Monday, 25 June 2012 11:05 |
कुमार प्रशांत यूरोपीय संघ में आने के साथ ही यह जो बड़ा धनाक्रमण यूनान पर हुआ उससे सरकारी कर्ज नहीं पाटा गया, सरकारी खर्च पर लगाम लगाने की कोशिश नहीं की गई। एक धोखे की टट््टी खड़ी की गई! आंकड़ों में साबित किया गया कि यूनान का अर्थतंत्र अचानक ही बलवान हुआ जा रहा है, उसके ग्रोथ की दर इस कदर बढ़ रही है जैसी पहले कभी नहीं थी। जिसे इंफ्रास्ट्रक्चर कहते हैं उसका जाल सारे यूनान में बिछाया जाने लगा। नतीजा जल्दी ही सामने आने लगा। पूंजी तो आई लेकिन वह यूनान वालों की संपत्ति में नहीं बदली। महंगाई बढ़ने लगी, लोगों को काम मिलना मुश्किल होने लगा, बिना मेहनत और योजना के आया अनाप-शनाप धन सरकारी और सामाजिक तड़क-भड़क में बहाया जाने लगा। महंगी ब्याज-दर से आता कर्ज यूनान के गले की फांस बनने लगा। भूखे समाज में निवेश का पहला जादू टूटा तो यूनान धीरे-धीरे निवेशकों पर बोझ बनने लगा। जब ऐसा लगने लगा कि यहां निवेश का जितना फायदा उठाया जा सकता था उठा लिया गया, तो ब्रुसल्स, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन आदि सभी अपना-अपना पैसा समेटने लगे। यूनान की राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने में शक्ति होती तो वह इस बीच आए अपार निवेश का अपनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करता और जब निवेश वापस खींचने की घड़ी आई तो अपने संरक्षित कोष से उस स्थिति का मुकाबला करता। लेकिन ऐसा तभी संभव था जब यूरोपीय संघ बनाने और यूरो की एक ही मुद्रा स्वीकार करने के पीछे के सारे सोच और रणनीति में यूनान और यूनान जैसे ही दूसरे देशों की भी भागीदारी होती। ऐसा तो कुछ हुआ ही नहीं! यूनान के समाज को निचोड़ कर जब यूरोपीय संघ के आका वहां से चलने लगे तो उसकी स्थिति वैसी हुई जैसी कभी लातिन अमेरिकी या अफ्रीकी देशों की हुई थी जब वहां से डॉलर समेटा जाने लगा था। चीन और भारत, जो विभिन्न कारणों से पूंजी के पहले दावानल से झुलसे भर थे, जले नहीं थे, इस बार सीधी मार के सामने खड़े हैं। जिसे ग्रोथ कहा जा रहा है और जिसे इस संकट से निकलने का रामबाण बताया जा रहा है दरअसल वह मरीचिका है। चीनी और भारतीय अर्थतंत्र में आप कैसे ग्रोथ की तलाश करेंगे जिसे वहां का समाज पचा नहीं सके? क्या वैसा कोई अभिक्रम आप शुरू कर सकते हैं और उसे सफल भी बना सकते हैं? तानाशाही आदेश से चलने वाला चीनी तंत्र भी अब समझ चुका है कि बांध, बिजली, नहर, कारखाने, भवन, सड़कें, हवाई अड््डे आदि का निर्माण अब आगे नहीं बढ़ाया जा सकता क्योंकि इनसे लोगों की भूख, गरीबी, जीने की प्राथमिक आवश्यकताओं का हल नहीं निकलता है। अपने अशिक्षित-असंगठित मजदूरों-कारीगरों को निचोड़-निचोड़ कर, दुनिया भर के बाजारों में अपना सस्ता माल भर देने की सीमा वहां आ ही जाती है जहां बाजार में ग्राहक नहीं आता क्योंकि उसकी जेब में पैसा नहीं होता! सरकार की कमाई को समाज की कमाई समझने की मूर्खता या ऐसा समझाने की चालाकी अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी है। जी-20 का उनका अर्थ क्या है यह तो वे ही जानें लेकिन आज के संकट की जड़ पहचानने वाले जानने लगे हैं कि जी-20 का मतलब है दुनिया के दिशाहीन बीस राष्ट्राध्यक्ष क्योंकि ये सभी डॉलर की, यूरो की युआन जैसी मुद्राएं बना या बदल रहे हैं, जबकि जरूरत है कि आप अपनी नीयत बदलें! नीयत लालच की हो या दूसरे की लूट की, पूंजी वह शैतान है जो मौका देख कर अपनी औलादों को ही खाने लगती है। इसलिए पूंजी का श्रम से बंधा होना जरूरी है और इस गठबंधन पर सामाजिक नियंत्रण भी। पूंजी का यह चरित्र न समझने के कारण साम्यवाद का भव्य प्रयोग विफल हुआ, माओ के चीन को पूंजी की अभ्यर्थना में घुटने टेकने पड़े, भारत को आर्थिक समता का जवाहरलाल का आधा-अधूरा दर्शन भी इतना भारी पड़ने लगा कि वह अब गलती से भी उसका नाम नहीं लेता है। पूंजीवाद के पुरोधा सारे मुल्क आज अपनी संपन्नता के सारे कंगूरे टूटते देख रहे हैं और अधिकाधिक नोट छापने से अधिक या अलग कुछ नहीं कर पा रहे हैं न सोच पा रहे हैं तो हमें समझना चाहिए कि संकट कितना गहरा है। यूनान की बदहाली यूरोपीय संघ की बुरी नीयत के कारण हुई है। जब तक सरकारों का एक मन नहीं होगा, पूंजी का एक होना कमजोरों को शेर के हवाले करने जैसा होगा। यही हुआ है। इसलिए यूनान से सारी दुनिया को माफी मांगनी चाहिए और दूसरा कोई यूनान न बने, इसकी व्यवस्था बनाने में जुटना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यूनान किसी देश का नाम नहीं होगा, एक बीमारी का नाम बन जाएगा. जो आज यहां फैली है तो कल वहां फैलेगी। |
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यूनान संकट के सबक
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