Saturday, October 11, 2014

एक अधूरा संवादः मेरठ की भूली बिसरी यादें

एक अधूरा संवादः मेरठ की भूली बिसरी यादें

पलाश विश्वास

मेरठ की ऋचा अग्रवाल ने इस संवाद की शुरुआत की थी और उन्होंने ही इसे अधूरा छोड़ दिया।मेरठ में हम 1984 से 1990 तक रहे।कोलकाता आने के बाद एक बार गये मेरठ,फिर जाना नहीं हो सका।अब हमें यह नहीं मालूम कि मेरठ के मित्र कहां किस हाल में हैं।गलती से मेरठ पहुंच गये तो कहां ठहरना होगा,इसका अंदाजा भी नहीं है।



मेरठ, मुरादाबाद, बुलंदशहर,अलीगढ़ और मुजफ्परनगर इस देश के संपन्न किसानों के इलाके रहे  हैं।अब वे इलाके कितने संपन्न हैया नहीं हैं,इसका अंदाजा नहीं है।


मुजफ्परनगर तो अस्सी के दशक में सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला जिला रहा है,जो अब दंगों के लिए याद किया जाता रहा।


मेरठ 1857 की पहली क्रांति के लिए अब कम याद किया जाता है।


मेरठ में शायद अब चौधरी चरण सिंह नाम के देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री और शायद अब तक किसानों के सबसे बड़े नेता को भुला चुका होगा।


महेंद्रसिंह टिकैत नाम के खाप पंचायतों के नेता ने जो राजधानी दिल्ली का घेरा डाला था,उसकी यादें भी अब धूमिल होने लगी है।


जाट आरक्षण आंदोलन का केंद्र बना मेरठ गाजियाबाद भी अब हाशिये पर है।


कपड़ा और चीनी उद्योगों के लिए कभी मशहूर रहा पश्चिम उत्तरप्रदेश की संपन्नता के पीछे खेती का जितना योगदान रहा है,उससे कम कुटीर उद्योगो का योगदान नहीं है।


हापुड़ की मंडी के क्या हाल हैं बता नहीं सकते।चीनी मिलों की चर्चा तो बकाया भुगतान के सिलिसिले में होती है।


मेरठ के हथकरघे शायद अब शांत होगे।


कभी मुरादाबाद और नजीबाबाद के सर्राफ देश में अव्वल होते थे,अब मुरादाबाद की पहचान पीतल नगरी के बजायरामलीलामंडलियों के नगर बतौर या फिर प्रियंका गांधी के ससुराल के लिहाज से ज्यादा होती है।


फिरोजाबाद तक हुनर के अलग अलग उद्योग थे।हमें नहीं मालूम कि अब उन पीछे छूट गये शहरों और गांवों का क्या हाल है।


धर्मोन्माद का जलवा हमने सबसे पहले इसी मेरठ में देखा था।मेरठ में ही मलियाना और हाशिमपुरा से घिरे हुए थे हम।


हम देखते रह गये कि कैसे जनपदों की तबाही की इबारत लिखी जाती रही है और कैसे खुशहाल किसान दंगाई भीड़ में तब्दील कर दिये जाते हैं और कैसे कुटीर उद्योगों के खात्मे के साथ कापोरेट विकास की इमारते तामीर की जाती है।


पश्चिम उत्तरप्रदेश के इलाके हमारे लिए दंगाग्रस्त इंसानी बसेरे नहीं रहे कभी,वे तबाह होते हुए इस देश के संपन्न जनपद हैं।


मेरी यादों में अब भी उनजनपदों की खुशबू बाकी है।


पिछले दिनों अमर उजाला में हमारे साथी रहे हरिशंकर द्विवेदी की पत्नी से लिंकड इन पर बातों का जो सिलसिला चल पड़ा,वह निहायत निजी है और है भी नहीं।


हम उस वक्त की यादों को साझा कर रहे थे,जो दूसरों का वक्त भी रहा है।यादे तेजी से पिर दस्तक देने लगी थीं कि ऋचा यकबयक खामोश हो गयी।


आज इस अधूरे संवाद को हूबहू आप से साझा करके उस खामोशी को तोड़ने की कोशिश कर रहा हूं।


चाहताहूं कि ऋचा जोर से चिल्लाएं कि मैंने ऐसा करके गलत किया और शायद इसी तरह संवाद की बंद खिड़कियां खुले और अंधेरे बियावां से कुछ और आवाजें साथियों की बह निकले कि वह वक्त तो कुछ और ही था।


