Tuesday, January 5, 2016

Uday Prakash (हा ... हा ...हा ...! लेकिन क्या ऐसा हो सकेगा ? शायद नहीं . फिर भी ऐसा सोचने में क्या जाता है ? है ना ? अब 'सिस्टम' को सुधारने की बात सोचने का हक तो हर नागरिक को तो होता ही है.)

Uday Prakash


यह मान लेने में शायद कोई हर्ज़ नहीं है कि नेहरू परिवार या 'नेहरू डाइनेस्टी' के किसी सदस्य ने अभी तक अपनी ओर से प्रधानमंत्री बनने में कोई साफ़ दिलचस्पी नहीं दिखाई है. ऐसी कोई आधिकारिक घोषणा भी कांग्रेस पार्टी की ओर से अभी तक नहीं हुई है. 
यह मान लेने में भी कोई हर्ज़ नहीं है कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी में से यदि कोई ऐसा इरादा करे तो फ़िलहाल, २०१४ के चुनाव परिणाम सामने आने तक इसमें कोई अड़चन नहीं है. अगर अतीत में तेरह दिन या चालीस दिन वाले भी प्रधानमंत्री हो सकते हैं, तो अभी पांच महीने का सत्ता-सुख कम आकर्षक नहीं है. सोनिया गांधी अगर चाहतीं तो नौ साल पहले ही प्रधानमंत्री बन चुकी होतीं. या अगर राहुल गांधी चाहते तो 'पप्पू' होने का खिताब हासिल करने के बावज़ूद, पांच साल पहले यह कुर्सी पा सकते थे. अभी भी पा सकते हैं.
मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति तो नहीं हूं, लेकिन ऐसी कोई उदग्र आकांक्षा फ़िलहाल मुझे नेहरू-गांधी परिवार की ओर से दिखाई नहीं देती. अभी तक सिर्फ़ बीजेपी ने ही नरेंद्र मोदी को अपना पी.एम. का उमीदवार घोषित किया है और अपनी समूची ताकत इसमें झोंक दी है. यह भी याद आता है कि 'ज़ीरो' से राजनीति शुरू करने वाले राजीव गांधी को भी परिस्थितियों ने ही प्रधानमंत्री बनाया था और अपनी मां, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजे 'सहानुभूति की लहर' पर सवारी कर के वे सत्ता में आये थे. अपनी पत्नी सोनिया गांधी की स्पष्ट अनिच्छा के बावज़ूद. लेकिन अपनी मां की तरह ही वे भी राजनीतिक हिंसा के शिकार हुए और अपनी जान गंवा बैठे.
मनमोहन सिंह के रिटायर होने की घोषणा के बाद शायद अब भी इस परिवार के भीतर इस पद पर अपने किसी सदस्य का दावा पेश करने के बारे में असमंजस होगा. भले ही दस जनपथ या चौबीस अकबर रोड के उनके सभासद इसका मनुहार करें. भ्रष्टाचार, महंगाई, चौतरफ़ा असफलता और हाल के चुनावों में सफ़ाये की ओर बढ़ते जर्जर कांग्रेस के डूबते जहाज का कप्तान बनने का साहस नेहरू-गांधी परिवार में से शायद ही किसी को होगा. (बडेरा के बारे में कुछ कह नहीं सकते.)
राहुल गांधी के इरादे कांग्रेस और उसके साथ-साथ देश के हालात दुरुस्त करने के बारे में नेक हो सकते हैं लेकिन वे आम जनता के लिए स्वीकार्य नहीं हैं. उनमें वह लोकप्रिय करिश्माती अपील नहीं है, जो किसी ज़माने में उनकी दादी इंदिरा गांधी में होती थी. अपनी टूटी-फूटी हिंदी किसी कदर बोल पाने में सफल हो पाने वाली उनकी मां सोनिया गांधी में भी एक कोई पाप्युलर करिश्मा था, जिसके बलबूते उन्होंने दो बार कांग्रेस के विरोधियों को पराजित किया. अब वे भी बीमार हो चुकी हैं. आज की तारीख़ में कांग्रेस के भीतर कोई ऐसा नहीं है, जिसे २०१४ के चुनावों में प्रधानमंत्री के पद के लिए उतारा जा सके.
ऐसे में एक सबसे बड़ा विकल्प यही है कि सांप्रदायिकता के नये राजनीतिक उभार को थाम लेने के लिए कांग्रेस राजधानी दिल्ली के ही माडल को अखिल-भारतीय माडल के बतौर स्वीकार करे.
यानी दिल्ली के मुख्यमंत्री को ही भारत का अगला प्रधानमंत्री मान कर २०१४ का चुनाव लड़े. ऐसे में यह 'पहले' और 'तीसरे' मोर्चे की अपूर्व एकता होगी.
और 'दूसरा मोर्चा' यानी एन.डी.ए. दिल्ली की तरह ही मुंह की खायेगा.

(हा ... हा ...हा ...! लेकिन क्या ऐसा हो सकेगा ? शायद नहीं . फिर भी ऐसा सोचने में क्या जाता है ? है ना ? अब 'सिस्टम' को सुधारने की बात सोचने का हक तो हर नागरिक को तो होता ही है.)

Uday Prakash's photo.

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcom

Website counter

Census 2010

Followers

Blog Archive

Contributors