Wednesday, December 11, 2013

फिर भी भगवा स‌ुनामी स‌े बचेगा देश

फिर भी भगवा स‌ुनामी स‌े बचेगा देश

फिर भी भगवा स‌ुनामी स‌े बचेगा देश

पलाश विश्वास

हस्तक्षेप

पहले इस पर अवश्य गौर करें कि के सेंसेक्स के आज रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँचने के बीच 99 शेयरों ने अपने 52 सप्ताह का उच्च स्तर छुआ। एक्सिस बैंक, बायोकॉन, जेएसडब्ल्यू स्टील तथा लार्सन एंड टुब्रो अपने एक साल के उच्च स्तर पर पहुँच गये। हालाँकि, एक्सचेंज में 105 शेयर अपने एक साल के निचले स्तर पर आ गये। इनमें वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज तथा अमर रेमेडीज शामिल हैं। एमप्लस कंसल्टिंग के प्रबंध निदेशक प्रवीण निगम ने कहा,-

'बीजेपी की जीत के बाद सेंसेक्स ने चार माह का उच्च स्तर छूआ। तीन राज्यों में बीजेपी की जीत के बाद निवेशक भारतीय बाजार में आने वाले समय में स्थिरता आने की उम्मीद कर रहे हैं।'

बाजार, हिंदू राष्ट्र बनाने का मौका गँवाना नही चाहता और दिल्ली ने काँग्रेस और भाजपा दोनों के रथ के पहिये धँसा दिये। कोई मूर्ख ही होगा जो भाजपा और काँग्रेस दोनों का विरोध तो करता हो, लेकिन दिल्ली के जनादेश में निहित तात्पर्य पर किसी सम्वाद की जरूरत न समझता हो। यह मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था और कॉरपोरेट राजनीति के चोली दामन के सम्बन्धों के खुलासे का मौका है और जनविकल्प के लिये नये विकल्प तलाशने का भी मौका है।

निःसंदेह वह जन विकल्प फिलहाल आप नहीं है। लेकिन हमें अगर इस दुधारी वर्णवर्चस्वी जायनवादी कॉरपोरेट सत्ता यंत्र से भारतीय जन गण और लोकगणराज्य को, संविधान और लोकतंत्र को बचाने की चिंता है तो हर विकल्प की सम्भावना पर ईमानदारी से सिलसिलेवार सोचना ही होगा, ऐसे विकल्प पर जो कॉरपोरेट न हो फिर।

हम अपने आदरणीय मित्र चमनलाल जी से शत-प्रतिशत सहमत हैं कि आम आदमी की दिल्ली विजय पर जश्न मनाने का कोई औचित्य नहीं है। मेरे हिसाब से तो इस वधस्थल पर किसी भी तरह के उत्सव किसी भी बहाने अनुचित हैं। अभी अभी राजस्थान में हो रहे आदिवासी सम्मेलन के आयोजकों से हमारी लम्बी बातचीत हुयी है और हम उनसे सहमत है कि मुख्य मुद्दा जमीन का है। जमीन की लड़ाई की सर्वोच्च प्राथमिकता है। जाति व्यवस्था और कॉरपोरेट जायनवादी साम्राज्यवाद के निशाने पर है पूरा कृषि समाज, कृषि व्यवस्था, देहात और जनपद, मनुष्य और प्रकृति। जिन लोगों की इस बारे में दृष्टि साफ नहीं है, उनसे बदलाव की कोई उम्मीद भी बेमानी है। हम आदरणीय लेखक वीरेंद्र यादव जी से भी सहमत हैं कि विचारहीन राजनीति की कोई दिशा नहीं होती।

उसी तरह मानते हैं हम कि पिछले सात दशकों में विचारहीन दृष्टिहीन आजादी की लड़ाई और बदलाव के नाम पर हमने मसीहा पैदा करने के सिवाय कुछ नहीं किया और मलाईदार तबके की कोई भी एकता सम्भव नहीं है। है भी तो वह एकता लूट खसोट में हिस्सेदारी की एकता होगी। सारे विकल्प कॉरपोरेट है। पहला दूसरा तीसरा चौथा सारे विकल्प कॉरपोरेट। हम अन्यतर विकल्प की बात कर रहे हैं।