माननीय पलाश जी,

आप अपना फोन या मोबाइल नंबर भेज देते तो कूरियर पहुंचने में आसानी होती। पीडीएफ के लिये अपना ईमेल भेजियेगा।

शेष फिर


सादर


ऋचा


On 08/15/14 8:50 AM, Palash Biswas wrote:

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तसल्ली वास्ते चूंकि सविता घनघोर पाठक भी है और तुर्रम आलोचक भी और सात ही मेरठ से उसकी संवेदनाओं के तार भी जुड़े हैं,इसलिए हार्डकापी भेज दें तो बेहतर।

पिछले दिनों सविता कह रही थी कि मेरठजायें तो कौन पहचानेगा,लगता है कि यह पहेली अब सुलझ गयी होगी।

मेरा पता हैः

गोस्टोकानन,सोदपुर,कोलकाता-700110

सविता का फोन नंबर 858...है।बातें करेंगी तो मेरठ फिर जी उठेगा।मेरा सेल नंबर 9903717833 है।

मेरा ईमेलः

palashbiswaskl@gmail.com


ऋतुजी,मेरी व्यस्तताएं बेहद बढ़ गयी हैं।मुझे इन दिनों सोलह सत्रह घंटे लगातार लिखने की जरुरत पड़ती है।वैसे आप जानती हू होगी कि कोई मुझे छापता नहीं है।मैंने वैकल्पिक स्पेस बनाया है,जहां कुछ पाठक देश भर के हैं और वे अपनी सामाजिक सक्रियता से इस पाठ को जोड़ते हैं।बांग्लादेश में ही मेरे एक लाख से ज्यादा पाठक हैं तो बांग्ला में भी नियमित लिखना होता है।मेरा बेटा मेरी तरह किसी की गुलामी नहीं करेगा और वह हमारी पुश्तैनी मुहिम में है।हमने अब इंगलिश लेखन उसके जिम्मे किया है।

वक्त बहुत कम है।गुजर बसर करते हुए सक्रिय रहने की मोहलत साल डेढ़ साल तक की है और रिटायर करने के बाद फुटपाथ पर आ जाने की नौबत है।चूंकि बेटा भी कमा नहीं रहा है।इसलिए इसी अवधि में जो कुछ कर सकते हैं,कर रहे हैं।

चूंकि यह आप हैं,इसलिए इतना लंबा लिख रहा हूं।अभी मुझे बांग्ला में अपडेट लगाने हैं।

मुझे थोड़ा बहुत स्मृतिभ्रम भी होने लगा है।मेरठ से पिछले पच्चीस साल तक कोई दस्तक न होने के कारण हाथीदांत में सजे चेहरे भी धूमिल हो गये हैं।

माफ कीजियेगा,मैं भूल गया कि आपसे मेरी मुलाकातें हैं।अब आपके याद दिलाने के बाद तस्वीरें साफ होने लगी हैं।

मुझे याद आया कि सूर्यकात से ऋतु की शादी हुई थी।बाकी दो बहनों की काबिलियत का अहसास होने से मुझे बेहद खुशी हुई है।

आपके संघर्ष की कथा मुझे बहुत याद है।शान शौकत कभी जिंदगी का मकसद होता नहीं है,जो हम हैं,उसे हमेशा सही साबित करने की चुनौती है।

बाकी जिंदगी से कुछ मत मांगिये,बहुत चैन मिलेगा यकीनन।

सुजाता भी याद आ गयी है।

अब पासवर्ड के झमेले में मत डालिए।पीडीएफ भेज दीजियेगा।

तसल्ली वास्ते चूंकि सविता घनघोर पाठक भी है और तुर्रम आलोचक भी और सात ही मेरठ से उसकी संवेदनाओं के तार भी जुड़े हैं,इसलिए हार्डकापी भेज दें तो बेहतर।

पिछले दिनों सविता कह रही थी कि मेरठजायें तो कौन पहचानेगा,लगता है कि यह पहेली अब सुलझ गयी होगी।

मेरा पता हैः

गोस्टोकानन,सोदपुर,कोलकाता-700110



माननीय पलाश जी,

मैने आपको अनेकानेक बार जागरण में देखा व नमस्‍कार हुई है। मुलाकात भी। हरि जी तो आपको अच्‍छे से जानते-बूझते हैं। वह आपके वैचारिक स्‍तर पर किये जा रहे मिशनरी कार्यों से भी अवगत हैं।

