन और वन्यता को जिस तरह लूटा जा रहा है और इस सबसे बड़े गणतंत्र की चुनी हुई सरकारों द्वारा जिस तरह कारपोरेट शक्तियों के सामने आत्मसमर्पण किया गया और किया जा रहा है उससे संसाधन तो नष्ट हो ही रहे हैं, लोग विस्थापित हो रहे हैं, गरीब-अमीर की खाई बढ़ रही है। कुछ लोग अत्यन्त समृद्ध और शक्तिशाली होते जा रहे हैं और सर्वजनहित नकारा जा रहा है। वनवासियों, जनजातियों, पर्वतवासियों, मछुआरों, किसानों हरेक का जीवन कठिन होता जा रहा है। जैसे विक्रय और मुनाफे के अलावा मनुष्य या राष्ट्र के जीवन में कोई और लक्ष्य ही न हो।
मैं हिमालय का अदना सा बेटा हूँ। जिस तरह से यहाँ के संसाधनों की लूट बढ़ी है, वह मुझे बेचैन करती है। एक अत्यन्त युवा और अभी भी बन रहे हिमालय पर्वत में अवैज्ञानिक खनन करना, नदियों के प्रवाह को बाधित करना, बिना वांछित जाँच-पड़ताल के बड़े-बड़े बाँध बनाना, जंगल और खेती की जमीन को गैर वन्य या गैर खेती के कामों में इस्तेमाल करना; वन्य जीवों का विनाश तथा जंगलों का कटान करना तथा सार्वजनिक भूमि को (पनघट, गोचर आदि) बड़े व्यापारिक घरानों और संस्थाओं को सौपना स्थानीय समुदायों तथा यहां की पारिस्थितिकी के विरुद्ध है। हिमालय की भूकंपीयता, अनेक क्षेत्रों के 'सैस्मिक गैप ऐरिया' (जहाँ पिछली एक सदी से कम या ज्यादा अवधि में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है और जहाँ निकट भविष्य में भूकंप अवश्यम्भावी है) में होने को भुलाया जा रहा है। 
2013 की पश्चिमी नेपाल, उत्तराखण्ड और पूर्वी हिमाचल की आपदा से सीखने से भी इन्कार किया जा रहा है। जिन-जिन कारणों से यह महाआपदा आई, उन्हें ही फिर अपनाया जा रहा है। गंगा जैसी पावन नदी (यह ध्यान रहे कि उत्तराखण्ड और हिमाचल का छोटा-सा हिस्सा ही गंगा का भारतीय हिमालयी जलागम है) के साथ राजनीति की जा रही है। उत्तराखण्ड में बड़े बांधों के बाबत भारतीय वन्य जीव संस्थान, आईआईटी कनसोर्टियम तथा रवि चोपड़ा कमेटी (ये तीनों कमेटियां सरकार द्वारा बनाई गई थीं) द्वारा दिये गये सुझावों को ताक पर रख कर वैज्ञानिक अध्ययनों और प्रमाणों की अवहेलना की जा रही है। इसी तरह उत्तराखण्ड प्रान्त की निर्विवाद राजधानी गैरसैण में स्थापित करने में आम जनता से जो छल किया जा रहा है, वह भी मेरी पीड़ा का कारण है।
बहुमत के साथ आई केन्द्र तथा प्रान्त की नई सरकारें अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से हिमालय की लूट के मामले में और आगे जा रही है। मैं भारतीय हिमालय के महत्वपूर्ण क्षेत्र उत्तराखण्ड की उपेक्षा का भी विरोध करता हूँ।
आपको कष्ट देने के लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
हिमालय से समस्त शुभकामनाओं के साथ,
विनीत 
शेखर पाठक



--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcom

Website counter

Census 2010

Followers

Blog Archive

Contributors