हम अब भी भारतीय यथार्थ के मुताबिक बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की प्रासंगिकता मानते हैं। लेकिन बाबासाहेब के आन्दोलन को क्षेत्र विशेष की पहले से मजबूत जातियों के वर्चस्व को और मजबूत करने की कवायद नहीं मानते। अंबेडकर आन्दोलन की मुख्य थीम जाति उन्मूलन है और अंबेडकरी आंदोलन के नाम पर अब तक ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर खास जातियों की सत्ता और व्यवस्था में हिस्सेदारी की लड़ाई ही लड़ते रहे हैं बहुजन। जाति व्यवस्था के बाहर के लोगों को, अस्पृश्य भूगोल को जोड़कर कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा करने की पहल अभी तक नहीं हुई है और न जमीन, संसाधनों और अवसरों के बँटवारा को आन्दोलन का मुद्दा बनाया जा रहा है।

हम सोशल मीडिया के बेहतरीन इस्तेमाल के सन्दर्भ में और खास कर सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी की दृष्टि से ही दिल्ली में आप की चमत्कृत कर देने वाली कामयाबी का मूल्याँकन कर रहे है और इससे सबक ले रहे हैं कि लोकतांत्रिक संस्थागत आंदोलन खड़ा करने के लिये, चमनलाल जी के शब्दों में बीमारी के इलाज के लिये राष्ट्रव्यापी सम्वाद में हम सोशल मीडिया के महाविस्फोट और हमारे विरुद्ध इस्तेमाल की जा रही उच्च तकनीक को अपने आन्दोलन का हथियार कैसे बनायें।

हम सामाजिक शक्तियों के एकीकरण की बात कर रहे हैं। मौकापरस्तों, दलालों और रंग बिरंगे दूल्हों के निहित स्वार्थों के एकीकरण की नहीं। यह निराशा नहीं है। यथार्थ से मुठभेड़ की कवायद है। जो लोग हमेशा विश्वासघात करने के लिये अभ्यस्त हैं, ऐसे लोगों को साथ लेकर चलने में हमें हमेशा अपनी पीठ पर छुरा घोंपे जाने का अहसास ही होगा। इसलिये उस आत्मघाती प्रक्रिया से अलगाव की बात कर रहे हैं हम। अंबेडकरी विचारधारा और आन्दोलन को विसर्जित करके हम वामपंथियों की तरह भारतीय यथार्थ को नजरअंदाज करने की भूल करके एक कदम भी बढ़ नहीं सकते।

हम छात्रों युवाओं के काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ गोलबंदी का स्वागत करते हैं। जिन्हें बहुजन आन्दोलन ने अब तक संबोधित ही नहीं किया है। मजदूर यूनियनें हमने वामपंथियों के हवाले कर दी हैं और वे अपने हितों के मुताबिक चलाते हुये जायनवादी कॉरपोरेट साम्राज्यवाद की सहयोगी बनकर खुद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में सिरे से गैर प्रासंगिक बना चुके हैं। राजनीति में जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह स्त्री का इस्तेमाल तो खूब होता है, लेकिन बहुजन राजनीति में अभी स्त्री विमर्शअनुपस्थित है। आदिवासी विमर्श अनुपस्थित है। नागरिक व मानवाधिकार के मामले में सन्नाटा है। पर्यावरण चेतना नहीं है। इतिहास का वस्तुपरक अध्ययन नहीं है। प्रकृति से कोई तादात्म्य है ही नहीं।

इसके विपरीत इस महाध्वंस समय को बहुजन चेतना के स्वयंभू रथी महारथी स्वर्ण युग बताते हुये नहीं अघा रहे हैं। जश्न तो वे मना रहे हैं अपनी बेमिसाल कामयाबी का और बहुजनों के सफाये के आर्थिक सुधारों का।

हम जानते हैं कि आम आदमी पार्टी, भूमि सुधार और जल जंगल जमीन नागरिकता और आजीविका के अधिकारों को मुद्दा नहीं बना रही है। हम जानते हैं कि खास तबकों को छोड़कर बाकी लोगों की उन्हें फिक्र नहीं है। हम जानते हैं कि कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के जायनवादी विध्वंस से उन्हें कोई तकलीफ नहीं है और न कृषि समाज, कृषि और समूची उत्पादन प्रणाली के बारे में उनकी कोई सोच है। वे इंफ्रा बम और परमाणु शक्तिधर राष्ट्र के जन गण के विरुद्ध युद्ध के खिलाफ भी कुछ कहने जा रहे हैं। न सामाजिक न्याय और समता का उनका कोई लक्ष्य है।