मेरी एक बहिन ऋतु मेरठ में है और उनके पति सूर्यकांत इन दिनों हिंदुस्‍तान के संपादक हैं। उससे छोटी बहिन इंडिया टीवी में और सबसे छोटी हिंदुस्‍तान के फीचर सेक्‍शन में मुख्‍य उप संपादक है।

मजदूरी से गुजर वसर चल रही है। आपको याद होगा कि मेरे पापा ने सुजाता पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया था लेकिन वह उनकी बीमारी व देहावसान के बाद बंद हो गयी थी। हमने इस पत्रिका का पुनर्प्रकाशन शुरु किया है। आप पता भेजियेगा तो मैं प्रति भेजूंगी। वैसे पत्रिका मैगज्‍टर पर है। आप मुझे अपना ईमेल भेजिए तो मैं डिजीटल एडीशन को एक्‍सेस करने के लिये पासवर्ड भेज दूंगी।

सविता जी को मेरा नमस्‍कार कहियेगा। हांलाकि मेरी उनसे कभी मुलाकात नहीं हुई लेकिन मैं उन्‍हें मेरठ याद रखने के लिये नमन करती हूं। परिवार में सभी को यथायोग्‍य अभिवादन।


सादर

ऋचा

On 08/15/14 5:16 AM, Palash Biswas wrote:

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ऋचा जी.धन्यवाद।

हमारा तो मेरठ से संपर्क सूत्र ही टूट गया है।हालांकि हम मेरठ और मेरठ वालों कोखूब याद करते हैं।सविता ने जोर देकर कहा था कि यह कोई महिला ही होगी,जो सच निकला ।मुझे तो आप सबकी खूब याद है।आपसे निजी तौर पर मिला नहीं हूं जैसे मेरी पत्नी सविता भी नहीं मिली,लेकिन आप दोनों बहनों और आपके पिता को हम लोग खूब जानते रहे हैं।हरि शंकर तो अतुल और दयाशंकर से लेकर अतुल माहेश्वरी और राजुल की तरह हमारे आत्मीयजनों में रहे हैं।इस हिसाब से आप हमारे परिजनों में शामिल हैं।

हम देश के विभिन्न हिस्सों से जुड़ते टूटते रहे हैं,यह संजोग ही है।लेकिन मेरठ में पूरे छह साल बिता देने के बावजूद यह कचोटने वाली ही बात ही हुई कि जब कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी, मणिपुर से लेकर कच्छ के रण तक हमारे निरंतर संपर्क बने हुए हैं,हमारी कथाओं में जब मेरठ का बोलबाला है,तो मेरठ से हमें कोई आवाज क्यों नहीं आती।

आपकी इस एक पंक्ति ने हमें बहुत ताकत दी है।सविता तो अब हर बात को दुबारा जीने लगी हैं।

इसका आभार।

हरिशंकर और अमर उजाला जागरण के दूसरे लोगों से अरसे से संपर्क नहीं बन पाया।

वैसे मैं विशुद्ध पत्रकार भी नहीं हूं।

कृपया बाकी परिजनों की खबर ब्यौरे के साथ दें ताकि पुराने मेरठ को हम दोबारा जी सकें।

On 08/15/14 4:13 AM, Editor Sujata wrote:

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जी, मेरा नाम ऋचा है और मेरे पति हरि शंकर जोशी अमर उजाला में लंबे समय तक रहे हैं। वह वहां फीचर एडीटर थे। आप जब जागरण में थे तो वहां मंगल जी से लेकर ओपी सक्‍सेना तक से नाता था। मेरे पिता जी स्‍वर्गीय वेद अग्रवाल फ्रीलांसर थे और मैं भी तब कविता के अतिरिक्‍त विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में लिखती थी। शायद आपको अब याद आ गया होगा।


सादर

ऋचा जोशी


On 08/11/14 9:01 AM, Palash Biswas wrote:

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Thanks.

Let me know whether you belong to our old friend circle.My wife Sabita is very anxious to know this as we left Meerut way back in 1989.We did not expect post modern Meerut would ever remember us.We assume that some friend may be kind enough to write this for a forgotten person.


On 08/11/14 3:23 AM, Editor Sujata wrote:

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मेरठ आपको बहुत याद करता है पलाश जी।


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