पर हम तो अरविंद केजरीवाल को गरिमामंडित नही कर रहे कॉरपोरेट और सोशल मीडिया की तरह। हम यह भी जानते हैं कि दिल्ली में या तो सरकार भाजपा की होगी या फिर नये चुनाव होंगे जिसके नतीजे बिहार को दुहरा सकता है और केजरीवाल का रामविलास हश्र हो सकता है। हालात भी दोबारा चुनाव के बन रहे हैं। कॉरपोरेट व्यवस्था इतनी बेताब है हिंदू राष्ट्र के लिये कि भाजपा की सरकार नहीं बनी तो चुनाव दोबारा होने की हालत में दिल्ली में फिर भगवा लहर पैदा होकर आप को ही गैरप्रासंगिक बना दें, तो हमें ताज्जुब भी नहीं होना चाहिए।

हालत तो यह है कि दिल्ली राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ता दिख रहा है। दोनों बड़ी पार्टियां भाजपा और आप कह रही हैं कि वो सरकार बनाने के लिये दावा पेश नहीं करेंगी क्योंकि उन्हें जनादेश नहीं मिला है। विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के एक दिन बाद दोनों पार्टियों ने सोमवार को गहन मंत्रणा की। 70 सदस्यीय विधानसभा में दिल्ली की जनता ने खंडित जनादेश दिया है।

    जहाँ 31 सीटें जीतकर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है, वहीं उसके सहयोगी दल अकाली दल (बादल) को एक सीट मिली है। इसके साथ ही वह 36 के बहुमत के आँकड़े के साथ चार सीट पीछे है। दूसरी तरफ आप ने 28 सीटें जीती हैं। उसके बाद काँग्रेस को 8 सीटें मिली हैं। जद (यू) को एक सीट मिली है जबकि मुंडका सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत हासिल की है।

हमारा विनम्र निवेदन बस इतना है कि आम आदमी पार्टी के झण्डे तले जो सामाजिक शक्तियाँ गोलबंद हुयीं और देशभर में शायद होने जा रही हैं, उन्हें हम सम्बोधित क्यों नहीं कर पा रहे हैं, इस पर विचार आवश्यक है।

मुश्किल है कि कॉरपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया में अनिवार्य प्रश्नों के लिये कोई स्पेस नहीं बचा है। हमारे हमपेशा ज्यादातर लोग हर कीमत काँग्रेस को पराजित करना चाहते हैं और जायनवादी हिदू राष्ट्र की अवधारणा का भी वे आलिंगन कर चुके हैं। बाकी जो लोग वामपंथी हैं उनकी प्रगति वाम राजनीति की तरह भारत के बहुजनों के मुद्दों पर किसी तरह के सम्वाद के विरुद्ध हैं।

इसीलिये हम फेसबुक जैसे माध्यमों के बेहतर इस्तेमाल करने पर जोर दे रहे हैं, जहाँ बेइन्तहा कनेक्टिविटी होने के बावजूद इस माध्यम की ताकत के बारे में मित्र सारे अनजान हैं। लाइक मारने और शेयर करने के अलावा इसे हम गम्भीर विमर्श का भी प्लेटफार्म बना सकते हैं ठीक उसी तरह जैसे धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता का यह सबसे बड़ा प्लेटफार्म बन गया है। हमारे लिये अपनी बातें, अपना पक्ष कहने लिखने के मौके करीब करीब हैं ही नहीं, ये मौके हमें बनाने होंगे।

फतवेबाजी की संस्कृति के बजाय हम अगर लोकतांत्रिक विमर्श के तहत जाति उन्मूलन के एजेण्डे को सर्वोच्च प्राथमिकता बना पाते हैं और सामाजिक शक्तियों का राष्ट्रव्यापी एकीकरणकर पाते हैं, तो शायद बदलाव के हालात बनें। लेकिन हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। इसके विपरीत वे लोग ऐसा कर रहे हैं, जिनका देश की निनानब्वे फीसद जनता के मृत्यु उपत्यका में मारे जाने के लिये युद्ध बंदी बन जाने की नियति से कोई लेना देना नहीं है।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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